Post – 2020-06-06

#शब्दवेध(55)
शुष्क भी द्रव है

माटी/मृदा
पहला सवाल तो यह कि माटी और मृदा में कौन किससे निकला। मैं भदेस कहे जाने वाले शब्दों को तत्सम प्रतिरूपों का जनक मानता हूँ जैसे वनचर मानुस को सभ्य मनुष्य का जनक। इसे बहाने से दुहराना इसलिए पड़ता है कि हमारी चेतना में यह बात बहुत गहराई में उतार दी गई है कि बोलियाँ संस्कृत के स्खलन से पैदा हुई हैं। इसके पीछे एक सोची समझी चाल थी जो भारतीय ब्राह्मणों के मिथ्या श्रेष्ठताबोध से मेल खाती थी। सही समझ और मनुष्य को मानवीय बनाने के रास्ते में वर्णवाद, नस्लवाद और वर्चस्ववाद सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। ये सामाजिक समस्याओं की वैज्ञानिक समझ को भी असंभव बनाती हैं। जैसे किसी व्याधि से मुक्त होने की चिंता सबसे पहले बीमार को करनी चाहिए, उसी तरह इनसे मुक्त होने का प्रयत्न इनसे ग्रस्त लोगों को करनी चाहिए। होता उल्टा है क्योंकि ये कुटेव या नशे की लत की तरह हैे।

माटी में वही भाव है जो माता में होता है जो मृदुता मे है। है तो यह एक वाग्विलास ही पर संभव है इसमें सचाई भी हो।

माटी के साथ दो शब्द अनायास याद आते हैं, 1. अं. मड और, 2. मटका, मटकी, मेटा, मेटिया। दूसरे वर्ग के शब्दों के विषय में पहले यह सोच कर रुक जाता था कि इनका नामकरण इस आधार पर किया गया लगता है कि ये मिट्टी के बने हैं- पत्ते का बना पत्तल, काठ की बनी कठौत, इसलिए मिट्टी का बना मटका/मेटा। परन्तु इसके साथ ही याद आता है कि पानी रखने के मिट्टी के दूसरे पात्रों का नामकरण जल पर आधारित है – कल – जल >कलश, गं/गंग – पानी > गगरी, गगरा, गंगाल। ऐसी स्थिति में इस बात का पता लगाया जाना चाहिए कि कहीं इसका भी अर्थ जलपात्र तो नहीं। मेटा, मीठा, मीड, मीट, मेडु> मृदु, मेदु, मधु, मध, मद, मत, मट का सजात है और एक ही अर्थ-संकुल से जुड़ा है। इन सभी का मूल अर्थ जल है जो रस, मधुर, खाद्य आदि के लिए प्रयोग में आया। अर्थविस्तार अन्य दिशाओ में भी हुआ इसे मत>मंत – युक्त, मेट>मेठ> मठ – शीर्ष, सबसे बड़ा से समझा जा सकता है।

अंग्रेजी में मीड ( mead – honey and water fermented and flavoured), मधु; मेलो (mellow – soft) मृदुल; मैट/ मैट्रिक्स (mat, matrix, matron, L. matrona- , mater -mother) मातृ, और मैड (mad, from Old English gemædde “out of one’s mind” (usually implying also violent excitement), also “foolish, extremely stupid,” earlier gemæded “rendered insane,”) मद/ मत्त और मड (mud-a wet soft earth), मृदा एक ही संकुल में आते है। हम इसके साथ मैटर (matter, that which occupies space, that out of which anything is made.), माटी और मैटीरियल (material) को भी रखना चाहेंगे, पर सीधा सूत्र उपलब्ध नहीं है।

शतपथ में एक कथा है जो प्रेरित तो नासदीय सूक्त से लगती है, पर है नयापन लिए। इसके अनुसार सबसे पहले तो प्रजापति ही था। उसके जी में आया, वह आत्मवृद्धि करे। इसके लिए उसने श्रम और तप किया और जब थक कर निढाल हो गया तो उससे जल पैदा हुआ। फिर जलों को यह चिंता हुई कि वे टिकें तो टिकें कहाँ। अब उन्होंने भी श्रम और तप किया और जब थक कर निढाल हो गए तो उनसे फेन पैदा हुआ। फिर फेन ने सोचा हमारा ठिकाना कहाँ है। उत्तर मिला श्रम और तप करो। उसने श्रम और तप किया और जब थक कर निढाल हो गया तो उससे मृदा पैदा हुई। फिर इसी प्रक्रिया से मृदा से सिकता और सिकता से शर्करा और शर्करा के अश्म, अश्म से अयस और अयस से हिरण्य उत्पन्न हुआ। हमारे लिए इसमें काम की सूचना यही रह जाती है कि इस विधान में भी माटी जल से ही उत्पन्न मानी गई है यद्यपि इसमें नामकरण की समस्या पर प्रकाश नहीं पड़ता।[1]

[1] प्रजापतिः वा इदं अग्र आसात् ।एक एव सः अकामयत स्यां प्रजाय इयेति। सो अश्राम्यत् स तपो अतप्यत। तस्मात श्रान्तात् तेपानात् आपो असृज्यन्त, तस्मात् पुरुषात् तप्तात् आपो जायन्ते।1। आपो अब्रुवन् । क्व वयं भवाम इति। तप्यध्वं इति अब्रवीत् । ता अतप्यन्त । ता फेनं असृजन्त, तस्मात अपां तप्तानां फेनो जायते। फेनो क्व अहं भवान इति। तप्यस्व इति अब्रवीत् सो अतप्यत स म़दं असृजत एतद् वै फेनः तप्यते यत् अप्सु आवेष्टमानः प्लवते स यत उपहन्यते मृदा एव भवति।… सा अतप्यत सा सिकता अभवत….सिकताभ्यः शर्करां असृजत् …शर्कराया अशमानं…अश्मनो यो धमति असो हिरण्यं…शतपथ ब्रा. 6.1.3-5.

सिकता
सिकता के आदि में आए सिच् /सिक् – जल, सिक्त-सराबोर, सेक/सिच/ सिंच – भिगोना, पर ध्यान दें तो संदेह न रहेगा कि इसे यह संज्ञा जल की ध्वनि से मिली है।

बालू
बालू की संज्ञा कुछ पेचीदी है। पाल् – जल (पाला – तुषार) त.और ते. ( पाल्, पालु) दूध के लिए प्रयोग में आता है जो पय-जल >दूध को देखते स्वाभाविक है । इसके प्रभाव से पल/पाल बल/बाल नए आशय के साथ प्रकट हुए। ०बाल – दूध, बाल/ बालक- दूध पीता बच्चा और पालन में पाल-दूध पिला कर पोषण करना। बालू पाल पानी/ दूध के उसी तर्क से यह बालू की संज्ञा पा सका।

रेत
रेत का तो अर्थ ही जल है, और यह उसी रित>ऋत का सजात है जिसका पुराना अर्थ पानी था। दिवो न यस्य रेतसः दुघानाः ऋ. 1.100.3 में रेतस का अर्थ करते हुए सायण लिखते हैं ‘रीयते गच्छन्तीति रेतः उदकं, परन्तु इसका अर्थ संकोच इस तरह हुआ है कि ग्रिफिथ इसके गति वाले पक्ष को भुला कर संदर्भ (मरुतों के निर्बाध वहां भी पहुँचने का जहां कोई दूसरा नहीं जा सकता) की अवहेलना करके इसका अर्थ जीनियल म्वाएस्चर (genial moisture) करते हैं। ऋ. में इस शब्द का इस आशय में भी प्रयोग हुआ है (प्रजावद् रेत आ भर), पर एकरूपता के नाम पर पाश्चात्य अध्येता इस तरह के इकहरेपन से काम लेते हैं। हमारे सीमित प्रयोजन के लिए इतना ही पर्याप्त है कि रेत शब्द भी शुष्कता से नहीं जल से ही संबंध रखता है।

रज
रज का प्रयोग बारीक धूल और पराग कणों के लिए किया जाता है, पर जो बात रेत के विषय में सच है वही रज के विषय में भी। प्रवहमान पार्थिव रज (स तू पवस्व परि पार्थिवं रज) की ओर सामान्यतः ध्यान नहीं जाता। रज का प्रयोग ऋग्वेद में जल, दीप्ति, आकाश, सातत्य, सात्विकता, उज्वलता, गतिशीलता आदि सामान्य जल की सभी विशेषताओं के लिए हुआ है। बारीक धूल के लिए इसके प्रयोग के पीछे उक्त गुणों की भूमिका हो सकती है।

धूलि
धूलि का प्रयोग रज की तरह अत्यंत बारीक कणों वाली उस मिट्टी के लिए होती है जिसमें बालू, सिकता, रेत और रज की तरह आसंजकता के अभाव के कारण इतना बिखराव होता है कि एक कण दूसरे के सटे पास मे होकर भी उससे सट नहीं सकता। इसके साथ ‘धुले हुए’ का बिंब उभरता है। एकमात्र जो शब्द याद आता है उसको संस्कृत में जगह न मिली । वह है धुलाई। दूसरा शब्द धवल जिसका भाव है धुला हुआ और अर्थ है श्वेत। धवन का दोलन- धुव-धुव= दोधुव बार बार हिलाने के आशय में आया है और धौती का प्रयोग नदियों के लिए हुआ है। दौड़ने के आशय में धवन ‘गिरो ब्रह्माणि नियुतो धवन्ते’ ।’ और धावन (दिवि धावमानम्, आकाश में अनवरत दौड़ते हुए।) का प्रयोग अनेक बार हुआ है। इनसे अलग कोई संकुल दिखाई नहीं देता जिससे इसे जोड़ा जा सके, इसलिए मानना होगा कि यह तोय का सघोष महाप्राण उच्चारण करने वाली बोली का शब्द है। किसी भी सूरत में जल से इसका नामकरण अलग नहीं जा पाता।

