Post – 2020-07-24

#शब्दवेध(88)

इतिहास की वैज्ञानिकता

हम कल इस तथ्य को रेखांकित करना चाहते थे कि वैज्ञानिक इतिहास लिखा जाना संभव भी है और जरूरी भी, क्योंकि यही उन विकृतियों का एकमात्र उपचार है, जिससे पूरी मानवता ग्रस्त है। ऐसा इतिहास मानव सभ्यता का इतिहास ही हो सकता है, न कि प्रतापी राजाओं और देशों और जातियों के प्रताप का।

वैज्ञानिक इतिहास की बात करने वाले नहीं जानते कि वैज्ञानिक इतिहास होता क्या है। इसका जिक्र आने पर वे यह मान लेते हैं कि इतिहास के मामले में न तो वह वस्तुपरकता और तटस्थता अपनाई जा सकती है जो प्राकृत विज्ञानों में संभव है, न ही उस तरह के प्रयोग किए जा सकते है। सच तो यह है कि इतिहास स्वयं वह प्रयोगशाला है जिसमे एकल मनुष्य से लेकर मानव समुदायों के आचरण के परिणाम दर्ज हैं। इतिहास प्रक्रिया है, परिणति नही। जहाँ एक परिघटना का अन्त दिखाई देता है वहीं और उसके भीतर से ही दूसरे का आरंभ हो जाता है; जो कार्य है, वह कारण के बदल जाता है।

इसमें हस्तक्षेप संभव नहीं। हुआ तो कुछ न दीखेगा, न समझ में आएगा। आप केवल वह देखेंगे जिसे देखना चाहते हैं, मनोगत को देखने के लिए इतिहास पर नजर डालने की जरूरत नहीं। आज तक इतिहास का इसी रूप में ‘अध्ययन’ किया गया है। नतीजा सामने है, समाज विज्ञान की बात करने वाले स्वयं कहते हैं कि इतिहास विज्ञान की समकक्षता में नहीं आ सकता। यदि नहीं आ सकता तो विज्ञान मत कहो। कथा कह लो, इतिवृत्त कह लो।

इस दुहरी समझ के पीछे इतिहास की मनमानी व्याख्या करते हुए, इसकी वैज्ञानिक साख का इस्तेमाल करने की चालाकी दिखाई देती है न कि इसकी वैज्ञानिकता की रक्षा की चिंता। इसका राग अलापने वालों ने इसके स्रोतों के साथ जितनी छेड़छाड़ की है उतनी मध्यकालीन मूर्ति, मंदिर, शिक्षाकेंद्रों और ग्रंथागार को नष्ट-ध्वस्त और भस्म करने वालों ने ही किया होगा।

मार्क्सवादी इतिहास को समझना नहीं, इसे अपनी योजना के अनुसार तोड़-मरोड़ कर इस्तेमाल करना चाहते हैं, और करते रहे हैं। इतने कम समय में उनके व्यर्थ, उत्पीड़क और मानवद्रोही हो जाने का कारण यह नासमझी ही है और यही मार्क्सवादी इतिहास लेखन में असंगतियों और अंतर्विरोधों का भी कारण है।

यह मार्क्सवादी इतिहासकारों के ही बस की बात है कि आपात काल के दौर में सोवियत संघ के इतिहासकार भारत का एक नया इतिहास लिखते हैं और आपात काल की समाप्ति के बाद उसे वापस ले लेते हैं। वे कहते रहे पूँजीवाद संकट के दौर से गुजर रहा है, भविष्य कम्यूनिज्म का है, और संकटग्रस्त कम्युनिज्म हो गया, पूँजीवाद उसकी व्यर्थता के कारण संजीवनी पा गया।

मार्क्सवादियो की सबसे बड़ी विडंबना यह कि वे मार्क्सवादी नहीं थे। मार्क्सवाद उनका चेहरा नहीं मुखौटा था, असली चेहरा फासिज्म का था जो इनकी भाषा में गाली था। यदि उन्होंने इतिहास के उपयोगितावादी अध्ययन को इतिहास का आदर्श अध्ययन माना होता तो मार्क्सवादी प्रभाव में आने के बाद, मैं स्वयं, वैज्ञानिकता का उपहास करते हुए, ऐसे अध्ययन का कायल हो चुका होता, और इतिहास में वैज्ञानिकता की माँग को अकादमिक पाखंड मानते हुए इसका उपहास करता और उन निष्कर्षों पर नहीं पहुँचता जिनसे मार्क्सवादियों से मेरा मोहभंग हो गया। मेरा मोहभंग उन्हें उन्हीं की कसौटी पर गलत सिद्ध होने से हुआ।

अपनी जड़ें मजबूत करने के लिए उन्होंने न केवल विचार को नष्ट किया, अपितु विचार के माध्यम, भाषा को, निर्णायक महत्व के शब्दों का अर्थ उलट कर नष्ट कर दिया और आज का साहित्यकार, पत्रकार, बुद्धिजीवी अपने ही समाज के समक्ष बे-आवाज भौचक खड़ा है ताे इसके अपराधी वे हैं। यदि ज्ञान और कर्म के क्षेत्र में कतिपय अपवादों को छोड़कर कोई अपना काम नही कर रहा है तो इसकी शिक्षा उन्होंने दी, सब कुछ छोड़ कर राजनीति करो और वह भी गंभीर राजनीतिक विमर्श न बन कर सतही सत्ताबुभुक्षु राजनीति ही बनी रहे।

यह कितनी शर्मनाक बात है कि जिस सोवियत संघ के इशारे पर भारतीय कम्युनिस्ट अपना रुख बदलते रहते थे, उसकी नजर में वे उपयोगी मूर्ख थे। यह मेरा आरोप नहीं बल्कि केजीबी के एक एजेंट के इंटरव्यू का अंश है :
In an interview with G. Edward Griffin in 1984, former KGB informant Yuri Bezmenov had exposed the insidious operations of the Soviet Union and how the Communist apparatus viciously overtakes the conscience of a country.
He began his interview by revealing that people who towed the Soviet foreign policy, in their home country, were elevated to positions of power through media and manipulation of public opinion. However, those who refused to do so were either subjected to character assassination or killed.Recounting his time in India, the KGB informant revealed how he was shocked to discover the list of known pro-soviet journalists in India who were doomed to die. He said that even though those journalists were idealistically leftists, yet the KGB wanted them dead as ‘they knew too much’. Benzmenov emphasised, “Once the useful idiots (leftists), who idealistically believe in the beauty of Soviet socialism or Communism, get disillusioned, they become the worst enemies.”
The former KGB informant reiterated there are no grassroots revolutions but one engineered by a professional, organised group. He revealed that the Awami League party leaders were trained in Moscow, Crimea, and Tashkent.

