Post – 2015-11-19

आ बैल मुझे मार!

“आ बैल मुझे मार! मुहावरा सुना है कभी?” आज उसके हाथ में अखबार नहीं एक पतली सी किताब थी।
“बैल लगते तो नहीं तुम। सींग की जगह हाथ में किताब है।“
“तुमने कहा था न पहले परिभाषित करो फिर बात करो, तो यह रहा फासिज्म का मतलब। देखो इसे।“
“देख लिया, अब बताओ।“
“तुम जानते हो संघ का मतलब क्या होता है?”
“जो मतलब तुम लगाते हो, वह मैं कैसे जान सकता हूँ?”
“संघ का मतलब ही है फासिज्म।“
“मैंने सोचा तुम संघ का मतलब संहार लगा रहे हो।“
“वह भी यार। देखो फासिज्म जिस लातिन शब्द फासिओ से बना है, उसका मतलब है लट्ठों का ऐसा गट्ठर जिनके बीच एक कुल्हाड़ा भी छिपा है। अर्थ है संगठितशक्ति और आक्रामकता तो हुआ न संघ का मतलब फासिज्म। जानते हो इसका सबसे पहले मुसोलिनी ने फ्रांस की क्रान्ति से उपजे बराबरी, स्वतंत्रता और भाईचारा के नारों के विरोध में, ‘राजनिष्ठा, आज्ञाकारिता, नागरिकों के भी सैन्यीकरण और युद्ध से शक्ति विस्तार के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किया था।“
“तुमने ताजा-ताजा ज्ञान प्राप्त किया है, और बताओ।“
“इसके कुछ तत्व हैं। चरम दक्षिण पन्थ, राष्ट्रवादिता, नस्लवाद, लोकतन्त्र में अविश्वास, तानाशाही, देशभक्ति, और सांस्कृतिक अस्मिता की खोज। इसमें भी वे सारे तत्व पाये जाते हैं।“
मैंने कहा, “सुनते हैं इसका दौर 1919 से 1944 तक ही रहा। अब वह दफ्न हो गया। जहाँ पैदा हुआ था वहाँ भी । जहाँ जहाँ फैला वहाँ वहाँ भी इसका रूप बदलता गया। और अब तो दुनिया में कहीं नहीं रह गया।“
देख सको तो पाओगे कि वह इस देश में भी है और न देखना चाहो तो देखने वालों की आँखें फोड़ दो। वह तो तुम करोगे ही।“
“मैं नहीं करूँगा पर अपने को सही साबित करने के लिए तुम अपनी आँखें फोड़ लोगे और चिल्लाओगे भी कि देखो इसने मेरी आँखें फोड़ दी, अब तो इसे फासिस्ट कहो।“
वह हँसने लगा, “सच कहो तो तुम्हें मिटाने के लिए मैं यह भी कर सकता हूँ।“
“कोई फर्क नहीं पड़ेगा। देखने का काम आँखों से आज भी नहीं ले रहे हो तब लेने की झंझट ही न रह जाएगी। मैंने कुछ बातें गाँठ बाँधने के लिए कही थी, उनमें एक यह था कि किसी भी परिघटना की ऐतिहासिक परिस्थितियाँ होती हैं जिनके निर्माण में केवल उसका हाथ नहीं होता। दूसरा कालक्रम में सभी के चरित्र में बदलाव आता है।“
“यह बात कभी नहीं कही।“
“चलो इन्हीं शब्दों में नहीं कह पाया होउूँगा। फिर कहा था यदि पहले घटित के बहुत से घटक अन्यत्र मौजूद हो, एक दो ही घट-बढ़ जायँ तो नतीजा इतना बदल जाएगा कि कहने को वह भले वही रहे, आचरण या प्रतिफलन बदल जाएगा। यदि तुमको केमिस्ट्री का थोड़ा भी ज्ञान हो तो इसे आसानी से समझ सकते हो। ताप में, माप में, घटक में, अनुपात में मामूली भिन्नता उसको वही नहीं रहने देती जिसे हम बनाना चाहते थे। समाज की भी एक केमिस्ट्री होती है। घटनाओं की भी।
