भारतीय रातनीति में मोदी फैक्टर – 4
मोदी के आलोचकों ने उन गालियां से उनका स्वागत उनके केन्द्रीय मंच पर उपस्थिति की सूचना के साथ देना आरंभ कर दिया था – वह तानाशाह है, हत्यारा है, फासिस्ट है, हिटलर की तरह खतरनाक है, पर यह उच्चाटनपाठ करने वालों में किसी ने सोचा ही नहीं कि इसका उस मतदाता पर क्या असर पड़ रहा है जिस तक वह पहुंचना चाहता है फिर भी नहीं पहुंच पा रहा है। बहुत सारे शब्दों का मतलब आम लोग जानते नहीं। यदि बताया जाता कि तानाशाही, फासिज्म का मतलब यह है तो वे कहते, इसीलिए तो हम उनके साथ हैं।”
निष्क्रियता और दब्बूपन से ऊबा हुआ देश उस खतरनाक कगार पर पहुंच चुका था जिस पर खतरों से खेलना सबसे आकर्षक विकल्प बन जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण क्षण था और देश के लिए भी यह दुर्भाग्यपूर्ण होता यदि मोदी सचमुच वह होते या इन अपेक्षाओं पर सही सिद्ध होते । हमने कहा, देश ने पहली बार एक तानाशाह को चुना और चुनाव अभियान के दौरान बहुतों को उस शैली से अपना अन्देशा पुष्ट होता लगा होगा, परन्तु मोदी को एक बात बहुत अच्छी तरह मालूम थी कि तानाशाह अकेला होता है। अकेला होने के कारण अपनी छाया से भी डरता है । प्रबल दिखाई देते हुए भी वह बहुत कमजोर होता है और उसे आसानी से हटाया जा सकता है। वह उस नव निर्माण आन्दोलन के सबसे सक्रिय तरुणों में एक रहे हो सकते हैं जिन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और तानाशाही से मुक्ति का ऐसा अभियान चलाया था जिसका उससे पहले या बाद में कोई उदाहरण नहीं मिलता।
मूर्खो में नयी दृष्टि का ही अभाव नहीं होता, वे सही तरीके से पुराने की नकल तक नहीं कर पाते। हैदराबाद और जेएनयू के छात्रों की अराजकता को उन्होंने उसी तरह का आन्दोलन मान लिया जाे गुजरात में चला था। वे मोदी के हथियार से ही मोदी को मात देना चाहते थे और इस पागलपन में यह भूल गए थे कि बदतमीजी की स्वतन्त्रता को, अपनी हताशा में, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मानने वालों के जत्थे खड़े किए जा सकते हैं, पर जनसमर्थन नहीं मिल सकता और उसके बिना कोई आन्दोलन किसी भी नारे से आरंभ हो वह हुड़दंग से आगे नहीं बढ़ पाता।
गुजरात का आन्दोलन भ्रष्टाचार के खिलाफ और एक झटके में इंजीनियरी कालेजो की फीस और मेस चार्ज बढ़़ाने के विरोध में आरंभ हुआ था। मांग सही थी, असन्तोष अन्य कारणों से भी था, इसलिए पहले इसे वकीलों का समर्थन मिला, फिर गैर कांग्रेसी विधायको का जिन्होंने इसकेे समर्थन में त्यागपत्र दिए और फिर यह गुजरात के अवाम का आन्दोलन बना। चिमन भाई की सरकार के पूर्ण बहुमत में होते हुए भी इन्दिरा जी को उनकी सरकार हटा कर राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा।
उसके विपरीत, यहां, गददारी की आवाज को भी आजादी की मांग के रूप में पेश किया जा रहा था और अदालत का भी मानता है कि गददारी करने के बाद ही यह गददारी मानी जाएगी। गलत भाषा के लिए दूसरे प्रावधान हैं। परन्तु इसे सही मानने का प्रश्न ही न था। इसे धन से समर्थन मिल रहा था इसका प्रमाण यह कि अब यह नेता हवाई जहाज से चलने लगा था। जिन वकीलों ने गुजरात के आन्दोलन में बढ़ कर हिस्सा लिया था, उन्होंने ही कोर्ट में उसकी पेशी के दौरान उसकी पिटाई कर दी और बाद की तारीखों पर उसका चलना मुश्किल कर दिया। वकीलों के बीच अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के इस नवपरिभाषित रूप के कुछ भ्ाी समर्थक होते तो बीच बचाव के लिए ही पहुंच जाते। अलोकप्रियता के इस बूते पर कांग्रेस, भाकपा और माकपा गुजरात का सपना पाले मोदी सरकार को गिराने केे अभियान में सहयोग करने लगे थे। खुले मंच पर आ कर। अखबार भी साथ दे रहे थे। आखिर इन सबकी उपेक्षा करके मोदी ने मनकी बात के कार्यक्रम से दूसरे दलालों की तरह प्रचार के इन दलालों को भी रास्ते से बाहर कर दिया था। परन्तु अपने इस प्रकट रूप से इसे स्वतंत्रता का आन्दोलन बता कर , उसका साथ देते हुए, अपने दलों के लिए क्या अर्जित किया होगा या कितना गंवाया होगा, यह अनुमान आप पर छोड़ा जा सकता है। मोदी ने किसी को मारा नहीं, वे मोदी की उपस्थिति के साथ अपनी ही करनी से बेमौत मारे गए। पुरानी कहावत है, देवता जिसका नाश करना चाहते हैं उस पर प्रहार नहीं करते, उसकी मति ही फेर देते हैं। इस आदमी ने तो वह पाप भी नहीं किया, उनकी मति स्वयं फिर गई और फिरी रही।