तथाकथित मार्क्सवादियों के भारतीय जनक कोसंंबी माने जाते हैं और उनकी अपनी इतिहास दृष्टि के जनक ई.एच. कार हैं जिनके What is History को विस्तार से उद्धृत करते हुए वह अपना What is History लिखते हैं । कार आजीवन एक कूटनीतिविद रहे, कई देशों में ब्रिटेन के राजदूत रहे। उनकी इतिहासदार्शनिक के रूप में ख्याति Clash of Civilizations के लेखक हंटिंगटन के समकक्ष ही ठहरती है। उतने ही झटके से दोनों लोगों की नजर में चढ़े थे।

कार की समझ से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के चिंतक (The Twenty Year’s Crisis, July 1939) दो तरह के होते हैं एक यथार्थवादी (realists) और दूसरे खयाली utopians. यदि हम कहें नेहरू दूसरी कोटि के चिंतक थे तो भारतीय मार्क्सवादी बुरा मान जाएँगे क्योंकि वे नेहरू से हर मामले में मीलों आगे थे। भारतीय मार्क्सवादी इतिहास वैज्ञानिक हो ही नहीं सकता था। उसी में कालपत्र लिखा जा सकता था, उसी में इतिहास की एक संस्था का कई बार प्रधान बनने और मनचाहा इतिहास लिखवाने के लिए संस्था का धन और मान अर्थलोलुप इतिहासकारों के हवाले करने के बल पर एक व्यक्ति इतिहास का निर्माता हो सकता था ( The Making of History: Essays Presented to Irfan Habib) और उसी के सारे इतहासकार जुट मिल कर एक अदना जिज्ञासु के सवालों के सामने ढेर हो सकते थे।

विज्ञान की ही नहीं वैज्ञानिक इतिहासबोध का भी सबसे पुराना परिचय बुद्ध में ही मिलता है, एक तो कालामों के बीच सत्यज्ञान का परिचय देते देते हुए राग और दबाव के सभी रूपों से मुक्त हो कर उभय कल्याणकारी निष्कर्ष पर पहुँचने का उपाय बताते हैं और दूसरा गणसंघ की एकता में दरार आए बिना उनके अजेय होने की बात करते हैं। उपयोग करने वालों ने तो उनका भी उसी तरह उपयोग कर लिया जैसे उनके समय से ढाई हजार साल बाद पैदा होने वाले आइंस्टाइन का।

मैं अपना दुश्मन स्वयं हूँ इसलिए मुझे किसी दुश्मन की जरूरत नहीं। लिखता हूँ शोध-निबंध और प्रसंगों को स्पष्ट करने के लिए ऐसे व्यौरों की ओर भटक जाता हूँ कि शोधनिबंध ललित निबंध बन जाता है। मैं स्थापित यह करना चाहता था कि इतिहास के नियमों का सम्मान न करने पर वह इतिहास नहीं रह जाता, वह विषवेलि का रूप ले लेता है और सभी के लिए अनिष्टकारी होता है जब कि वैज्ञानिक इतिहास इतिहास के नियमों का सम्मान करते हुए ही संभव है और इसका परिणाम (बोध) उभयकल्याण होता है। इसमें हार-जीत नहीं होती। जीतने वाले और हारने वाले कुछ खोते नहीं पाते हैं, सत्य के अधिक निकट पहुँचते हैं।

हम इसके बाद अपनी नजर में आए इतिहास के उन वैज्ञानिक सिद्धांतों में से कुछ की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं जिनका पालन करने में शिथिलता बरतने पर हम सही निर्णय पर पहुँच ही नही सकते। हम लिपि पर बात कर रहे थे और हमारा तर्क वही था कि जिसका विवेचन बुद्ध ने किया था कि अमुक के हुए बिना अमुक नहीं हो सकता। यदि अमुक न हो तो अमुक नहीं हो सकता। विकास की पिछली मंजिलों के बाद ही अगली मंजिल पर पहुँचा जा सकता है, यदि उन तक पहुँचना बाधित हो जाए या उसे रोक दिया जाए तो अगला चरण बाधित हो जाएगा।

अहमद हसन दानी अपने जीवनकाल में पूरे दक्षिण एशिया के सबसे कद्दावर पुरातत्वविद थे। बह संस्कृत जानते ही नहीं, उसमें बात भी कर सकते थे जो मेरे वश का नहीं। उन्होंने सिंधु-सरस्वती लिपि, ब्राह्मी और सामी लिपि के आपसी संबंधों की व्याख्या करते हुए ब्राह्मी की उत्पत्ति सामी के दर्शाने का प्रयत्न किया था जो फिनीशियन या तथाकथित अनातोलियन का पर्याय थी। पर वह यह भूल गए थे कि वर्णिक अवस्था alphabetic मात्रिक syllabic का जनक नहीं हो सकती थी, मात्रिक syllabic के बाद ही संभव थी। दानी से एक चूक हुई या अपने निर्णय मे बाधक पा कर उन्होंने इसकी अवज्ञा कर दी कि अमुक के बिना अमुक संभव ही नहीं। यह तथ्य था ग्रीक का सबसे पुराना प्रमाण माइसीनिया की लीनियर- बी में पाया जाना। लीनियर-बी मात्रिक लिपि थी और फिनीशियन लिपि इससे ही पैदा हुई थी:
Mycenaean language, the most ancient form of the Greek language that has been discovered. It was a chancellery language, used mainly for records and inventories of royal palaces and commercial establishments. Written in a syllabic script known as Linear B, it has been found mostly on clay tablets discovered at Knossos and Chania in Crete and at Pylos, Mycenae, Tiryns, and Thebes on the mainland, as well as in inscriptions on pots and jars from Thebes, Mycenae, and other cities that imported these vessels from Crete. Encyclopedia Britanica.
इसके कुछ दूसरे भी पक्ष हैं जिन पर यहाँ विचार नहीं किया जा सकता।

Post – 2020-07-22

भूमिका लेख बन गई शायद!