“तुम दुनिया भर की बातें सुनते जुटाते रहे पर उन तथ्यों पर ध्यान नहीं दिया जो इसकी कोशिश के बावजूद इसके चरित्र को बदल रही थी। तुम जानते हो जिन दिनों लीग और अभिजात मुस्लिम परिवार एक अलग मुस्लिम देश निकालने की बात कर रहे थे, और यह शोर बहुत तेज हो गया था उन्हीं दिनों वह किताब आई थी जिसमें हिन्दू देश और उसमें रहने वाले अहिन्दुओं को उसी तर्ज पर दूसरी कोटि का नागरिक मानने या नागरिकता से वंचित करने आदि की बातें आई थीं। लेकिन उसी पुस्तक का एक दूसरा संस्करण भी उसी साल उसी संस्था से आया था जिसमें एम एस अणे की भूमिका थी जिसमें उन संकीर्णताओं की, संकुचित राष्ट्रवाद की अव्यावहारिकता विश्व सन्दर्भ में इनको रखते हुए सिद्ध की गई थी। उस पर तुम कभी घ्यान नहीं देते कि स्वयं उसी विचारधारा में उसकी सीमाओं को लक्ष्य किया जाने लगा था, क्योंकि उससे तुम आग लगाने का वह काम नहीं कर पाओगे, जो करते आ रहे हो। उसके दो टुकड़े इस प्रकार हैं
10 – He seeks to define “nation.” From the Latin word “Natio’ meaning birth or race and signified a tribe or social group with a same language. Later in the mediaval universities it was used to establish voting rights. 11 – But there is no scholarly work on the subject in any language. Of those who he notes as having written on it, one is Israel Zangwill.
25 – People thinking about the problem of Muslims often forget to distinguish between nation and state. “No modern State has denied the resident minorities of different nationalities rights of citizenship of the State.” Foreword by Lokanayak M.S.Ane
अब मैं बार-बार इसी विषय पर नहीं लौटूँगा। कहना यह है कि सब कुछ जितना इकहरा बना कर दिखाया जाता है उतना होता नहीं है। हम अपने बच्चों तक को अपनी इच्छानुसार नहीं ढाल पाते। हम अपने आग्रह में जितना ही कठोर होंगे, उतने ही उल्टे स्वभाव या दृष्टिकोण की संभावना होगी। एक आदमी हिन्दू नाम से अखबार निकालेगा, उसी की औलाद को उसी हिन्दू से हिन्दू नाम से इतनी चिढ़ हो जाएगी कि उसकी हर चीज की भर्त्सना उसी अखबार से करने की नीति अपना लेगा। निर्मल चंद्र चटर्जी का पुत्र सोमनाथ चटर्जी हिन्दू महासभा का कट्टर आलोचक कम्युनिस्ट बन जायेगा हो। नाम कम्युनिस्ट पार्टी रहेगा, आत्मा में लीग का एजेंडा घुस जाएगा।“
“इसी तरह मैं कहूँ कि तुम अपने को सच्चा मार्क्सवादी कहोगे और तुम्हारी आत्मा में आरएसएस घुस आएगा, तो क्या गलत होगा?”
“ऐसा लगे तो मैं अपने को ही दोष दूँगा। कहा था न कि यदि श्रोता नहीं समझ पाता, या गलत समझ लेता है तो दोष वक्ता का ही है। यही बात समग्र व्यवहार के विषय में भी कही जा सकती है जिसमें बोलना, लिखना, जीवनशैली सभी आते हैं। इसलिए यदि कोई व्यक्ति घबराहट में ऐसा कहे, उससे जवाब न देते बने तब कहे, तो मैं उसके साथ सहानुभूति रख सकता हूँ। यदि वह कोई उदाहरण देते हुए बताए तो मैं उसका उपकार मानूँगा और अपने दृष्टिकोण में बदलाव लाऊँगा।
“खैर, मेरी समझ से, फासिज्म एक ऐसी चीज है जो पूँजीवादी विकास के बाद, उसी से उत्पन्न समस्याओं के बीच से कोई सही रास्ता निकालने की अनेक कोशिशों के बीच एक दार्शनिक चिन्तन की परिणति थी जिसमें फिक्टे और हीगेल जैसे प्रकांड विद्वानों के दर्शन का भी हाथ था, और जिसकी जड़ें मैकिआवेली से होते हुए ग्रीस तक उतरी मिलेंगी। इसके एक रूप सिंडिकेटवाद का जो राज की सत्ता को ही नकारता था, और जिसने अराजकतावाद को जन्म दिया था और जिसके प्रवक्ता प्रूधों थे, उनका प्रभाव मार्क्स पर भी पड़ा था गो मार्क्स उससे बाहर आ गए थे। पर कम्यून की स्वायत्तता और राज्य के खात्मे की बात कम्युनिज्म में भी आई। यह प्रूधों ही था जिसने धन के एकत्रीभवन को चोरी की संज्ञा दी थी। विचारों की एक खलबली के बीच पैदा हुआ था फासीवाद और नाजीवाद इसलिए इसके भिन्न रूपों में कम्युनिस्ट समग्रतावाद को भी गिना जाता है। मेरी योग्यता इस पर अकादमिक बहस करने की नहीं है, न ही उसकी जरूरत समझता।
