Post – 2020-06-22

आश्चर्यवत पश्यति कश्चिदेनम्

मैं उस व्यक्ति को जानता हूँ जिसे कोई नहीं जानता। यूँ तो कोई किसी को नहीं जानता, क्योंकि सभी की आत्मछवि और लोकछवि में अंतर होता है, पर अन्तर इतना अधिक नहीं होता कि पहचान ही गायब हो जाए। उसके मामले में यह अंतर इतना बड़ा है कि वह अपनी ओर देखता है तो दुनिया पर हँसता है और दुनिया पर नजर डालता है तो अपने पर हँसता है। उस पर कोई हँस नहीं पाता। उसका नाम लेते ही लोगों को अपनी सारी ताकत अपनी हँसी रोकने पर लगानी पड़ती है।

पहली बार जब नैपोलियन से उसका सामना हुआ तो सारी दुनिया की जमा भीड़ के सामने नैपोलियन घोड़े की पीठ पर सवार, हाथ में डिक्शनरी उठाए, डींग हाँक रहा था, “मैने अपने कोश से‘असंभव’ शब्द को गायब कर दिया।” दुनिया हक्का-बक्का! और तभी वह तन कर खड़ा हुआ, “यार, तू इस उम्र में आकर यह काम कर पाया। मैंने तो यह काम नव साल की उम्र में कर दिखाया था।

आप विश्वास नहीं करेंगे, नैपोलियन के हाथ से वह कोश छूट कर नीचे गिर गया। उसे उठाने के लिए वह घोड़े से कूदा तो घोड़ा भाग खड़ा हुआ और फिर तो नैपोलियन उस पन्ने से ही गायब, जिससे निकल कर वह डींग हाँक रहा था।

पहली पास कर चुका था। नौ साल का रहा होगा, कि एक तुकबंदी कर डाली, और इसका असर कुछ ऐसा कि उसके ठीक बाद इतना बीमार कि तीन महीने तक बरसात की सीलन और ऊमस में एक अँधेरे कमरे में पड़ा रहा। चारपाई से उठने की ताकत न रही। सभी निराश, पर अकेला वह जानता था कि वह मर नहीं सकता। यदि मारना होता तो ईश्वर ने उसे कवि नहीं बनाया होता।

अनावृष्टि का प्रकोप हुआ। पता चला यदि ताड़पत्र पर एक लाख बार ‘राम’ लिख कर कुएँ में डाल दो तो वृष्टि को कोई टाल नहीं सकता। पर यह काम करेगा कौन? कोई नहीं तो वह करेगा। कलम पकड़ने का शऊर नहीं पर अगले दिन पासी से ताड़ के गोंफे कटवा कर बोरा सीने के सुए की नोक से राम राम लिखना शुरू। लिखते लिखते हाथ थक गए तो मान लिया एक लाख पूरा हो गया होगा।

यह कुछ बाद की बात है। उस जमाने में हर ताड़, पीपल या घने पेड़ पर कोई न कोई नट या प्रेत। एक नई खोज का पता चता कि यदि कोई पानी में खड़ा हो कर सौ दिन तक आधे घंटे उगते सूर्य को अपलक देखता रहे तो आँखों में इतना तेज आ जाए कि उसके देखने से भूत भस्म हो जाय। अगले दिन से बिना किसी को बताए पास की गंगरी में कमर तक के पानी में खड़ा हो कर साधना आरंभ। यदि कातिक में सिंचाई के लिए पानी का इस्तेमाल न कर लिया गया होता तो अंधा हो जाता। अब दिये की रोशनी में आँखों से आँसू इस तरह बहते कि कुछ देख न पाता। धूप में आँखें बंद हो जातीं और नीद आ जाती। पर यह निश्चय कि जो काम कोई न कर सकता उसे वह करेगा स्वभाव का हिस्सा है।

बात समझ में न आई होगी। मैं समझाता हूँ।

उसका शैशव इतनी यातना और उपेक्षा में बीता था जिसे याद करता है तो आँखें बन्द हो जाती। भरे परिवार के बीच निपट अकेला, उपेक्षित। पर उदास दिखना उसे आत्मदैन्य प्रतीत होता। इतना गंदा कि सोचता परमात्मा ने हाथ मक्खियाँ उड़ाने के लिए बनाए हैं। उस उम्र में भी फुर्सत कम मिलती, पर जब मिलती तो एकान्त में सबसे छिप कर रोता- आँसू बह रहे हैं, दिवंगत माँ की याद में अहकती साँसों की दीर्घता बढ़ती जा रही है, छाती भाथी की तरह धौंकती, अब फटी कि तब। नाक आँखों से होड़ लेने लगती, बहना तो हमें भी आता है । कुछ देर बाद निढाल हो कर सो जाता, या यदि इसी बीच किसी काम की गुहार लगती तो झट बहोंरियों से आँसू पोंछ कर हँसता हुआ बाहर निकलता कि किसी को आभास भी न हो कि वह रो रहा था। बचपन में उसे रोते हुए किसी ने नहीं देखा; बचपन की याद में जिंदगी भर रोता रहा – इक जरा छेंड़िए फिर देखिए क्या होता है। अपने नरक में तिलमिलाते हए उससे बाहर निकलने के संघर्ष से पैदा हुआ था वह लावा, जो फूटता है तो वज्रसार मान्यताएँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। मैने देखा है, आप ने न देखा होगा। यही है इसका तिलिस्म, कुछ को दीखता ही नहीं, शेष को दीखता है सिर पीट लेते हैं पर विश्वास नहीं कर पाते।

वह दर्जनों किताबें लिख चुका है, पर लिखने से कतराता है क्योंकि जानने के नाम पर केवल इतना जानता है कि उस किसी विषय की अच्छी जानकारी नहीं है, जो है वह भी व्यवस्थित नहीं, और मजा यह कि मानविकी कि किसी भी शाखा के विश्व के जिन मूर्धन्य विद्वानों को ज्ञान का भंडार मानता उन्हें गाँठ के पूरे और आँख के अंधे मानता है। हँसिए मत, उससे बात कीजिए, हँसी बंद हो जाएगी। मेरे साथ यही हुआ था।
छेड़ बैठा, “तुम्हें संस्कृत आती है?”
“पढ़ लेता हूँ, बोल नहीं पाता।”
“फिर भी वेद की ऐसी हाँकते हो कि वेद के प्रकांड विद्वान उधिया जाएँ।”
चुप हुआ तो लगा चुप हो गया, पर कुछ देर बाद बोला, “वे संस्कृत जानते थे जिसका जन्म वेद को समझने की कोशिश में और अपने बटुए में बंद करने की लालसा से हुआ था। न आज तक वेद को समझ पाए, न संस्कृत को
भाषा बनने दिया।”

“और तुम?

“मैं उस बोली को जानता हूँ जिनसे वैदिक पैदा हुई, उस संचलन को जानता हूँ जिससे वैदिक अस्तित्व में आई, उस भाषा को जानता हूँ जिसके प्रभाव से संस्कृतीकरण आरंभ हुआ, उन परिवर्तनों को जानता हूँ जो घटित हुए, उस क्रिया-व्यापार को जानता हूँ जिसके चलते यूरोप तक इसका प्रसार हुआ, उन्हें इनमें से किसी का ज्ञान नहीं। मुझे इनमें से किसी को इतनी अच्छी जानकारी नहीं कि उसे ज्ञान कहा जा सके।”

“और फिर भी हर विषय में टाँग अड़ाते रहते हो।”

“टाग हो तो अड़ाऊँ। विषय में रुचि रखने वालों और ज्ञाताओं की तलाश करता रहता हूँ, याचक भाव से अनुरोध करता हूँ कि वे उस विषय पर काम करें, मैं अपनी सामग्री देने और उनकी आयु कुछ भी हो, उनका सहायक बनने को तैयार हूँ, पर जब कोई मेरे प्रस्ताव को समझ नहीं पाता तो लाचारी में …और जो तुम टाँग अड़ाने की बात करते हो, जो स्वयं विज्ञापित करता रहता है कि उसे किसी विषय का अच्छा ज्ञान नहीं, कि कहीं लोग उसे विषय का ज्ञाता न मान बैठें, जिसकी टाँग पहले से टूटी हो, वह टाँग कैसे अड़ाएगा?
“ज्ञान शक्ति देता है, गति देता है, पर दृष्टि नहीं देता। वह अन्तर्विरोधों की पहचान से पैदा होती है। उनकी रगड़ से ही वह चिनगारी पैदा होती है जिसे ज्ञान के ईंधन से मशाल या सर्जनात्मक ताप में बदला जा सकता है। तुमने ऋग्वेद में आई अंधे और पंगु की कहानी कभी न कभी तो पढ़ी ही होगी। मैं ज्ञान का गट्ठर लादे भटकते, ठोकर खाते, परस्पर टकराते अंधों में से किसी एक को समझाना चाहता रहा कि इस गट्ठर को फेंक कर मुझे कंधे पर बैठा ले तो दोनों आसानी से पर्वत पार कर सकते हैं। खोजे एक न मिला।”

‘मैंने उपहास भरे स्वर में कहा, “और फिर तुम्हें टाँगे निकल आईं और उन्हे लोगों के रास्ते में अड़ाने लगे कि उनमें से कोई उन्हें फिर तोड़ दे।”

“तुम ज्ञानियों से अधिक गधे हो, क्योंकि तुम उनकी महिमा से आविष्ट हो। एक बार कह दिया कि मैंने किसी विषय में टाँग नहीं अड़ाई फिर भी बात समझ में न आई। मैंने सोच की दिशा बदली है। उस सत्य को हाथ में उठा कर दिखाने लगा, ‘जिधर तुम तलाश कर रहे थे उधर वह चीज थी ही नहीं, फिर मिलती कैसे।वह दूर भी नहीं थी, पास ही थी, दिखाई दे रही थी। लाचारी में मुझे जैसे तैसे घिसटते हुए उस तक पहुँचना पड़ा, उठाकर दिखाना पड़ा। मैने उन्हें ध्वस्त नहीं किया, वे व्यर्थ हो गए।

“मेरा कोई काम प्रस्तुति के मामलो में संतोषजनक नहीं पर कोई ऐसा नहीं जो युगान्तरकारी न हो। यह मामूली सी बात समझने की योग्यता हिंदी के ही नहीं, भारत के किसी बुद्धिजीवी में नहीं।”

अब मेरे लिए ठहाका लग ने के अलावा कोई चारा न बचा था। उसने बुरा नहीं माना। मुस्कराता रहा।

2

“अच्छा यह बताओ तुम्हारी सबसे प्रिय कृति कौन सी है?”