मैं उन कमजोर दिमाग के लोगों में अपनी गिनती कराने से नहीं डरता जो यह मानते हैं कि ज्ञान और विज्ञान की प्रकृति में भेद नहीं है, मात्रा का अंतर अवश्य है। जो मानते हैं, कोई शास्त्र ऐसा नहीं जिसमें निजी हस्तक्षेप से बच कर विज्ञान न बनाया जा सके। जो मानते हैं कि कोई ऐसा क्रिया-व्यापार नहीं है जिसके पीछे कार्य और कारण का नियम काम न करता हो, अर्थात् जिसका विज्ञान न हो। जो मानते हैं कि वे सभी इतिहासकार जो यह मानते हैं कि वैज्ञानिक इतिहास संभव नहीं है वे अपने को इतिहासकार कहने के अधिकारी नहीं हैं।

विज्ञान उन नियमों को पहचानने और पहचान के बाद उनका कठोरता से निर्वाह करने का नाम है जिनसे परिघटनाएं नियंत्रित होती हैं। बुद्ध ने आज से ढाई हजार साल पहले ही विज्ञान की परिभाषा सरलतम शब्दों में प्रस्तुत की थी:
यदि ऐसा है तो ऐसा होगा ; इसके पैदा होने पर यह (अवश्य) पैदा होता है।
ऐसा न हो तो ऐसा नहीं हो सकता ; इसे रोक दिया जाय ताे यह भी रुक जाता है।

इसी पर आधारित था गौतम बुद्ध का चार आर्य (अकाट्य) सत्यों का निरूपण जो इस तत्व दृष्टि पर निर्भर करता था कि ऐसा कुछ नहीं है जो शाश्वत हो। जो है उसका अंत होगा ही। इसी का आख्यान है :
1. दुख है।
2. दुख का कारण है ( क्योंकि कुछ भी अकारण नहीं हो सकता)।
3. दुख का अंत है ( क्योंकि कुछ भी शाश्वत नहीं है)।
4. दुख के अंत का उपाय है ।

और इस उपाय के लिए अष्टांग मार्ग का निरूपण किया था। हम बौद्ध धर्म पर बात नहीं कर रहे हैं, इसलिए इसके विस्तार में नहीं जाएंगे।

हम केवल यह निवेदन करना चाहते हैं कि जिस धर्म को धोखाधड़ी का पर्याय, ज्ञान, विज्ञान और प्रगति में बाधक माना जाता है, उसके नियमों का पालन किया जाए तो, उसे भी वैज्ञानिक बनाया जा सकता है। यदि धर्म धर्म के अनुकूल हो तो वह विज्ञान में बदल सकता है। इसे ही हम बुद्ध वह तत्वज्ञान कह सकते हैं, जिसके बाद वह दावा करते थे कि वह वेद-वेदान्त सभी की जानकारी रखते हैं पर किसी प्राचीन दार्शनिक या सैद्धांतिक परंपरा का पालन नहीं करते। वह जिस सत्य पर पहुंचे हैं वह किसी पूर्ववर्ती चिंतक के लिए अगम्य था। उनका कोई गुरु नहीं। वह आत्मदीप हो कर विचरण करते हैं। मानवता के इतिहास में यह उसी तरह की एक वैज्ञानिक खोज थी जैसे गुरुत्व शक्ति की खोज थी।

दूसरा पाठ यह है कि ज्ञान और विज्ञान को भी किसी तरह की लिप्सा होने पर उस तरह के धर्म में बदला जा सकता है जिसके लिए मार्क्सवादी साहित्य में भर्त्सना के अनगिनत पाठ पाए जाते हैं पर उसके पक्षधरों की समझ में यह मोटी बात नहीं आती कि वे मार्क्सवाद को वैसे धर्म में परिवर्तित कर चुके हैं।

महाभिषग लिखने की तैयारी करते हुए विज्ञान की परिभाषा से परिचित होने के बाद मैं कला और विज्ञान के बीच अंतर को भूल गया। कला अपने सर्वोत्तम रूप में तब प्रस्तुत होती है जब वह वैज्ञानिक नियमों का पालन करती है, विज्ञान वही सर्वजनग्राह्य होता है, जहां वह ज्ञान को कलात्मक रूप दे कर मानव मात्र के लिए उपयोगी सिद्ध होता है। अफलातून ने कहा था हर चीज की कसौटी मनुष्य है – man is the measure of everything। इसमें मामूली सुधार किया जा सकता है हर चीज की कसौटी मनुष्यता है। संभवतः अफलातून के मनुष्य में मनुष्यता भी निहित है।

अपनी पराकाष्ठा पहुँचने के बाद कला विज्ञान सभी की कसौटी केवल एक रह जाती है, वह मनुष्य मात्र के लिए उपादेय है या नहीं। यदि उसका होना कुछ लोगों के लिए लाभकर प्रतीत होता है और शेष के लिए अनिष्टकर तो , न तो वह कला है, न ही विज्ञान। अपने श्रेष्ठतम रूप में कला विज्ञान के नियमों का पालन करती है और विज्ञान कलात्मक होना चाहता है ।

Post – 2020-07-21

शब्दवेध(87)
लिपि और लेखन के जनक

लंबे समय तक इस विषय में लगभग सहमति बनी रही कि वैदिक ऋषि लेखन कला से परिचित नहीं थे। भारतीय पंडितों की दृष्टि में वे मंत्रद्रष्टा थे, लेखक तो थे नहीं। वैसे मंत्रद्रष्टा सभी कवि और लेखक होते है, रचना लिखित रूप में उपस्थित नहीं होती। मनोलोक में उत्पन्न होती है और उसके बाद ही लिपिबद्ध होती है। मैक्समूलर ने वेद का पता चलते ही इसे मानवता के शैशव का काव्य घोषित कर दिया था। शिशु साक्षर तो हो नहीं सकता।

ज्ञान के क्षेत्र में सबसे ऊंची चोटी को आप इडियट पॉइंट (मूढ़ता का शिखर) कह सकते हैं जहां दो पक्षों के ज्ञानी और अभिमानी लोग अपनी महिमा सिद्ध करने के लिए आपस में हाथ मिलाते हैं, और एक ही कथन से उल्टे अर्थ निकाल लेते हैं। मैक्समूलर हिंदुओं को यह समझाना चाहते थे कि ईसाइयत उसी विश्वासधारा की प्रोढ़ावस्था है जिसका शैशव ऋग्वेद में पाया जाता है। ध्वनि यह कि हिंदुओं को परिपक्वता का परिचय देते हुए अपना धर्म छोड़कर ईसाई बन जाना चाहिए। अपनी असाधारण चालाकी में वह स्वयं बचकानी हरकत कर रहे थे, क्योंकि भारतीयों के लिए उसी कथन का अर्थ था कि अब पश्चिम के विद्वान भी इस बात के कायल हैं कि वेद प्राचीनतम हैं और दूसरी सभी सभ्यताएँ उनके समक्ष शिशुवत हैं इसलिए वेद की खोज हो जाने के बाद उन्हें वैदिक धर्म अपना लेना चाहिए। अकेले दयानन्द सरस्वती थे जो मैक्समूलर को वैदिक ज्ञान के मामले में मूर्ख समझते थे।

