मैंने कहा था, हिन्दी पर अगली पोस्ट शाम को, पर नहीं जानता था कि उस पोस्ट को पूरा करने के बीच में ही कविता की कृपा हो जाएगी। इसलिए उसे कल के लिए स्थगित करते हुए इस खुराफात पर नजर डालें:
रात ऐसी कि तड़प बन गई हो खामोशी।
दिन कुछ ऐसा कि रोशनी में दिखाई न पड़़े।
याद ऐसी है कि कॉमा में जगह ढूढ़ते हैं
चीख ऐसी कि पासबॉं को सुनाई न पड़े ।
गुरुवार, 11 फरवरी 2016
कल मिलेंगे।
पर यह रचना प्रकिया का एक रहस्य है जो मुझे भी नहीं मालूम था और आप को भी मालूम न होगा। इससे पहले मैंने उन पोस्टों को देखा था जिनमे जेएनयू मे अफजल गुरु की आड़ में अराजकता और राष्ट्रद्राेह फैलाने के आयोजन किए गए थे। जेएनयू वामपंथी रुझान के लिए जाना जाता रहा है, वैचारिक खुलेपन के लिए नहीं। वामपन्थी भटकाव कदम दर कदम बढ़ते हुए राष्ट्रद्रोह और अराजकता का पर्याय बन जाएगा यह सोचा तक न था। यह चिन्ता अन्तर्मन में थी और काम अपने विषय पर कर रहा था, चिन्ता ने विवेक को रौदते हुए कविता मे अपनी अभिव्यक्ति ढूढते हुए लेखन क रास्ता रोक लिया। अपनी सांकेतिक भाषा में कहा, किस युग में अटके हो, इस यथार्थ को तो देखो। मैं कितना अकिंचन हूॅ और कितना असहाय।
पत्थर भी कोई है जो सिर को सुकून देगा, टकरा भी अगर दूँ तो क्या खून भी निकलेगा।