“ऋग्वेद, जिसे समझने की कोशिश में लगा रहता हूँ।”

“मैं कहूँ, तुम पाँच हजार गहरे कुँए से बाहर निकलना ही नहीं चाहते।”

“नादान के कहने का तरीका एक होता है, और समझदार का दूसरा। समझदार होते तो घटना, विचार और संवेदन में फर्क कर पाते और जानते समय बीतने के साथ घटित बीत जाता है, जीवंत विचार और संवेदन प्रायः सम्मोहक स्वप्न बने रहते हैं। सर्वे भवन्तु सुखिनः या केवलादी भवति केवलाघी पाँच हजार नीचे नहीं पहुँचता, पाँच हजार साल के ताप से तप्तकांचन बन कर चमकता और चुनौती बन कर खड़ा रहता है। नासदीय सूक्त पढ़ो और पता किसी और ने वर्णनातीत के वर्णन में सफलता पाई है?”

“चलो मान लिया, पर यह बताओ जिसे तुम जानते नहीं, अभी जानने की कोशिश में लगे हो उसके भी इतने बड़े ज्ञाता बन जाते हो कि जिन्हें सारी दुनिया अधिकारी विद्वान मानती है उनको भी गिनती में ही नहीं लेते। मधुसूदन ओझा, क्षेत्रेश चट्टोपाध्याय का नाम सुना है।”

“सुनो, मैं पिछले पचास साल से ऋग्वेद को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। कंप्यूटर पर काम करने लगा तो दो बार लगभग पूरा ऋग्वेद अपने हाथों लिखा। दोनों बार वाइरस के प्रकोप से धुल गया, फिर तीसरी बार पूरा हुआ। फिर एक पाठ मंडलवार सायण भाष्य में आई व्याख्याओं और ग्रिफिथ के अनुवाद के साथ। एक कोश अलग से। विविध पक्षों से संबंधित उद्धरणों का संग्रह अलग से। यदि इन चिर वंदनीय महापुरुषों की समझ सही होती तो उन्हें पढ़ कर समझ लेता। इतना समय तो बर्वाद न होता। एक मोटी बात बताऊँ। तैत्तिरीय ब्रा. का कथन है, वैशयवर्ण ऋग्वेद से पैदा हुआ – ऋग्भ्यः जातं वैश्यं वर्ण आहुः, ऋग्वेद में जीवेम शरदः शतं की कामना प्रबल है, पर इसलिए कि शरद ऋतु वैश्य ऋतु है – शरत् वै वैश्यर्तुः; ऋग्वेद में स्थानों का नाम गायब, नदी नामों और यात्राओं की भरमार पर क्यों ? क्योंकि नदियां वारिपथ या आवागमन का मार्ग हैं, प्र ते अरदत् वरुण यातवे पथः। इसके बाद भी मुझसे पहले किसी ने ऋग्वेद को आर्थिक गतिविधियों को केन्द्र में रख कर समझने की कोशिश की? मेरी कोशिश भी एक सिद्धि है।”

मैंने हाथ जोड़ लिए, “भैया मान गया, पर ऋग्वेद से नीचे तो उतरो। यह बताओ हिंदी का कौन सा कवि पसंद है?”

“तुलसी।”

“गई भैंस पानी में। फिर चार सौ साल पीछे!”

“देखो, जिसे साहित्य और आलोचना के मानदंड समझना हो, काव्यभाषा ही नहीं गद्य भाषा के मर्म को समझना हो उसे तुलसी को अपने साहित्यिक पाठ्यक्रम की तरह आधा-घंटा एक घंटा मनोयोग से पढ़ना चाहिए। वह अकेले कवि हैं जो नासदीय सूक्त की ऊँचाई को छू पाते हैं।”

“समझा नहीं।”

“समझोगे भी नहीं क्योंकि तुमने दोनों में से किसी को पढ़ा ही नहीं। जैसे लोग ताजा भोजन पसंद करते हैं वैसे ही तुम ताजा, गर्मागर्म साहित्य पसंद करते हो, भले वह जहाँ से ऑर्डर दे कर मँगाया गया है वहाँ बासी पड़ गया हो। तुलसी जानते हैं ऊँचे से ऊँचे विचार को अशिक्षित और अल्पशिक्षित व्यक्ति तक पहुँचाया जा सकता है। संस्कृत साहित्य का समस्त वैभव उन्होंने जनभाषा में उतार कर रख दिया। अकेले वह हैं जो साहित्य की सामाजिक भूमिका और साहित्यकार के सामाजिक दायित्य को समझते और इसका आख्यान करते हैं। यह समझ तुलसी से पहले न थी, यह समझ हमारे समय में भी खो गई है।”

“तुम रौ में आते हो तो रुकते नहीं। साहित्य की सामाजिक भूमिका और साहित्यकार के सामाजिक दायित्व पर सबसे अधिक चर्चा हमारे समय में हुई है और तुम कहते हो…”

“इसे चर्चा नहीं, भोजपुरी में गलचउर कहते हैं, तुम इसे जुगाली कह सकते हो। चर्चा हो रही है और साक्षरता, प्रकाशन और प्रचार के उन्नत साधनों के दौर में भी आप का साहित्य साक्षरों तक नहीं पहुँच पाता जब कि तुलसी उस पिछड़े युग में भी निरक्षर जनों तक पहुँच सकते थे।”

मैंने चट जवाब दिया, “धार्मिकता के कारण।”

“हो सकता है यह भी एक कारण हो पर यह प्रधान नहीं है। प्रधान अंतर जातीय परंपरा, परंपरा से तुम्हें परेशानी हो तो समझो जातीय मिजाज, सामाजिक मनोरचना की पहचान खो जाना। आधुनिक बनने के उत्साह में हमारे मानस का औपनिवेशीकरण। आधुनिक शिक्षित वर्ग अपने ही समाज के अशिक्षिताें के बीच कुछ अलग, अजनबी सा बन कर रहने लगा। पहले का प्रकांड विद्वान भी उन्हीं में धँस कर रहता था फिर भी अधिक समादृत था। व्यंग्य यह कि रीतिकालीन कविता की पहुँच जहाँ तक थी वहाँ तक भी आधुनिक साहित्य की पहुँच न रह गई। यह एक गंभीर समस्या थी। कम से कम साहित्य के सामाजिक दायित्व की बात करने वालों को इस पर ध्यान देना चाहिए था, पर वे ऐसा न कर सके क्योंकि सबसे औपनिवेशिक दिमाग स्वयं उनका था और आज भी है। जीववध को पाप मानने वाले देश में हिंसा का दर्शन ले कर आए थे।”

“तुम तो हर चीज को उलट देते हो यार! यह बताओ जब तुम नौ साल की उम्र में ही इतने महान कवि बन गए थे कि काल भी तुम्हारा बाल बाँका नहीं कर सकता था तो कविता लिखना छोड़ क्यों दिया?”

“मेरी आठवीं तक की पढ़ाई गाँव में हुई। उसमें एक ‘भारती-सदन पुस्तकालय’ था जिसमें साहित्यरत्न तक की शिक्षा और परीक्षा का भी प्रबंध था। उसमें रीतिकाल तक का समग्र साहित्य था। कविता के नाम पर वही पढ़ता रहा। यह सोच कर कि एम.ए. तो हिंदी से करना ही है भानु जी का छंदप्रभाकर, जाने किसका अलंकार भेद, रस और नायक-नायिका भेद सब तैयार। उन्हीं में रहीम का बरवै नायिका भेद भी था।”

“क्या कहते हो तुम? रहीम और नायिकाभेद?”