Post – 2020-06-05

#शब्दवेध(54)
ठोस भी द्रव

दृषद
दृषद – पत्थर। यह शब्द भी योगिक है इसमें प्रयुक्त दोनों शब्दों – दृ और सत – का अर्थ पानी है। हम पहले यह बता आए हैं कि कौरवी में स्वरलोप की प्रवृत्ति थी। उसके प्रभाव से पूरबी ‘तर’ के दो रूप बने – 1. ‘त्-र’ जो त्र, स्थानवाची के रूप में स्वीकार किया गया। सच कहें तो यह भो. धर- जो (इ-/उ-/कि-/जि+धर) – स्थान, धरा का कौरवी प्रभाव में बदला रूप था धर>तर>त्र* । 2. तर जिसका अर्थ जल था जो तरंग मे मिलता है। इसके अंत्य और मध्य अकार का लोप हो गया – तर > त्+र् ।

व्यंजन प्रधान भाषाओं में स्वर लोप के कारण उच्चारण में समस्याएं पैदा होती हैं। एक ही लिखित शब्द को किताब, कुत्ब,कुतुब, कातिब रूपों में पढ़ा जाता है। तत्कालीन कौरव क्षेत्र के लोग इसका उच्चारण कैसे करते थे, इसका हमें सही ज्ञान नहीं। परंतु इस बात की पूरी संभावना है इसी से ‘ऋ’ स्वर की उद्भावना हुई जिसका उच्चारण कुछ लोग घर्षी ‘ऱि’ (ऱिषि/ रिसि) और कुछ दूसरे ‘ऱु’ (ऱुषि) के रूप में करते हैं। इसी प्रभाव में तर>तृ बना।

पूरब की ही किसी घोष-प्रेमी बोली में तर का श्रवण और उच्चारण दर के रूप में होता था। इसके कौरवी में तीन रूप बने। एक में अन्त्य स्वर का लोप हुआ – दर> दर् जो दर्प, दर्श में मिलता है। दूसरे में मध्य स्वर का लोप हुआ। इसे हम द्रव, द्रप्स में पाते हैं। तीसरे में दोनों स्वरों का लोप हुआ जो दृग, दृढ़ में मिलता है। यही ‘दृ’ दृषद में पाया जाता है जिसका अर्थ है, पत्थर, सिल (दृषद-उपल = सिल-बट्टा) और यही दृषद्वती में भी पाया जाता है जहां इसका अर्थ हमारी समझ से जल है।

सत् (सत्व, सत्य) का अर्थ पानी है, इस पर किसी बहस की जरूरत नहीं। इस तरह हम पाते हैं कि दृषद दो जलवाची शब्दों से बना है। पर पत्थर का अपना स्वभाव है जो पानी से संज्ञा लेने के बाद भी रहेगा तो पत्थर जैसा ही। पानी उसके स्वभाव के लिए भी शब्द लुटाने के लिए तैयार है तर >तड़कना, – दर > दरकना। परंतु सर्वत्र इनका अर्थ विकास समानांतर होते हुए भी कुछ विभिन्नता लिए हुए है जिसके कारण इससे नई परिघटनाओं और व्यंजनाओं के लिए शब्दावली के निर्माण में बहुत सहायता मिली है। तर > तड़ तंड/टंटा (वितंडा), > तांडव; दर>दाँट/ डाँट,डाँठ (ओषधियों का तना), दाँड़ (दाडिम) डाँड़/ दंड – किसी नदी या समुद्र का तटीट ऊँचा भाग (तु. रिज ridge से) । यूरोपीय भाषाओं मे तर( -जल) के घोषित रूप ‘दर’ अधिक पसंद किया गया – E. drop, drink, drip, drap, drain, *dr>dry, ड्रा (draw), ड्राफ्ट (draft), ड्रिफ्ट (drift) ड्राट (draught), ड्राट (drought) आदि, जब कि अ-घोषित ‘त’ भारत के विपरीत लाक्षिक आशयों में – trip, tray, train, true, track, trace, trim, trickle, trend, tip, tipsy, terror, term आदि में स्थान पा सका।
गिरि
गर – जल, गर्गरा (घग्घर/ घाघरा)- सुजला; फा. गर्क- जलमग्न, गीला, गलना, (सं. धातु- ग्लै), ग्लानि – गलना,, ग्रस, (gulp), glutton – one who eats to excess (गटकने वाला) ग्लिसिन(glisten- to shine,, ग्लास (glass), ग्लो(glow, gloss-brightness) ग्ली glee,, ग्लैड (glad), ग्लेज (glaze), ग्रस/ ग्रास (grass), जलवाची और जलीय शब्दों की एक पूरी श्रृंखला है जिससे गिरि का संबंध दिखाई देता है और दूसरा कोई स्रोत नहीं है, जिससे इसकी व्याख्या की जा सके।
पर्वत
पर्वत शब्द का प्रयोग बादलों (या ते अग्ने पर्वतस्येव धारा, – मेघस्य उदकस्य धारा, सा.) और पहाड़ों (दादृहाणं चिद् बिभिदुर्वि पर्वतम् -( पर्वतं शिलोच्चयम्, सा.) और शिलाखंडों (वि पर्वतस्य दृंहितान्यैरत्, ‘शिलाभिः दृढ़ीकृतानि द्वाराणि’. सा.) के लिए देखने में आता है। बताया यह जाता है कि इनका नामकरण – पर्व अर्थात गांठ के कारण पड़ा है। घुमड़ते हुए बादल गांठ के फन्दे का भ्रम पैदा करते हैं और ऊंचे नीचे पहाड़ धरती पर गाँठों की तरह दिखाई देते हैं। शिलाखंड तो गाँठ हैं ही।

परंतु ध्वनि तो इनमें से किसी के पास नहीं होती या बादलों से जो ध्वनि पैदा होती है, उसका उसके नामकरण में कोई भूमिका दिखाई नहीं देती। इनके नामकरण का एक ही स्रोत रह जाता है और वह है जल। प्र /प्ल (प्रवण, प्लव, प्लावन), पल, पाल (पाला) सभी का अर्थ जल है। ‘पर’ ‘प्र’ का पूर्व रूप है और इसके साथ भी वैसी ही समस्या उपस्थित हुई जो ‘तर’ के साथ हुई थी और वैसे ही ‘पर्’, ‘प्र’ और ‘पृ’ (पृक्ष -अन्न; पृक्षमत्यं न वाजिनम् में द्रुतगामी आशय है, । सा. प्रसंगभेद से अन्न का अर्थ जल करते भी हैं।), रूप बने थे, यद्यपि अन्तिम (पृण् का स्थान पुर/पूर- ने ले लिया)। पर्जन्य में पर् – जन्य, जल उत्पन्न करने वाला, अर्थात बादल में, पर/प्र का जलवाची होना असंदिग्ध है। इस दृष्टि से पर्वत जलवत या जल वाला हुआ। इसी कारण यह बादल और पहाड़ दोनों के लिए प्रयोग में आया लगता है न कि गाँठ के कारण।

पर्व का एक दूसरा रूप था परु है, जो परुष्णी (ऋग्वेद में परिगणित नदी) में लक्ष्य किया जा सकता है। परुष का अर्थ कठोर या नम्रतारहित है। सभी नदियां पहाड़ों से निकलती हैं और उनकी धारा में दूरी के अनुसार विविध आकार के शिलाखंड पाए जाते हैं। यह किसी एक नदी की विशेषता नहीं और इसलिए यह जरूरी नहीं कि इसे किसी एक नदी की विशिष्टता मान कर उसका नामकरण इस आधार पर किया गया हो, पर नामकरण की समस्या ऐसी है कि इस पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकती। फिर भी परुष और परुषता के लिए संज्ञा तो नाद के अक्षय स्रोत से ही आएगा इसलिए जल की भूमिका परुषता में भी बनी रहेगी।
शैल
शैल का शाब्दिक अर्थ है शिलोच्चय। शिला को शिर/शिल और इनके पूर्वरूप सिल, सिल्ली और सीलन से अलग करके देखने चलें तो समस्या होगी और हाथ कुछ न आएगा।
पहाड़
पहाड़ के विषय में हम सांकेतिक रूप में विचार करते आए हैं। यह उसी पह से बना है जिसे पहिया के पूर्वरूप पाहन में पाते हैं जिसमें गति का भाव अधिक स्पष्ट है, इसलिए पह (इया) को बहिया/ बह(ना) और वह/वाह(न) का रूपभेद मानना अधिक समझदारी की बात होगी। इसके बाद कहने को सिर्फ यह बच जाता है कि धारा में बह और घिस कर वर्तुलाकार हुए पत्थरों को जो संज्ञा दी गई थी उसी में संबंधसूचक (पह+अड़<अळ< अर = वाला) जोड़कर पहाड़ बना लिया गया। ऋग्वेदिक पहेली में कहें को पिता पुत्र बन गया, और पुत्र पिता - कविर्यः पुत्रः स ईमा चिकेत यस्ता विजानात् स पितुष्पितासत् । --------------------- *इसमें संभवतः पूरबी असर से अंतिम अक्षर हलन्त नहीं हुआ जो कौरवी में एक नियम सा है, इसलिए जिसमें लेखन में अकारांत शब्दों का भी उच्चारण निरकार या हलंत होता है। लिखित मन - पठित मन् । इसके उच्चारण में कोई समस्या नहीं थी ।

