मैं कौन हूं, रहता कहां हूॅ, देश कहां है
पहले इस इलाके में खेती बहुत मुश्किल से होती थी। जमीन रेतीली है। जमुना के कछार की जब तब डूब जाने वाली। आगे पास ही चिल्ला स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स है और पीछे नाले और नहर के पार चिल्ला गांव। चिल/सिल/जिल/ गिल, या चल/सल/जल/गल या इनके अन्त्य लकार के रकार बनने से बने चिर/सिर/जिर/गिर या चर/सर/जर/गर शब्दों का अर्थ होता है पानी। और आप फुर्सत में हो तो इकार की जगह उकार लगाकर जो शब्द बनाएंगे उसका भी एक अर्थ होता है पानी और उसके बाद तो उस ध्वनि या शब्द का किसी खाद्य, पेय, धन, आदि के लिए प्रयोग में आ सकता है, जैसे गर का गरल के लिए और गडुआ, गडुवी के लिए और गल का गलन, ग्लानि, गलका आदि के लिए। इसलिए यदि आप किसी गांव का नाम चिलवां सुनें तो समझ लें किसी धारा या तालाब के किनारे होगा। चिल्ला की भी स्थिति यही है । अनुमान लगाना चाहें तो यह समझ सकते हैं कि बहुत पुराने समय में यहां जो आदिम जन रहते या विचरते थे उनको तालब्य ध्वनियों से प्रेम था। जमुना उफान पर आती है तो समाचार आता है पानी चिल्ला तक पहुंच गया। गरज कि इसमें कास घास अधिक आसानी से उगती थी, खेती नाममात्र को होती थी।
इसी भूखंड का अधिग्रहण करके और विकसित करके भूमि ग्रुप हाउसिंग सोसायटियों को आबंटित की गई थी जिस पर पूरे वसुन्धरा एन्क्लेव में बहुमंजिली इमारतों का निर्माण कुछ इस तरह किया गया कि उनके बीच में एक छोटा सा टुकड़ा पार्कों के नाम पर छोड़ दिया गया और उसकी चारदीवारी से सटी इन सोसायटियों का प्लाट जिससे इन सभी की सीधी पहुंच उस खुली साझी जगह तक हो सकें जहां वे चहलकदमी कर और खुले में सांस ले सकें। दिल्ली में यह डीडीए का एक नया प्रयोग था।
जमीन जिन गूजरों की थी उनको इस इलाके के अधिग्रहण के एवज में जो धनराशि मिली उसके कारण अब वे पहले खेती, भैंस पालन और दूध का कारोबार जो कुछ भी करते थे उससे फुर्सत मिली तो वे निठल्लों की जमात में बदल गए। पैसा है, करने को कुछ नहीं। अधिकांश ने लालडोरा क्षेत्र में अपनी जमीन पर मजदूरों के लिए बहुमंजिले मकान बना लिए जिनके कमरे नोयडा के मजदूरों, घरों में मदद के लिए काम करने वाली महिलाओं और ड्राइवरों, चौकीदारों, बेलदारों आदि किराये पर लेकर गुजर इस गांव की आबादी को बहुगुना और बहुरूप बना दिया। किराये से होने वाली आमदनी के बाद अब न तो जीविका की चिन्ता रह गई न कोई योग्यता हासिल करने की लालसा। आश्चर्य कि इस इलाके में कोई पुराना स्कूल तक नहीं है। जो हैं वे डीडीए के अधिग्रहण के बाद के, फिर भी कुछ प्रतिशत नौजवान कुछ पढ़ लिख गए। शेष शिक्षा से विमुख परन्तु सोसायटियों में बसे शिक्षित मध्यवर्ग की जीवनशैली और अपनी पुरानी ऐंठ के बीच असमंजस में दिखाई देते हैं।
जिन्होंने उन पैसों को मौजमस्ती में उड़ा दिया वे आज भी भैंसों की सेवा करते पालते और दूध बेच कर काम चलाते हैं और उनकी कुछ महिलाएं पार्क की बढ़ी हुई घास को काट कर इसे फूस का जंगल बनने से बचाए रखने में मदद करती थी। माेअर का प्रबन्ध हो जाने के कारण, वे कुछ ही दिनों तक इसका लाभ उठा पाती हैं। महिलाएं घास काटने आएंगी और उसके दो तीन घंटे बाद उनके परिवार का कोई नौजवान सायकिल लिए आएगा और घास को उस पर लाद कर ले जाएगा। घास काटने का काम शायद स्त्रियों का काम माना जाता है। गूजर मूलत: मातृप्रधान रहे लगते हैं।