“अवधी में था। सब भूल गया पर एक छंद याद है, ‘भोरहिं बोलि कोइलिया बढ़वति ताप। घड़ी एक भर अलिया रहु चुपचाप।’ साहित्य हमारी मनोरचना, कल्पना और संवेदना को नियंत्रित करता है और इसका नुकसान यह हुआ कि मेरी चेतना में शास्त्रीयता घर कर गई। खड़ी बोली की कविता से परिचय श्यामनारायण पांडे की हल्दीघाटी पढ़ कर। आठवीं के, 1948 के आरंभिक दौर की बात होगी। उससे इतना अभिभूत हुआ कि मैंने भी उसी नाम से एक खंडकाव्य रच बैठा। कथाबंध था कि एक पर्यटक हल्दीघाटा देखने जाता है और पूछता है कि हुआ क्या था? आरंभ कुछ यूँ था :
लिख बैठी है हल्दीघाटी तेरी अमर कहानी को।
रणकौशल की स्फूर्ति शौर्य औ’ साहस भरी जवानी को।

युद्ध क्षेत्र मेंं राणा का आवेश:
उस समर भूमि में प्रवहमान जो सतत रक्त की नाली थी
था आँखों में प्रतिबिंब वही, वह नहीं आँख की लाली थी।।

और अंत में विदा का क्षण:
हरित द्रुम वल्लरियों से भरी अरी मेरी सुरपुरी प्रणाम
अरी कंटक-कुंजों से भरी दरी जीवन सहचरी प्रणाम
अरवली चोटी से उत्तुंग द्रुतगता ओ निस्सरी प्रणाम!
मातृभू की छाती पर पड़ी मालती की शुभ लरी प्रणाम!
वह चौसठपेजी खंडकाव्य कब, कैसे खो गया यह पता न चला। रचनाएँ बहुत सी खोई हैं, पर केवल उसके खोने का दुख आज तक है। जो भी हो, जो काम कोई दूसरा कर सकता है वह मैं भी कर सकता हूँ का विश्वास और एक बड़ा कवि होने का अहसास इसके छह साल बाद तक बना रहा कि आजकल का वह कविता विशेषांक आया जिसमें पहली बार केदारनाथ सिंह की कविताएँ पढ़ीं तो लगा अपनी कल्पित ऊँचाई से एक झटके में नीचे फेंक दिया गया हूँ। असंभव शब्द मेरे कोश में पहली बार आया। फिर तो भवानी भाई, फूल लाया हूँ कमल के क्या करूँ इनका, रघुवीर सहाय, कीर्ति चौधरी कई नाम। लगा मैं कवि के रूप में व्यर्थ हो चुका हूँ। कविता से बाहर का रास्ता सामने था।” पहली बार उसने एक लंबी साँस ली, “फिर भी मेरी मूल प्रकृति कवि की ही है।”*

*इसमें प्रयुक्त कतिपय शब्दों की व्याख्या कल।

Post – 2020-06-22

लिखते समय मेरी एक मात्र चिंता इस बात की रहती है कि मैं अपने विचार को सही सही और सही तरीके से रख पाया या नहीं। वह कितने लोगोे को पसन्द आता है, कितना पसंद आता है इसकी चिंता नहीं करता। हमारे समाज में, और इसलिए फेस बुक पर पसन्द और समझ का यह हाल है कि यदि गालियाँ दी जाएँ तो दाद देने वालों की संख्या हजारों में पहुँच जाती है जब कि सार्थक विचार को पसंद करने वालों की संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है। इसमें भी परिचय के दायरे की भूमिका होती है।

मैं ध्यान और नजर की सीमा के कारण वर्तनी आदि की गलतियाँ भी करता हूँ। उनके सुधार में कोई मदद कर दे तो उपकार मानता हूँ, परन्तु अपने लेखन में किसी का हस्तक्षेप, काट छाँट सहन नहीं करता। यह मेरे साथ ही नहीं है, सभी लेखकों के साथ है। जो इसका बुरा नहीं मानते वे अपने को लेखक कहने के अधिकारी नहीं।

ऐसा एक स्तंभ में लगातार हो रहा है, और उस पर मिली प्रतिक्रियाओं से तुष्ट होने के कारण सुना किसी लेखक को इस कर आपत्ति नहीं कि उसके साथ क्या बर्ताव किया गया है। उन लेखों के खलने वाले अधूरेपन पर ध्यान गया था इसलिए मैने लेखमाला के योजनाकार से आग्रहपूर्वक कहा था कि यदि स्थान सीमा के कारण कुछ काट छाँट करनी हो तो मुझे दिखाए बिना प्रकाशित न करें, संक्षेपण की जरूरत होगी तो मैं कर दूँगा।

उन्होंने मेरे अनुरोध पर ध्यान नहीं दिया। ऐसा पहले कभी न हुआ था। वह लेखकों और उनकी रचनाओं का अपने लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं, एक कीमा पाठ दूसरा मुर्गमुसल्लम पाठ।

यदि प्रस्तुति में यह संकेत होता कि ये प्रकाश्य लेख के उद्धरण हैं तो पंगुता की शिकायत न होती। समझाने की कोशिश की तो पाया उन्हें समझा पाने की योग्यता मुझमें नहीं है। अनुज लेखकों की भावनाओं को आहत होने, छोटे परिजनों का मन दुखाने की अपेक्षा स्वयं आहत होना बुरा नहीं लगता। पर इसका मन पर जो प्रभाव पड़ता है, अपना लेखन जिस रूप में प्रभावित होता है, उसका उपाय करना जरूरी है।

मैं शब्दों पर विचार कर रहा हूँ और घूम कर इतिहास पर पहुँच जा रहा हूँ। आज भी लिखने चला तो वही दिशा, कारण भीतरी कचोट में है। इसलिए तय किया है कि एक घंटे बाद उस लंबे (2500 शब्द) लेख को फेस बुक के हवाले कर दूँगा। कोई पढ़े या न पढ़े, मन हल्का हो जाएगा।

Post – 2020-06-21

#शब्दवेध(69)
ऐंगर

क्रोध में आग बबूला होने, लाल पीला होने, भड़क उठने, आपा खोने के मुहावरे हम प्रायः सुनते रहते हैं। अंग्रेजी में भी ऐसा देखने को मिले, यह स्वाभाविक ही है।

एंगर को निम्न रूप में परिभाषित किया गया है, anger (O.N. angre)- hot displeasure, often involving a desire for retaliation: wrath, inflamation. हमें इसके अर्थ से भी और इसकी ध्वनि से भी धातुविद्या के जनक, ‘आग से पैदा होने वाले’ (आगरिया) जनों का स्मरण हो आता है । अग्नि स्वयं अंगिरा है. – त्वमग्ने प्रथमो अंगिरस्तमः कविर्देवानां परि भूषसि व्रतम् ।) अन्यत्र हम यह निवेदन कर चुके हैं कि अंगिरा धातुविद्या के आविष्कारकों के प्रतीक हैं जिनका वैदिक सभ्यता में असाधारण माहात्म्य था। धातु विद्या के साथ पहली बार ऐसा हुआ कि टूटी हुई चीज को पिघलाकर या तपा कर पुनः वह चीज बनाई जा सकती थी। एक से कई चीजें बनाई जा सकती थीं जो पुराने उपादानों के साथ संभव न था। लकड़ी, पत्थर और मिट्टी के बर्तन एक बार टूट गए तो टूट गए। पत्तल फट गया तो फट गया। इसके कारण धातु कर्म को आश्चर्यजनक उपलब्धि माना जाता था और धातुकर्मियों को चमत्कारी, जादुई शक्ति से संपन्न समझा जाता था। अथर्ववेद का नाम इसीलिए अथर्व आंगिरस से जुड़ गया। उसमें तंत्र मंत्र पर अनेक सूक्त हैं। ब्लूमफील्ड ने अथर्ववेद के अपने अनुवाद में केवल ऐसे ही सूक्तों को चुना था जिससे सिद्ध किया जा सके कि भारतीय अध्यात्म जादू-टोने का ही दूसरा नाम था।

भारतीय सूत्रों के अनुसार इनका प्रव्रजन ईरान की ओर हुआ था और वहां से आगे की ओर जिसकी पुष्टि ईरानी स्रोतों (अवेस्ता) से भी होती है। हमारे अपने सूत्रों के अनुसार धातु विद्या के आविष्कार और प्रसार का यही इतिहास है जिसे झुठलाने की कोशिश भी लगातार की जाती रही है। इसका सबसे ताजा उदाहरण “कमिंग ऑफ आइरन (इर्फान और 2003) रहा है। परन्तु यह कोई नई बात नहीं थी। जब सभी यह मानने को बाध्य हो गए कि ‘आर्य’ बाहर से नहीं आए थे, तो डूबते के तिनके की तरह उन्हें यही सहारा बच रहा। इसमें जो ध्वनित था वह यह कि जब लोहा – धातुविज्ञान बाहर से आया था, तो आर्य भी आए थे। ऐसा ही एक दूसरा लंगड़ा तर्क यह दिया जाता रहा है कि पहिए का सबसे पुराना साक्ष्य काकेशस क्षेत्र से मिला है, इसका आविष्कार आर्यों ने किया था क्योंकि पहिया, रथ और अश्व से संबंधित समूची शब्दावली भारतीय आर्य भाषा की है इसलिए आर्य यूरोप से बरास्ता मध्येशिया भारत आए होंगे (विटजेल).