Post – 2020-06-04

#शब्दवेध(53)
ठोस भी द्रव

पर्वतों, नदियों, स्थान-नामों और यहां तक कि अपनी जातीय पहचान के लिए प्रचलित शब्द किसी क्षेत्र में किसी नई भाषा के वर्चस्व से बदल नहीं जाते हैं। वे पहले से होते हैं, महत्व के केंद्र यदि पहले से रहे हों तो उनके नाम बदल भी दिए जायँ, पर नगण्य स्थान नामों आदि में परिवर्तन संभव नहीं होता। वर्चस्वी संस्कृति के प्रभाव के बाद इनके लिए जो नए केंद्र और संस्थान बनते हैं उनको जो नाम दिए जाते हैं, वे अवश्य इस भाषा के अनुरूप होते हैं। ऐसी स्थिति में पहाड़ आदि पर विचार करते समय यह भय बना रहता है कि कहीं, इन पर विचार करते हुए, किसी तरह का अन्याय न हो जाए।

यहाँ एक भेद अवश्य करना होगा। यह है व्यक्तिवाचक और जातिवाचक के बीच। जहाँ व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ प्राचीन बोलियों की बनी रह जाती हैं, वहीं जातिवाचक संज्ञाएँ नई वर्चस्वी भाषा के अनुरूप होती हैं।

किसी भाषा के आदिम क्षेत्र को पहचानने की दृष्टि से, इस पहलू पर विचार किया जाना चाहिए कि उसके व्यक्तिवाचक स्थान नाम, नदियों के नाम, पर्वतों के नाम, बोलचाल की भाषापरोपरा के हैं या नहीं। यदि इनमें विरोध है तो व्यावहारिक भाषा और उसे बोलने वाले प्रभावशाली लोग अन्यत्र से आए हुए हैं, यदि अविरोध है तो यह इस बात का निर्णायक साक्ष्य है कि भाषा का जन्म उसी क्षेत्र में हुआ है और यह उस भू-भाग में फैली है जिसके व्यक्तिवाचक स्थाननाम, नदी नाम, जाति नाम वर्तमान भाषा से अनमेल पड़ते हैं।

भारोपीय भाषा की उत्पत्ति को लेकर इतने लंबे समय तक विचार होता रहा परंतु इस अचूक मानदंड को कभी काम में नहीं लाया गया, जबकि अमेरिका से परिचय के बाद यह सभी विद्वानों को आईने की तरह साफ दिखाई देता रहा हो। हम इस विषय पर यहां इससे अधिक चर्चा जरूरी नहीं समझते। यह भूमिका अंग्रेजी में पहाड़ और चट्टान के कतिपय पर्यायों पर विचार करने के लिए जरूरी थी।
रिज (ridge)
रज- 1. पानी, 2. धूल, 3. चमकीला/ आभासित > ऋज्र (गतिशील, प्रवाही) > 1. ऋजु – सीधा, 2. रज्जु, 3. रंज/रंग, रेच/रेक (अतिरेक)> रेकु- रिक्त, रेक्ण- धन आदि पर ध्यान दें। अंग्रेजी में रज के निकट का कोई शब्द हमें दिखाई नहीं देता। इस मूल से निकले रजत के प्रतिशब्द अर्जेंटम को अवश्य भारत से बाहर तलाशा जा सकता है। रज के इसी आभा वाले पक्ष से राजा शब्द निकला है। अंग्रेजी में सीधे राजा शब्द नहीं है, परंतु रानी के लिए रेजिना (regina- queen, < L. regina) मिलता है। ला. में राजा के लिए रेक्स (rex), राजसी के लिए रीगल (regal- kingly), रेजस (regius- royal), राजसत्ता के लिए रिजीम (regime < L. regimen), राज के लिए रिजन (region, L. regio- to rule), राज्यकाल के लिए रेन (reign<ला. regnum<रिगेर regere- to rule ) राजसत्ता के लिए रेजीमेंट(regiment< L. regimentum < regere-to rule), सातत्य के लिए रज्जु के विकल्प रेन (rein - briddle )- फा. रास (वै. रश्मि, हिे. रस्सी) देखने में आता है। पानी वाला भाव रिंज (rinse-to wash lightly by pouring, shaking and dipping) में, और गति वाला, राइज ( rise- to extend upwards, to surmount); रेज. (raise- to make higher or greater), राइड (ride-to be borne by an animal, vehicle), और उठान रिज (ridge- the earth thrown up by the plough between the furrows, a long narrow top or crest, a hill range). रॉक (rock) रक/लक- पानी > रक्त/लक्त (आ-लक्तक) > अं. लैक्ट -(lact- ) – दूध-> लैक्टोमीटर ( lactometer) – दुग्धमापी; लैक्टियल (lacteal)- दूधिया; रुक (रोचन, लोचन) >. लुक (look तु. हि. लू, लुकाठा, भो. लुक्का, लुक्क- उल्कापात का प्रकाश, फा. रू, रुख); लेक(lake-a large or considerable body of water within land) – तालाब; लाइक (like- 1.identical, 2. to approve, enjoy) – सदृश, चाहना; लेकु ( OE. lacu- stream> ME. lac.> lanne; *a small stream or water channel); लैक्टियल (E. lacteal – of milk, L. lac, lactis- milk) दूध का बना; लैकस्ट्राइन ( lacustrine- pertaining to lakes-) झील विषयक, लिक (lick) चाटना; लीक (leak) चूना; लिक्विड (liquid)- द्रव; लैक (lac -) लाख >लाक्षा*; लक(luck, look) रॉक (rock- a large outstanding natural mass of stone), रेक ( raik – course, journey, range, pasture) रुक (ruck- 1. wrinkle, fold or crease)- रुक्षता, 2. heap, stack, a multitude) – जमाव, जमाकड़ा, और राक ऐंड रोल – नृत्य विशेष। इस तरह हम पाते हैं कि रक, लक, रिक, लिक, लीक, रुक, लुक, रेक, लेक, लैक (रेचन), और नृत्य का रॉक या दोलन सभी जल और जलीय आशय रखते हैं फिर रॉक पत्थर की विशाल चट्टान बन भी जाये तो उस नियम को नहीं उलट सकती जिसके अनुसार मूक को वाचाल जल अपने किसी नाद से बनाता है।

माउंट/ माउंटेन (mount/ mountain)
माउंट शब्द सुनकर आपको अमाउंट की याद आनी चाहिए। याद तो माड़, मंडप, मड़ई, मंत. और अंत की भी आनी चाहिए, परंतु आपको लगेगा यहां कुछ ज्यादती हो रही है। उत्साह में बहक जाने या चौंकाने के लिए दूर की कौड़ी खींच कर लाने का आरोप लगाना अनुचित प्रतीत न होगा, परंतु सचाई जितनी आश्चर्यजनक होती है उतनी कभी कभी कवि कल्पना भी नहीं होती। चैंबर्स डिक्शनरी में दर्ज निम्न शब्दावली पर ध्यान दें:
अमाउंट ( amount – to go up, to come in total) 1. ऊपर जाना, 2. राशि। इसकी व्युत्पत्ति प्राचीन फ्रेंच और उससे पीछे लातिन से दी गई है (O.Fr. amonter -to ascend < L. ad, to mons, montis- a mountain) , अर्थात, अकाउंट भी उसी मूल से निकला है, जिससे माउंट और माउंटेन। माउंट को प्राचीन अंग्रेजी में मंत लिखा और बोला जाता था ( mount -O.E. munt) जो श्रीमंत, बलवंत आदि में प्रयुक्त मंत और वंत से अभिन्न दिखाई देता है। आगे की व्युत्पत्तियां पूर्ववत हैं (O.Fr. mond < L. mons, montis- mountain)। माउंट के कुछ और भी अर्थ जो इन्हीं में समाहित हैं, ऊपर चढ़ना, सवार होना, पार पाना, यहां तक कि जिल्दसाजी में ऊपर से कोई आवरण मढ़ना या चिपकाया जाना आदि हैं। ऐसे में क्या मूल अर्थ-योजना में भो. माड़, माड़ो, मड़ई, मेड़ - खेत के चतुर्दिक ऊँचा बाँध, मेठ - किसी कार्य दल का सरदार, सं. >मंडन, मंडप, मंदिर (देखें L. mundus – the world, E. mundane- earthly worldly और तुलना करें बक के व्युत्पत्तिकोश से जिसका हवाला हम पहले दे आए हैं) और मन्त को उचित स्थान मिलेगा या नहीं। ला. में दो रूप मिलते हैं, एक मन्स और दूसरा मोन्तिस (L. mons, montis) जो सं. मन (श्रीमन/ श्रीमान) और मन्त से अभिन्न हैं।

माउंट से मिलता-जुलता शब्द माउंड है, जिसकी व्याख्या पश्चिमी भाषाविदों को असमंजस में ड़ाल देती है (mound – boundary-fence, a bank of earth or stone,(orig. obscure) पर हमें चकित नहीं करती, क्योंकि हमारी बोलियों में मेढ़, मेठ, मढ़ना जैसे शब्द हमारी सहायता के लिए उपलब्ध है। इस शब्द का दूसरा अर्थ है ऊपर जाना, जाना (to go up, to climb) जिसकी उत्पत्ति फ्रेंच और लातिन के सहारे की गई है ( रसा/लसा/लासा > लाख> लाक्षा। रस का प्रकाश : रस > लस (इ. लश्चर लूसे) > लख >सं. लक्ष/ लक्षण,, लक्ष्य अदि।

Post – 2020-06-03

#शब्दवेध(52)
ठोस भी द्रवसंज्ञक

मुहावरा तो यह है कि पत्थर नहीं पसीजता, पत्थर नहीं पिघलता, पत्थर का कलेजा नहीं फटता, परंतु प्रकृति का विधान कुछ ऐसा है कि पानी पत्थर (उपल) हो जाता है और द्रवित भी होता है, पसीजता भी है और बाहर की चोट के बिना ताप और शीत के प्रभाव से दरकता भी है। जहां तक संज्ञा का प्रश्न है, मनुष्य के हस्तक्षेप से उससे ध्वनियाँ भी पैदा होती है, परंतु यह हैरान करने वाली बात है कि पत्थर और पहाड़ का नामकरण इन ध्वनियों पर नहीं जल की ध्वनियों पर आधारित है।

