निदान -24
बौद्धिक लकड़बग्घे
हम दो अतियों के शिकार हैं । एक है जिनजबद्धता, जिसमें हम दुनिया को न केवल अपनी नजर से देखते हैं अपितु अपने अनुसार ढालना चाहते है। इसमें अपनी बुराइयों की ओर हम नहीं देख पाते या उनको भी उचित ठहराते हैं, परन्तु दूसरों की केवल बुराइयॉं दिखाई देती हैं। उनका कोई कारण हमें नहीं दिखाई देता, वे उसमें निसर्गजात मान ली जाती हैं। उसकी अच्छाई को हम नहीं देख पाते, या उनमें कोई ऐसा कोण तलाश लेते हैं जिसमें उसका अवमूल्यन किया जा सके, नकारा जा सके, या हास्यास्पद बनाया जा सके। मिल का इतिहासलेखन इसी सोच पर आधारित था।
इसे ही ईरानी सभ्यता को भारतीय सभ्यता से श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए भारत के ईरानी मूल से, फिर किसी भी पश्चिमी देश से, जुड़े हाेने पर गर्व करने वाले अभिजात मुसलमानों ने अपनाया और यह दुहराते रहे कि भारतीयों को न जीने का शऊर था, न कपड़े लत्ते का, न सलीके से बोलने चालने और व्यवहार करने का । वे उजड्ड रहे हैं और हमने उन्हें सभ्य बनाया है और उसी में जुड़ कर वह चक्र पूरा होता है कि पुरानी ईरानी या अवेस्ता की भाषा में वैदिक भाषा से समानता है तो इन दोनों में अवेस्ता की भाषा अधिक पुरानी है और फिर आर्यों की बर्बरता आदि की कहानियॉं गढ़ कर इस चक्र को पूरा किया जाता है।
इस तरह के आत्मवादी इतिहास से अपनी शाश्वत श्रेष्ठता का विश्वास अपनों में और सनातन बर्बरता का विश्वास दूसरों में उतारा जाता है। इससे अपने भीतर स्वामित्व का बोध प्रबल किया जाता है और इतरों में गुलामी के मूल्यों को उनकी चेतना का अंग बनाया जाता है जिसके लिए उन्हें धन मान भी दिया जाता है। यह मूल्य जब हमारी बौद्धिकता का अंग बन जाता है और हम इस पर गर्व करने लगते हैं तो यह स्मरण दिलाने पर भी घबराहट होती है कि किसी अवस्था में स्थिति ठीक इससे उल्टी रही है। चन्द्रशेखर जी जब प्रधानमन्त्री थे उन दिनाें धर्मपाल ने उनके साथ एक बात चीत का हवाला दिया है। उन्होंने जब बताया हमारी स्थिति वह नहीं थी जो बताई जाती है, बल्कि यह थी। चन्द्रशेखर ने हँस कर कहा, ”जब थी तब थी उसे जान कर क्या करेंगे, आज तो यह है।”
ऐसा ही उत्तर ऋग्वेद के प्रसंग में लोहिया जी के किसी कटाक्ष का सुना था जिसका ठीक सन्दर्भ और उनका वाक्य याद नहीं आता ।
ये दोनों लोग भारतविमुख नहीं थे जो कम्युनिस्टों को अन्तर्राष्ट्रीयता के नाम पर बना दिया गया था। इन सबमें सामान्य बात यह थी कि अपनी गर्दन झटकारने के बाद भी इन्होंने उस इतिहास का आत्मसात्करण कर लिया था जो धाक जमाने वाली सभ्यताओं द्वारा वशवर्ती समाजों को चिरन्तन वशवर्ती बनाए रखने के लिए तैयार किया जाता है।
वे इस मोटे सच से परिचित नहीं थे कि इतिहास की समझ हमारी चेतना के रूप का या कहें हमारी मानसिकता का निर्माण करती है और वर्तमान में सर झटकते रहने से उन बन्धनों से मुक्ति नहीं मिल सकती, न उस गति से आगे बढ़ा जा सकता है जैसे सामान्य स्थिति में होना चाहिए। इसके लिए यह जानना जरूरी है कि इन व्याख्याओं द्वारा हमें कब किस तरह बॉधा गया और इनको अपनी शक्ति और स्थिति का सही परिचय प्राप्त करके ही गुलामी की मानसिकता से बाहर किया और फिर पूरे मनोबल से आगे बढ़ा जा सकता है।