इनका सूचना संकलन कमाल का है पर भारतीय स्रोतों की जानकारी नदारद, या अधूरी और ऊटपटांग है। पौराणिक और नृतात्विक जानकारी का उपयोग तभी करते हैं जब उनसे इरादे पूरे होते हों, इसलिए उनका ज्ञान भार में और वे उस खूटे में बदल जाते हैं जिस पर ज्ञान का वह थैला लटका हुआ है, “स्थाणुः अयं भारहारः किलाभूत अधीत्य वेदं अविजानाति योर्थः। सचाई निम्न प्रकार है:

आर्यों ने कृषि कर्म की दिशा में पहल करने और उसके हिंसक विरोध के बाद भी इससे विचलित न होने, कृषिविद्या की समस्याओं का हल निकालने – खाद, पानी, बोआई का सही समय तय करने, पकाने और सुरक्षित रखने और अपने श्रम से तैयार की गई भूसंपदा और फिर दूसरी संपदाओं पर एकाधिकार करने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया। इससे सैद्धान्तिक विज्ञानों – गणित, ज्योतिष. रसायन, चिकित्सा और साहित्य का जन्म हुआ जिस पर उनका अधिकार बना रहा। आदिम कृषि को छोड़ कर बाद का उनका सारा श्रमभार और उद्योग असुरों या कृषि का विरोध करने वालों पर रहा जो स्वयं कृषि करना तो पाप समझते थे पर कृषि उत्पाद पाने के लिए उन्हें तकनीकी सेवाएँ देने को तैयार थे। परिस्थितियों के दबाव में इनमें से कुछ को कृषिश्रम भी करना पड़ा।

जो काम करते हैं वे ही अपनी समस्याओं के समाधान का उपाय करते थे जिन्हें हम आविष्कार कहते हैं। भारतीय समाज के समस्त आविष्कार असुरों ने किया। पहिए और रथ का आविष्कार तीन समुदायों ने किया। एक की छाप इसके विकास के विविध चरणों पर आज भी बना हुआ है- रोड़ा, लोढ़ा, लढ़ा. लढ़िया, , रेढ़ा, रेढ़ू। दूसर् की पह, पाहन और पहिया में और तीसरे का चर्क/शर्क, शर्करा, चक्र। एक चौथा समुदाय था जो पत्थर के उन्हीं घिसे गोलाकार पिंडों को बट कहता था। ये पहिए का विकास नहीे कर सके पर अमूर्त संकल्पनाओं के विकास में – वृत, वृत्त, वर्तुल, वर्तमान, परिवर्तमान, बर्तन, वंटन, बाट आदि में इनका योगदान रोचक है।

सबसे मजेदार बात यह कि जिस भाषाई समुदाय ने चक्के आविष्कार किया उसने रथ का आविष्कार नहीं किया, पर दोनों में से कोई उस बोली से संबंधित नहीं था जिसे आदिम भारोपीय या आर्यभाषा कहा जा सके । इसके विस्तार में न जाएँगे। इतना ही पर्याप्त है कि इसका श्रेय भृगओं को दिया गया है जो असुर थे, कृषि कर्म से और य़ज्ञ के कर्मकांडीय रूप का, इन्द्र का तिरस्कार करने का साहस रखते थे।

लोहे के आविष्कार के विषय में असुरों का मौखिक इतिहास (असुर कहानी), उत्कृष्ट लोहे के उत्पादन में उनकी दक्षता, और ऋग्वेद अवेस्ता (और अब इसमें ऐंगर शब्द के निर्वचन को भी जोड़ सकते हैं, कि धातुविद्या के जनक भारतीय असुर हैं जो वैदिक समाज के पूज्य होने के स्तर तक समादृत उपजीवी थे। सभी स्रोत एक स्वर से इस तथ्य को रेखांकित करते है और धातुविद्या का प्रसार, जिसमें आगे चल कर लोहा भी शामिल हो गया, भारत से वैदिक समाज की व्यापारिक गतिविधियों क विस्तार के कारण हुआ।

लोहे का आविष्कार 1500 डिग्री सेंटीग्रेड का ताप पैदा करने की युक्ति से अधिक और धातु से कम संबंध रखता है। खनिज कोयले से पहले यह क्षमता इमली और बबूल के अंगारों में थी जिनकी सुलभता भारत में थी। यह अकारण नहीं है कि अंगिरस्तम के रूप में औद्योगिक गतिविधियों में प्रयुक्त अग्नि को स्मरण किया गया है।

लेकिन सबसे विस्मय की बात यह कि जिस वाणी पर एकाधिकार ब्राह्मणों ने किया, उसके अंकन या लेखन की युक्तियों का आविष्कार तक असुरों ने किया। भाषा को गो कहा गया है। ऋभुगण के आश्चर्यजनक कारनामों मे एक यह है कि उन्होंने माता (मात्रा चिह्न) सहित निश्चर्म गो का निर्माण किया। विश्वामित्र ने विधाता की सृष्टि के समानान्तर हर एक चीज की रचना की। ससर्परी वाक (कर्सिव राइटिंग) का ज्ञान उन्हें जमदग्नि ने दी (ससर्परी या जमदग्नि दत्ता)। सभी संकेत एक ही यथार्थ को प्रस्तुत करते है।

विकास के इस तनावपूर्ण रेखा की द्वन्द्वात्मकता को समझे बिना न तो भारतीय इतिहास को समझा जा सकता है न ही समाजरचना को न आज की समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। राजनीतिक जहर अवश्य फैलाया जा सकता है। यह सवाल रह जाता है कि जब वे उनकी श्रद्धाविभोर हो कर प्रशंसा करते थे तो समानता का व्यवहार क्यों नहीं करते। उन्हें यजीय और सोमपान का अधिकारी क्यों न मानते थे। इसका संतोषजनक उत्तर तो नहीं दे सकता क्योंकि आर्थिक लाभ और भागीदारी का पक्ष मेरे सामने बहुत धुँधला है। परन्तु यज्ञ की भर्त्सना (हता मखं न भृगवः, वैदिक देव समाज की निंदा, इन्द्र की अवज्ञा (न इंद्रं देवं अमंसत) तो वे स्वयं करते हैं । विश्वास की भिन्नता स्थायी कलह और दुराव का कारण बना रहा।

हम विषय से बहक अवश्य गए, पर इस समस्या पर आधिकारिक सूचना से बाबा साहब भी वंचित रह गए थे। आज के दलितों में अध्ययन का एक ही मानक रह गया है। जो वह जानते थे उसे जान लेना, मानते थे उसे मान लेना, जिसकी उन्हें जानकारी न थी वह था ही नहीं। ऐसे मे इसका कोई लाभ होगा इसकी आशा नहीं पर पर जो मेरी जानकारी में है उसे अभिलिखित करना जरूरी था।

अब हम ऐंगर और अंगिरा पर आएँ। भारत में अंगराओं का असाधारण सम्मान है पर ईरान में देवों की तरह ये भी दुष्ट रूप में चित्रित किए गए।
‘Which man does the Angra Manyu govern; or which is as eveil as that chief himself?’… why is this sinner, that cheif who opposes me as Angra Mainyu opposed Ahur Mazda?’ Why must we abide the sight of these oppressors representing their lie demons and goddess?” SBES, Zendavesta part III, p.110.

कारण यह है कि देवों और उनके खनिकर्मियाो के माध्यम ईरान के खनिज भंडारों का दोहन किया जा रहा था । इनमें बहुतों का स्थानीय समाज में समायोजन हो गया। सच किसी एक कोने मे रखा नहीं
होता। झूठ और फरेब के कोने अँतरे होते हैं। सच जर्रे जर्रे में व्याप्त होता है। ए्क शब्द की मामांसा में जाएँ, पूरा इतिहास आँखों के सामने आ जाएगा।

Post – 2020-06-21

जिस घर में कदम रक्खो उस घर का खुदा हाफिज
इतिहास में पहुँचे तो इतिहास बदल डाला।।

Post – 2020-06-20

#शब्दवेध(68)
फिर वही राग एक नई धुन में

विषय विस्तार हो तो बेचैनी पैदा होती है। उसका नुकसान यह होता है कि कुछ जरूरी बातें विस्तार के बाद भी अनकही रह जाती है। मैं संस्कृत को आज भी दुनिया की सबसे सक्षम भाषा मानता हूँ, पर सबसे महान नहीं। उस मामले में तो वह हिन्दी से भी विपन्न भाषा है।

हिंदी अपनी बोलियों से कटी भाषा नहीं है यद्यपि तत्सम-प्रधानता के चक्कर में अपने मुहावरों, लोकोक्तियों से दूर होने की प्रक्रिया में इसने उस राह पर चलते हुए अपनी ऊर्जा का क्षरण किया है। हिन्दी दुनिया की किसी भाषा से ऐसे शब्द ग्रहण कर सकती है जो उन वस्तुओं, विचारों के लिए हों जिनके लिए उपयुक्त शब्द उसके भंडार में न हों पर । इससे उसकी पवित्रता नष्ट नहीं होती, संस्कृत की होती है। भाषा वस्तुजगत और भावजगत का सांकेतिक प्रस्तुतीकरण है, इसलिए उसमें कुत्सित, घृणित जिसका अस्तित्व है, उसको व्यक्त करने वाले संकेत (शब्द) उसमें होने चाहिए। पवित्रता भाषा-बाह्य अवधारणा है। यह उसे पंगु बनाती है। इसलिए यदि संस्कृत को विश्वभाषा और नैसर्गिक भाषा बनना है तो एक तो इसे पाणिनीय व्याकरण से आगे बढ़ कर ऐन्द्र व्याकरण को, जिसका कुछ आभास ऋग्वेद में और तोलकप्पियम में मिलता है, अपनाना होगा और चौके की भाषा नहीं कामकाज की, कामकाज करने वालों की उदार और सर्वसमावेशी भाषा, बन कर समृद्ध बनना होगा।