कड़
पहली नजर में ऐसा लगता है कि यदि दूसरे नाम जल पर आधारित हों भी हो तो कड़ की ध्वनि तो पत्थर के पत्थर से टकराने की ही पैदा हो सकती है। यह संज्ञा मनुष्य ने इसे पाषाण युग में अपने औजार बनाते समय उत्पन्न ध्वनि की नकल करते हुए दी होगी। पहले हम स्वयं भी यही सोचते थे परंतु कतिपय तथ्यों को ध्यान में रखते हुए हमें अपनी पुरानी धारणा बदलनी पड़ी। पहला यह कि तमिल में ‘कल’ का अर्थ पत्थर है। लातिन में calx / calcis – lime stone को कहते हैं।, इस रोशनी में विचार करने पर हम पाते हैं चूना पत्थर के लिए हिंदी में भी कल्ली का प्रयोग होता है। दूसरा पक्ष यह है कि ‘कल’ का उच्चारण बोलियों में कल, कळ, कड़ रूपों में होता है। इसलिए आरंभ जहां से भी हुआ हो, किसी एक रूप से सभी का अलग-अलग बोलियों में प्रयोग संभव था । कल के अनेक आशयों में सबसे प्रधान जल है, पत्थर ठीक उसके बाद आता है। इन दोनों का संकल्पनाओं के नामकरण और अर्थ विकास में सहयोगी भूमिका है। कड़ की आवर्तिता से कंकड़ बना है, परंतु कंकड़ के कंक – को हड्डी के लिए प्रयोग में लाया गया, जिससे यह कंकाल – अस्थि-पंजर -के लिए प्रयोग में आया और पंजर ने मानव शरीर को एक पिंजड़े के रूप में कल्पित करने में प्रेरक की भूमिका निभाई, जिसमें आत्मा और परमात्मा पक्षी के रूप में कैद हैं और इनमें से एक पिजड़े का आराम, बिना कुछ किए खाने-पीने की लालच को त्याग नहीं पाता और दूसरा अपनी मुक्ति चाहता है, परंतु जब तक यह पंजर टूटता नहीं है वह मुक्त नहीं हो सकता।

भारतीय मनीषा में यह अवधारणा इतने गहरे उतरी हुई है और इसे इतने रूपों में दुहराया गया है कि जिसे समझने में सुपठित लोगों को जितनी कठिनाई होती है उससे बहुत कम आयास से अनपढ़ लोग इनका मर्म समझ लेते हैं। इसका दूसरा बिंब – एक डाल दो पंछी बैठे एक गुरु एक चेला वाला है। जो इन पंक्तियों में डाल है वह ऋग्वेद में एक वृक्ष के रूप में कल्पित किया गया है – (द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादु अत्ति, अनश्नन अन्यो अभि चाकशीति) । यदि आप जानना चाहें कि वृक्ष क्यों? तो इसका उत्तर है कि वक्ष, वृक्ष और अंग्रेजी के box में अर्थसाम्य है। वृक्ष का एक पुराना नाम वन था, जो आगे चल कर जंगल का पर्याय बन गया, और फिर वन में विचरने वाले दो प्राणियों की कल्पना पक्षी के रूप में नहीं की जा सकती थी, इसलिए पक्षी का स्थान दो हिरनों ने ले लिया – हिरना समुझि समुझि बन चरना।
पाषाण
पाषाण का नाम लेने पर पाखंड अर्थात पाषंड का ध्यान आता है। इसका प्राचीन अर्थ करुणा, दया हुआ करता था। जैनमत और बौद्ध धर्म को पराजित करने के लिए ब्राह्मणों ने भर्त्सना को अपना हथियार बनाया तो उनकी मूल्य-परंपरा से जुड़े हुए आस्थापरक शब्दों को भी गाली में बदल दिया। उसके विस्तार में न जाएंगे, परंतु यह बताना जरूरी है कि दया भाव के लिए प्रयुक्त इस शब्द को वह अर्थ दे दिया जिससे हम सभी परिचित हैं पाषाण शब्द का जल से क्या संबंध है इसे समझने में यह इतिहास सहायक है। अब यदि हम पस/पश > (पसावन), पसिजल , पसेव/पसीना>प्रस्वेद, पसरल> प्रसार, पास (किण्वित पेय), पशु, पूषा, पूष, पौष, पासी,पसंद जैसे शब्दों पर ध्यान दें तो ऊपर की धारणा को समझने में मदद मिल सकती है। जल से जुड़ी अवधारणाओं को – प्रकाश >*पश > पिंश – सजना, पेशस्-रूप, स्पश- spy, ओपश – आभामंडल, गति – पेस (pace), पास (pass), पैसेज (passage), पुश (push), पैसन (passion) और मवाद के लिए पस( पस/पश मूल से निकले हैं। इनमें से एक-एक की राम कहानी बयान करना हमारे लिए भी अपनी सीमाओं को देखते हुए संभव नहीं लगाता। और कुछ का आविष्कार किया।

Post – 2020-06-02

#शब्दवेध(51)
ठोस भी जल है
बात पहेली की नहीं है, कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं जो एक तापमान पर द्रव में न बदल जाए। प्राचीन मनीषियों ने इसे इस रूप में समझा या नहीं परंतु यह विचार भारतीय चिंतन में केंद्रीय रहा है कि आदि में केवल जल था परंतु वह जल होकर भी जल नहीं था। वह स-सार जल था, अप्रकेत सलिल जिसमें सब कुछ समाहित था। वह ब्रह्म (महत ताप) भी जिसमें सृष्टि की कामना पैदा हुई, होते हुए भी न होने की तुच्छता में समाहित विराट! (तम आसीत् तमसा गूळ्हं अग्रे अप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम् । तुच्छ्येन अभ्व अपिहितं यदासीत् तपसः तत् महिना अजायत् एकम्) था। प्रकाश भी उसी से पैदा होना था।

परंतु हम जिस जल की बात कर रहे हैं वह उससे भिन्न, जिसमें अप्रकेत रूप में समग्र ध्वनियाँ, समग्र भाषा निहित थी, जो मूक को भी वाचाल कर रही थी। परंतु इसकी एक सीमा थी और है। यह सीमा उस भाषा की सीमा है जिसका जन्म आर्द्र भूभाग में हुआ। इसे हम भारोपीय की संज्ञा देते हैं। यह संस्कृत नहीं थी, वैदिक नहीं थी, एक अर्थतांत्रिक भाषा थी जिसमें प्रमुखता उस भाषा की थी जिसने संस्कृत का रूप लिया, परंतु साथ ही साथ, इसकी गतिविधियों में अनेक दूसरे समुदायों और उनकी बोली बानी भी योगदान था, अतः इसके लिए सबसे उपयुक्त नाम भारोपीय ही लगता है, यह हम पहले कह आए हैं। हमने पीछे द्रवों के नाम पर विचार किया। उनके लिए सामान्य जल के ही पर्यायों मे से किसी का निर्धारण किया गया और लंबे समय तक सामान्य और विशेष दोनों अर्थ में प्रयोग में रहने के बाद उनका उन रूपों में स्थिरीकरण हुआ।

ठीक यही ठोस पदार्थों के साथ हुआ। जिन पर हम विचार करने जा रहे हैं, परंतु हम चाहेंगे कि इस चर्चा में अंग्रेजी के माध्यम से सुलभ यूरोपीय प्रतिरूपों पर इस बात की चिंता किए बिना शामिल करें कि उनकी क्या व्युत्पत्ति उनके कोशों में दी गई है। उनकी उपेक्षा करने का हमारा कोई इरादा नहीं है, कारण यह है कि उनमें जहाँ यह दावा किया जाता है कि शब्द विशेष की उत्पत्ति (origin) अमुक है वहाँ भी केवल सजात (cognate) शब्दों का हवाला दिया जाता है, जिससे मूल का पता नहीं चलता। दूसरे, भाषाविज्ञान की जिस समझ पर उनको असाधारण श्रम से जुटाया गया है, वह उनकी समझ से भी गलत है।

मूल उस संभावित बोली या उन बोलियों में तलाशा जाना चाहिए जिसका विकास कतिपय इतर बोलियों के परिवेश में और अनेक के सहयोग से किसी विशेष कारण से हुआ और जहां संभव हो, विकास के उन निर्णायक मोड़ों का आभास मिलना चाहिए, जिनसे उस मानक, समृद्ध, परिनिष्ठित चरण पर पहुँचने के बाद किसी सुसंगत तंत्र के माध्यम से उस विशाल भूभाग में इसका प्रसार हुआ। इसका इस भाषाविज्ञान में आभास तक नहीं मिलता, इसलिए उसमें जो गलत है वह तो गलत है ही, जिसे सही माना और इस रूप में प्रचारित किया जाता है, वह भी गलत है, यद्यपि त्याज्य वह भी नहीं। वह मूल्यवान आँकड़ों का सत्ता और प्रचार के बल पर श्रम और सलीके से सजाया गया ऐसा मलबा है जो संरचना का भ्रम पैदा करता है। उसका उपयोग तो किया ही जा सकता है।

पत्थर के सभी पर्याय जल की ध्वनियों से निकले हैं यह हम कुछ संदर्भों में देख आए हैं, यद्यपि विस्तार भय से वहाँ न तो हम सभी भारतीय भाषाओं में सुलभ प्रतिरूपों को ले सके न अंग्रेजी में सुलभ रूपों को। यदि समस्या भारोपीय की है तो इसमें यूरोपीय पक्ष को शामिल करना जरूरी है।