हमने अपने अध्ययन (1987; 1995) में वेद और वैदिक समाज के विषय में पूर्व और पश्चिम दोनों के नए पुराने सभी अध्येताओं को भटका हुआ पाया और जिसके विस्तार में जाने का अवकाश नहीं। पर जिस समस्या पर हम विचार कर रहे हैं उसके संदर्भ में हमने इस बात के निर्णायक प्रमाण दिए कि वैदिक काल से भी बहुत पीछे – वाणी को दृश्य अंकनों से व्यक्त करने कीचित्रलेखन तक जाने वाली, परंपरा थी और उन चरणों को सांस्कृतिक प्रतीकों के माध्यम से सुरक्षित रखने का प्रयत्न भी किया गया; कि वैदिक समाज लेखन से अपरिचित नहीं था, बल्कि वह टंकलिपि और हस्तलिपि दोनों मे दक्ष था। पहली के लिए धातु के नुकीले यंत्र का प्रयोग किया जाता था जिसे आरा कहा जाता था और दूसरे के लिए पंख के मूल का प्रयोग होता था जिसके कारण उसका एक नाम पक्ष्या भी था। मैंने इसके साथ ही यह भी निवेदन किया था वैदिक कवि अपनी रचनाओं को भी लिपिबद्ध करते थे, और चित्रलेखन से आरंभ होकर हड़प्पा काल के बाद के काल तक लेखन का चलन भारत से कभी समाप्त नहीं हुआ। हड़प्पा से ले कर ब्राह्मी के चलन तक लेखन के प्रचलन के संकेत प्राचीन कृतियों में मिलते हैं।

ब्राह्मी और सामी लिपिचिन्हों में समानता पाए जाने और सिंधु-सरस्वती लिपि से परिचय के बाद लगातार यह विवाद का विषय बना रहा है कि ब्राह्मी का उद्भव कैसे हुआ।
सिंधु-सरस्वती सभ्यता से परिचय से पहले से ही यह बलवती धारणा रही है कि ब्राह्मी लिपि सामी से निकली है।
An origin in Semitic scripts (usually the Aramaic or Phoenician alphabet) is accepted by all script scholars since the publications by Albrecht Weber (1856) and Georg Bühler’s On the origin of the Indian Brahma alphabet (1895). Bühler’s ideas have been particularly influential, though even by the 1895 date of his opus on the subject, he could identify no fewer than five competing theories of the origin, one positing an indigenous origin and the others deriving it from various Semitic models. (विकीपीडिया)।
कतिपय भारतीय विद्वान (गौरीशंकर हीराचंद ओझा, डी.सी. सरकार, चन्द्रबली पांडे) इसका प्रतिवाद करते रहे पर अहमद हसन दानी (Indian Paleography) ने लगभग निर्णायक रूप में यह प्रतिपादित कर दिया कि ब्राह्मी लिपि सामी से प्रेरित है।

पर दो समस्यायें दानी को भी उलझन में डाल रही थीं। एक तो यह कि सामी के सभी चिन्ह सिन्धु-सरस्वती लिपि के किसी न किसी चिन्ह से मिलते हैं। दूसरे सामी वर्णिक लिपि है, जबकि सिंधु-सरस्वती लिपि से लेकर भारत की आज तक की सभी लिपियाँ मात्रिक हैं। मात्रिक से वर्णिक लिपि निकल सकती है, इसके विपरीत विकासक्रम को उलटने जैसा है।

इसी संदर्भ में इथियोपिया में बसे भारतीयों की भूमिका निर्णायक हो जाती है। इनके विषय में हमारी जानकारी बहुत स्पष्ट नहीं रही है। हमें केवल इस बात का पता था मिस्र की रानी Hatshepsut (15वीं शताब्दी ई.पू.) ने दो जहाज इथियोपिया के व्यापारिक अड्डे (पुंत) को भेजे थे और उन पर जो माल लद कर मिस्र पहुंचा था उसका उद्गम स्थान भारत था – इनमें हाथीदाँत, चंदन, मोर, बन्दर, मसाले, गंधद्रव्य, गन्ना और इसके साथ ही कुछ कारीगर शामिल थे। इथियोपिया की लिपि के विषय मैं विलियम जोंस ने जो टिप्पणी की थी उसे मूल रूप में देना जरूरी है:
That the written Abyssinian language, which we call Ethiopick, is a dialect of old Chaldean, and a filter of Arabick and Hebrew, we know with certainty, not only from the great multitude of identical words, but (which is a far stronger proof) from the familiar grammatical arrangement of the several idioms: we know at the same time, that it is written, like all the Indian characters, from the left to the right, and that the vowels annexed, as in Devnagari, to the consonants; with which they form a syllabick system extremely clear and convenient, but disposed in a lefts artificial order than the system of letters now exhibited in the Sanskrit grammar; whence it may justly be inferred, that the order contrived by Panini and his disciples is comparatively modern; and I have no doubt, from a cursory examination of many old inscriptions on pillars and caves, which have obligingly been sent to me from all parts India, that Nagari and Ethiopic had a similar form. विलियम जोन्स, आठवां व्याख्यान, एशियाटिक रिसर्चेज, खंड 3, पृ. 4

इस पर हम अपनी ओर से केवल यह जोड़ना चाहेंगे कि मात्रिक लिपि सिंधु-सरस्वती लिपि, ब्राह्मी और उसके प्रभाव में विकसित भारत , तिब्बत, बर्मा, मलेशिया, जावा, सुमात्रा, कंबोज की लिपियों, ईरान की प्राचीन लिपियों को छोड़कर केवल सूडान (इथियोपिया में पाई जाती है) इसलिए इनको भारतीय लिपि का प्रसार मानने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं। इथियोपियो के फिनीशियनों के ही भूमध्य सागर तटीय बंधुओं ने कीलक लिपि के उस परिवेश में, उस लिपि का विकास किया था, जिसे सामी लिपि कहा जाता है, और जिसके चिन्ह ब्राह्मी से मिलते हैं।

इस संदर्भ में अमेरिकी नृतत्वविदा सुजान रेडालिया के लेख के एक अंश को पुनः समय और स्थान सीमा के कारण मूल में देने की बाध्यता है:
Linear Elamite was a writing system from ancient Persia, contemporary with Indus script, and resembling it strongly. There was a bilingual monument called the Table of the Lion in the Louvre museum, in Akkadian, a known writing system, and with the same text in Linear Elamite, still undeciphered.
Because of this bilingual monument, scholars gained knowledge of the sound values for a handful of Linear Elamite signs. Already having compiled a list of Indus script signs from examples of Indus seal photos at the website of Dr. Srinivasan Kalyanaraman, I compared Indus signs to Linear Elamite, and found matches; a broken line (na) and a triple S (shu). Then I compared Brahmi script to my Indus sign list, and was shocked to find more than a dozen similar or identical signs; a, o, ka, ga, da, dha, ja, nya, tha, ta, tha, pa, ba, ma, la, ya, and sa.(Cracking The Indus Script: A Potential Breakthrough: Suzanne Redalia.