जिन धातुओं को संस्कृत का मूलाधार माना गया है वे भाषा को सक्षम नहीं अक्षम बनाती है और मूल तक पहुँचने में बाधक बनती है। मूल पर ध्यान दें और निम्न शब्दावली का अवलोकन करें:
‘सर’ ,
सर् सर् – हवा या पानी के प्रवाह की ध्वनि का अनुकरण
सर /सल- पानी
सर – प्रवाह, गति
सर – तीर (ध्यान दें तीर भी जलवाची ‘तर’ से जुड़ा है)। २. चुभने वाला
सर / सरोवर – जलाशय
सर – वह दंड जिससे सर बनाया जाता था ।
सरिया (आ) – सरकंड की तरह पतला और लंबा
सलिल/ शरिर> शरीर (सलिलं शरिरं शरीरम्।
शल्य < शूल - काँटा>शलाका> बाण> चीर-फाड़,
शल्यचिकित्सा
सरण्यु – वायु, बादल, जल…
सरना – सधना,
सरमा – हनूमान की पूर्वर्ती भूमिका वहन करने वाली देवशुनि
सरबर/ सरबराह – प्रधान, नेता
सरयू – नदी नाम
सरई – बहुत पतली सरपत
सलाई (आ) – बुनाई या अंजन तगाने की तीली
सार – पानी, निचोड़ > सारांश – निचोड़ बिन्दु, निष्+कर्ष – खींच कर निकाला हुआ,
सार-सत्य
सारा – समग्र
साल – वर्ष
सालग्राम – सलिग्राम> शालिग्राम
सिराना – ठंडा होना
सीर – मीठा > शीरीं – मधुर, शीरनी – खीर
सीरा/ शीरा – गुड़ या चीनी का गाढ़ा घोल,
सिरा – अन्त
सिलसिला
चिलचिलाना – चमकना
चिर- सतत, सबसे ऊपर, अनन्त
चिरुकी – शिखा
सिर/शिर – सबसे ऊपर
सिरा – अंत
सरण – प्रवाह, गति;
सरणी – मार्ग;
सड़क – मार्ग
सड़न, सड़ना, सड़ांध, सड़ियल, सिड़ी, संडास
सरि (+ता); सरति – प्रवाहित होता है; सरस्वती; सरस्वान
सरकना> सर्पति
सर्प
सरसराहट
सरासर- लगातार, नितांत
सरपट / सर्राटा – तेज गति
सरीसृप – सांप
सर्ज (ऋ.)- बाहर निकलना, जैसे सोमलता से पेरकप सोमरस, (सृजामि सोम्यं मधु)।E. Surge, surf, surface, shirk, shrink,
सर्ग (ऋ.) सर्गप्रतक्त – प्रखर वेग से गतिमान (अत्यो न अज्मन् त्सर्ग प्रतक्त:)।
सर्गतक्त – गमनाय प्रवृत्त:( न वर्तवे प्रसव: सर्गतक्त) ।
सर्तवे (ऋ.) – मुक्त प्रवाह के लिए (अपो यह्वी: असृजत् सर्तवा ऊ ) ।
सर्पतु – (ऋ.) प्रसर्पतु, अभिगच्छतु (प्र सोम इन्द्र सर्पतु )।
अतिसर्पति – (ऋ.) घुन की तरह प्रवेश कर जाता है (यत् वम्रो अतिसर्पति) ।
सृप्र – क्षिप्र (सृप्रदानू ); सृप्रवन्धुर – झटपट जुत जाने वाला पशु ।
कौरवी प्रभाव में सर > स्र
स्रवति – बहता है, फैलता है
सर्ज > सृज् बन जाता है जिसके बाद सृजन
सर्जना सिरजने के आशय में प्रयुक्त होकर नई शब्दावली का जनन करता है। ऋ. में भी सृजाति प्रयोग सृजति के आशय में देखने में आता है ।
स्रग – माला
सर्व – समस्त; सब, (तु. सं/ शं – जल > समस्त; समग्र; अर -जल, अरं – सुन्दर, पर्याप्त > E. All; कु – जल > कुल – सकल; अप/ आप – जल > परिआप्त > पर्याप्त आदि )।
शीर्ण – गला हुआ
त्सर (वै) – क्षर (अभित्सरन्ति धेनुभि:; मध्व: क्षरन्ति धीतय:)।
वर्ण विपर्यय रस जिसके साथ भी पानी, गति,
रस -पानी, द्रव, फल का जूस, शीरा (रसगुल्ला, रसमलाई)
रस – आनन्द
रस – कोई भी स्वाद, षट् रस
रस – औषधीय विपाक , २. रसायन, ३. रसोई,
रस – भावानुभूति के रूप, काव्य के नव रस
रसना –
रसा – धरती, दुर्लंघ्य नदी
सरसा – बाधक धारा, कल्पित नदी
रसिक – काव्य मर्मज्ञ, सहृदय
रास – समूह नृत्य, E. Race, rash, rush, ross,
रास – लगाम
रश्मि – किरण
रश्मि -बागडोर, रसरी, रस्सी/ रस्सा
रेसा, रेशम,
रस्म – चलन
रसति – चलता है;
रंहति, रंहा – नदी नाम
रास्ता – जिस पर चला जाता है
राह, राही, राहगीर, रहजन, राहजनी
रिस – हिंसा, ऋ. रिशाद – हिंसकों का भक्षक, अग्नि
रिस / रीसि > रुष्टता, क्रोध
रिष्ट-ऋष्टि,
रिसना – चूना, बहना
रुश् -लाल, रोशनी, रोशनाई (rose, ruse,
रोष- गुस्सा

इस समस्त शब्दभंडार का आशय मात्र जल के प्रवाह से उत्पन्न हाद से विदिध भाषाई समुदायों द्वारा अनुश्रवण और उच्चारण तथा जल की विभिन्न विशेषताओं के माध्यम से इस तरह समझा जा सकता है कि शब्दार्थ स्पन्दित हो जाय, अर्थ अनुभव की प्रतीति कराएँ जब कि धातुओं के माध्यम से समझने पर थकान पैदा हो और इतनी धीतुओं का कहारा लेने पर भी संदेह बना रह जाए:

35. श्रथि शैथिल्ये (भ्वादिगण)
83. स्रकि- (भ्वादिगण)
84. श्रकि- (भ्वादिगण)
85. ष्लकि गतौ (भ्वादिगण)
151. श्रगि — गत्यर्था (भ्वादिगण)
935. सृ गतौ (भ्वादिगण)
983. सृप्लृ गतौ (भ्वादिगण)
1099. सृ गतौ (भ्वादिगण)
1178. सृज विसर्गे (दिवादिगण)
1414. सृज विसर्गे (तुदादिगण)
1419. रुष -(तुदादिगण)
1420. रिष् हिंसायाम् (तुदादिगण)
1670. रुष रोषे। रुट इत्येके (चुरादिगण)

Post – 2020-06-20

वह दर्द जो लावा है, बहता है लहू बन कर।
हर एक सदा में है, हर एक सतर में है ।

Post – 2020-06-19

#शब्दवेध(67)
कहाँ से चली बात पहुँची कहाँ तक

रिस /रिष, रोष> रुष्

रिस/ रीस, भोजपुरी में रिसिआइल और रूठल।

रि का अर्थ संस्कृत में हिंसा लगाया जाता है, रि हिंसायाम् । इसका दूसरा अर्थ गति है, रि गतौ। रिष का अर्थ भी हिंसा- रुष, रिष हिंसार्था। रुष रिष हिंसायाम्। इनका दो बार उल्लेख इसलिए कि इनकी रूपावली दो तरह चलती थी। एक रूप भ्वादिगण के अनुसार, दूसरी दिवादिगण के अनुसार । यह दो गणों का मामला है, अर्थात् दो भिन्न भाषाई पृष्ठभूमियों से आए जनों (गणों) द्वारा किए जाने वाले प्रयोग हैं। कुछ वैसे ही जैसे हिंदी में कोई कहता है, ‘मेरे को जाना है’, दूसरा, ‘मुझको जाना है’, तीसरा, ‘मुझे जाना है।’

संस्कृत के विद्वान कल्पना-कृपण और आलसी रहे हैं। शारीरिक निष्क्रियता मानसिक शिथिलता पैदा करती है। वे रटना जानते थे, प्रश्न करना नहीं जानते थे; खोज करना नहीं जानते थे। जो सबसे अच्छा लगता रहा है उसकी पूजा करना आरंभ कर देते रहे हैं। यह सोच ही नहीं सकते थे कि जो सबसे अच्छा लगता है उससे भी कुछ छूट गया हो सकता है, उससे भी कुछ भूलें हुई हो सकती हैं। यदि ऐसा न होता तो किसी ने तो सोचा होता कि एक ही शब्द का एक ही अर्थ में एकाधिक रूपों में प्रयोग क्यों होता है? स्पष्ट लिखा है गणों द्वारा किए जाने वाले प्रयोग। संस्कृत जैसी किताबी भाषा में तो यह तक संभव था कि इनमें से किसी एक को ही शुद्ध मान कर, केवल उसका व्यवहार किया गया होता और शेष को असाधु प्रयोग कह कर हतोत्साहित किया गया होता, तो संस्कृत ‘द्वादश वर्ष पठेत् व्याकरणं’ वाली बोझिल भाषा न रहती।

यह शिथिलता धातुओं के मामले में ही नहीं, संज्ञाओं के मामले में भी, लिंगभेद के कारण है। संस्कृत में लिंग व्याकरणिक हैं। न केवल उनके भेद हैं, अपितु विकट भेदाभेद हैं। कुछ का एकाधिक लिंगों में प्रयोग होता है। व्याकरणिक लिंग कितनी बड़ी समस्या है इसे इस बात से समझा जा सकता है कि आजीवन हिंदी क्षेत्र में रहने और संवाद में रहने के बाद भी हास्यास्पद भूलें करते हैं। इसकी समस्या बंगालियों के साथ ही क्यों है इसका कारण यह कि बांग्ला में व्याकरणिक लिंगभेद नहीं है। इस विडंबना को रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक कटाक्ष में व्यक्त किया था, “तुम्हारी हिन्दी में यदि स्तन पुलिंग है और मूँछ स्त्रीलिंग तो कोई सही हिंदी कैसे बोल सकता है?” यह समस्या हिंदी में संस्कृत की देन है। संस्कृत में यह अराजकता कहीं अधिक है। बोलियों में यह नहीं है। बांग्ला अपनी व्याकरणिक संरचना में बोलियों जैसी है।