हम समस्या पर तनिक उलट कर विचार करें। क्या चर/कर/शर का विकास यूरोपीय भाषाओं में परिलक्षित होता है। दूसरी बात, क्या पेबल pebble के साथ वैसी विकास रेखा – जल> प्रवाह/गति> पत्थर के खंड> गोलाकृति, दिखाई देती है जो इसके प्रचलित भारतीय प्रतिरूपों में देखने में आती है।

हम पेबल से ही आरंभ करे – प/पी/पे/पो – जल, *pup,> प्रप(प्रपा, प्रपात) pulp- फल या लता के भीतर का गूदा; बृबु* (अधि बृबुः पणीनां वर्षिष्ठे मूर्धन् अस्थात् , उरुः कक्षो न गांग्यः, 6.45.31> bub> bubble, पीवर – (युंजाथां पीवरीरिषः, पीवरी वावयित्री स्थूलो वा, सा.- solid) peb -pebble; पव (त. पो- जाना) गति > bob- to move quickly up and down; भस/ भास – दलदल bog- marsh, बग्गी (वह/बघ) >bogie/ bogey- a low heavy truck [origin unknown)

वट/बट-pebble, bat,> batter, battle, beat > bead- a little ball strung with others in a rosary; beadle – a mace bearer) <वर/वृ> वर्त (वृत, वृत्त, वृत्ति, वर्त्म, वर्तमान)- verse वीर्य – वीरता, पुरुषार्थी (virile), वृत-पेशस >वोल्ट-फेस ( volt-face – turning round), (जल)आवर्त – भँवर vortex- a whirling motion of a fluid forming cavity in the center.

चर्कर/चक्कर > शर्कर यौगिक शब्द है जिसके घटकों (चर/शर और कर) का अर्थ जल है इसलिए अंग्रेजी के माध्यम से car> carry, carriage, carrier, current, currency, courier, chariot, character, shirk, shrink, circle इत्यादि). कर/कळ/कड़ > करका- ओला, कड़ा (कन- जल+कड़ >कंकड़), कड़ाके की सर्दी का अर्थ हुआ – जमा देने वाली ठंड। L. calx, E. clash,कलेश, क्लिष्ट, E..creep, creek, crawl, crag, crash, crust, crest, crack, krank, crude, cruel, creed) । श्र> श्रव, स्र स्रव, स्रुवा, shrink, slink slip, slink- दबो पाँव जाना, to go sneakingly, slow, sloth, slop- spilled, liquid, slope, slide.

स्टोन . सत/स्त -जल, >स्तन; > स्थ < थ/ थन, थान, E. stir, stick, stare, steer, steep, step, stair, still, stay, stone. प्रश्न यह किया जा सकता है कि इस तरीके में पहले के व्युत्पादनों से क्या अंतर है, इसका उत्तर यह है कि पहले शब्द प्रतिशत तलाश करते हुए सजात शब्दों से पीछे नहीं जाया जा सकता था, इसमें उस बोली तक, शब्दों के आदिम तर्क और बिंब तक पहुँचने के प्रयत्न में रहते है इसलिए हम शब्द से नहीं शब्द और अर्थ के परिवेश को सामने रखते हैं अकेले शब्दों को उनके परिवेश से अलग करके नहीं समझा जा सकता, जिस तरह एकल मनुष्य को उसके सामाजिक परिप्रेक्ष्य को समझे बिना नहीं समझा जा सकता क्योंकि एक भाषा से दूसरी में पहुँचने पर शब्दों के रूप, उच्चारण और अर्थ में भिन्नता आ जाती है। ------------------------------ *बृबु और बृबुतक्ष का प्रयोग व्यक्ति नाम में हुआ है। साम्य स्वर-व्यंजन विन्यास में है।

Post – 2020-05-31

#शब्दवेध(50)
द्रवों के नाम

पय

पय जल के लिए प्रयुक्त प, पी, पू आदि में से पी का बदला रूप है। संधि में तो इ,उ के य, व में बदलने के नियम से हम परिचित हैं, परन्तु स्वतंत्र रूप में भी ऐसे परिवर्तन होते रहते हैं, इसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। इसमें संदेह नहीं कि ‘पय’ का अर्थ पानी था, जिसका क्रमशः दूध के लिए प्रयोग होने लगा। पशुपालन वैसे भी मनुष्य के जीवन में कृषि के बाद आरंभ हुआ (रेनफ्रू)। ऋग्वेद में लगभग सौ बार पय शब्द आया है, पर दो तीन संदर्भों को छोड़ कर, जहाँ आशय जल से है – 1. द्यौर्न भूमिः पयसा पुपूतनि; 2. गावेव शुभ्रे मातरा रिहाणे विपाट्छुतुद्री पयसा जवेते – सभी हवाले दूध के हैं । आज पय का प्रयोग केवल दूध के लिए होता है।

क्षीर
क्षीर जिस क्षरण की कड़ी से जुड़ा है उसका अर्थ प्रवाह होता है – 1.अध क्षरन्ति सिन्धवो न सृष्टाः, 2. मधु क्षरन्ति सिन्धवः, नदियाँ मंद गति से प्रवाहित होती हैं। प्रवाह जल और वायु का ही हो सकता था,(क्षरन्नापः न ‘जल की तरह प्रवाहित ) इसलिए यह कहने की आवश्यकता नहीं कि नीर की ही तरह क्षीर भी जल के लिए ही प्रयोग में आता था, परन्तु क्षीर का प्रयोग ऋग्वेद में केवल दो बार हुआ है और दोनों बार दूध के लिए ही हुआ है। एक पहेली में ऐसी गाय का हवाला है जिसके सिर से दूध दुहा जाता है -शीर्ष्णः क्षीरं दुह्रते गावो अस्य और दूसरी बार सरस्वती के माध्यम से होने वाले लाभ को दूध, घी, मधु और जल के दोहन – तस्मै सरस्वती दुहे क्षीर सर्पिर्मधूदकम् – के रूप में चित्रित किया गया है। क्षीर और खीर में तो नहीं, खीरा में अवश्य जल की छाया बची रह गई है।

पुरीष
पुरीष का अर्थ जल था। ऋग्वेद में जल के आशय में ही इसका प्रयोग बार-बार देखने में आता है – ‘यया वणिग् वंकुः आपा पुरीषम्’ 5.45.6 में ‘पुरीषं पुरं उदकम्’ सा.; अन्यत्र ऋ.10.27.23 में भी यही अर्थ है। सरयू के विषय में प्रार्थना की गई है कि वह रास्ते में बाधक न बने और सुजला के लिए पुरीषिणी विशेषण का प्रयोग हुआ है – मा वः परि ष्ठात् सरयुः पुरीषिणी, 5.53.9, मरुतों को समुद्र से जल को लेकर वर्षा कराने का श्रेय देते हुए उनको ‘पुराषिन्’ कहा गया है- उदीरयथा मरुतः समुद्रतो यूयं वृष्टिं वर्षयथा पुरीषिणः। कुल सात बार आए इन हवालों में एक बार भी जल से इतर कोई अर्थ नहीं किया गया है।

पुरीष का अर्थ करते हुए सायण पुर का अर्थ जल बताते हुए भी इस बात पर ध्यान नहीं देते कि पुरीष ‘पुर’ और ‘इष’, जिनका पृथक् अर्थ जल है, के योग से बना शब्द है, क्योंकि यह पहलू भारतीय वैयाकरणों की चिंता-धारा में स्थान पा ही न सकता था। वे एक धातु से एकाधिकशब्दों की व्युत्पत्ति तो संभव मानते थे, पर न तो यह मान सकते थे कि एक ही आशय के दो शब्द मिल कर एक शब्द बन सकते हैं, न यह कि एक शब्द के निर्माण में दो धातुओं का योगदान हो सकता है।

जो भी हो सं. साहित्य से जल का पक्ष ही गायब है। आप्टे के संस्कृत अंग्रेजी कोश में इसका अर्थ निम्न प्रकार है: 1. feces, excrement, ordure, 2. rubbish, dirt. यह परिवर्तन कब घटित हुआ इसका पता नहीं चलता पर आज यह शब्द प्रयोगबाह्य हो गया है । शिक्षित जनों में जो इससे परिचित हैं वे केवल गन्दगी, विष्टा, और दुर्गन्ध वाले पक्ष से ही परिचित ,हैं और यह जान कर वे विचलित हो जाएँगे कि इसका शाब्दिक अर्थ जल है और इसका प्रयोग पहले जल के लिए ही होता था।

गरल
गरल का अर्थ भो. की एक क्रिया से ही स्पष्ट हो सकता है। यह है ‘गारल’। ध्वनि में इससे निकट पड़ने वाला एक अकर्मक क्रिया रूप है ‘ओगरल’ जमीन से पानी का स्वतः ऊपर निकलना। कुएँ और पोखरे की खुदाई में पानी ऊपर आने लगता है उसे ओगरल (ओगरना – सं. उद्गिरण) कहते है. गारने में किसी सरस लता को हल्के कुचल कर ऐंठ कर रस गारना या लता बाहर निकालना पड़ता है। कोल्हू, और उससे पहले ओखली के आविष्कार से पहले गन्ने का रस इसी तरह निकाला जाता था। उसे सिल (दृषद) पर रख कर पत्थर (उपल) से हल्के कूटा और फिर दोनों हाथों से, मुट्टी में लेकर, दसों उँगलियों से ऐंठ कर (एतं मृजन्ति मर्ज्यं पवमाना दश ) रस निकाला जाता था।

