निदान – 42
गांधी का नाम आए तो खुद को संभालिए
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”शास्त्री जी आपने कल इतनी विचित्र बातें कीं, कि लगा आप जल्दबाजी में कोई लेख पढ़ कर आए हैं जिसे अच्छी तरह समझ भी नहीं पाए हैं। एक का दूजे से मेल न था।”
शास्त्री जी ने कुछ कहा नहीं, केवल उत्सुकता से मेरी ओर देखने लगे।
”आपने कहा, ‘धार्मिक व्यक्ति को राजनीति नहीं करनी चाहिए। धर्म के क्षेत्र में काम करना चाहिए। राजनीति अपने चरित्र से ही धर्मनिरपेक्ष होने को बाध्य है अन्यथा देश का प्रशासन चल ही नहीं सकता।’ यह आपका वाक्य नहीं हो सकता। दूसरे आपने धर्म को सांप्रदायिकता समझ लिया, जिससे अापकी समझ पर मेरा भरोसा कुछ कम हुआ। शायद गोडसे को विक्षिप्त कहे जाने से आप इतने उद्विग्न हो गए थे कि जहाँ तहॉं के विचारों को ईंट पत्थर की तरह फेंक रहे थे, न कि न्याय विचार कर रहे थे।”
शास्त्री जी कुछ अव्यवस्थित लगे और सोच-विचार में पड़ गए।
”गांधी जी धार्मिक थे, इसमें सन्देह नहीं। ईश्वर में और ईश्वरीय प्रेरणा में उनका गहन विश्वास था। न होता तो वह अहंकारी हो जाते। अपने निर्णयों के पीछे किसी अदृश्य शक्ति की प्रेरणा और विश्वास ही उन्हें अडिग और नम्र बनाए रखती थी। उन्होंने अपने जीवन को ही प्रयोगशाला बना दिया था। प्रयोग करने वाले गलतियॉं करते हैं, उन्होंने भी कई गलतियां कीं जिन्हें उन्होंने छिपाया नहीं, परा सबसे बड़ी गलती की अली बन्धुओं को धार्मिक मान कर । वे धार्मिक नहीं थे, वे उस अमीर वर्ग के वर्चस्व की राजनीति के लिए अपने सम्प्रदाय की भावनाओं का इस्तेमाल कर रहे थे। वे कुरान के पाबन्द रहे हो सकते हैं। धर्मग्रन्थों का अपने वर्चस्व के लिए इस्तेमाल करने वाले धार्मिक नहीं होते, वे सही अर्थ में सेक्युलर होते हैं और इसीलिए मन्दिरों, मठों, गिरजो, मकतबों के लोग, मुल्ला और मौलवी लोग विरल मामलों में ही धर्मनिष्ठा वाले लोग होते हैं। वे अपनी सत्ता और संपत्ति की राजनीति करते हैं। अली बन्धुओं को धार्मिक मानना गांधी जी की बहुत बड़ी चूक थी। इसी तरह खिलाफत का आन्दोलन पान इस्लामी राजनीति का आन्दोलन था, धार्मिक आन्दोलन नहीं। यदि आप कहते राष्ट्रीय मुक्ति का नेतृत्व करने वाले को सांप्रदायिक राजनीति का साथ नहीं देना चाहिए; इसके परिणाम अनिष्ठकर होने को बाध्य हैं, तो बात अधिक सही होती।
”गांधी ने अपने राजनीतिक जीवन के आरंभ में ही अपने अहं पर विजय पा ली थी। उनके लिए हार और जीत दोनो फालतू के शब्द हैं। सिद्धि और सिद्धि में बाधक का कुछ अर्थ हो सकता था। इस सिद्धि में अपने लिए कुछ नहीं था, अपना जैसा कुछ नहीं था। वह हार नहीं सकते थे, हारे वे जो जीतना और पाना चाहते थे और अपनी जीत के क्षणों में ही हारे ।
”गांधी तब हारते जब इतनी उपेक्षाओं और दुर्घटनाओं के बाद भी ईश्वर में उनका विश्वास डिग जाता। या उनका यह निर्णय गलत सिद्ध होता कि धर्मनिरपेक्ष और नास्तिक व्यक्ति सत्ता के लिए कुछ भी कर सकता है, इसलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। जिन्ना इसी सोच के थे और यही उन्होंने सिद्ध किया। नेहरू इस माने में उनसे अलग न थे। पटेल भी न रहे हों तो आश्चर्य नहीं। इन्हें विफल नहीं होना पड़ा पर हारे ये सभी अपनी विजय के क्षण में ही। गांधी विफल हुए और अपने अपरिपक्व सहयोगियों के कारण कई बार हुए, परन्तु मनुष्य के चित्त को बदला जा सकता है, इसके लिए प्रयत्न जारी रखना होगा, यदि उनका यह विश्वास डिग जाता, ईश्वर में उनका विश्वास डिग जाता तो अवश्य यह उनकी हार थी। मुसलमानो को, उन मुसलमानों को भी, जो हिंसा में लिप्त थे, शैतान मान लेते तो उनकी हार हो सकती थी। वे जहां विफल हैं वहॉं भी अपराजित हैं।