हम उनके द्वारा तैयार किए और अपनी ओर से पठित लिपिचिन्हों की तालिका कापी पेस्ट करना चाहते थे पर उसकी अनुमति नहींं है।

अब हम जिस नतीजे पर पहुँचते हैं वह यह कि चीनी और तत्सम लिपियों के अतिरिक्त विश्व की सभी लिपियाँ वैदिक या सिंधु-सरस्वती लिपि से निकली हैं। यह हम नहीं, प्रमाण अपने अकाट्य स्वर में कहते हैं।

Post – 2020-07-20

सारी रोशनी, सारा श्रेय अपने और अपने खानदान पर केन्द्रित करने वालों ने इतना अँधेरा पैदा किया कि लोग अपने नायकों को पहचान तक नहीं पाये।

Post – 2020-07-20

तुकबंदी

सोचिए, हम भी आप के ही हैं
आप हमको भला-बुरा तो कहें।
आप पर अब भी जान देते हैं
‘मर, परे हट’, कभी कदा तो कहें।
बे नियाजी सी बेनियाजी है
लाख परदों को चीरता सा हुस्न
छिपते जितने हैं और खुलते हैं
आप की खास है अदा तो कहें।।
इश्क कहते हैं तड़प भी है वही
दर्द तो है मगर लजीज भी है
हुस्न तो है ही जलाने के लिए
है सितमगर भी मेहरबाँ तो कहें।।

Post – 2020-07-19

#शब्दवेध(86)
फिनीशियन – 2

कई स्रोताे को छानने के बाद पता चला कि पुरानी सूचनाओं को दरकिनार करते हुए उनको सामी सिद्ध करने के प्रयत्न में उनकी पूर्वी गतिविधियों की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, उनकी यात्रा की अधिकतम दूरी ब्रिटिश द्वीप समूह तक ही दिखाई जा रही है, मानो भारत से वे अपरिचित रहे हों। ऐसा उसी योजना के अन्तर्गत किया जा रहा है जिसमें भारत की अवज्ञा या अपमूल्यन के प्रयास किए जाते रहे हैं, या नहीं, यह हमें पता नहीं। हमारी पहले की सूचनाओं में दो बातें कुछ अटपटी लगती हैं। पहली, वे खेत की बोआई के बाद दो साल तक की लंबी यात्रा पर निकल पड़ते थे और अफ्रीका का चक्कर लगा कर भारत तक पहुँचते थे। इसकी बारीकी में जाना ठीक न होगा। दूसरे पक्षों की पड़ताल उनकी पहचान और योगदान और परिणति पर पहुँचने के लिए जरूरी है, क्योंकि इससे भारतीय इतिहास के ऐसे पक्षों पर प्रकाश पड़ता है जिसे किसी अन्य स्रोत से समझा नहीं जा सकता।

इतिहास के स्रोत के मामले में विलियम जोंस कुछ मामलों में सबसे कम भरोसे के हैं। वह क्षीण सूचनाओं या सादृश्यों के आधार पर अपने तर्क कौशल से एक कहानी गढ़ लेते हैं, और उनका लेखन अपनी बात मनवाने की जिद का रूप ले लेता है। पर वहाँ भी तथ्यों की प्रस्तुति में वह किसी तरह का हेर फेर नहीं करते। एक ऐसी भ्रामक स्थिति में, जिसमें किसी को यह तक पता नहीं कि फिनीशिन अपने को कहते क्या थे, उनका कोई एक राज्य क्यों न था, उनके जितने नगर थे – तायर, सीदोन, गेलबल/बाइब्लस -आदि वे स्वतंत्र नगर राज्य थे और इसके बाद भी वे किस तरह इतने प्रभावशाली हो गए थे कि उन्होंने भूमध्य सागर के दोनों तटों पर स्पेन तक, जगह-जगह अपने अड़्डे कायम कर लिए थे और पूरे भूमध्य सागर पर उनकी तूती बोलती थी।

जिसे हेरोदोतस ने फिनीशियन की संज्ञा दी उनको कई दूसरे नामों – एदीम, एदुमे, एरिथ्रा आदि- से भी पुकारा जाता था, और इस बात के निर्णायक प्रमाण जोंस ने दिए हैं कि ये भारतीय थे। “very distinct from the Arabs; and whom from the concurrence of many strong testimonies, we may safely refer to the Indian stem.”

ऐंश्येंट हिस्ट्री एनसाइक्लोपिडिया में भी जिसमें उन्हें सामी सिद्ध करने के लिए कुछ खींच-तान की गई है, यह सचाई छिप नहीं पाती कि वे भारतीय मूल के थे। उनके जहाजों के माथे पर जल के देवता के सम्मान में घोड़े के सिर की आकृति बनी होती थी। यह देवता थे यम अर्थात् मौत (The Phoenicians were a great maritime people, known for their mighty ships adorned with horses’ heads in honor of their god of the sea, Yamm, the brother of Mot, the god of death.) यम और उसका भाई मोत अर्थात् मौत विलियम जोंस के दावे पर मुहर लगाते हैं कि वे न केवल भारतीय मूल के थे अपितु वैदिक कालीन बोलचाल की भाषा का व्यवहार करते थे। उनके संपर्क में आने पर उत्तर के किसी क्षेत्र से इटली और ग्रीस में बसे पशुचारण करने वाले जत्थे इनकी भाषा को अपनी बोलियों की सीमाओं में अपनाते हुए वैदिक भाषी ही नहीं बने थे, अपितु कला, ज्ञान-विज्ञान और उद्योग-विद्या अपना कर, विशेषतः नौवहन अपना कर, उन द्वीपों पर भी बस गए थे जिनसे पहले संपर्क संभव न था।

वे रंग-रूप में बाद तक उस क्षेत्र के दूसरे जनों से भिन्न, संभवतः पीत-रक्ताभ या गेहुँए रंग के थे। इसे वस्त्र का रंग उनके पूरे समुदाय की त्वचा में उतर आने के रूप में कल्पित किया गया जब कि इसके लिए तायर विख्यात था, “the Phoenicians being known as ‘purple people’ by the Greeks (as the Greek historian Herodotus tells us) because the dye would stain the skin of the workers. वही।