“मैं केवल यह कह सकता हूँ कि जैसे फलों, फूलों, यहाँ तक कि जीव प्रजातियों का एक अनुकूल प्राकृतिक और भौतिक परिवेश होता है उसी तरह कुछ विचारों, आन्दोलनों के साथ भी है। यूरोप में जो हुआ वह दूसरी जगह नहीं हो सकता, परन्तु किताबी ज्ञान रखने वाले अपनी सामाजिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पृष्ठभूमि को समझे बिना उन्हें झपटने की कोशिश कर सकते हैं और इस तरह की कोशिश में खासा सत्यानाश कर सकते हैं। जरूरत उन लक्षणों को पहचानने और उनसे बचने की है।
“संघ ने अपने चरित्र में बहुत बदलाव किया है। दबाव के चलते किया है। भारत की सामाजिक बहुलता में फासीवाद पनप ही नहीं सकता, परन्तु इसके कुछ लक्षणों को पाकिस्तान ने अपनाया और उसका फल भोग रहा है।
“फासिज्म के अन्तिम गठजोड़ वाले नाजीवाद का एक दुर्गुण था झूठ को सच बनाने की कला। संचार माध्यमों पर नियन्त्रण। विचार माध्यमों का नियन्त्रण। अपने झूठ को प्रचारित करने के लिए प्रगल्भ वक्तृता या ओरेटरी का सहारा। इसके लिए प्रशिक्षण केन्द्र खोलना। भिन्न विचारों के प्रति घृणा का प्रसार, लगातार एक ही झूठ को दुहराते हुए उसे एक खौफनाक औजार बना देना। इन सबका सहारा आपात काल के समय से सत्ता में पैठ बना कर तुम करते रहे हो। फासिस्ट तो तुम हो भाई। वे तो फासिज्म का धोखा है, जो खेतों में चिड़ियों और जानवरों को डराने के लिए खड़ा कर दिया जाता है। उनकी हालत में तो इतना बदलाव आ गया है कि एक समय में उनका रणनीतिकार कहता था कि उसके हिन्दू देश में इतर जनों के लिए जगह नहीं होगी, फिर सुधार किया कि उन्हें इसे ही अपनी जन्म भूमि, कर्मभूमि और धर्मभूमि मानना होगा। फिर लगा कुछ ज्यादती हो गई, तो नारा लगाने लगे कम से कम इस भूमि की बन्दना तो करनी ही होगी, बन्दे मातरम् तो कहना ही होगा। अन्त में वह भी दब गई और अब पुकारते हैं भाई हमे मुसलमानों इसाइयों की बराबरी का दर्जा तो दो, सबके लिए समान कानून तो बनाओ, वे कानून जो रीति से नहीं मानव अधिकारों से जुड़े हुए हैं और इस बराबरी की माँग को भी तुम सांप्रदायिकता करार दे बैठते हो। जितनी भर्त्सना उनकी तुम करते आए हो उतनी तो नाजियों ने भी यहूदियों की नहीं की होगी। मौका मिले तो तुम इनके साथ क्या कर सकते हो, पता नहीं ।
“देखो फासिज्म का सबसे प्रधान लक्षण है लोकतन्त्र का विरोध। इसी से अराजकतावाद, फासिज्म, कम्युनिज्म सभी का जन्म हुआ है। आज जो तुम्हारा गुस्सा है वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुने हुए व्यक्ति को, वह कुछ अच्छा भी करना चाहे तो, हम करने नहीं देंगे। उसे बदनाम करके गिरा कर दम लेगे। भई बदनाम करने की ताकत, घृणा का प्रसार करने की ताकत तुम्हारे पास और फासिस्ट वह! बात गले नहीं उतरती यार!”