Post – 2020-06-22

आश्चर्यवत पश्यति कश्चिदेनम्

मैं उस व्यक्ति को जानता हूँ जिसे कोई नहीं जानता। यूँ तो कोई किसी को नहीं जानता, क्योंकि सभी की आत्मछवि और लोकछवि में अंतर होता है, पर अन्तर इतना अधिक नहीं होता कि पहचान ही गायब हो जाए। उसके मामले में यह अंतर इतना बड़ा है कि वह अपनी ओर देखता है तो दुनिया पर हँसता है और दुनिया पर नजर डालता है तो अपने पर हँसता है। उस पर कोई हँस नहीं पाता। उसका नाम लेते ही लोगों को अपनी सारी ताकत अपनी हँसी रोकने पर लगानी पड़ती है।

पहली बार जब नैपोलियन से उसका सामना हुआ तो सारी दुनिया की जमा भीड़ के सामने नैपोलियन घोड़े की पीठ पर सवार, हाथ में डिक्शनरी उठाए, डींग हाँक रहा था, “मैने अपने कोश से‘असंभव’ शब्द को गायब कर दिया।” दुनिया हक्का-बक्का! और तभी वह तन कर खड़ा हुआ, “यार, तू इस उम्र में आकर यह काम कर पाया। मैंने तो यह काम नव साल की उम्र में कर दिखाया था।

आप विश्वास नहीं करेंगे, नैपोलियन के हाथ से वह कोश छूट कर नीचे गिर गया। उसे उठाने के लिए वह घोड़े से कूदा तो घोड़ा भाग खड़ा हुआ और फिर तो नैपोलियन उस पन्ने से ही गायब, जिससे निकल कर वह डींग हाँक रहा था।

पहली पास कर चुका था। नौ साल का रहा होगा, कि एक तुकबंदी कर डाली, और इसका असर कुछ ऐसा कि उसके ठीक बाद इतना बीमार कि तीन महीने तक बरसात की सीलन और ऊमस में एक अँधेरे कमरे में पड़ा रहा। चारपाई से उठने की ताकत न रही। सभी निराश, पर अकेला वह जानता था कि वह मर नहीं सकता। यदि मारना होता तो ईश्वर ने उसे कवि नहीं बनाया होता।

अनावृष्टि का प्रकोप हुआ। पता चला यदि ताड़पत्र पर एक लाख बार ‘राम’ लिख कर कुएँ में डाल दो तो वृष्टि को कोई टाल नहीं सकता। पर यह काम करेगा कौन? कोई नहीं तो वह करेगा। कलम पकड़ने का शऊर नहीं पर अगले दिन पासी से ताड़ के गोंफे कटवा कर बोरा सीने के सुए की नोक से राम राम लिखना शुरू। लिखते लिखते हाथ थक गए तो मान लिया एक लाख पूरा हो गया होगा।

यह कुछ बाद की बात है। उस जमाने में हर ताड़, पीपल या घने पेड़ पर कोई न कोई नट या प्रेत। एक नई खोज का पता चता कि यदि कोई पानी में खड़ा हो कर सौ दिन तक आधे घंटे उगते सूर्य को अपलक देखता रहे तो आँखों में इतना तेज आ जाए कि उसके देखने से भूत भस्म हो जाय। अगले दिन से बिना किसी को बताए पास की गंगरी में कमर तक के पानी में खड़ा हो कर साधना आरंभ। यदि कातिक में सिंचाई के लिए पानी का इस्तेमाल न कर लिया गया होता तो अंधा हो जाता। अब दिये की रोशनी में आँखों से आँसू इस तरह बहते कि कुछ देख न पाता। धूप में आँखें बंद हो जातीं और नीद आ जाती। पर यह निश्चय कि जो काम कोई न कर सकता उसे वह करेगा स्वभाव का हिस्सा है।

बात समझ में न आई होगी। मैं समझाता हूँ।

उसका शैशव इतनी यातना और उपेक्षा में बीता था जिसे याद करता है तो आँखें बन्द हो जाती। भरे परिवार के बीच निपट अकेला, उपेक्षित। पर उदास दिखना उसे आत्मदैन्य प्रतीत होता। इतना गंदा कि सोचता परमात्मा ने हाथ मक्खियाँ उड़ाने के लिए बनाए हैं। उस उम्र में भी फुर्सत कम मिलती, पर जब मिलती तो एकान्त में सबसे छिप कर रोता- आँसू बह रहे हैं, दिवंगत माँ की याद में अहकती साँसों की दीर्घता बढ़ती जा रही है, छाती भाथी की तरह धौंकती, अब फटी कि तब। नाक आँखों से होड़ लेने लगती, बहना तो हमें भी आता है । कुछ देर बाद निढाल हो कर सो जाता, या यदि इसी बीच किसी काम की गुहार लगती तो झट बहोंरियों से आँसू पोंछ कर हँसता हुआ बाहर निकलता कि किसी को आभास भी न हो कि वह रो रहा था। बचपन में उसे रोते हुए किसी ने नहीं देखा; बचपन की याद में जिंदगी भर रोता रहा – इक जरा छेंड़िए फिर देखिए क्या होता है। अपने नरक में तिलमिलाते हए उससे बाहर निकलने के संघर्ष से पैदा हुआ था वह लावा, जो फूटता है तो वज्रसार मान्यताएँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं। मैने देखा है, आप ने न देखा होगा। यही है इसका तिलिस्म, कुछ को दीखता ही नहीं, शेष को दीखता है सिर पीट लेते हैं पर विश्वास नहीं कर पाते।