मैं जिस चकित करने वाले दुर्भाग्य की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहता हूें वह यह कि हमने अपने बुद्धिजीवियों की परजीविता के कारण, उनके लगातार भजन के कारण जिसे फासिस्ट मान रखा था, या हो-न-हो के संशय में इतने दिन गुजारे गए थे, वह अकेला दल है जिसे लोकतांत्रिक कहा जा सकता है। जिसका चरित्र सर्वहितवादी रहा है। कांग्रेस और समाजवादी और समाजवादी से कुछ अधिक अर्थात् कम्युनिस्ट दलों, जाति-बिरादरी वादी, आंचल-वादी और अंचलवादी दलों में से किसी का व्यावहारिक चरित्र न तो समग्र समाज को ले कर चला, न किसी ने संविधान का उल्लंघन करने से अपने को रोका, न देश के नियमों का पालन किया न लोकतांत्रिक मर्यादाओं का सम्मान किया, न विपक्ष में आने पर देशहित के विरुद्ध कोई आचरण न किया, न अपराधतन्त्र और बैलटबाक्स-लूट-तन्त्र को प्रश्रय देने से बचा।
कहने को भाजपा का पैत्रिक संगठन ही लट्बाजों का था, परन्तु न तो उन्होंने चुनाव जीतने के लिए लट्ठबल का प्रयोग किया। जो प्रतीकात्मक था वह प्रतीकात्मक ही रहा। भारतीय संविधान के प्रति यदि कोई एक दल मनसा, वाचा (?), कर्मणा समर्पित रहा तो वह जिसे फासिस्ट कह कर गालियां दी जाती रहीं। मैं इस उलटबांसी को समझना चाहता हूंं कि यह कैसे हुआ कि लोकतन्त्री राजतन्त्री हो गए, समाजवादी अराजकतावादी हो गए, दलित उद्धारक स्वजातिवादी हो गए, समाजवाद से कुछ अधिकतावादी अर्थात् कम्युनिस्ट आत्मघातवादी हो गए और जिसे ये सभी कोरस गाते हुए फासिस्ट कहते रहे वह अवसर मिलने पर लोकतंन्त्र और संविधान की सभी कसौटियों पर खरा उतरा। इनमें से एक एक को उदाह़त करने में इतना समय लगेगा कि यह शृंखला आप को उबाने लगेगी, इसलिए मैंं इसे दावे के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूं । यदि किसी ने किसी के विषय में प्रश्न किया तो उसेे विस्तार से प्रमाणित करूंगा।
यदि किसी ने गोल मोल फिकरे कसे तो उसकी उपेक्षा यह सोच कर करूंगा कि यह इतना समझाने के बाद भी आदमी की भाषा नहीं सीख पाया है। आज कल सामाजिक संचार माध्यमों पर भाषापूर्व की संकेत भाषा में बहुत सारी बहसेंं होती हैं। जिनका बौद्धिक विकास भाषा के आविष्कार के बाद उसकी अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं हो पाया है वे भाषा को भी संकेत भाषा बना देते हैं और उनके समानधर्मा उसे समझ भी लेते हैं।
‘भारत देश महान’ पुरानी किताबों के दौर में था जब हमारा भूगाेल ज्ञान कुछ सीमित था, और लाठी भांजने पर अधिक तथा पढ़ने लिखने पर कम ध्यान देने के कारण, ज्ञान के नाम पर केवल यह वाक्य इनकाे अवश्य याद रहा है। परन्तु वे नासमझ हैं, जो जानते नहीं हैं उसे भी बोल देते हैं, आप पढ़े लिखे नष्टचेत हैं इसलिए उनके इस कथन को आप ने सही सिद्ध किया है और इसे जानते तक नहीं।
जब भारत को स्वतंन्त्रता मिली थी तब शासन या शासनहीनता के जिन तन्त्रों का दुनिया को ज्ञान था और जिनका ध्यान रख कर ही हमारा संविधान लिखा गया, वे थे, अराजकतावाद (एनार्की), सर्वनाशवाद (निहिलिज्म), गणतन्त्र (रिपब्लिक), स्वेच्छावाद (डेस्पाटिज्म), अभिजाततन्त्र (ऑलीगार्की/ एरिस्टोक्रैसी), राजतन्त्र (किंगशिप या मानर्की), फासीवाद (फासिज्म), नात्सीवाद (नाजिज्म), अधिनायकवाद जिसकी व्याप्ति पिछले दोनों वादों तक थी और समग्रतावाद जो अधिनायकवाद की चरम अवस्था के रूप में साम्यवाद के लिए पूंजीवादियों का गढ़ा पद था। इन सभी की खूबियों को अपनाते और सभी के दोषो से बचते हुए भारतीय संविधान का निर्माण किया गया था।
