अस्पृश्यता – 7
तुम क्या समझते हो, फॉंसी की सजा बनी रहनी चाहिए या… ‘’
वह चुप लगा गया, और देखिए कि उसकी अनकही बात मेरी समझ में भी आ गई। ”जो मनुष्य के रूप में मर चुका है और जिसके जीवित रहने से मनुष्यता को खतरा है, उसके एक प्राणी के रूप में भी मर जाने पर क्लेश नहीं होना चाहिए। हॉं तरीका मानवीय हो, उसकी हत्या को यन्त्रणा से मुक्त रखा जाय, यह जरूरी है। फॉंसी पर लटकाना यातनावध है और इसलिए जल्लाद को भी हम गर्हित समझते हैं, जब कि वह किसी जज के आदेश का पालन कर रहा होता है और जज के बारे में हमारे मन में आदर होता है और जज उस कानून का पालन कर रहा होता है जिसे बनाने वाले यातनावध का आनन्द लेते थे। हमारे आलसी सांसदों को उस कानून को बदलने और कोई अन्य मानवीय तरीका निकालने की सूझी ही नहीं, इसलिए जजों को अब मृत्यु दंड को आजीवन कारावास में बदलने यानी पिजड़े में बन्द करके रखने का एक मात्र उपाय दिखाई देता है।”
”और अस्पृश्यता के विषय में तुम्हारा क्या खयाल है? यह भी तो दंड का ही एक रूप रहा है।”
यह बताओ तुम्हारी उम्र क्या है, अस्सी पूरे हुए या नहीं।
वह हँसने लगा, ”हो गए, जानते तो हो। पर उम्र की बात कहॉं से आ गई?”
‘’पहले मैं सोचता था कि कम से कम अस्सी पर पहुँच कर तो बालिग हो ही जाओगे, निराशा ही हाथ लगी। फिर भी तुम हर बात को अधूरा ही क्यों समझते हो? मैंने कहा था, अस्प़ृश्यता का केवल एक पक्ष आदिम दंडविधान से जुड़ा था। अब वह दंडविधान बदल गया उसका स्थान नए दंडविधान ने ले लिया, अत: उसकी कोई उपयोगिता नहीं, उसे समाप्त हो जाना चाहिए अन्यथा खाप पंचायतों जैसे कानून से टकराने वाले फैसले समानान्तर जारी रहेंगे।
‘इसका दूसरा पक्ष आत्मरक् षा से है, आरोग्य से है, इसको समाप्त नहीं किया जा सकता।
‘एक तीसरा खानपान से है जिसका चरित्र बहुत उलझा हुआ है और आदिम टैबू या निषेध से जुड़ा है। आगे चल कर यह अर्थतान्त्रिक हो गया। परन्तु इस विषय में हमारा पुराना व्यवहार अधिक सुलझा रहा है। कोई किसी तरह का खानपान करे, यदि वह हमारे लिए निषिद्ध आहार करता है तो उसके साथ हम खान पान का संबन्ध नहीं रखेंगे, उनके साथ हमारा संपर्क लगाव और बराव का समायोजित रूप होगा। पंडित विद्यानिवास मिश्र का नाम सुना है?’
‘उनका नाम कैसे न जानूँगा, तुम्हारी संगत के बाद भी मेरा सामान्य ज्ञान उतना खराब नहीं है, लेकिन वह कहॉं से आ टपके?’