खुदाई में पानी का पतली धाराएँ फूटती हैं, उन्हें सोती कहते है। यह है किसी द्रव के बाहर निकलने – सवन – की क्रिया। सोती का सं.करण स्रोत के रूप में हुआ पर सोम या गन्ने के रस के संदर्भ में सवन बाद में भी जारी रहा। सवन की पुरानी रीत बदल गई, गन्ने की गेड़ियाँ बना ओखली में कूट कर रस गारा जाने लगा, फिर ओखली का वह रूप आया जिसे कहा ओखली ही जाता रहा, पर इसने पत्थर के पुराने कोल्हू का रूप लिया, सोमपूजन के लिए जिसके प्रतीकांकन को लिंगपूजा मान लिया गया जिसके विस्तार में कभी सोम रस पर लिखने का समय मिला तो ही जाना संभव होगा। यह एक उलझी हुई समस्या है। यहाँ इतना ही कि रस निकालने के लिए सवन (विश्वा इत् ता ते सवनेषु प्रवाच्या ) और सोतन (यत्र ग्रावा पृथुबुध्न ऊर्ध्वो भवति सोतवे ) ही चलता रहा और बाद में वाष्पन की युक्ति से रस चुआने के लिए आसवन का प्रयोग होता है, सव प्र-सव के लिए ही प्रचलित है। प्रसव क्रिया है और आसव संज्ञा। क्रिया बनाने के लिए इसमें -न जोड़ना होता है, पर सव>सुव मे उस प्रत्यय के बाद भी संज्ञा रूप सुवन ही बनता है। सवित रस को सुत कहते थे, प्रसूत को सुत।

इस शब्दक्रीड़ा में इसलिए उतरना पड़ा कि गारल, गिरल, गरल, बिगरल की क्रीड़ा को समझना आसान हो जाए जिनमें गरल को छोड़ कर शेष सभी का ‘-ल’ को ‘-ना’ में और अंतिम मामले में ‘-र-’ का भी ‘-ड़-’ में बदल कर हिंदी में प्रयोग होता है।

सामान्य जल के लिए गरल का प्रयोग सोम का तरह लाक्षणिक रूप में भले होता रहा हो, पर यह किसी वनस्पति से निकले रस के लिए ही प्रयोग में आ सकता था। यद्यपि मेरी जानकारी के वैदिक साहित्य में गारने और गिरने की क्रिया और गरल का पेय के रूप में प्रयोग नहीं मिलता। केवल एक बार डुबाने (निगलने) के अर्थ में ‘गरन्’ (न मा गरन् नद्यो मातृतमा) का प्रयोग देखने में आता है, जो इससे असंबद्ध है।

हम गरल के रस आशय से अपरिचित हैं। साहित्य में इसका केवल हलाहल या जानलेवा जहर के आशय में ही प्रयोग होता है और भो. में तो गरल और विष दोनों का प्रयोग नहीं होता, होता है ‘माहुर’ का। विष का बस्साइल, बिस्साइन – बदबू करना और बदबूदार के अर्थ में प्रयोग होता भी है, पर गरल के साथ वह भी नहीं। नदी नामों में गर्रा, गरगरा> घाघरा / घग्घर में जल का पुराना अर्थ बचा है और संभवतः गौर. गौरी, गोरा, के जनन में भी इसकी भूमिका हो।

Post – 2020-05-30

#शब्दवेध(49)

द्रवों के नाम
अमृत
अमृत का मूल अर्थ पानी है। सच कहें तो अमृत त. तन्नी (तण्+नीर)= पानी-पानी =ठंढा पानी, पानी, की तरह अम् +ऋत – पानी+पानी के योग से शीतल जल, तृप्तिदायक जल के लिए प्रयोग में आता रहा, और फिर प्यास से विकल व्यक्ति के प्राणरक्षक पेय के रूप में और इस तरह मृत्यु से रक्षा करने वाले, अमरता प्रदान करने वाले एक काल्पनिक पेय के रूप में लोकप्रिय हुआ- पानी मे ही अमृत है, पानी में ही भेषज है (अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेषजम्)। अं. का एंब्रोशिया (ambrosia) अमृत से ही व्युत्पन्न है, ऐसा अं. कोश मेे मिलता है, परंतु यह अम्बरीष – अंबर +इष = दिव्य जल, का प्रतिरूप प्रतीत होता है जो हमारे साहित्य में भी एक पौराणिक नाम के रूप मे ही बचा है। ऋग्वेद के रचना काल तक मृत्यु-निवारक पेय बनने की यह यात्रा लगभग पूरी हो चुकी थी। इक्के दुक्के प्रयोग ही ऐसे हैं जिन्हें सामान्य जल के लिए ग्रहण किया जा सके (वृष्टिं वां राधो अमृतत्वं ईमहे) ।

अम से ही आम/आम्र (रसाल),अम्ब[1], अंबु, (अम्मा?) की उत्पत्ति हुई है। नदी नामों मे अकेली आमी का नाम याद आता है। अमृत की तरह ही अम और ऋत भी ऋग्वेद के समय तक नए आशयों में प्रयोग में आने लगे थे, परंतु आर्त – प्यास से विकल, दीन, याचक; आर्तव -ऋतुकाल, मासिक स्राव, रेतस्, री/ऋ- गति सूचक, रीति – मार्ग, परंपरा आदि में रित/ऋत का पुराना भाव बना रह गया। ऐसा लगता है कि पहले बरसात के लिए ही रितु/ऋतु का प्रयोग होता था, फिर वृष- दिव्य जल, रेतस् के लिए प्रयोग में आने लगा, तो ऋतु के स्थान पर वर्षा ऋतु पड़ा और ऋतु का तीन मौसमों और फिर छह और अधिमास को लेकर सात षड्-ऋतुओं और सप्त ऋतुओं के लिए प्रयोग होने लगा।

वर्षा के लिए किया जाने वाला यज्ञ भी सही समय पर वर्षा न होने पर इस मौसम में ही कराया जाता था जो ऋत्विज (ऋतु+इज=यज्ञ) में बाद में भी बचा रहा। अंबर का अर्थ आकाश नहीं, बादल है – जल बरसाने वाला – है और इसलिए वस्त्र के लिए और अं. Umbra छाया, umbrage छाया, umbrella छतरी में इसका प्रयोग सर्वथा समीचीन है। ऋग्वेद में अम – बल (आशु अश्वा अमवद् वहन्त), प्रवाह ( अमश्चरति रोरुवत् – प्रवाह गर्जना करता हुआ चलता है), अमा – घर > (भो. अमाइल, समाइल), आम- कच्चा आदि आशयों में प्रयोग में आया है। भो. का अम्मत – खट्टा अमृत की देन है या कच्चे आम की खटास से निकला है, यह विचारणीय है , पर आम स्वयं अम से निकला है, इस विषय में कोई संदेह नहीं। ऋ. में अमति के प्रसंगानुसार कई अर्थ हैं – 1. रूप, 2. प्रकाश, 3. अभाव, 4. बुद्धहीनता, 5. तृप्ति. पानी के अभाव में, किसी धातु के सहारे इन आशयों तक नहीं पहुँचा जा सकता।

पीयूष
पीयूष का सीधा अर्थ जल है और इस दृष्टि से यह पीतु का सजात और समानार्थी है। प, पा, पी सभी का अर्थ पानी है, पीन/पीवर – पानी से फूला हुआ, मोटा; पीत – पिए हुआ आदि को देखते हुए लगता है पीयूष में भी पी-जल, उश – जल, कामना (उशना; उशती – जायेव पत्य उशती सुवासा), का योग है। इसका पहला अर्थोत्कर्ष हुआ तो इसका अर्थ दूध हुआ और दूसरे के साथ यह अमृत का पर्याय बन गया।

रस
रस – पानी (रसो वै सः), जिसके साथ माधुर्य का भाव जुड़ गया तो अर्थ हो गया स्वादु > मीठा ( रसना- रसास्वादन करने वाली इन्द्रिय); रसाल – आम। आगे चल कर यह रस – रसायन, (chemical; chemistry), भावगम्य आस्वाद, आनंद (साहित्य का रस या वाणी द्वारा प्राप्य मग्नता या तन्मयता, जिसे समाधि के आनंद के रूप में पहचाना गया (इमां त इन्द्र सुष्टुतिं विप्र इयर्ति धीतिभिः; तयोरिद् घृतवत् पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः ।
गन्धर्वस्य ध्रुवे पदे ) और आज यह पानी से लेकर अन्य सभी आशयों में संदर्भ के अनुसार प्रयोग में आता है।

मधु
रस की तरह अनेक दूसरे शब्द हैं जो पहले जल के द्योतक थे, बाद में मधुरता आदि के लिए व्यवहार में आने लगे। मधु का प्रयोग कब से शहद के लिए होता आ रहा है, यह हमें पता नहीं। ऋग्वेद के समय तक इसका एक सीधा अर्थ किया जा सकता था – तृप्तिकर, प्रीतिकर। इसका प्रयोग ( 1) पानी (दुहान ऊधः दिव्यं मधु प्रियं), (2). महुआ (मधूक) मधुबन, (महुआनी), (3) शहद (माक्षिक मधु), (4) सोमरस और उसके विपाक (सृजामि सोम्यं मधु), (5) अनुद्वेगकर (मधु वाता ऋतायत – वायु मंद गति से प्रवाहित हो’; मधु नक्तमुतोषसो मधुमत् पार्थिवं रजः । मधु द्यौरस्तु नः पिता। रात और दिन, धरा धाम और पालक द्युलोक अनुकूल रहें ) (6) सुस्वाद (माध्वीः नः सन्तु ओषधीः अन्नादि सुस्वाद हों ); (7) दूध (इन्द्रो मधु संभृतमुस्रियायां- इंद्र ने गायों को मधुपूरित किया)। मधु मत् (*मथ, मद, मध, मन, मह संवर्ग) से निकला है – जिनमें प्रत्येक का अर्थ जल है। माहुर उसी तरह मधुर का प्रतिलोम है जैसे अम्मत अमृत का।