”आप ने कहा, उन्होंने तिलक के साथ विश्वासघात किया । जिन्ना जो उनके सचिव थे, जिन्होंने गांधी का दक्षिण अफ्रीका से आने पर भव्य स्वागत किया था, जो विचारों में सेक्युलर थे, उन्हें मुसलमानों का प्रतिनिधि न मान कर अली ब्रदर्स काे उनका प्रतिनिधि कैसे मान लिया । मेरे एक दूसरे मित्र, कमलेश जी, भी जाे गए साल हमारा साथ छोड़ गए, बहुत आवेश में यह कहा करते और गांधी को कुटिल बताया करते थे। गांधी का स्वागत गांधी के लिए माने नहीं रखता था। गांधी व्यक्ति नहीं ध्येय थे। तिलक का सचिव बनने के बल पर एक ऐसा मुसलमान जो इस्लाम का पाबन्द नहीं है, नाम का, दुर्घटनावश मुसलमान था, उसकी मुस्लिम समाज में पैठ नहीं थी। उसकी योजना में यह रहा हो सकता है और ऐसी दूर की योजनाऍं बनाने वाले क्या कर सकते हैं इसकी समझ गांधी को थी। अली बन्धुओं को महत्व देना बिल्कुल गलत नहीं था, खिलाफत आन्दोलन को कांगेस का आन्दोलन बना देना सरासर गलत था और इसी के लिए गांधी ने हिमालयन ब्लंडर शब्द गढ़ा था। यह उनका ही आत्मस्वीकार था। प्रसंग चाहे जो हो ।
”और जो तिलक के साथ विश्वासघात का प्रश्न है, या उनके उद्देश्य को आगे बढ़ाने का प्रश्न है, उनका उद्देश्य जिन्ना को मुसलमानों का प्रतिनिधि बनाना था या पूर्ण स्वराज्य ? उस दिशा में क्या गांधी ने कोई ढील दी ? नहीं, गांधी इतने सरल हैं कि उनको समझना उन लोगों को मुश्किल पड़ता है जो यह नहीं जानते कि नन्हा सा बच्चा कैसे समझ लेता है कि यह आदमी मुझे प्यार नहीं करता और उसके हाथ बढ़ाने पर भी वह उससे बचने का प्रयत्न करता है, जब कि दूसरे अपरिचित की गोद में हँसते हुए चला जाता है। गांधी किताबों को उलट पलट लेते थे, परन्तु उनके ज्ञान भंडार से बहुत कम काम लेते थे। जो भारत के प्राचीन ज्ञान का पारंगत है वह गॉंधी को नहीं समझ सकता । वह भारत नहीं हैं, न प्राचीन हैं। जो पश्चिम के ज्ञान का गधा है वह अपनी लादी तक नहीं सँभाल सकता क्योंकि भारतीय यथार्थ उसे इधर उधर फेंकता रहेगा, वह गांधी को समझ ही नहीं सकता और अपने को आधुनिक तो कह सकता है, आधुनिक बन नहीं सकता। अपने समय में ही नहीं, आज तक के आधुनिकतम व्यक्ति गॉंधी है और मानवता का भविष्य भीगांधीवाद है । जो सभी ज्ञानों अज्ञानों को आदर देते हुए भी अपने प्रयोग में उन्हें किनारे रख कर व्यर्थ कर देता और मानवता का मंत्र देता है वह गांधी है। मानवीय होना यदि गांधीवाद का पर्याय बन जाय तो गांधीवाद से मानवता कैसे बच सकती है। गांधी हमारा वर्तमान न बन पाया परन्तु विश्व का भविष्य गांधी है।
”अाप कह रहे थे जिन्ना सेक्युलर थे। आज कल अपने को सेक्युलर कहने वालों का सरकस गोष्ठी-दर- गाेष्ठी, अखबार-दर-अखबार, चैनल-दर-चैनल मिल जाएगा, पर क्या हम जानते हैं सेक्युलर हो कौन सकता है, सेक्युलरिज्म का अर्थ क्या है? सेक्यलरिज्म का अर्थ है राज्य अपनी सीमा में प्रचलित मतों, धर्मो और संप्रदायों के प्रति न आसक्ति रखेगा, न किसी का दमन करेगा, न किसी का पक्ष लेगा। व्यक्ति का धार्मिक होना, न होना, आस्तिक होना, न होना राज्य के लिए कोई अर्थ नहीं रखता, न ही इस आधार पर कोई भेदभाव किया जा सकता है। इसका विधान हमारे संविधान में थाफ