वह दर्जनों किताबें लिख चुका है, पर लिखने से कतराता है क्योंकि जानने के नाम पर केवल इतना जानता है कि उस किसी विषय की अच्छी जानकारी नहीं है, जो है वह भी व्यवस्थित नहीं, और मजा यह कि मानविकी कि किसी भी शाखा के विश्व के जिन मूर्धन्य विद्वानों को ज्ञान का भंडार मानता उन्हें गाँठ के पूरे और आँख के अंधे मानता है। हँसिए मत, उससे बात कीजिए, हँसी बंद हो जाएगी। मेरे साथ यही हुआ था।
छेड़ बैठा, “तुम्हें संस्कृत आती है?”
“पढ़ लेता हूँ, बोल नहीं पाता।”
“फिर भी वेद की ऐसी हाँकते हो कि वेद के प्रकांड विद्वान उधिया जाएँ।”
चुप हुआ तो लगा चुप हो गया, पर कुछ देर बाद बोला, “वे संस्कृत जानते थे जिसका जन्म वेद को समझने की कोशिश में और अपने बटुए में बंद करने की लालसा से हुआ था। न आज तक वेद को समझ पाए, न संस्कृत को
भाषा बनने दिया।”

“और तुम?

“मैं उस बोली को जानता हूँ जिनसे वैदिक पैदा हुई, उस संचलन को जानता हूँ जिससे वैदिक अस्तित्व में आई, उस भाषा को जानता हूँ जिसके प्रभाव से संस्कृतीकरण आरंभ हुआ, उन परिवर्तनों को जानता हूँ जो घटित हुए, उस क्रिया-व्यापार को जानता हूँ जिसके चलते यूरोप तक इसका प्रसार हुआ, उन्हें इनमें से किसी का ज्ञान नहीं। मुझे इनमें से किसी को इतनी अच्छी जानकारी नहीं कि उसे ज्ञान कहा जा सके।”

“और फिर भी हर विषय में टाँग अड़ाते रहते हो।”

“टाग हो तो अड़ाऊँ। विषय में रुचि रखने वालों और ज्ञाताओं की तलाश करता रहता हूँ, याचक भाव से अनुरोध करता हूँ कि वे उस विषय पर काम करें, मैं अपनी सामग्री देने और उनकी आयु कुछ भी हो, उनका सहायक बनने को तैयार हूँ, पर जब कोई मेरे प्रस्ताव को समझ नहीं पाता तो लाचारी में …और जो तुम टाँग अड़ाने की बात करते हो, जो स्वयं विज्ञापित करता रहता है कि उसे किसी विषय का अच्छा ज्ञान नहीं, कि कहीं लोग उसे विषय का ज्ञाता न मान बैठें, जिसकी टाँग पहले से टूटी हो, वह टाँग कैसे अड़ाएगा?
“ज्ञान शक्ति देता है, गति देता है, पर दृष्टि नहीं देता। वह अन्तर्विरोधों की पहचान से पैदा होती है। उनकी रगड़ से ही वह चिनगारी पैदा होती है जिसे ज्ञान के ईंधन से मशाल या सर्जनात्मक ताप में बदला जा सकता है। तुमने ऋग्वेद में आई अंधे और पंगु की कहानी कभी न कभी तो पढ़ी ही होगी। मैं ज्ञान का गट्ठर लादे भटकते, ठोकर खाते, परस्पर टकराते अंधों में से किसी एक को समझाना चाहता रहा कि इस गट्ठर को फेंक कर मुझे कंधे पर बैठा ले तो दोनों आसानी से पर्वत पार कर सकते हैं। खोजे एक न मिला।”

‘मैंने उपहास भरे स्वर में कहा, “और फिर तुम्हें टाँगे निकल आईं और उन्हे लोगों के रास्ते में अड़ाने लगे कि उनमें से कोई उन्हें फिर तोड़ दे।”