मूत
मूत का प्रयोग (मूत्र) के लिए होता है। कुछ लोग मानेंगे कि मूत मूत्र का अपभ्रंश है। सच यह है कि अपने शुद्ध रूप में यह मूत था जो जीमूत – जीवनदायी जल में बचा रह गया है। संस्कृतीकरण के क्रम में इसका रूपगत और अर्थगत ह्रास हुआ। सच यह है कि पा, पी, पू, पे की तरह म (मकर), मा(मास), मी(मीन), मू (मूत) का अर्थ पानी था। मू-त्र(तर) संभव है जलपरक शब्दों का युग्म हो।

विष
विष (इष/ विष) का पुराना अर्थ जल था। इसका मूल वही है जो विष्णु, विषुव – फैलने वाला, फैला हुआ – में देखने में आता है। अंतर केवल यह है कि विष्णु में यह आग का प्रसार है और इसलिए आग, यज्ञ, सूर्य के लिए इसका प्रयोग मिलता है, विष के मामले में यह प्रसार जल के फैलाव या बहाव का है। ऋग्वेद के समय तक इसका प्रयोग मुख्यतः हलाहल (यहाँ भी जल परक हल की आवर्तिता है) के लिए होने लगा था। केवल एक दो बार जल के लिए देखने में आता है। हम नहीं जानते कि इसे विकृत (सड़े या सड़ाँध वाले) इष या जल के औचित्य से बदबूदार और प्राणघाती द्रव्य से संबद्ध किया गया या नहीं। यह अवश्य जानते हैं कि विष्ठा के लिए भी इसी से संज्ञा निकली। इसके बाद भी पूरबी में तटीय स्थानों के कतिपय नाम – बिसवनिया, बिस्टौली, बिसुनपुर के समानान्तर मिलते हैं। बिष्ट उपाधि के साथ विष्णु वाले तेजस्विता का हाथ दिखाई देता है।
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[1] अंबा, अंबे (द्वि.व.), अंबालिका (*बहु.व.), तीनों अर्थ उसी तरह नदी है जैसे सनक, सनातन, सनन्दन तीनों का अर्थ काल। भीष्मपितामह के गंगा से उत्पत्ति की ऐतिहासिकता की तरह उनके अपहरण की कथा भी काल्पनिक लगती है।

Post – 2020-05-29

#शब्दवेध(48)
सभी द्रव पानी हैं

जब रंग, प्रकाश और आग पानी हो सकते है तो सभी द्रव पानी हों, यहाँ तक कि सभी आर्द्र पदार्थ पानी हों, इसमें हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए। परेशानी यह सोच कर होती है कि भाषा का काम है फर्क करना- विष और अमृत दोनों को पानी तो नहीं कहा जा सकता।
यह सही है कि विशेष शब्दों को इनके लिए रूढ़ कर दिया गया, परंतु उसके बाद इनका प्रयोग पानी के लिए तो नहीं होना चाहिए था। ऐसा है, पर क्यों है, इसे समझना, भाषा की कुछ बुनियादी समस्याओं को समझने जैसा है। यह वाक् (language), व्यावहारिक भाषा या जबान(vernacular), तकनीकी भाषा (jargon), वाणी (ideolect) के जटिल संबंधों की समस्या है। यह, सच कहें तो, भाषा की समस्या न हो कर पारस्परिक संपर्क में आने वाले समुदायों की समस्या है जो एक ही भाषा नहीं बोलते फिर भी आर्थिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक कारणों से न्यूनाधिक जुड़े रहते हैं और जहाँ एक ही भाषा बोलते दिखाई देते हैं वहाँ भी सामाजिक हैसियत, आर्थिक औकात, पेशे, रुचि यहाँ तक कि वय और लैंगिकता के आधार पर अलग अलग भाषाएं बोलते हैं
इस लिए बहुत सारे परिवर्तन उनके अपने दायरे में होते हैं जिनसे शेष समाज अछूता रह जाता है। इनमें कुछ, जिनमें जान होती है, धीरे धीरे छन कर, सभी स्तरों तक पहुँचते और स्वीकार कर लिए जाते है परंतु यह यात्रा अधूरी रह जाती है। इसका उल्लेख मात्र यह स्पष्ट करने के लिए किया कि साहित्यिक भाषा, यहाँ तक कि संस्कृत जैसी नियंत्रित और निखोट मान ली जाने वाली भाषा तक में रूपावली से ले कर लिंग आदि के अनियमित प्रयोग क्यों होते रहे, इसे भी इस तर्क से ही समझा जा सकता है। हम इस जटिल विषय की पड़ताल में नहीं जाएँगे। हमारा उद्देश्य केवल इतने से सिद्ध हो जाता है कि अनियमितताओं का भी अपना तर्क होता है।

पानी के कितने पर्याय हो सकते हैं इसकी गणना असंभव है। भाषा कहती है, ‘मैं मनुष्यों आवेगो और विचारों से भर देती है, मेरा प्रवेश धरती और आकाश सभी में है – अहं जनाय समदं कृणोमि अहं द्यावापृथिवी आ विवेश और ‘मेरी उत्पत्ति जल से है’ -मम योनिः अप्सु अन्तः समुद्रे। समस्त नाम, जल के नाम। परंतु द्रव पदार्थों की गणना संभव है और समस्या यहां भेद और अभेद की है। विशिष्ट कार्यों और वस्तुओं में रूढ हो जाने के बाद भी उन शब्दों के जल वाचक बने रहने में है।

नून का प्रयोग लवण के लिए होने के बाद जल के लिए या किसी ऐसे भाव और विचार जिससे जल की याद आए, इसका प्रयोग नहीं होना चाहिए. परंतु होता है जैसे नमक के लिए राम रस का प्रयोग होता है। देवरिया जिले में एक स्थान का नाम नूनखार है- अर्थात् वह स्थान जहाँ का पानी खारा है। दूसरे भी कई शब्द है जिनमें नून का भाव पानी में बचा रह गया है ।

घी <> घृत –
ऋग्वेद में सामान्यतः घी के लिए घृत का प्रयोग देखने में आता है. परंतु साथ ही जल के लिए इसका प्रयोग होता है। इस दुहरे प्रयोग का ध्यान रखते हुए धातुकारों ने ‘घृ’ का अर्थ किया (क्षरण) वह जो छलकता है, बहता है। पश्चिमी अनुवादक नियमित रूप से ‘घी’ ही करते हैं जिसे (अव स्मयन्त विद्युतः पृथिव्यां यदी घृतं मरुतः प्रुष्णुवन्ति ।। 1.168.8 के अनुवाद में देखा जा सकता है। कृषि के अनुरूप वर्षा का बहुत मार्मिक चित्रण किया गया है, जब मरुद्गण धरती को सिंचित कर रहे हैं, बिजलियां धरती की ओर नीचे देखती हुई हँस रही हैं। ग्रिफिथ महोदय का अनुवाद है: the lightnings laugh upon the earth beneath them, what time the Maruts scatter forth their fatness, शब्द अनुवाद में कोई चूक नहीं, कोई यह नहीं कह सकता कि से वैदिक भाषा नहीं आती, संदर्भ की चिंता नहीं, इससे यदि अनुवाद में अटपटी लगती है तो यही उनका उद्देश्य था, परंतु साथ ही यह भी स्वीकार करना होगा सायण के अनुवाद की कमियों को पहचानते हुए अनेक स्थलों पर उन्होंने अधिक सही अनुवाद किया है।

तेल
तेल के विषय में एक बहुत गलत धारणा पाई जाती है कि यह पहले तिल से निकाला गया इसलिए इसे तेल की संज्ञा मिली । ज्ञानमंडल के कोश में इसका अर्थ दिया गया है बीज, वनस्पतियों आदि से निकलने या विशेष उपाय द्वारा निकाला जाने वाला तरल पदार्थ इसलिए उसमें तैल का अर्थ आ गया है तिल को पेर कर निकाला हुआ तेल। यह अर्थ गलत है क्योंकि तिल का अर्थ ही था, जल। ल-कार प्रियता के कारण तिर का तिल हो गया, और नम भूमि के लिए तिल्विल (तिलु नम + इल – धरती – तिल्विल) = सिंचित भूमि। भद्रे क्षेत्रे निमिता तिल्विले वा … 5-62-7 में स्थूणायूपयष्टिरवस्थित -जिससे खूँटी-खूँट् निकाले जा चुके हैं ऐसे सुथरे नम खेत में।
हम भी बचपन में बरसात के बाद पानी में डूबे हुए भाग से पानी हटने के बाद जमीन के नीचे से जगह-जगह पानी ऊपर निकलता था उसे तेलगगरा कहते थे। नदी के या पानी के पास की कतिपय बस्तियों के नाम तिल से आरंभ होते हैं जैसे तिलसर।

Post – 2020-05-28

हम भी सच को ही सच समझते थे
पर जमाना वह कुछ अलग सा था।।

Post – 2020-05-28

#शब्दवेध(47)
रंगों के लिए है शब्द?