हमारे सामने जो चित्र उभरता है वह यह कि भारत में सभी नगरों की अपनी स्वायत्तता थी। जिन्हें हम हड़प्पा के नगरों के रूप में जानते हैं, वे नगर राज्य थे। सभ्यता का क्षत्र सर्वमान्य था – वही मान, वे ही बाट, वही मुहरें, वही लिखावट एक पर भीतरी प्रतिस्पर्धा ऐसी कि जिस मार्ग से चेदि अपने अभियान पर जाते थे, उससे कोई दूसरा नहीं जा सकता था – माकिरेना पथा गाद्येनेमे यन्ति चेदयः। इस कलह का सबसे गोचर रूप दाशराज्ञ युद्ध में देखने में आता है। हमने 1987 में ही, कुछ डरते डरते यह सुझाव रखा था कि सुदास और दूसरे प्रतापी लोग, राजा नहीं, व्यापारी थे (2011 संस्करण, पृ. 118)। आज मैं यह दावा अधिक विश्वास से कर सकता हूँ कि वे नगर सेठ थे जिनके हाथ में नगर प्रशासन भी था, जिसका एक आदर्श था जिसका पालन सभी करते थे और जिससे इस भ्रम को बढ़ावा मिलता था कि पूरा क्षेत्र एक शासन के अधीन था।

इसका अधिक अच्छा उदाहरण यह है कि स्थल मार्ग के व्यापार में हित्ती, मितन्नी, कस्साइट अनेक प्रतिस्पर्धी थे । ऐसी ही होड़ समुद्री व्यापार मे भी थी। इन्होंने धीरे-धीरे, बहरीन, ओमान, यमन, पश्चिमी दक्षिणी अरब, इथोपिया, और लाल सागर पर्यन्त के भाग अपना दबदबा कायम कर लिया था। इरिट्रियन का शाब्दिक अर्थ वही था जो पर्पल का। इन जनों के लिए इरिट्रियन का प्रयोग यूनानियों द्वारा पहले भी होता था। इसका नतीजा यह कि कभी तो इरिट्रियन सागर का प्रयोग लाल सागर के लिए होता था पर मोटे तौर पर अदन की खाड़ी, फारस की खाड़ी और सिंध तक के अरब सागर के लिए प्रयोग होता था। दूसरे शब्दों में कहें तो इन जनों के उद्गग क्षेत्र से पूरे प्रसार क्षेत्र को इसी नाम से जाना जाता था:
The Periplus of the Erythraean Sea (Greek: Περίπλους της Ερυθράς Θαλάσσης, Períplous tis Erythrás Thalássis), also known by its Latin name as the Periplus Maris Erythraei, is a Greco-Roman periplus written in Koine Greek that describes navigation and trading opportunities from Roman Egyptian ports like Berenice Troglodytica along the coast of the Red Sea, and others along Horn of Africa, the Persian Gulf, Arabian Sea and the Indian Ocean, including the modern-day Sindh region of Pakistan and southwestern regions of India. (wikipedia Encyclopedia).

आगे की चर्चा कल ही संभव होगी। यह लेखन के इतिहास, भारत के इतिहास, ब्राह्मी (टंकलिपि) और सौरी (लेख्यलिपि) के इतिहास के ऐसे पक्षों से जुड़ा है जिनकी ओर हमारा ध्यान इससे पहले नहीं गया था।

Post – 2020-07-18

#शब्दवेध(85)
फिनीशियन

मेरी रुचि फिनीशियनों के विषय में आपकी जानकारी बढ़ाने में नहीं है। मेरी अपनी जानकारी ही बहुत गड़बड़ है। पहले उनके बारे में जो कुछ जानता था उसका रूप अलग था; आज की जानकारियों का रूप बदल गया है, पर कोई किसी का खंडन नहीं करता। यह दूसरी बात है कि जानकारी में वृद्धि के बाद भी हम यह नहीं जान पाते कि वे कौन थे ? कहाँ से लेवाँ (Levant) – लेबनान, सीरिया, फिलिस्तीन, इज्राइल की भूमध्य तटीय पट्टी में पहुँचे और उस पर अधिकार जमा बैठे थे? इस पूरी पट्टी की एक देश के रूप में पहचान न थी, न वे इन्हें फिनीशिया कहते थे। इतना पता हैं कि यह नाम ग्रीक भाषा के Φοινίκη, Phoiníkē फोईनिके से निकला है, जिसका अर्थ अरुणाभ चटक बैगनी रंग (Purple) है[1]। इस रंग को वे एक खास किस्म के घोंघे से रिसने वाले द्रव से तैयार करते थे, जो फीका नहीं पड़ता था, इसलिए यह अनमोल था और मिस्र तथा मेसेपोतामिया के राजसी पोशाक के लिए पसंद किए जाने के कारण यह सोने से भी मंहगा होता था। एक अन्य अनुमान के अनुसार रँगाई के चलते उनका रंग भी ललौंहा बैगनी हो जाता था इसलिए इनको यह संज्ञा यूनानियों ने दी थी। पर यह अकेली अटकलबाजी नहीं है। एक दूसरी के अनुसार वे साइप्रस के पेड़ की पूजा करते थे, जहाँ भी बस्ती बसाते पहले साइप्रस का पेड़ लगाते थे इसलिए इनको यह नाम मिला। अब यहाँ ग्रीक में फोईनिके की अर्थ प्रक्रिया बदल जाती है। वे किसी अन्य चीज को फिनीक कहते हैं और उनकी सबसे प्रसिद्ध देन चटक लाल रंग से इसको जोड़ कर ग्रीक में उस रंग के लिए एक नया शब्द जुड़ जाता है और फिर उसी को उनकी संज्ञा का मूल मान लिया जाता है।

आज से 50 साल पहले मेरी दिलचस्पी इन लोगों के प्रति तब बढ़ी थी, जब कुछ विद्वानों को यह कहते सुना था कि ऋग्वेद में पणि शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए हुआ है, जिन्हें आज हम फीनीशियन के नाम से जानते हैं। ऐसे लोगों में नामी लोग शामिल थे। यह वह दौर था जब यह माना जाता था कि पहले भारत के साथ यूरोग के व्यापार पर फिनिशियनों का एकाधिकार था जो उनके बाद रोमनों के हाथ में और फिर अरबों के हाथ में चला गया जिनको पुर्तगिलियों और फिर दूसरे यूरोपीय देशों ने अधिकार कर लिया। भारत का नौवहन भारत से होरमुज तक जाता था। इससे आगे नहीं। ऐसी स्थिति में कुछ लोगों को जो वैदिक नौवहन क्षमता की सही जानकारी नहीं रखते थे, पणियों और फिनीशियनों के साम्य से वैदिक समाज की सागरिक शक्ति, उनकी समृद्धि और उनके साथ वैरभाव के समाधान के रूप में यह सूझता रहा हो तो हैरानी की बात नहीं। हम केवल यह कह सकते हैं कि हम यह दावे के साथ नहीं कह सकते कि हमें फिनीशियन शब्द की व्युत्पत्ति पता है।