“तुम ज्ञानियों से अधिक गधे हो, क्योंकि तुम उनकी महिमा से आविष्ट हो। एक बार कह दिया कि मैंने किसी विषय में टाँग नहीं अड़ाई फिर भी बात समझ में न आई। मैंने सोच की दिशा बदली है। उस सत्य को हाथ में उठा कर दिखाने लगा, ‘जिधर तुम तलाश कर रहे थे उधर वह चीज थी ही नहीं, फिर मिलती कैसे।वह दूर भी नहीं थी, पास ही थी, दिखाई दे रही थी। लाचारी में मुझे जैसे तैसे घिसटते हुए उस तक पहुँचना पड़ा, उठाकर दिखाना पड़ा। मैने उन्हें ध्वस्त नहीं किया, वे व्यर्थ हो गए।

“मेरा कोई काम प्रस्तुति के मामलो में संतोषजनक नहीं पर कोई ऐसा नहीं जो युगान्तरकारी न हो। यह मामूली सी बात समझने की योग्यता हिंदी के ही नहीं, भारत के किसी बुद्धिजीवी में नहीं।”

अब मेरे लिए ठहाका लग ने के अलावा कोई चारा न बचा था। उसने बुरा नहीं माना। मुस्कराता रहा।

2

“अच्छा यह बताओ तुम्हारी सबसे प्रिय कृति कौन सी है?”

“ऋग्वेद, जिसे समझने की कोशिश में लगा रहता हूँ।”

“मैं कहूँ, तुम पाँच हजार गहरे कुँए से बाहर निकलना ही नहीं चाहते।”

“नादान के कहने का तरीका एक होता है, और समझदार का दूसरा। समझदार होते तो घटना, विचार और संवेदन में फर्क कर पाते और जानते समय बीतने के साथ घटित बीत जाता है, जीवंत विचार और संवेदन प्रायः सम्मोहक स्वप्न बने रहते हैं। सर्वे भवन्तु सुखिनः या केवलादी भवति केवलाघी पाँच हजार नीचे नहीं पहुँचता, पाँच हजार साल के ताप से तप्तकांचन बन कर चमकता और चुनौती बन कर खड़ा रहता है। नासदीय सूक्त पढ़ो और पता किसी और ने वर्णनातीत के वर्णन में सफलता पाई है?”

“चलो मान लिया, पर यह बताओ जिसे तुम जानते नहीं, अभी जानने की कोशिश में लगे हो उसके भी इतने बड़े ज्ञाता बन जाते हो कि जिन्हें सारी दुनिया अधिकारी विद्वान मानती है उनको भी गिनती में ही नहीं लेते। मधुसूदन ओझा, क्षेत्रेश चट्टोपाध्याय का नाम सुना है।”

“सुनो, मैं पिछले पचास साल से ऋग्वेद को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। कंप्यूटर पर काम करने लगा तो दो बार लगभग पूरा ऋग्वेद अपने हाथों लिखा। दोनों बार वाइरस के प्रकोप से धुल गया, फिर तीसरी बार पूरा हुआ। फिर एक पाठ मंडलवार सायण भाष्य में आई व्याख्याओं और ग्रिफिथ के अनुवाद के साथ। एक कोश अलग से। विविध पक्षों से संबंधित उद्धरणों का संग्रह अलग से। यदि इन चिर वंदनीय महापुरुषों की समझ सही होती तो उन्हें पढ़ कर समझ लेता। इतना समय तो बर्वाद न होता। एक मोटी बात बताऊँ। तैत्तिरीय ब्रा. का कथन है, वैशयवर्ण ऋग्वेद से पैदा हुआ – ऋग्भ्यः जातं वैश्यं वर्ण आहुः, ऋग्वेद में जीवेम शरदः शतं की कामना प्रबल है, पर इसलिए कि शरद ऋतु वैश्य ऋतु है – शरत् वै वैश्यर्तुः; ऋग्वेद में स्थानों का नाम गायब, नदी नामों और यात्राओं की भरमार पर क्यों ? क्योंकि नदियां वारिपथ या आवागमन का मार्ग हैं, प्र ते अरदत् वरुण यातवे पथः। इसके बाद भी मुझसे पहले किसी ने ऋग्वेद को आर्थिक गतिविधियों को केन्द्र में रख कर समझने की कोशिश की? मेरी कोशिश भी एक सिद्धि है।”

मैंने हाथ जोड़ लिए, “भैया मान गया, पर ऋग्वेद से नीचे तो उतरो। यह बताओ हिंदी का कौन सा कवि पसंद है?”

“तुलसी।”

“गई भैंस पानी में। फिर चार सौ साल पीछे!”