अशिक्षित, अल्पशिक्षित और सीमित आय वाले मजदूरों में अधिकांश अपना परिवार नहीं रख पाते। जो रखते हैं उनकी पत्नियॉं इन फ्लैटों में चौका बर्तन करके निर्वाह करती हैं। बच्चों के लिए माता पिता में किसी के पास समय नहीं होता, फिर भी प्रकृति के नियम से बच्चे होते हैं और वे इधर उधर भटकते हुए आपस में बहुत कुछ सीखते समझते बड़े होते हैं। इनमें कितने गायब कर दिए जाते होंगे और अंगप्रत्यारोपण व्यवसाय की जरूरतें पूरी करते होंगे इसका हिसाब किसी के पास न होगा।
दुर्भाग्य से हमारा पार्क दल्लूपुरा से अधिक निकट पड़ता यद्यपि दूरी आधे किलोमीटर की तो हो ही जाती है और बहुमिश्र आबादी का दबाव इस ऊजड़ क्षेत्र के पार्क में बदलते जाने के क्रम में हमारे पार्क पर अपेक्षाकृत अधिक पड़ा। बच्चे इसी से हो कर स्कूल जाते हैं और मजदूर इसी का एक बाजू पकड़े अपने काम की जगहों को इसलिए दूसरे पार्कों के विपरीत हमारे पार्क और इससे आगे के पार्क की निजता भंग हो जाती है और ये दोनों सार्वजनिक पार्कों में बदल जाते हैं। लड़कियों की क्लास उसी इमारत में पूर्वान्ह में लगती है और लड़कों की अपरान्ह में इसलिए दोपहर काे इनके आने जाने के क्रम में कुछ दूसरे तरह की समस्यायें पैदा होती हैं जिसमें हमारे हस्तक्षेप की अावश्यकता नहीं परन्तु इनकी क्रीड़ा और विनोद में छोटे पौधों और फूल की क्यारियों की ही दुर्गत नहीं होती, कई बार इनके किल्लाल में पेड़ों की डालियां टूट कर गिरी मिलती हैं।
इन सोसायटियों का चरित्र उन क्षेत्रों और दूसरी सोसायटियों से अलग है जिनका मुझे अब तक अनुभव है। इनकी प्रकृति सार्वदेशिक है। मेरी अपनी सोसायटी में हिन्दू, मुसलिम, ईसाई, कश्मीरी, उत्तरांचली, बंगाली, असमी, ओडि़या, मद्रासी, मलयाली, मराठी, पंजाबी, हरयाणवी, पश्चिमी और पूर्वी उत्तरप्रदेशी, बिहारी पृष्ठभूमि के लोग रहते हैं। घरेलू सेवा में लगी महिलाओं में पहले कुछ बांग्लादेशी भी हुआ करती थीं।
मैं भारत में नहीं रहता हूं। इतने बड़े क्षेत्र में रह भी नहीं सकता। वह संकल्पना के रूप में मेरा देश है, पर मैं भारत के उस छोटे से हिस्से में रहता हूँ जिसकी सामाजिक संरचना यह है और ठीक यही स्थिति आप सभी की होगी। पुराने जमाने में देश का एक अर्थ अपना विशिष्ट क्षेत्र हुआ करता था और उसकी कुछ उदार परिभाषा करें तो मेरी सोसायटी में दर्जनों देशों के लोग बसे हुए हैं। इनसे ही बने अपने छोटे से सामाजिक परिवेश में या नवनिर्मित देश में मैं रहता हूं और आसन्न रूप में इसकी स्थिति से चिन्तित रहता हूँ।