‘वह पंक्तिपावन, सरजूपारीण ब्राहण थे और पावनता का एक प्रमाण यह था कि इन्होंने बौद्धमत के दबाव में भी जब दूसरे सभी ब्राह्मण अपना मांसाहार प्रेम त्याग कर शाकाहारी हो रहे थे, और इस हद तक शाकाहारी हो गए कि प्याज और लहसन तक से परहेज करने लगे, इन्होंने उसके सामने घुटने नहीं टेके। हाँ समझौता इन्होंने भी किया। इनका आमिष आहार मत्स्याहार तक सीमित रह गया था। परन्तु विद्यानिवास जी इस हद तक आमिष द्रोही थे कि वह किसी दूसरे के वर्तन में पानी तक नहीं पीते थे। अपना चॉंदी का गिलास साथ रखते थे। वह पंप का पानी भी नहीं पीते थे, क्योंकि उसका वाशर चमड़े का होता है। इसके साथ ही वह अपने टीका, चोटी, उपवीत ही नहीं दिशाशूल तक का ध्यान रखते थे, इस निजी शुचिता और मान्यता के कारण असुविधा का सामना तो करते थे पर किसी के लिए असुविधा पेश नहीं करते थे। दूसरों से किसी तरह का द्रोह या दुराव नहीं । भारत में लोग उनकी खिल्ली उड़ाते थे, परन्तु यहॉं के आधुनिक लोग जिस अमेरिका की नकल करते हैं, उसके आधुनिक उनका इस बात के बावजूद बहुत सम्मान करते थे। अमेरिका में अज्ञेय जी से अधिक सम्मान विद्यानिवास जी का था, यह पता है।
”किसी व्यक्ति या विचारधारा को यह मानने का अधिकार नहीं कि वह आदर्श है और जो उसके अनुसार नहीं चलता वह दुष्ट, हीन या पिछड़ा हुआ है।‘
वह मेरी बात से सहमत था।
‘जानते हो खानपान विषयक अस्पृश्यता ने आत्मसम्मान और आत्मररक्षा के सबसे प्रभावकारी हथियार का काम किया है। तुम उस दिन कह रहे थे कि अस्पृश्यता का हमारे समाज को बहुत भारी मूल्य चुकाना पड़ा है, वह तो कुछ दूर तक सच है, पर ‘खट्टा-खट्टा-मेरा; मीठा-मीठा-तेरा, अब तो मान जा प्यारे’ वाले इतिहास में जो कुछ पढ़ाया जाता रहा है वह मेरी समझ में नहीं आता। अस्पृश्यता से तंग आ कर अधिकांश अस्पृश्य हिन्दू जातियों ने इस्लाम कबूल कर लिया या ईसाइयत अपना ली यह यदि सच है तो चमार, धोबी, पासी, धरिकार, निषाद आदि जातियों को इस्लाम में जगह मिल जानी चाहिए थी। इनकी तुलना में बुनकर, जिनकी सामाजिक स्थिति इतनी खराब न थी, पूरे-के- पूरे मुसलमान हो गए और कमाल की बात यह कि मुसलमान होने के बाद भी हिन्दू मुहावरों में बात करते रहे, यह समस्या पर पुनर्विचार करने की मॉंग करता है।‘
‘पुनर्विचार करते हुए तुम कहॉं तक पहुँचे हो यह तो समझूँ। कहीं यह न कह देना कि इनको भी मार पीट कर मुसलमान बनाया गया। तुमने जो लाइन पकड़ी है उसमें यह असंभव नहीं।‘
‘मैं कुछ कहूँ या नहीं, तुमने स्वयं कह दिया। जानते हो न, जबर्दस्त नकार स्वीकार का बहुत खरा रूप होता है। तुम्हारे दिमाग में भी विकल्प के रूप में यही संभावना नजर आई। खैर कभी किसी पूरी जाति को चुन चुन कर मारा जाय और धर्मपरिवर्तन कराया जाय यह उससे भी हास्यास्पद है जितना अस्पृश्यता से तंग आ कर धर्मान्तरित होना। जो विकल्प, मुझे दिखाई देता है उसका कुछ आभास तुलसी दास ने अवश्य दिया है कि सत्ता के मद या समर्थन से कुछ तत्व घरों में घुस कर सिल पत्थर तक तोड़ देते थे। बुनकर के पास सूत और कपड़ा तो होता ही था, यदि जजिया के दौरों में या अन्यथा भी कुछ न मिला तो कच्चा-पक्का माल ही उठाने की नौबत आ जाय तो कुछ दिनों के बाद तंग