Post – 2016-09-24

प्रयोग – 13
नजारा और नाजिजरीन
एक समय था हमें इस बात की शिकायत थी कि पार्क में बेंचें कम हैं, और हमे इस बात का पछतावा था कि उनकी संख्‍या अधिक हो गई थी फिर भी इसे घेर कर बसी सोसायटी के लोगों के लिए ही बैठने का ठौर नहीं मिल रहा था, जिनके लिए यह सांस लेने की जगह थी। लड़कियों-लड़कों की जोड़ी आगे-पीछे या साथ जैसे भी आए सहमती हुई बरगद के छांव के चार बेंचो पर पहुंचने की कोशिश में रहती, कुछ सकपकाई हुई कि कोई टोक न दे, फिर उनकी संख्‍या बढ़ने के साथ पहले की वह झिझक खत्‍म हो गई और धीरे धीरे वे खुले में लगी उन बेंचों पर भी जगह बनाने लगे और हालत यह हो गई कि बुजुर्ग लोग टहलने घूमने के बाद इधर उधर झांक रहे हैं कि कहीं सुस्‍ताने को जगह मिले और ये अपनी मंडली लिए पड़े हैं। इन सभी सोसायटियों के पार्क में खुलने वाले दरवाजे एक नियत समय पर एक नियत अवधि के लिए खुलते जो प्रात: और सायं दा दो घंटों का होता, जिसका मैं पूरा उपयोग करता था और इससे पहले या बाद में सुरक्षा कारणों से बन्‍द कर दिए जाते। जब तक खुले रहते तब तक एक पहरेदार वहां मौजूद रहता। अब हालत यह कि लोग पार्क में पहुंचते उससे पहले ही मौज मस्‍ती वाले वहां आ जमे रहते । और इनमें एक नया तत्‍व जुड़ गया था, नजारा देखने वालों का जिसकी दल्‍लूपुरा के गूजरों और उसमें बसे किरायेदारों के किशाेरों और युवकों में कमी नहीं थी। खुली जगहों की बेंचे जिन पर सोसायटियों के पुरुष और महिलाएं बैठतीं थी, दूसरा उन पर बैठने से बचता था उस पर ये लड़के ही कहीं और खाली जगह न पाकर आ बैठते।
कुछ लड़के अब इस दृश्‍य पर एक नजर डालने के लिए सायकिलों पर भी आ जाते, और एक नया तत्‍व मोटरबाइक पर सवार लड़कों का भी होता ।
पार्क के एक हिस्‍से में एक बड़ा चबूतरा बना था जिस पर आयाताकार छह बेंचें लगी थी। इस पर बैठक जमती और पन्‍द्रह बीस आदमी स्‍थानीय से लेकर राष्‍ट्रीय राजनीति पर बहस करते और बहस कभी कभी गरम हो जाती तो आवाजें दूर तक सुनाई देतीं । यह चबूतरा बरगद के उन पेड़ों से निकट था जिनके नीचे की बेंचों पर जोडि़यों ने जुड़ना आरंभ किया था । इससे आगे की ओर ट्रैक के पार एक बेंच पर भी दो तीन नाजि़रीन आ बैठते । इस नये बदले पर्यावरण में हमारी कल्‍पना के अनुसार सबसे अधिक असुविधा महिलाओं को होती रही होगी, यद्यपि प्रकाश व्‍यवस्‍था होने के कारण उनकी संख्‍या में कमी नहीं आई थी, न ही केवल एक महिला को छोड़ कर दूसरा इस पर आपत्ति जताता था। वह बूढ़ी थी और जब तब खड़ा हो कर फटकार लगाने लगती थी पर उसका उन पर कोई असर होता दिखाई नहीं दिया। सोसायटियों की महिलाओं के प्रति इन नाजरीनों का व्‍यवहार अभद्रता का नहीं होता, या कभी वे इसकी शिकायत करती न देखी गईं। वे उधर का पूर्वानुमान करके उधर से मुंह फेरे सीधे अपनी राह पर चली जाती। सुरक्षा को ले कर इस विषय में भी आश्‍वस्‍त होतीं कि आगे पीछे दूसरे स्‍त्री पुरुष हैं ही। संभव है अकेली पड़ जाने वाली लड़कियों के साथ वे फब्तियां भी कस‍ते रहे हों पर केवल एक बार अबुल फजल की एक लड़की मेरे पास आई, ‘अंकल, उस कोने में बैठे लड़के फिकरे कस रहे थे।’ मैंने वहां जा कर पूछा, ‘यहां क्‍यों बैठे हो। उठो, भागो यहां से। फिर दिखाई नहीं देना।’ वे उठे चले गए। परन्‍तु इस बात पर मुझे कुछ हंसी भी आ रही थी कि यह जिम्‍मा भी अब तुम्‍हें ही संभालना होगा।
एक अजीब विरोधाभास है कि हमारे समाज में खाते पीते लोगों में शराफत बढ़ी है और आत्‍मसम्‍मान कम हुआ है। धूर्तता, कमीनापन और अकर्मण्‍यता बढ़ी है और समझ कम हुई है । (अपूर्ण, जो लुप्‍त हो गया उसे कल देखे, ‘अवशिष्‍ट’ के रूप में और यदि संभव हो तो इसे उससे जोड़ कर पढ़ें।)