आप लोगों की कृपा से (आप जानते हैं यहां तुम और आप या आप लोग का प्रयोग अपने उस मित्र को संबोधित करते हुए कर रहा हूं जिसे विस्तारभय से इस बहस में अपने सवाल तक पूछने का अवसर नहीं दिया है, परन्तु जिसका एक ही मानदंड है कि जो कुछ संघ और उससे जुड़े किसी संगठन से जुड़ा है उससे वह घृणा करता है और घृणा को कायम रखने के लिए किसी ऐसे व्यक्ति, संगठन या धूर्त का नाम हिन्दू से किसी तरह जोड़ा जा सकता है, उसके अपराधों को भी इस संगठन से जोड़ कर इसकी नैतिक हत्या करने को तत्पर रहता है।) भारत देश महान का उनका सपना इतने अल्प समय में ही पूरा हो गया है। हजारों साल के विविध तन्त्रों को अपर्याप्त मानते हुए आपने यह सिद्ध किया है कि जो भारत में हो सकता है वह कहीं नहीं हो सकता है, इसलिए यह देश समस्त विश्व प्लस कुछ और है – यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित – पर यह जाने बिना ही कि यहां भारत का अर्थ क्या है।
पुराने तन्त्रों में आपने कितने नए तन्त्र जोड़ दिए इतनी अल्प अवधि में जिनका ध्यान संविधान निर्माताओं ने भी नहीं रखा इसलिए आप संविधान को भी नहीं मानते क्योंकि यह उनके तन्त्र के अनुरूप नहीं है। ये तन्त्र हैं:
1. भुजंग तन्त्र । भुजंग का अर्थ वह जीव होता है जिसका शरीर भुजा की तरह केवल लंबाई में फैला होता है, जो सांप के लिए रूढ़ हो गया, परन्तु यहां इसका राजनीतिक भाषा में अर्थ है बाहुबल पर आधारित तन्त्र, जिसके कई पर्याय है, जिनमें सबसे सार्थक है अपराध तन्त्र या गुंडा तन्त्र।
2. कुनबातन्त्र जिसके लिए अंग्रेजी वालों ने भी आगे बढ़ कर शब्द गढ़ लिया नेपोटिज्म ।
3. बिरादरी तन्त्र जिसमें बिरादरी देश बन जाती है और बिरादरी से बाहर का देश विदेश बन जाता है जिसे नष्ट करना जरूरी हो जाता है।
4. कोणतन्त्र । इसमें कोई भी कोना या अंचल अपने को केन्द्र मान लेता है और समूचे देश को अपने कोणीय दृष्टि से चलाना चाहता है।
5. सर्वसमावेशतन्त्र । इसमें सभी तन्त्रों की विकृतियों काेे तन्त्र की अन्तरात्मा और सभी के मांगलिक पक्षों को मुखौटा बनाया जाता है।
6. होने-को-तो-सब-कुछ-हैं-मगर-कुछ-भी-नहीं-हैं तंंत्र जिसमें सभी तन्त्रों के अधिकार स्वायत्त मान लिए जाते हैं परन्तु किसी के कर्तव्य के निर्वाह का बोझ उठाया नहीं जाता ।
जब ये सभी तन्त्र सक्रिय थे उसी समय भारत की केन्द्रीय राजनीति में मोदी का प्रवेश हुआ ।
मुहावरे में तो मैंने यह दिखा दिया कि मोदी का ऐसे निर्णायक मोड़ पर भारतीय मंच पर प्रवेश न होता तो इनमें से छठा तंत्र पांचवे के बल पर हावी होता जा रहा था और वह भारतीय राजनीति का ऐसा स्वर बन जाता जिसकी अनैतिकता और भ्रष्टता से उसे भीतर से भी ध्वस्त किया जा सकता था, जो गनीमत था। परन्तु यह बाहर को रास आता था और उसके हस्तक्षेप का मतलब था एक ऐसी गुलामी जिस से मुक्त होने की कोशिश में अपना सर्वनाश किया जा सकता था।
पर बात तो आज भी अधूरी ही रह गई। आप मेरी बातों का भरोसा न करें। मैं उन्हें पूरा नहीं कर पाता। सोचा था आज इसे पूरा कर लूंगा, पर लाख कोशिश के बाद भी पूरा नहीं कर पाया। आपकी थकान के कारण। मोदी अपने वादे पूरे करने के लिए जान लड़ाने के बाद भी उन्हें पूरा क्यों नहीं कर पाता, इसे तो हमें भी समझना होगा।
समझना चाहें तो मेरी उस तुकबन्दी को भी समझ सकते हैं जो मेरे अपने मित्रों की समझ पर है, जो मुझसे कई गुना पढ़े, लिखे और दिखे विदंवरों हैं। उनका ध्यान आने पर गद्य को अपर्याप्त मान कर, तुकबन्दी जोर मार कर बाहर आ गई। इसे ठीक इसके बाद देना ठीक रहेगा। उसे भी जरूर पढ़ें।