इस बात को मैं कई बार दुहरा चुका हूँ अौर आगे भी दुहराता रहूूँगा कि वर्तमान अतीत से अलग नहीं है, उसी का शिखर बिन्दु है जो नये शिखरों की ओर बढ़ने के साथ अतीत बनता चला जाएगा। उससे कट जाने पर या तो हम धँस जाऍंगे या उधिया जाऍंगे, अपने पॉंवों पर खड़े नहीं रह सकते।
दूसरी अति इसी का दूसरा सिरा है, अपनी दृष्टि पर विश्वास न कर पाना और अपने को और दूसरी चीजों को दूसरों की दृष्टि से देखना। यह उन मूल्यों के आभ्यन्तरीकरण से पैदा होता है जो दूसरो को गुलाम बनाए रखने के लिए तैयार किए गए थे और इनको आत्मसात् करने के बाद आप को उनका पालतू बन कर रहना आजाद रहने की अपेक्षा अधिक आरामदेह प्रतीत होता है। इसके प्रमाण स्वरूप मैं एक बार उन कीमती कुत्तों की याद दिला चुके हैं जिन्हें सब कुछ हासिल होता है जो उनके स्वामी को हासिल है, बस एक अन्तर के साथ जो उस जंजीर से पैदा होती है जिसका एक सिरा आपकी गर्दन में बँधा रहता है और दूसरा उसके हाथ में होता है। आप उन सुखों और सुविधाओं के अभ्यस्त हो जाने के बाद उसके इशारे पर ही अपनी गर्दन उस पट्टे और जंजीर को बॉंधने के लिए पेश कर देते हैं। न केवल गुलामी से आप समझौता कर लेते हैं, बल्कि उसे अपने स्वभाव का अंग बना लेते हैं। इसे ही हिन्दू समाज में पैदा करने के प्रयत्न में वह आयोजन किया गया जिसे मैं मध्यकालीन देवस्थलों, मठों और मूर्तियों को नष्ट और अपवित्र करने जैसा ही गर्हित मानता हूँ, परन्तु इसके जनक सुशिक्षित लोग थे, इसलिए इसे उससे भी अधिक गर्हित मानता हूँ।
”हम पहले भी यह कह आए हैं कि हमारे शिक्षा विभाग को निरापद मान कर नेहरू जी के समय से ही विरल अपवादों को छोड़ कर उन्हीं मुस्लिम नेताओं के हाथ में रखा गया जो अमीर परिवारों से आए, आधुनिक शिक्षा प्राप्त परन्तु मुस्लिम लीेगी मानसिकता के शिकार थे और इस इतिहास का अकाट्य और अपरिवर्तनीय पाठ बनाने का प्रयत्न करते हुए इतिहास और साहित्य की पुस्तकों का एकाधिकार एनसीइआरटी को सौंप दिया और इसके अकूल मानदेय का प्रलोभन दे कर इसे योजनाबद्ध रूप में इतिहास का पेशा करने वाले हिन्दुओं से लिखवाया गया जो ऊपर दिए गए दृष्टान्त के जानवर की तरह पद, प्रतिष्ठा और धन से आकृष्ट थे यह कहना भी उनके साथ अन्याय होगा, क्योंकि वे उस विचारधारा से बँधे थे जिसमें उसी अभिजात वर्ग और उनके सरोकारों और आशंकाओं से ग्रस्त मुस्लिम साथियों के दबाव में मुस्लिम लीग की कार्ययोजना को अपनी कार्ययोजना में शामिल कर लिया गया था, इसलिए दूसरे तथ्य जो अधिक दबाव पैदा करते थे, उस मुखौटे के पीछे चले जाते हैं, और इनकी गुर्राहट भरी व्याख्याओं के पीछे उनकी जंजीर अपने हाथ में रखने वालों की फितरत का पता नहीं चल पाता। लगता है यह विशुद्ध विचारधारात्मक सरोकार से किया जा रहा है।
इस मुखौटे के कारण, उनका इतिहासध्वंस भी एक विशाल पाठक वर्ग के लिए जिसमें सभी विचारधाराओं के उदार, मानवतावादी और ‘वैज्ञानिक’ सोच के भूखे बुद्धिजीवियों की नजर में तथ्यपरक, वैज्ञानिक और ‘मार्क्सवादी’ इतिहास होने का भ्रम पैदा करने में सफल होता है। इनकी व्याख्या में किस तरह की घालमेल की जाती है, इसका एक नमूना मैं ए.के. रामानुजन के रैबार के उसी अंक में प्रकाशित लेख के एक अंश से पेश करना चाहूँगा जिससे एक उद्धरण कल उपयोग में लाया था। इस लेख का शीर्षक है, Is there an Indian way of Thinking? इस लेख की रणनीति और तरकीब यदि आप तनिक भी शिथिल हों तो इस बात का कायल बना सकती है कि गुलाम मानसिकता वस्तुपरक और वैज्ञानिक मानसिकता है।