आकर उनका घुटने टेक देना स्वाभाविक लगता है। ढाके की मलमल की तारीफ तो दुनिया करती थी, बुनकरी का कारोबार किन्हीं कारणों से, जिनमें से एक मणिपुर आदि से उसकी निकटता भी हो सकती है, जहॉं किसी पैमाने पर रेशम के वस्त्र बहुत पहले से बनते थे, इसलिए बारीक से बारीक धागे की प्रेरणा का वह स्रोत रहा हो सकता है। खैर मलमल के उद्योग में पूर्वी बंगाल अग्रणी था और अधिकांश घरों में बुनकरी होती थी। जिन परिस्थितियों की मैं कल्पना करता हूँ उनमें उनके धर्मान्तरण के कारण आज का बांग्लादेश मुस्लिम बहुल होने को बाध्य था। किसी सूफी चमत्कारी का प्रभाव भी इससे जुड़ा हो सकता है। बहुत कुछ रहस्यमय है।
‘तुम्हाुरा जवाब नहीं। बंगाल में लोगों ने स्वेच्छा से इस्लाम कबूल किया था, अल्लाहोपनिषद वहीं लिखा गया था। तुम्हें पता है।‘
‘तुम्ही कह रहे हो कि अल्लाहोपनिषद लिखने वाला अस्पृश्य नहीं रहा हो सकता। तुम्ही कह रहे हो कि किन्हीं परिस्थितियों में वह एक मध्यमार्ग निकाल कर किसी प्रकोप से अपने को और अपने पुराने रीति और विश्वास को बचाए रखने की कोशिश कर रहा था। कोसंबी ने सत्य नारायण व्रत कथा का स्रोत भी बंगाल के सत पीर से तलाशने की कोशिश की, पर यह हिन्दुओं में क्यों अधिक प्रचलित हुआ, इसकी अन्तर्स्तु उस बृहत्तहर भारत की क्यों है जिसमें मसाले के देशों से भारतीय व्यापार होता था और यहॉं से उस मसाले का निर्यात यूरोप तक होता था। मेरी समझ से कथा पुरानी थी और उसको भी पीर से समायोजित करके अपनी जान और ईमान बचाने का एक प्रयत्न हुआ हो सकता है। बंगाल पर आधिपत्य कायम करने वाले सूबेदार बहुत क्रूर थे और उनका दमन करने वाले उनसे भी अधिक क्रूर, क्यों कि वहॉ राजस्थान की तरह प्रतिरोधी शक्तियाँ न थी।‘
‘तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। हर चीज में बिना समझे बूझे टॉंग अड़ाते हो।‘
‘तुम्हारी इस बात से सहमत हूँ और चाहता हूँ समझ बूझ कर कोई ऐसा इतिहास लिखो जो समझ में आए। तब इतिहास रटने की चीज नहीं रह जाएगा, सुलझी पहेली की तरह ऑंखों के आगे उपस्थित हो जाएगा। मैं केवल यह जानता हूँ कि इस्लाम कबूल करने वालों में राजकीय सेवा में लगने वाले, जजिया आदि से तंग आने वालों में कुछ और विविध कारणों से दंड स्वरूप गोमांस आदि खिलाए जाने पर अपराध बोध से स्वयंको अपने घर परिवार से अलग हो जाने वाले ऊँची जातियों के लोग और चमत्कार में विश्वास करने वाले जनसाधारण जो सूफियों के जाल में फॅसे, अधिक थे।
‘तुम तो उस सूफिज्म को भी कलंकित करने पर आ गए जो प्रेम, भाईचारे और सद्भावना का प्रतीक है। तुमसे क्या बात करें।
‘छोड़ो इसे, मैं खुद अँधेरे में हूँ तो तुम्हें क्या समझाऊँगा, पर प्रेम सद्भावना आदि बड़े भ्रामक शब्द है, जब तक यह न समझ में आए कि किससे, किसका, और क्यों । तुम्हारी घरवाली से कोई पड़ोसी प्रेम करने लगे, या तुम्हारे बच्चे को कोई दूसरा फुसला बहका कर तुमसे विमुख करने लगे तो इनकी अर्थछाया बदल जाएगी। मतलब तो इस्लाम का भी प्रेम ही होता है, यह तुम जानते हो। अरे, तुम नाराज हो कर उठ खड़े हुए अभी तो विषय पर आए ही नहीं।‘
‘ऐसी बातें सुनता रहा तो मेरा भी दिमाग खराब हो जाएगा। धैर्य की भी एक सीमा होती है।‘