हमारे बच्चों को कैसे रहना है कि वे सुरक्षित रहें, बिगड़ने न पाएं, उनको कोई क्लेश न हो यह मुझे तय करना होगा, उन चैनेलों को नहीं जो विज्ञापनजगत के पैसे पर पलते और उनके सिखाए हुए मुहावरे बोलते और शोर मचाते हुए जिसके जी में जो आए वह करे वाली आजादी का प्रचार करते हैं और इनकी इस मनमानी के कारण उनके सामने आने वाली आपदाओं के लिए पुलिस को उत्तरदायी मानते हैं। यदि पुलिस इस मनमानी को सामाजिक हित में न पाकर उसे नियंत्रित करती है तो इसे मारल पोलिसिंग कह कर उसका विरोध ही नहीं करते हैं अपितु इतनी हुड़दंग मचाते हैं कि सुधारात्मक कदम उठाने वाले अधिकारी या कर्मचारी को दंडित होना पड़े। मनमानी करने को सभी स्वतंत्र हैं परन्तु उनके परिणामों के लिए पुलिस उत्तरदायी है जिसे उस मनमानी को नियन्त्रित करने का अधिकार नहीं। माता पिता को स्वयं अपने बच्चों की मनमानी को रोकने का अधिकार नहीं। ये निर्वात में कल्पित समाज की समस्याओं के निर्वात में तैयार किए हुए समाधान हैं जिनको यथार्थ सापेक्ष्य बनाया जाना चाहिए। जो भी हो, हमारे लिए ही बना यह भीतरी पार्क है, पर जब तक दललूपुरा के खिलाडि़यों का हुड़दंग था, तब तक इसको घेर कर बनी सोसायटियों में से किसी के बच्चे या महिलाएं पार्क में नहीं आती थीं। आते थे कुछ बुढ़भस रिटायर्ड लोग जिनकी जमात का मैं भी था। जब हुड़दंग थमी तो एक एक कर सभी के कुछ बच्चे, महिलाएं, यहां तक कि हिजाबबन्द महिलाएं भी, टहलने घूमने के लिए आने लगीं और फिर जिस तरह का मोड़ आया था उसमें उनको कुछ परेशानी अनुभव होने लगी इसकी चर्चा हम प्रयोग – 11 में करेंगे जिसकी यह पृष्ठभूमि है।
हमारे समाचार और विचार माध्यम,यदि कोई संस्था वेश और व्यवहार की कोई मर्यादा तय करे तो उसे तालिबानी बताते हैं, परन्तु यही बातें यदि हिन्दू से इतर कोई संस्था या संगठन करे तो उस पर चुप लगा जाते हैं। एेसा कहने वाले हिन्दू हित का दावा करने वाले संगठनों में भी मिल जाएंगे कि यह देश विभाजित होने के बाद हिन्दू देश उसी न्याय से बन गया जिसमें मुसलमानों ने इस आधार पर कि वे हिन्दुओं के साथ शान्ति से नहीं रह सकते हैं इसका विभाजन किया, भले वे उस देश में गए या नहीं। मैं ऐसा दावा करने वालों के तर्क को तो मानता हूं पर जो कुछ भी तार्किक है वह सदा न्याय्य भी होता है, इससे सहमत नहीं हो पाता। हम सभी गलतियां करते हैं, और बहकावों के शिकार होते हैं और लगभग सभी ने बहुत अक्षम्य गलतियां कीं इसे समझने के बाद मैं मानता हूं जो भी जिस देश में रहता है वही उसका देश है।
परन्तु जब हमारे समाचार और विचार माध्यम, हमारे मुखर बुद्धिजीवी केवल हिन्दू समाज, हिन्दू संगठनों, हिन्दू मान्यताओं, हिन्दू ग्रंथों, हिन्दू रीतियों के प्रति ही चिन्ता प्रकट करते हैं और यह अपेक्षा करते हैं कि हिन्दू यदि ऐसा करता है तो उसे दंडित किया जाना चाहिए और शेष पर चुप रहते हैं तो क्या वे स्वयं चीख चीख कर यह नहीं कहते कि यह हिन्दू देश है। वे क्या उन पिछड़ी या अवरुद्ध चेतना के लोगों का समर्थन नहीं करते जिनका विरोध करने के नाम पर उनका कारोबार चलता है ।
क्या वे व्यंजना में यह नहीं कहते कि दूसरे समुदाय भाड़ में जायं, हम हिन्दुओं को मानवीय आदर्शों के अनुसार बचाने की चिन्ता करेंगे। नहीं, वे कुछ नहीं कहते, क्योंकि वे जानते ही नहीं कि वे किसके पढाए सिखाए के अनुसार कुछ बकते रहते हैं परन्तु पूरे समाज पर उसका क्या असर होगा इसकी ओर उन्होंने कभी ध्यान ही न दिया।