है तो, पर नहीं भी है, क्योंकि रंगों के इतने भेद हैं कि सभी के लिए सही संज्ञा का प्रयोग किया जाए तो एक अलग कोश बन जाए, इसलिए अपनी मुश्किल को आसान बनाने के लिए मनुष्य विविध रंगीन वस्तुओ और फूलों के नाम जोड़ कर बहुत प्राचीन काल से रंगो के लिए संज्ञाएँ गढ़ता आया है – रुपहला, सुनहला, तामई, लोहित, मटमैला, धूमिल, केसरी, गेरुआ, हल्दिया (हरित/हारिद्र), गुलाबी, धानी (+ रंग) और ऐसे सभी नामों के विषय में यह कहा जा सकता है कि ये जल की ध्वनि पर आधारित नही हैं।

परंतु जिनके रंग को संज्ञा बनाया गया है उनसे स्वयं भी कोई ध्वनि पैदा नहीं होती। हमारे सुझाए गए नियम के अनुसार वे अपनी संज्ञा के लिए जल की किसी ध्वनि पर आधारित होने को बाध्य है। गुलाब (गुल +आब) का नाम तो ऐसा कि हम इसे पानी का फूल कह सकते हैं। धान, धन, (धान्य, धन्य), तन (तने – धनाय, सा.) का पानी से क्या संबंध है इसे इसी बात से समझा जा सकता है जल को धनों का धन ( धनंधनम्), और वृष्टिदाता इन्द्र को महाधन कहा गया है। आप-जल >अप्न धन।

अनाजों में धान धन का पर्याय इसलिए हो गया कि देवों ने धान की खेती से कृषि आरंभ की थी। पलाश – पत्तों वाला, के आदि में आया पल>प्ल, अं. पूल (pool) जलवाची है। उसे यह संज्ञा संभवतः उसकी पत्तियों की उपयोगिता समझ में आने के बाद मिली। पर रंग के लिए पलाश का प्रयोग नहीं होता। उसके फूल का अलग नाम टेसू है, पर अभी इससे मिलता-जुलता जलवाची नाम नहीं सूझ रहा। धातुओं में सभी का नाम जलपरक है।

सभी धातुओं में चमक होती है, सभी एक निश्चित तापमान पर पिघल कर पानी हो सकती हैं, कारण कुछ भी हो पर अर्थ, द्रव, सु-अर्ण, रज-त, लहू-लोह, तम – पानी, >तामा/ताँबा/ताम्र, कन्-पानी+चन-पानी=कंचन, काच, कांस्य, रंगों के लिए जो पुराने नाम : नीर-जल >नील> नीड(नेस्ट) छाया; पीतु-जल> पीत>पीतल, पीला, अर/अरु-जल >अरुण, अरुष; सर/हर/सरि/हरि- जल, नदी > हरा, हरित (पीला, हरा, भूरा); बभ्रु वर्ण के विकास के कई चरण हैं – पूः >पूर/पुर/प्रू (आपप्रुषी)> पूर्ण के समानान्तर महाप्राण प्रेमी बोलियाें में फुर> फुल्ल, full/ fill, फ्रू >fruit, भर/भुर/भूरि,भ्र, भृशं,आदि। इसी क्रम में भ्रूभ्रू> बभ्रु का और इसके अधिक पुराने रूप से भूरा का नामकरण हुआ लगता है। काला, कृष्ण पर हम पहले चर्चा कर आए हैं।
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प्रकाश के लिए शब्द
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पाणिनि के धातु पाठ की कुछ धातुएँ हमारे लिए बहुत उपयोगी हैं, ‘चंचु गत्यर्थाः, 190. ३००, चक तृप्तौ, 783. ३०१, चक तृप्तौ प्रतिघाते च, 93. ३०२, चकाशृ दीप्तौ, 1074. इसका बोलियों के अनुरूप पाठ करें ताे इसमें चंचल के लिए चंचु, छक कर खाने पीने के लिए चक, छकने, छकाने और छक्का छुड़ाने के लिए एक अलग चक की और देखने (चक्षु/ चक्षण), चकराने, चकित होने के लिए एक अन्य चक धातु की कल्पना की गई है जो वर्णविपर्यय के कच>कश>काच/काश का रूप ले सकती थी।

उनकी समस्या लिखित या मानक भाषा में उपलब्ध समान मूल और अर्थ वाले घटकों का निर्धारण था। ध्वनियों की स्वायत्तता की ओर उनका ध्यान गया ही न था। हमारे लिए अंतिम सूत्र का महत्व यह है कि काश का अर्थ वही है जो प्र- उपसर्ग के बिना समझ में न आता, पर पहले व्यवहार में था, यह ला. cos-metic और cos-mos, सजावट और जगमगाहट से प्रकट है । मूल कस/ करस > कर्स जलवाची पद के पीछे वही तर्क था जो सरकर, सरकना, शर्करा, अं.शर्क (shirk) के पीछे । इससे बोलियों का कसना, कसौटी, कसक फा. कश -*जल> कश्ती, कशमकश, कशिश, कोशिश, कशीदा आदि व्युत्पन्न हैं। करस >कर्ष> कष (निकष), कृशानु>कृष >कृष्ण का रूप लेता है। कश/ काश जलर्थक से प्रकाश का रूप लेता है, पर यह हैरान करने वाली बात है कि उपसर्ग के बिना अनेक शब्दों का प्रयोग ही नहीं होता (भा, वदन्ती, तीक आदि भी इन्हीं में आते हैं)।

भा
वर्गीय ध्वनियों में अंतर प्राय: अर्थभेदक नहीं है।इसका कारण यह है कि आरंभ में एक ही शब्द को अलग-अलग बोलियों के लोग पारस्परिक संपर्क में आने के बाद प्रायः अपनी सीमा में सुनते और बोलते थे, यह हम पहले भी कह आए हैं। लंबे समय के बाद जब दूसरों की ध्वनियों को अधिक सटीक रूप में बोलने का अभ्यास उन्हें हो गया और उनकी ध्वनि माला विस्तृत हो गई तो उसके बाद जो शब्द गढ़े गए उनमें अर्थ भेदकता दिखाई देती । इसलिए सघोष महाप्राण ध्वनियों वाले शब्दों का अघोष अल्पप्राण प्रतिरूप मिलता है तो वह अलग शब्द नहीं है, एक अलग बोली बोलने वालों के द्वारा उच्चरित वही शब्द है।

जो बात भा, भी, भू से स्पष्ट नहीं होती वह पा, पी पू से समझ में आ सकती है। पा – पानी, पाला – तुहिन, त. पाल्, ते. पालु – दूध, हिं. पालन, पालि, पालना; त. पार्- देख, भो. कान पारना [1], पावस-बरसात, भो, पलानी – छानी/छप्पर, झोंपड़ी। अब हम भा- *पानी, > भाप, भो. भास- दलदल, भासना- दलदल में धँसना, भाँति- प्रतिबिंब, प्रतिरूप, भा- प्रकाश, भानु- सूर्य, भान प्रतीति, (आ-/प्र-/स- भा), भाषा आदि पर दृष्टिपात कर सकते हैं।

ज्योति
जोति/ जोत[2], ज्योति में विशेष अंतर नहीं है। जोत और जोति अधिक नियमित और अधिक पुराने हैं। जैस जूर्णि – लपट, जार, जरा, जराना – जिनकाे सं. ज्वाला ज्वलन बना लेती है। भो. पूर्वरूप ही जल, ज्वाला और ज्योति> की विकासरेखा को अधिक स्पष्ट करती है। भो. जूरल – उपलब्ध होना,(जो जुटना, जुड़ना, जोड़ना में कुछ धुँधला रह जाता। भो. जुड़ाइल – ठंढा होना, जूड़ी, जाड़ा इस शब्द समूह के जल से संबंध को प्रकट करता वहीं इसको जलाने, सुखाने, निर्जीव करने के लिए झूर, *झु/झू-आग, (झोंसल, झुँझलाइल, झुराइल) कौरवी प्रभाव में महाप्राणन खो कर जू, जरा, जार, जूर्णि बना। द्युति के प्रभाव में जोति ने ज्योति का रूप लिया।

द्युति
द्युति का कहानी भिन्न है। यह ती – जल से व्युत्पन्न है। ती, तर, तिर, तृ के जलवाची होने पर कोई संदेह नही। यह ते. तिय्यन – मीठा, भो. तेवना – भोजन को सुस्वाद बनाने के लिए कोई खाद्य या पेय में भी लक्ष्य किया जा सकता है। त. में तिकऴ़ – चमक, द्युति, तिट्टम् – सटीकता, समतलता; तिट्टि – खिड़की; ती – आग, ताप, बुराई । यह ती, दी, धी, तेव (तेवर), देव और संस्कृतीकरण से द्यु, द्यौस, (>धौंस), (प्र)तीक, तिथि, टीक, टिकोरा, सटीक, टीका, ठीक, ठेका आदि की एक विशाल शब्दावली का जनन करता है और इसकी कुछ शब्दावली पूरे भारोपीय क्षेत्र में फैलती है, इस झमेले में न पड़ेंगे। य़हाँ तक कि यह भी तय करना नहीं चाहेंगे कि मूल तमिल का ‘ती’ है या भो. का ‘धी’, धिकवल – गर्म करना, पर यह याद दिला सकते हैे कि धिक्कार का मतलब ‘आग लगे’, ‘भाड़ में जा’ है।

दूसरे सभी पर्यायों का भी यही हाल है।_
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[1] इसमें त. कान< कन/कण् और पार-देखना का भो. में समावेश के बाद एक नया रूप, जिसका प्रयोग तो होता है पर बिंब नहीं उभर पाता। [2] हम अपनी व्याख्या में उन मामलों में जिनमें यह निश्चित है कि कुरुक्षेत्र में आने वाले उन वस्तुओं/ संकल्पनाओं से अनभिज्ञ नहीं रहे होंगे भोजपुरी के पूर्व रूपों को अधिक भरोसे का मानते हैं। जोति, जोन्ही, जोहल, जूरल, झुराइल, झूर, चान, अँजोर, अँजोरिया, अन्हरिया, उज्जर, उजियार उजास। जैसे ऋग्वेद के हवाले जहाँ सुलभ हुए वहाँ नाम लेकर इसलिए देते हैं कि वह प्राचीनतम कृति है और उसमें हमें लिखित शब्दों के प्राचीनतम ही नहीं अपितु कभी कभी संक्रमणकालीन रूप भी मिल जाते हैं, उसी तरह भो. का विशेष उल्लेख इसलिए महत्व रखता है कि भारोपीय का आद्य रूप उसी में संरक्षित है। भाषा के इतिहास की तलाश करने वाला इसकी उपेक्षा नहीं कर सकता।