हमारी पुरानी जानकारी के अनुसार, हेरोडोटस का यह मानना था कि ये लोग 2500 ई.पू. में पूर्व से, संभवतः बहरीन के तट से, लंबे समय तक चलते रहने वाले भूकंपों से घबरा कर भूमध्य सागर क्षेत्र में पहुँचे थे। उनके भड़काऊ लाल रंग का हवाला उसमें भी था। वे समुद्र के सम्राट थे यह भाव भी उसमें था। जो हैरान करने वाली बातें उस जानकारी में थीं वे यह कि वे अपने खेत बोने के बाद व्यापारिक यात्रा पर निकलते थे जो दो साल तक की भी लंबी हो सकती थी। ये अफ्रीका का चक्कर लगा कर भारत तक पहुँचते थे। इनके जहाज सबसे उन्नत थे और वे व्यापार के साथ गुलामों का भी व्यापार करते थे। इनके जहाजों को देखने के लिए उत्सुकतावश जो लोग पहुँचते थे, उनको उनकी सवारी का आनंद लेने के लिए प्रोत्साहित करते थे और फिर ले कर चंपत हो जाते थे और उनको गुलाम के रूप में बेच दिया करते थे। उनकी एस दूसरी कुरीति अपने देवी देवताओं को नरवलि देने की थी।

आजकल कई स्रोताे को छानने के बाद पता चला कि पुरानी सूचनाओं के आधार का खंडन किए बिना उनको सामी सिद्ध करने के प्रयत्न में उनकी पूर्वी गतिविधियों की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जब कि उनका पूरा परिचय दोनों की सहायता के बिना संभव नहीं।
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[1] वास्तव में पर्पल कोई एक रंग नहीं है। इसका प्रयोग पीताभ से लेकर नीलाभ तक के कई रंगों के लिए होता है। मेसोपोतामियाई राजसी वस्त्र के अवशेष का रंग केसरी प्रतीत होता है।

Post – 2020-07-17

मुद्दत हुई है आँख पर परदा पडे हुए
सो कर ही देख नींद पास है कि नहीं है।

Post – 2020-07-16

#शब्दवेध(84)
ज्यों ज्यों सुरझि भग्यो चहत…

मैं भाषा के सवाल की ओर मुड़ना चाहता हूँ पर इसकी तुलनात्मक प्रस्तुति में, यूरोप को सदा से सबसे आगे सिद्ध करने के लिए जिस तरह की सुनियोजित धाँधली की गई, इतिहास, भाषा समस्या और सभ्यता विमर्श को उलट दिया गया, उसकी सचाई सामने लाने के लिए सभ्यता विमर्श में उलझ गया। यदि उलझ ही गया तो कुछ बातों को स्पष्ट कर देना जरूरी है। इसे बिन्दुवार रखें तो:

1. सभ्यता कृषि से आरंभ होती है। इसके दो चरण हैं, एक झूम खेती जिसके लिए दो शब्द प्रयोग में आते हैं। एक शिफ्ट ऐग्रीकल्चर जो झूम खेती का अनुवाद है। दूसरा काटो, जलाओ का तरीका – स्लैश ऐंड बर्न सिस्टम। दूसरा बाद का चरण है जब पेड़ों को काट गिराने के लिए कम से कम पत्थर के कुठार (अश्मन्मयी वाशी) तैयार होने लगे थे।

1.1 इसमें स्थान बदलने के दो कारण थे। पहला आसुरी समाज का उपद्रव जिसकी विकरालता का आज अनुमान करना कठिन है और दूसरा भूमि की उर्वरता का चुक जाना। जैसा कि प्राचीन कृतियों में लिखा गया है, असुरों के उपद्रव के कारण खेती करने वालों काे प्राण रक्षा के लिए दूर दूर तक पलायन करना पड़ा, परन्तु इसका शुभ पक्ष यह था कि इसके फलस्वरूप बहुत थोड़े समय में जिसमें कौन पहले और कौन बाद में तय करना कठिन है, अपनी स्थानीय सुविधाओं और सीमाओं में खाद्यन्नों की पहरेदारी और उत्पादन आरंभ हो गया।

1.2 अन्यत्र कहीं उस तरह का लंबे समय तक चलने वाला विरोध नहीं सुनने में आता। इन विरोधों और कष्टकथाओं की कहानियों ने मौखिक इतिहास और पुराण कथाओं का रूप लिया। इस तरह खेती का आरंभ पौराणिक कथाओं का या ऐतिहासिक चेतना का भी आरंभ था। इसमें कितने समुदाय सक्रिय थे इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता।

2. दूसरा चरण इनमें से एक जत्थे के द्वारा ‘पूर्वोत्तर’ की दिशा में एक सुरक्षित क्षेत्र में जहाँ असुरों से उनका टकराव न था, स्थायी निवास करते हुए कृषिकर्म में उन्नति करने का है। आबादी बढ़ने और नए कछारों की खोज में ये मैदानी भाग में आए और जहाँ अधिक कुश-कास जलाने की समस्या कहीं कहीं पैदा हो सकती थी, अन्यथा न जंगल जलाना था न असुरों/राक्षसों से सीधा टकराव था। इनके लिए देव शब्द का प्रयोग होता था। सच कहें तो व्यवस्थित खेती का आरंभ इनसे जुड़ा है और इनकी सफलता के प्रभावित हो कर दूसरे समुदाय इनके संपर्क में आते रहे। इन्हीं की बोली को तथाकथित भारोपीय का आदि रूप कहा जा सकता है।
2. 1 कृषिकर्म केवल अनाज पैदा करने तक सीमित न था, एक ओर यह भूमि की उर्वरता बढ़ाने, नए बीजों की खोज, बोआई के लिए सही ऋतुकाल की पहचान, सिंचाई के साधनों के उपयोग और निर्माण, खाद पानी की सही मात्रा का निर्धारण, बीजों को घुन और पई से बचाने आदि की चिंताओं से जुड़ा था, जिसके लिए गणना, ज्योतिर्विज्ञान, ग्रहों-नक्षत्रों की पहचान और नामकरण आदि का विकास हुआ, दूसरी ओर अनाज को सुपाच्य और सुस्वाद बनाने के लिए प्रसाधन के यंत्रों, भांडो, विधियों, अलंकरणों अर्थात् मधु, लवण, मसालों आदि की पहचान, परिवहन के साधनों, पाशविक शक्ति का मनुष्य के पेशीय बल के सहयोगी या विकल्प के रूप में उपयोग के लिए पशुपालन, प्रशिक्षण, पशु उत्पाद के उपयोग आदि के क्रम में अनेक प्रकार के ज्ञान, विज्ञान, कला आदि का संकुल या complex था, जिसे कृषि उद्योगविद्या कह सकते हैं।