वह अपने पिता के ज्ञान, विषय पर अधिकार और उनके जीवनमूल्यों का उल्लेख करते हैं जिसे वह अपनी ‘आधुनिक शिक्षा और आधुनिक सोच’ के चलते अलग हट आए थे और अच्छी बात है कि वह इसे कनवर्सन की संज्ञा देते हैं:
I had just converted by Russel l to the scienific attitude’. I (and my generation ) was troubled by his holding together in one brain both astronomy and astrology; I looked for consistency in him he didn’t seem to care about, or even think about. When Iasked him what the discovery of Pluto and Neptune did to his archaic nine-planet astrology, he said, ‘You make necessary corrections, that is all.’ Or, in answer to how he could read Gita religiously having bathed and painted on his forehead the red and white feet of Vishnu, and later talk appreciatively about Bertrend Russell and even Ingersoll, he said, ‘The Gita is one’s hygene. Besides don’t you know, the brain has two lobes.
मुझे यह लगता है कि उनके पिता जी पांडित्य में उनसे कुछ उन्नीस पड़ते थे क्योंकि उन्होंने अपनी किसी ग्रन्थि के कारण आधुनिक दार्शनिकों, वैज्ञानिकों और विज्ञान के आविष्कारों और अनुसंधानों के प्रति उपेक्षा न दिखाई थी। उन्हें यह बाेध था कि विज्ञान में शाश्वत सत्य नहीं होता, नये तथ्यों के आने के बाद उन्हें उनके अनुसार समायोजित करना होता है जो वह कर रहे थे, वह रसेल को और इंगरसोल को पढ़ चुके थे और उनके विचारों का सम्मान करते थे और अपने पुत्र को उसकी आपत्तियों का निराकरण करते हुए अपना पक्ष रखते थे, जब कि अपने कनवर्सन के बाद वह छूट अपने पुत्र को नहीं दे सकते और उसे जाहिल और नासमझ कह कर प्रतिवाद करने तक से रोक सकते हैं।
उन्हें पता था मस्तिष्क में दो कोटर हैं और दोनों सजीव और अपने विरोधों के साथ जीवित और सक्रिय रहें तभी हम सही सोच रख सकते हैं, जो अभी आज की पहुंच में अप्रिय लग रहा है उसे, जब तक वह बाधक नहीं बनता है, उसका निर्वाह करना चाहिए, पता नहीं उनमें क्या सत्य छिपा हो जो आज हमारी समझ में नहीं आ रहा है, कल समझ में आए। मैंने अक्षत और चावल के संबंध की चर्चा करते हुए इसकी ओर संकेत किया था। कनवर्सन के बाद जैसे व्यक्ति अपने अतीत से संबंध काट लेता है, अपने इतिहास से मुँह मोड़ लेता है और इसी को अपनी वैज्ञानिक समझ समझने लगता है जिसको प्रमाणित करने के लिए वह आत्मतिरस्कार के लिए तर्क और प्रमाण तलाशने लगता है वैसा ही रामानुजन के साथ घटित हुआ लगता है।
अब रामानुनन द्वारा अपनी वैज्ञानिक समझ को स्थापित करने के लिए जिस रूप में भारतीय मान्यताओं को निकृष्ट सिद्ध करने के दृष्टान्त और प्रमाण दिए गए हैं और पाश्चात्य विचारों को बिना पकाए सिझाए निगल जाने का प्रमाण मिलता है, उसका नमूना यह है:
Another trait of ‘inconsistency’ is the apparent inability to distinguish self and non-self. One has only to read Manu after a bit of Kant to be struck by the former’s extraordinary lack of universality. He seems to have no clear notion of a uniersal human nature from which one can deduce ethical decrees like ‘Man shall not kill’ or ‘Man shall not tell an untruth’.