संस्कृत में दस गण क्यों हैं, एक गण जुहोत्यादि की एक मात्र धातु की विविध लकारों में इतनी अराजकता क्यों है, यह न समझ पाना उन विविध भाषाई पृष्ठभूमियों से आए और संस्कृत के निर्माण में योगदान करने वाले गणों की भूमिका को समझने से इन्कार करना है। यह समझने से भी इन्कार करना है कि इनमें यज्ञ और पौरोहित्य को ले कर सबसे अधिक होड़ थी। यही कारण है कि जुहोत्यादि में अलग अलग कालों (लकारों) में रूपावली सबसे अधिक गड़बड़ है। इस होड़ की पुष्टि विश्वामित्र- वसिष्ठ की खुली और अगस्त्य की दबी प्रतिस्पर्धा और भृगुओं के विद्रोह में देखा भी जा सकता है। संस्कृत अभिजात भाषा थी, इसलिए इसमें सबसे अधिक घालमेल हुआ। ब्राह्मण वर्ण और उसमें भी पौरोहित्य सम्मान की दृष्टि से सर्वोपरि था इसलिए उसमें घालमेल सबसे अधिक हुआ और तीन कनौजिया तेरह चूल्हा प्रतीक रूप में जिस यथार्थ को ध्वनित करता है वह यही है। सामाजिक प्रतिष्ठा के अनुरूप घालमेल सभी में हुआ।

हम एक शब्द की व्युत्पत्ति तलाशते भाषा की बनावट पर पहुँच गए जो भटकाव प्रतीत हो सकता है, पर यही तो हमारी समस्या है। जो भी हो, खेद की बात यह कि आरोपित वर्णवादी अहंकार में हम अपनी ही पहचान भूल गए। एक तरह से अपने पितरों को ही भूल गए। अपनी ऊर्जा के स्रोत को भूल गए जो शूद्र से लेकर विपरीत क्रम में ब्राह्मणों तक प्रवाहित है और सच कहें तो आज राष्ट्रवाद की बढ़ चढ़ कर बात करने वाले अपनी जातीयता को भूल गए हैं।

संस्कृत का नाम आने पर विह्वल हो जाने वाले न संस्कृत के जीवट को जानते हैं न इसकी व्याधियों को जिनका निवारण कर दिया जाय तो यह विश्व भाषा बन सकती है। ये उपाय हैं, 1. गणभेद को मिटा कर सबमें एकरूपता; 2. व्याकरणिक लिंग की समाप्ति; 3. द्विवचन की समाप्ति, 4. संहित पाठ की जगह विच्छिन्न पाठ (पद पाठ), और कसाव को कम करने की समझ। कोई समझदार व्यक्ति फालतू बोझ लाद कर तेजी से आगे नहीं बढ़ सकता। समृद्ध होने और बोझिल होने में अंतर है। दुनिया की कोई भाषा सचेत रूप में अपने को दुरूह नहीं बनाती। संस्कृत को लोकप्रिय और व्यावहारिक भाषा बनाना है तो यह करना होगा। शास्त्रीय ग्रीक और माडर्न ग्रीक की तरह शास्त्रीय संस्कृत की सुविधा शोध आदि के लिए होनी चाहिए और आधुनिक संस्कृत को आधुनिक विषयों की शिक्षा के अनुरूप विकसित किया और अंतर्देशी संचार और व्यवहार की भाषा बनाया जाना चाहिए। औपनिवेशिक भाषा का विस्थापन उसके माध्यम से सर्वमान्य रूप मे हो सकता है।

दूसरी कमियों की तरह संस्कृत व्याकरण की सबसे बड़ी सीमा थी वैदिक भाषाविमर्श से कट जाना जिसमें भाषा का उद्भव जल से (मम योनिः अप्सु अन्तःसमुद्रे) माना गया है जिसे आधार बना कर हम अपना विवेचन कर रहे हैं। उस दशा में धातुओं की उद्भावना करने की जगह मूल स्रोत को पकड़ पाते। तब रस, रिस/रिष, रुष रोष में एकसूत्रता दिखाई देती और अर्थ अधिक स्पष्ट होता। साथ ही हमें rush, rash, का भी संबंध दिखाई देता।

रस -सजल, रसा- जलवती>रिस(रिसना, रिसाव>रुस/रुष/रुश यस्या रुशन्तो अर्चयः , अस्थुरपां नोर्मयो रुशन्तः । आ गन्ता मा रिषण्यत प्रस्थावानो माप स्थाता समन्यवः; .सहस्रदा ग्रामणीर्मा रिषन्मनुः; श्रुधी हवं इन्द्र मा रिषण्यः स्याम ते दावने वसूनाम् । न दानो अस्य रोषति ।.आदि। क्रोध को भी अपनी संज्ञा जल से मिली, हमारे लिए यही पर्याप्त है।

Post – 2020-06-18

#शब्दवेध(66)

मद
मद/मध/मधु/महु/मेद/मेध/मेह का अर्थ जल है।
मद का प्रयोग 1. मतवाले हाथी के गंड से बहने वाले द्रव, 2. नशा, 3. अहंकार, 4.आह्लाद, 5. मधुर, 6. तन्द्रा (मद-मत्त-मधुप) के लिए किया जाता है। मदिरा, मदिर, मादक के अर्थ से हम परिचत हैं। ऋ. में कोमल के लिए म्रद का प्रयोग हुआ है। उन्माद, प्रमाद, प्रमदा मदन, मेदिनी (धरती), मोद, मोदक, मृदु, मेदुर,
की भी व्याख्या जरूरी नहीं। विमद – निरहंकार ऐंद्र विमद वैदिक ऋषियों के नाम है। अं. मड(mud), मैड(mad), मोड (mode), मूड (mood).

लालसा/लालच
लाल/लार/लोर – जल। लस-रस।
लालसा – लस्ट (lust – pleasure, appetite, longing); लूसिड (lucid – shining, transparent); लस्टी- लैस (lusty – vigorous); लश्चर – तु. लसना (lustre- gloss, brightness), ल्योर – लुभाना (lure – an enticement), लर्च तु. लचक, लोच) lurch – wait, ambush. 2. to roll or pitch suddenly forward or one side; लर्क- ढूँका (lurk – to wait, to be concealed); लुशस – रसीला (luscious – sweet, delightful); लश – रस (lush – rich and juicy); लस्क – आलसी (lusk – lazy). लग – तु. लग्गी (lug-to pull, to drag heavily).

स्नेह
(स्न[1]/ स्र/स्ल/सन/सर/सल – जल/द्रव) –
(क्षीरेण स्नातः कुयवस्य योषे; सो अस्नातृनपारयत् स्वस्ति ।; ऊर्ध्वेव स्नाती दृशये नो अस्थात् । )
स्नु (तं त्वा घृतस्नवीमहे), स्नो(snow), स्नेक(snake), स्नीक (sneak – to go furtively o,r meanly) स्नूप (snoop -to go about sneakingly) स्नेल(snail) (snog- to kiss, embrace, to /love), (snob – cobbler, a person of ordinary or low rank. ही नहीं सन (sun- सूर्य, 2. धूप), सन (son- सुवन), सिन(sin), शाइन(shine), शाई (shy), सेन(sane, सिंक(sink), सिंसियर(sincere), सीनियर (senior), स्नीयर(sneer), स्निप (snip), स्नपर (snipper), स्नीयर(sneer) स्नार्ल (snarl), स्लो slow, स्लाइड, स्ले (slay), स्लीक (sleak), स्लैक (slack) स्लिम(slim), सलाइम (slime) स्लाइस(slice) स्लिक slick) स्लिप (slip),स्लाइडर (slider) सिल्क(silk) आदि बड़े शब्दसमूह को और इनके रोमन, ग्रीक समरूपों को जल से व्युत्पन्न किया जा सकता है।

जुगुप्सा
गुप/गप किसी रोड़ी पत्थर के पानी में गिरने से उत्पन्न है। इसके साथ चार भाव जुड़ते हैं – 1, लोप, 2. छिपाना/बचाना, 3. ग्रसना, 4. नाद विशेष जो कथन का । पानी का एक अन्य पर्याय है कल/खल/गल/घल। गुप्+गल से अ. गल्प सं. गल्प/जल्प निकले हैं। छिपाने से सं. गुप् – रक्षा करना/ शरण देना, (गुपू रक्षणे)।ं इससे रक्षक- गोप, और छिपा हुआ (गुप्त) दोनों निकले हैं। गोपन में दोनों समाहित हैं। गोपाल का अर्थ भले गोरू चराने/ पालने वाला हो पर गोप/गोपी दोनों का प्रयोग पुलिंग में रक्षक है। ऋ. में अमृत का रक्षक, गोपामृतस्य; विश का रक्षक और धरती आकाश (दृश्य ब्रह्मांड) का जनक, विशां गोपा जनिता रोदस्योः; हमारी संपदा सुरक्षित रहे, ता नो वसू सुगोपा स्यातं; ऋत का रक्षक, गोपा ऋतस्य जैसे प्रयोग इसे स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त हैं। इसे गुप्स मानें तो भी गुप्स, कुप्स, गुत्स जैसे प्रयाेग नहीं मिलते। गुप् में तिरस्कार का भाव लगता है उसी तरह आया जैसे कुत्स – ज्ञानी मे (कुत/कित/चित – ज्ञान)। ऋ. में कुत्स, पुरुकुत्स, कुत्स आंगिरस, कुत्सपुत्र का प्रयोग इसी आशय में हुआ है। बाद में इसका अर्थ बदल कर क्या हुआ इसे कुत्सा और कुत्सित मे आज के प्रयोगों से समझ सकते हैं। कुत्सा का ही इतिहास गुप के साथ भी दुहराया गया। अंतर केवल यह कि गुप् के साथ स जुड़ गया। जुगुप्सा का विच्छेद गुप्सा-गुप्सा है। जब शब्द आवर्ती होते हैं तो पहला प्रथमाक्षर रह जाती है। इस तरह गुप्सागुप्सा गुगुप्सा बना। कवर्ग में जब आवृत्ति होती है तो एक और बदलाव होता है। वह अक्षर अपने समस्थानीय चवर्गीय अक्षर में बदल जाती है। कार-कार .> ककार>चकार – किया। क्रिया है तो यह भूतकालिक रूप हो गया। विशेषण होने पर आवृत्ति से विशेषता पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है। गुप्स गर्हित, जुगुप्स नितांत गर्हित।