”अाप स्वयं देखिए, ये इतने गधे हैं, मेरा मतलब अपने को सेक्युलर कहने वालों से है। और यदि आपको लगता है कि मैं उन्हें गधा कह कर उनका अपमान कर रहा हूँ तो इस बात पर ध्यान दीजिए कि मैं उनके अपमान काे सह्य बना रहा हूँ, क्योंकि यदि गधा न कहता तो उनको कमीना कहना पड़ता जो उन्हें सचमुच बुरा लगता क्योंकि यही उनकी सचाई बयान करता है। सोचो, यदि सेक्युलर राज्य हो सकता है तो क्या अपने को सेक्युलर कहने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने गधेपन या कमीनेपन के कारण अपने को सत्ता नहीं मानने लगा है और उसके बात, व्यवहार, और लेखन से यह नहीं लग रहा है कि राज्य उसके निर्णय के अनुसार नहीं चल रहा है इसलिए वह कम्युनल है।
”और सोचिए इस सेक्युलर राज्य का जिसमें हज के लिए राज्य प्रोत्साहित करता है, इफ्तार पार्टियों की स्पर्धा खड़ी हो जाती है, जाली टोपी लगाने की होड़ लग जाती है, जब कि मुसलमान भी जानते हैं कि ये नाटक करने वाले कमीने लोग हैं और हमें आदमी से वोटबैंक बनाने काे सेक्युलरिज्म कह कर अपने को भी ठगते हैं और अपने देश और समाज को भी। ठगों को देश बना कर हम किसका भला करेंगे और कैसा भारत बनाएंगे । नहीं, गलत कह गया मैं, कहना था ‘ठगों को देश सौंप कर हमने किसका भला किया और कैसा भारत बनाया ?’ जिसमें समझदारी का दावा करने वाले बौद्धिक कारोबारी ही नहीं, गिरे हुए कारोबारी बन गए हैं और वे ही देश को दिशा दिखाना चाहते हैं।”
इतनी खिंचाई के बाद तो भींगी रस्सी भी सॉप की तरह तन जाती है, गो रहती रस्सी ही है। शास्त्री भी तन गए , ”क्षमा करें डाक्साब। आप हमारे सामने बोलते हैं तो विश्वविजेता की तरह बोलते हैं, और हम उसे सह भी लेते हैं, परन्तु आपको पता है आप हिन्दी संसार नहीं हैं, न हो सकते हैं। वह संसार आपको क्या समझता है, इसे आप जानते हैं, न जानते हों तो मैं बता दूँ।”
”यदि आत्मविक्रयी बुद्धिजीवियों को हिन्दी संसार मानते हैं तो मुझे आप पर तरह आता है, और तरस नहीं भी आता है जब सोचता हूँ आप ठहरे संस्कृत के आचार्य जो न अपने प्राचीन को जानते हैं न नवीन को, जानते केवल यह है कि कोई कथन व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध है या अशुद्ध । यदि शुद्ध है तो सही है, नहीं है तो गलत है। खैर आप संचार माध्यमों पर अधिकार जमाए लोगों को हिन्दी संसार मानते हैं तो उसमें जो कुछ लिखा जा रहा है, जो बहसें चल रही हैं, उनका एक एक शब्द और उसकी पृष्ठभूमि जानने के कारण मैं उन्हेंं मैं कूड़ा समझता हूँ और जो मैं कहता या लिखता हूँ उसको समझने की योग्यता उनमें हैं नहीं, न इसका उन्होंने प्रयत्न किया, इसलिए वे मेरे लिखे को कूड़ा मानें तो मुझे लगेगा कि अब भी उनमें इतना आत्मसम्मान तो बाकी है कि उसे बचाने का तरीका न मालूम होने के बाद भी वे उसे बचाना चाहते हैं।”
”शास्त्री जी, आप और अापकी संस्था गांधी को नहीं समझ सकती। कांग्रेसी गांधी काे नहीं समझ सकते, कम्युनिस्ट गांधी को नहीं समझ सकते, जो गांधी के नाम पर चल रहे उद्योगों और प्रतिष्ठानों पर विराज रहे हैं वे गांधी को नहीं समझ सकते, परन्तु अपने इतने हत्यारों के बीच मानवता का भविष्य तो वही है। आश्चर्य मुझे यह है कि आप गोडसे तक को नहीं समझ पाए । वह विक्षिप्त था, जिसे वह सही समझता था उसके लिए बिना किसी व्यक्तिगत लाभ के अपने प्राण और मरणोत्तर सम्मान तक दे सकता था और उन बलिदानियों की कोटि में कुछ आगे आता था जो जान देते हुए यह भरम पाले हुए थे कि ‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मिटने वालों का यही नामो निशां होगा’ यह तो उस मरणोत्तर यश की भी बलि चढ़ा रहा था। अपना उल्लू साधने और सत्ता पर अधिकार जमा कर अपना इतिहास लिखवाने वालों की तुलना में वह बहुत महान था पर गांधी का नाम आए तो खुद को संभालिए।’