2.2 ये विकास चलंता खेती या झूम प्रणाली में संभव न था। यही कृषि के स्थायी बनने का अंतर था। कृषि की ओर अग्रसर होने वालों को इसके लिए किसानी के क्षेत्र में दक्ष समुदाय की बोली सीखनी होती थी। कृषिकर्म के निषेध से बँधे होने के कारण कृषि उत्पाद पाने के लिए ऐसी योग्यताएँ विकसित करनी (पेशे अपनाने) होती थीं और इन दोनों स्थितियों में मन्दगति से ही सही किसानों का अनुसंगी बनना होता था, उनकी भाषा अपनानी होती थी और संधिकाल या भाषाई संक्रमण काल में उनकी अपनी बोली का, अदृश्य ही सही, प्रभाव किसानों की भाषा पर भी पड़ता था और उनकी ध्वनिमाला में कुछ नई ध्वनियाँ जुड़ जाती थीं।

2.3 यह है स्थायी खेती अपनाने वाले गंडक मुख से सटे, नेपाल के तराई भाग में कुछ सौ साल रहने के बाद साहस जुटा कर मैदानी कछारों पर में मात्र छींटा पद्धति पर निर्भर किसानों का क्षेत्रविस्तार और उनकी भाषा का अन्य भाषा भाषियों के बीच प्रसार का रहस्य। भाषा उन्हीं की सर्वमान्य रहनी है पर उसे अपनाने वालों की भाषा से यह अप्रभावित नहीं रह सकती थी। यह है कृषि के आविष्कार, विकास, प्रसाऱ और रूपान्तरण का बीज मंत्र।

3. जब हम विश्व-सभ्यता के भारत से आरंभ की बात करते हैं तो हमारे सामने भारत नहीं, ये तथ्य होते हैं। भारत से सुमेरी सभ्यता के जन्म पर विचार करते समय एक लंबे अंतराल के बाद सुमेरियाई परंपरा का यह स्वीकार कि आगंतुक समुद्र मार्ग से आए थे, आरंभ में वे अपनी नौकाओं पर रहते थे, उनका नेता औएनेस था और उशना की समानता, बलि के विषय में यह विश्वास कि वह साल में एक बार अपनी प्रजा का हाल जानने आते हैं, सुमेरी पुरोधाओं का भी कृषिकर्म से परहेज और पुरोहिती तक सीमित रहना, सुमेर मे भैंस और धान की खेती के प्रवेश और सुमेरी जनों मे अभिजात वर्ग के डी एन ए की सिंधु-सारस्वत क्षेत्र से समानता और भारतीय स्रोत में असुरों का लाभ के बँटवारे मे भेदभाव को ले कर तकराऱ उनका पाताल भेजा जाना और साथ ही यह स्वीकार आता है कि असुरों ने पहले सुदूर देश मे नगर बसाए, फिर देवों को अपने नगर बसाने का ध्यान आया। इसके बाद मेसोपातामियाई और मिस्री सभ्यताएँ आती हैं जो इसका ही विस्तार या इससे प्रेरित हैं।

4. अब इस संदर्भ में यूनानी, रोमन, कहें यूरोपीय सभ्यताओं के विषय में उनकी अपनी परंपर क्या कहती है इसे निम्न लंबे उद्धरण से समझें जिसका हवाला पहले भी एक लेख में दे चुका हूँ:

Edim or Edume, and Erythra or Phoenice, had originally, as many believe, a similar meaning, and were derived from word denoting a red colour, but, whatever be their derivation, it seems indubitable, that a race of men were anciently settled in Idume and Median, whom the oldest and best Greek authors call Erythreans; who were very distinct from the Arabs; and whom from the concurrence of many strong testimonies, we may safely refer to the Indian stem. M.D’Herbelot mentions a tradition, (which he treats, indeed, as a fable) that a colony of those Idumeans had migrated from northern shores of the Erythrean sea, and sailed across the Mediterranean to Europe, at the time fixed by the chronologers for the passage of Evander with his Arcadians into Italy, and that both Greeks and Romans were the progeny of those emigrants: it is not on vague and suspected traditions, that we must build our belief of such events; but Newton, who advanced nothing in science without demonstration, and nothing in history without such evidence as he thought conclusive, asserts from authorities, which he had carefully examined, that the Idumean voyagers “carried with them both arts and sciences, among which were their astronomy, navigation, and letters; for in Idume, says he, they had letters and the names of constellations, before the day of Job, who mentions them.” JOB, indeed, or the author of the book, which takes its name from him, was of the Arabian stock, as the language of that work, incontestably proves; but the invention and propagation of letters and astronomy are by all so justly ascribed to the Indian family, that if Strabo and Herodotus were not grossly deceived, the adventurous Idumeans, who first gave name to the stars, and hazarded long voyages in ships of their own construction, could be no other than a branch of the Hindu race: in all events, there is no ground for believing them, till we meat them again, on our return, under the name of Phenicians. William Jones, 8th Annual Discourse, Asiatick Researches, Vol. 3, P. 2-3.

अब यहां दो प्रश्न खड़े होते हैं कि कहाँ वैदिक संस्कृति और वैदिक भाषा और देव समाज वाला भारत और कहाँ फिनीशियन और उनसे मिलते जुलते समुदाय? यहाँ यह याद रखना होगा कि समुद्रमंथन से ले कर दूसरी कहानियों में और वास्तविक जीवन में नौवहन में और शिल्प तथा उद्योग में भारतीय वर्चस्व असुरों की दक्षता पर निर्भर करता था, साहित्य से लेकर व्यवहार में वे बहुत अक्खड़ थे और भाषा और संस्कृति के मामलों में कभी समझौता किया न उस टैबू या कृषिकर्म की वर्जना का उलंघन किया जिसके कारण उन्हें शूद्र बन कर असुविधाएँ झेलनी पड़ीं।

भारतीय सभ्यता का अर्थ वैदिक सभ्यता कभी न था, और जैसा पहले कह आए हैं जिस भाषा का प्रसार हुआ वह केवल वैदिक या संस्कृत न थी़ यद्यपि सभी के बीच पारस्परिक संपर्क की भाषा वैदिक थी। फीनिशियाई वही नौचालक वर्ग था। इसके विषय में एक पोस्ट और करनी होगी।1