यदि चवर्गीय शब्द की आवृत्ति होती तो पहले अक्षर की ध्वनि नहीं बदलती – जानजान > जजान, चारचार >चचार। इसका यह अर्थ भी है कि मुख्यधारा में प्रवेश करने वाला यह वर्ग बहुत प्रभावशाली था।

ईर्ष्या –
ईर- जल, इरावती/इरावदी – सुजला; ईर्म – चिकना, इरण – गमन, प्रवाह, ईरताम -लाओ। इसका जल से संबंध तो निर्विवाद है पर इसकी निर्मिति में ईर-रिष (मा देवा मघवा रिषत् ) से है या ईर-इष से। रिष का अर्थ सायण ने हिंसा किया है, परंतु संदर्भों रुष्ट या अप्रसन्न अधिक समीचीन लगता है जिस अर्थ में इसका प्रयोग भोजपुरी में आज भी होता है।

काम/ कामना
कं/गं- जल
काम का व्यापक अर्थ आकांक्षा ही लगती है जिसका अर्थसंकोच काम भावना (कामातुर) में हो गया। काम्य में मूल आशय सुरक्षित है। कं से ही कमनीय, कम्र – सुंदर E. काम (calm), कॉम- com-, कॉमिटी (comity), कोर्ट/ कर्टियस (courteous), कमेमोरेट (commemorate), बिकम – शोभा देना (become), कॉमर्स (commerce), कॉमेली (comely), कॉमेन्स (commence), कंफर्ट (comfort), कॉमेंड (commend) आदि कं से सूत्रबद्ध हैं। ,

राग/अनुराग/विराग
रज- जल,> फा. रंज, हिं. रंग, सं. राग – आसक्ति, प्रेम, बां. नाराजगी, E. रेज – विक्षोभकारी प्रेम या आक्रोश (rage- madness; overpowering passion of any kind, as desire or anger) में पाया जा सकता है।

विषाद
सत/सद – जल, 1.भाव, 2. सत्ता, . विविध उपसर्गों के प्रभाव से – उत्साद, प्रसाद, अवसाद, निषाद, विषाद ।
———————-
[1]एक समय में मारिस ब्लूमफील्ड से आर्यों के शीत प्रधान क्षेत्र से ऊष्म में आने का प्रमाण यह बनाया था कि स्न स्नो के निकला है। उनको न तो स्नेक(snake- सरकने वाला का ध्यान आया न स्नीक (sneak) स्नेल,(snail) स्नाउट (snout) का जिससे उनका निष्कर्ष उलट जाता। ये मामूली विद्वान नहीं थे, इन्होंने वैदिक संस्कृत में जो काम किए हैं वे आज भी कीर्तिमान हैं : “The Atharva-Veda” (1899); “Cerberus, the Dog of Hades,” (1905); “A Concordance of the Vedas” (1907); “The Religion of the Veda” (1908); “Rig-Veda Repetitions” (1916) Atharva-Veda परन्तु जिस पूर्वाग्रह से काम किया उससे उनका पाठ खुली नजर से ही किया जा सकता है।
*प्रवाह/गति, खाद्य/पेय/, आनंद, प्रकाश, ज्ञान, सम्मान, सुख, दुख, संपत्ति, विपन्नता, ऊपर, नीचे, सभी के द्योतक शब्द जल की ध्वनि या पर्याय से निकले हैं।
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Post – 2020-06-17

#शब्दवेध(65)

मनोभाव
मन मस्तिष्क से अलग नहीं है, परन्तु हम युगों से इसे हृदय से जोड़ कर देखते आए हैं जिसका काम केवल रक्त संचार का है। यह नकली और गलत विभाजन इसलिए कि हम भावनाओं को विचारों से अलग रख सकें, यद्यपि भावना भी विचार शून्य नहीं होती। अंतर अनुपात का होता है। मस्तिष्क सृष्टि की सबसे विलक्षण रचना है जिसके विकास में मनुष्य – उसकी भाषा, उसके औजार और क्रिया व्यापार और सामाजिक संस्थाओं – का योगदान कम नहीं और सच कहें तो इसी ने उसे विश्व के कल्पित स्रष्टा के समक्ष – कविः मनीषी परिभू स्वयंभू – कहते हुए खड़ा होने का अधिकारी बनाया। उसने इसे जीव जगत का सबसे दुर्बल प्राणी बनाया था, यह अपने मस्तिष्क का विकास करके अपने को सृष्टि का सबसे शक्तिशाली और खतरनाक और अपने लोभ और अहंकार के कारण सबसे कमीना और मूर्ख प्राणी बना लिया।

ये लोभ और अहंकार भी उसी मस्तिष्क में पैदा होते हैं जिसमें उसके विचार। इनको नियंत्रित करने वाले कोने भले अलग हों। विचार मे लिए प्रयत्न अपेक्षित होता इसलिए उन पर हमारा नियंत्रण होता है, इसलिए हम उन्हें दिशा दे सकते हैं, मनोभाव स्वतः उत्पन्न होते है और कई बार हम सोचते हैं वे गलत हैं और उन्हें नियंत्रित करना चाहते हैं, परंतु सफल नहीं होते। वे इतने प्रबल होते हैं कि उनके दबाव में हम अपने प्राण तक दे सकते हैं। विचार विश्लेषित करते हैं, बिखराव और अस्थिरता पैदा करते है, प्रकाशित करते हैं, मनोभाव जोड़ते हैं संकल्प पैदा करते हैं और अंधकार पैदा करते है। आवेग पशुओं में मनुष्यों से अधिक प्रबल होता है, या कहें मस्तिष्क के जिस विकास से विचार पैदा होता है उसके अभाव के कारण उनमें केवल भावनाएं ही होती हैं।

जिन समुदायों को किसी भी कारण से भावनाओं पर पाला जाता है वे पशुओं के अधिक निकट होते हैं और पाशविक मूल्य उनके जीवन मूल्य होते हैं, आसानी से यूथबद्ध हो जाते हैं – उनमें सामाजिकता नहीं यूथबद्धता होती है, और इसलिए हिंसक पशुओं की तरह संख्या में कम होते हुए भी वे अधिक खतरनाक होते हैं। सभी समाजों में ऐसे लोग रहे हैं जो अपने समाज को भावुक बनाकर, पशुओं का रेवड़ बना कर उनके रखवाले या चराने वाले की भूमिका अपने पास रखना चाहते रहे हैं और किसी भी समुदाय में जब तक ऐसे लोगों का वर्चस्व हो इंसानियत की बात करते हुए भी समाज इंसानों का समाज नहीं बन सकता।

हम अपनी चर्चा में आवेगो को तो सम्मिलित करेंगे ही उन सभी की जिनकी पार्थिव से अलग भावसत्ता है, जिन्हें हम देख नहीं सकते, कालबद्ध और स्थानबद्ध नहीं कर सकते, फिर भी हमारे ज्ञान जगत का सब कुछ उन पर निर्भर करता है। इसी पृष्ठभूमि में, हम बहुत संक्षेप में, मनोभाव पर केवल इस दृष्टि से विचार करेंगे कि उनकी संज्ञा जल से किस रूप में संबंध है।
भाव < भू - पू/ फू/बू/भू = जल, पू - पूत -1. निकला हुआ (गभस्तिपूत) रस, 2. पुत्र, 3. पवित्र, 4. सड़ा हुआ, 5. विष (पूतना), 6. पोतल(=लीपल> लेप, लेपन,लिप्त)।
पुर – 1.जल, 2. समूह, 3. बादल, 4.बस्ती/नगर; पुरु- बहु; पूर्ण- पूरित, भो. पुरनिया – बृद्ध,
गत > सं. पुरा/ पुरातन, हिं, पुराना।
पुस/ पूस; पुंस; पुष्कल, पुष्य- नक्षत्र विशेष, पोसल > पोषण> पुष्टि – 1. पोषण की क्षमता/ क्रिया, 2. समर्थन, सत्यापन; purl- to flow with a murmuring sound (तु. वै. पर्फर) , push (प्रेष/प, pull (पुर-) ,pour(पारना, डालना), pure(पूत) , purge(प्रच्छालन) , purism(पुनीतता), Puritan (पवित्रतावादी), purport- substance (०प्रपत्ति, प्रतिपाद्य); portico/ porch(तु. ओसारा, सायबान), poor (तु. रै>रंक), peurile (बोलोचित) , pile, pore- a minuite passage or interstice, (porous) सूक्ष्मरंध्र, port (पत्तन), post (प्रस्थ), polis(पुर), polish (परिष्कार) आदि।.