Manu VIII.267 (quoted by Muller 1883) has the following. A Kshatriya, having defamed a Brahmana, shall be fined one hundred (panas) ; a Vaishya one hundred and fifty to two hundred (panas); a Sudra shall have corporal punishment.
Even truth telling is not an ubconditional imperative, as Miller’s correspondents discovered:
An untruth spoken by people under the influence of anger, excessive joy, fear, pain, or grief, by infnats, by very old men, by persons labouring under delusion, being under theinfluence of drink, or by mad men, does not cause the speaker to fall, or as we would say, a venial not a mortal sin [Gautam paraphrased by Muller (1883, 70).
गनीमत है कि लंबी बहस के बाद वह आधा तेरा आधा मेरा वाले, लुटे हुए माल का आधा लुटेरे का और आधा लुटने वाले का वाली ‘समझदारी’ पर पहुँचता है। हम उसी के विवेचन से जिस सचाई का सामना करते हैं वह यह कि :
1. यह व्यक्ति जिसे अपने परिवार और परिवेश से यह अवसर मिला था कि वह मूल स्रोतों का अाधिकारिक ज्ञान रखने के बाद अपना मत बनाता वह अंग्रेजी शिक्षा के कारण, रसेल के मैं ईसाई क्यों नहीं हूँ की नकल करते हुए बिना उन कारणों पर ध्यान दिए, मैं हिन्दू क्यों नहीं हूँ सिद्ध करने के अभियान पर जुट गया और इस उत्साह में जो सुलभ ज्ञान था उससे वंचित हो गया।
2. उसे संस्कृत भाषा और साहित्य का ज्ञान पाश्चात्य विद्वानों के माध्यम से है ओर वह उन्हें जाँचने परखने की योग्यता नहीं रखता।
3. वह विधि विधान को दार्शनिक स्थापना मान लेता है और दर्शन जिनमें वैश्विक और सार्विक का चिन्तन किया जाता है, उनमें से किसी का उसे ज्ञान नहीं और यह ज्ञान तक नहीं कि विधिविधान में बहुत सारे अपवाद और उपविधान होते हैं और इसके बिना वे लट्ठविधान बन जाएँगे। आज भी न्याय विचार में उन परिस्थितियों का ध्यान रखा जाता है जिनमें वह अपराध हुआ है और इसका इस हद तक पालन किया जाता है कि इसके बल पर अपराध के वकीलों की इमारते न्याय से भी ऊपर चली जाती हैं।
4. यह मैक्समूलर को उद्धृत तो करता है परन्तु इन्हीं के माध्यम से मैक्समूलर भारतीय सभ्यता का जो मूल्यांकन करते हैं उससे बचने या उसे छिपाने का प्रयत्न करता है।
5. इसे अपनी तुलना में कालरेखा का ध्यान नहीं, दो हजार साल पहले के भारतीय विधान को आज के दार्शनिक आख्यान से जोड़ते हुए देखता है, दर्शन का विधिव्यवस्था से घालमेल और कालक्रम का घालमेल।
इसी के बल पर यह अतिपठित पर दिमागी तौर पर दिवालिया विद्वान हमारे मार्क्सवादी व्याख्याकारों को तिनके का सहारा ही नहीं देता वे उस तिनके को पहाड़ बना कर पेश करते हैं जिसको गाली देने की प्रबल इच्छा के बाद भी ह से आगे बढ़ नहीं पाता, मानहानि के डर से, पर सचाई तो यही है कि ये सोचने ही नहीं पढ़ने तक में हमारी पैस्सिविटी के कारण हमारे बौद्धिक कायाकल्प के लिए प्रयत्नशील हैं।