फू- फूल, फुलफुल,फुलाइल, फूर, फुरवावल, फूट> स्फुट, फोरल, फोकट, flow (प्र-वह), fluid (तरल), flux (प्रवाह) Lfluxus (प्रवहमान)( 1. (हो)ना (दुर्मतिर्विश्वाप भूतु दुर्मतिः) , 2. भू(मि), 3. समग्र सत्ता या भूत पदार्थ, 4. भवन, 5. भुवन >(भूप/ भूपति), 6. भूत, 7. भूति – संपन्नता, 8. भव – (क) संसार, (ख) सांसारिक भोग, दुख (भवसागर), 9. भूमा, भूख, भावना, भूष (परि भूषसि व्रतम् ), भूरि, भूयस् /भूयिष्ठ (आपो भूयिष्ठाः), भूर्णि – भरण/ आपूर्ति करने वाला, भूमना – बहुत्वेन।

यहां हम दो बातों की ओर ध्यान देना चाहेंगे। पहली यह कि जिसे हम ध्वनि परिवर्तन के रूप में पहचानते रहे और उनकी व्याख्या के लिए ध्वनिनियमों की बात करते रहे हैं वे एक ही ध्वनि का तत तत बोलियाँ बोलने वालों द्वारा अनुश्रवण और अनुनादन रहा है। इसमें होने वाले बदलाव समाज रचना में बड़े पैमाने पर हुए बदलाव का परिणाम है।

दूसरा यह कि ध्वनि संकुल और अर्थ संकुल को सामने रखते हुए ध्वनि विचलन आर अर्थ विचलन की छूट देते हुए ग्रीक, रोमन, जर्मन, अंग्रेजी, संस्कृत, फारसी सभी भाषाओं का शब्दावली का सही व्युत्पादन हम एक ही नियम से कर सकते है। इससे पहले के तरीके सभी में लंगड़े रहे हैं क्योंकि वे यह नहीं बता पाते कि ध्वनि में वह अर्थ कैसे पैदा हुआ।

Post – 2020-06-16

#शब्दवेध(64 अ)

मनु

बात हो मन की और मनु पर न आए, यह तो संभव ही नहीं है, लेकिन मनुष्य के लिए प्रयुक्त अंग्रेजी पर्याय मैन (man, O.E./ Ger. mann, Du. man) के संदर्भ में मनु का नाम नहीं आता। हमारी अपनी चिंता धारा में भी अनेक मनुओं का हवाला मिलता है। कई मन्वंतरों की कल्पना की गई है।

जिस दौर में कल्पना की गई वह कल्पित चरण से 4-5 हजार साल बाद आता है। हमारे बुद्धिजीवियों में जो लोग मिथक के शिल्प-विधान से परिचित नहीं है, जो पाश्चात्य विद्वानों के भरोसे रहे हैं, कि वे जो कुछ समझाना चाहेंगे उसे समझा देंगे और उससे उनका काम चल जाएगा, उन निठल्ले विद्वानों के पास एक ही विकल्प था कि इन्हें निरा गप कह कर खारिज कर दें, और प्राचीन ज्ञान के एक अमूल्य स्रोत को नष्ट कर दें जो उनके दुर्भाग्य से मानवीय विरासत के रूप में केवल भारत में बचा रह गया, और इसलिए जिसके विश्लेषण की पहली जिम्मेदारी हमारे ऊपर आती है।

हमें केवल यह समझना होगा शिक्षा की कमी और सूचना के साधनों के अभाव के कारण कुछ शताब्दियों के भीतर ही इतना अंधकार पैदा हो जाया करता रहा है कि लोग अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए क्षीणतम सूचनाओं के आधार पर अपनी श्रद्धा और वितृष्णा के योग से कैसी-कैसी कथाएं इतिहास सच के रूप में गढ़ और प्रचारित कर लिया करते हैं। कुछ लोग तो अपने जीवन काल में ही मिथक बन जाया करते हैं। इसके बाद ही चार-पाँच हजार साल का अंतराल अतीत का किस तरह का आख्यान तैयार करने की संभावना पैदा कर सकता है इसकी समझ पैदा हो सकती है।

इतिहासकार का काम पुरातत्वविद की तरह कूड़े के ढेर में से सार्थक सूचनाएं देने वाले टुकड़ों को सँजोने का, उनकी धूल-मैल हटाकर उन सच्चाइयों तक पहुंचने का होता है जिन तक जाने के बाद एक पुरातत्वविद यह तक बताने में समर्थ होता है कि किसी औजार से आघात किस कोण पर किया जाता था। अपने निष्कर्ष के प्रति वह इतना निःसंशय होता है कि उस पर किसी तरह का संदेह करने वालों को वह हिकारत से परे हटा देता है। विश्वास करें, हम उसी विश्वास से अपने क्षेत्र में काम कर सकते हैं।

दूसरों के लिए मन्वंतरों की कल्पना एक खुराफात है, इन पंक्तियों के लेखक के लिए वह इतिहास की इतनी बड़ी सचाई कि उसके खुलने पर आंखें खुली की खुली रह जाएँ। मनुओं की कल्पना लेखन पूर्व अतीत में सभ्यता के इतिहास में घटित निर्णायक मोड़ों का प्रतीकांकन है। इनकी संख्या, कल्पों की कालावधि, यहाँ तक कि युगों के काल और नामकरण में कल्पना का अतिरेक अवश्य दिखाई देता है। परंतु यही उन्हें विश्वसनीय भी बनाता है, बिना जंग खाया, चमकता हुआ औजार पुरातनता का दावा नहीं कर सकता।

इनकी संख्या 14 बताई गई है: 1.स्वायम्भु, [2.स्वरोचिष, 3.औत्तमी, 4.तामस मनु, 5.रैवत, 6.चाक्षुष,] 7.वैवस्वत,[8.सावर्णि,] 9.दक्ष सावर्णि, 10.ब्रह्म सावर्णि, [11.धर्म सावर्णि, 12.रुद्र सावर्णि, 13.रौच्य या देव सावर्णि और 14.भौत या इन्द्र सावर्णि]। इनमें जिनको हम कल्पना की देन मानते हैं उनको कोष्ठबद्ध [ ] कर दिया है, यद्यपि उनमें से कुछ का नाम विकल्प के रूप में सोचा गया लगता है।

स्वायम्भ मनु उसे सतयुग के प्रतीक पुरुष हो सकते हैं, जब मनुष्य प्रकृति पर पूरी तरह निर्भर था और आसुरी अवस्था में था। वैवस्वत उस विवस्वान या विष्णु से पैदा हुआ जिसे यज्ञ या कृषि उत्पादन का, कृषि कर्म के लिए भूमि के विस्तार का, श्रेय दिया गया है और जिसका प्रतीकांकन वलि और वामन की कथा में हुआ है।

कृषि कर्म में अग्रणी सूर्यवंशियों की पैतृकता इसी मनु के शौर्य और संरक्षक रूप से जुड़ी है। रामकथा कृषि के आविष्कार, संस्थापन और विस्तार से जुड़ी है इसका कुछ विस्तार से विवेचन हम ‘रामकथा की परंपरा’ में कर आए हैं। दक्ष कौशल, कृषि और वाणिज्य के समेकित विकास का चरण है जिसमें दक्षक्रतु सौधन्वनों की वंदना सी की गई है और ब्रह्म उस चरण का जिसमें कर्मकांडीय यज्ञ उत्पादक यज्ञ पर हावी हो जाता है। यह एक मोटा प्रथम दृष्टि मे उभरने वाला समीकरण है जिसकी और छानबीन करते हुए इसे स्थापना का रूप दिया जा सकता है।

मनु का शाब्दिक अर्थ है मनस्वी, चिंतन करने वाला, पुरानी मान्यताओं और बंधनों से आगे बढ़ने वाला और इस तरह नए युग का प्रवर्तक। पश्चिमी धर्म चिंता में ‘आदम’ को जिसे मैं मन की जगह आत्म पर आधारित नामकरण मानता हूं, (क्योंकि मनु के अवतार की कहानियाँ लघु एशिया में प्रभुत्व कायम किए हुए भारोपीय भाषियों की देन मानता हूं) नए चिंतन और नए विकास, विज्ञान सभी को पतन के रूप में दर्शाया गया इसलिए क्षरित कथा-बंध के अतिरिक्त वहां कुछ नहीं पाया जा सकता। मनु और मनुष्य का मनस्वी रूप तो कदापि नहीं, यद्यपि हम देख चुके हैं कि माइंड, मेमरी, मेंटल, मेंटर मैं आदि में मनस्विता का भाव स्पष्ट दिखाई देता है।

मैन को manus – hand, से संबद्ध या जा सकता था, परंतु मनुष्य जिसके पास हाथ होते हैं यह व्याख्या किंचित हास्यास्पद लगी होगी। इसे इसीलिए कोश में स्थान न देकर दूसरे समरूप शब्द रखे गए, यद्यपि इसकी छाया पश्चिमी चिंतन में बनी रही है, जिसमें यह समझाया जाता रहा है कि मनुष्य ने जब अपने हाथ से काम लेना शुरू किया तब वह वानर अवस्था से आगे बढ़ा। man -हाथ, का प्रयोग manual, manufacture- to make by hand; manubrium- any handle like structure; manner – method, fashion जिसकी व्युत्पत्ति लातिन मैनस से दिखाई गई है। measure – मान, प्रमाण।

हमें ऐसा लगता है लातिन सहित दूसरी भाषाओं में भी हाथ मनुष्य और मान के विषय में जो अस्पष्टता और घालमेल है वह संस्कृत मान और भारतीय मानदंडों में ऊंचाई नापने के लिए पुरुष प्रमाण जिसे भोजपुरी में पोरिसा/पोरसा कहते हैं की सही समझ न होने के कारण है।

हम तो मनोभाव पर विचार करने चले थे परंतु मनस्विता की छानबीन मैं इतने उलझ गए कि आगे बढ़ ही नहीं पाए। इन पर कल विचार करेंगे।