“देखो, जिसे साहित्य और आलोचना के मानदंड समझना हो, काव्यभाषा ही नहीं गद्य भाषा के मर्म को समझना हो उसे तुलसी को अपने साहित्यिक पाठ्यक्रम की तरह आधा-घंटा एक घंटा मनोयोग से पढ़ना चाहिए। वह अकेले कवि हैं जो नासदीय सूक्त की ऊँचाई को छू पाते हैं।”

“समझा नहीं।”

“समझोगे भी नहीं क्योंकि तुमने दोनों में से किसी को पढ़ा ही नहीं। जैसे लोग ताजा भोजन पसंद करते हैं वैसे ही तुम ताजा, गर्मागर्म साहित्य पसंद करते हो, भले वह जहाँ से ऑर्डर दे कर मँगाया गया है वहाँ बासी पड़ गया हो। तुलसी जानते हैं ऊँचे से ऊँचे विचार को अशिक्षित और अल्पशिक्षित व्यक्ति तक पहुँचाया जा सकता है। संस्कृत साहित्य का समस्त वैभव उन्होंने जनभाषा में उतार कर रख दिया। अकेले वह हैं जो साहित्य की सामाजिक भूमिका और साहित्यकार के सामाजिक दायित्य को समझते और इसका आख्यान करते हैं। यह समझ तुलसी से पहले न थी, यह समझ हमारे समय में भी खो गई है।”

“तुम रौ में आते हो तो रुकते नहीं। साहित्य की सामाजिक भूमिका और साहित्यकार के सामाजिक दायित्व पर सबसे अधिक चर्चा हमारे समय में हुई है और तुम कहते हो…”

“इसे चर्चा नहीं, भोजपुरी में गलचउर कहते हैं, तुम इसे जुगाली कह सकते हो। चर्चा हो रही है और साक्षरता, प्रकाशन और प्रचार के उन्नत साधनों के दौर में भी आप का साहित्य साक्षरों तक नहीं पहुँच पाता जब कि तुलसी उस पिछड़े युग में भी निरक्षर जनों तक पहुँच सकते थे।”

मैंने चट जवाब दिया, “धार्मिकता के कारण।”

“हो सकता है यह भी एक कारण हो पर यह प्रधान नहीं है। प्रधान अंतर जातीय परंपरा, परंपरा से तुम्हें परेशानी हो तो समझो जातीय मिजाज, सामाजिक मनोरचना की पहचान खो जाना। आधुनिक बनने के उत्साह में हमारे मानस का औपनिवेशीकरण। आधुनिक शिक्षित वर्ग अपने ही समाज के अशिक्षिताें के बीच कुछ अलग, अजनबी सा बन कर रहने लगा। पहले का प्रकांड विद्वान भी उन्हीं में धँस कर रहता था फिर भी अधिक समादृत था। व्यंग्य यह कि रीतिकालीन कविता की पहुँच जहाँ तक थी वहाँ तक भी आधुनिक साहित्य की पहुँच न रह गई। यह एक गंभीर समस्या थी। कम से कम साहित्य के सामाजिक दायित्व की बात करने वालों को इस पर ध्यान देना चाहिए था, पर वे ऐसा न कर सके क्योंकि सबसे औपनिवेशिक दिमाग स्वयं उनका था और आज भी है। जीववध को पाप मानने वाले देश में हिंसा का दर्शन ले कर आए थे।”

“तुम तो हर चीज को उलट देते हो यार! यह बताओ जब तुम नौ साल की उम्र में ही इतने महान कवि बन गए थे कि काल भी तुम्हारा बाल बाँका नहीं कर सकता था तो कविता लिखना छोड़ क्यों दिया?”

“मेरी आठवीं तक की पढ़ाई गाँव में हुई। उसमें एक ‘भारती-सदन पुस्तकालय’ था जिसमें साहित्यरत्न तक की शिक्षा और परीक्षा का भी प्रबंध था। उसमें रीतिकाल तक का समग्र साहित्य था। कविता के नाम पर वही पढ़ता रहा। यह सोच कर कि एम.ए. तो हिंदी से करना ही है भानु जी का छंदप्रभाकर, जाने किसका अलंकार भेद, रस और नायक-नायिका भेद सब तैयार। उन्हीं में रहीम का बरवै नायिका भेद भी था।”

“क्या कहते हो तुम? रहीम और नायिकाभेद?”

“अवधी में था। सब भूल गया पर एक छंद याद है, ‘भोरहिं बोलि कोइलिया बढ़वति ताप। घड़ी एक भर अलिया रहु चुपचाप।’ साहित्य हमारी मनोरचना, कल्पना और संवेदना को नियंत्रित करता है और इसका नुकसान यह हुआ कि मेरी चेतना में शास्त्रीयता घर कर गई। खड़ी बोली की कविता से परिचय श्यामनारायण पांडे की हल्दीघाटी पढ़ कर। आठवीं के, 1948 के आरंभिक दौर की बात होगी। उससे इतना अभिभूत हुआ कि मैंने भी उसी नाम से एक खंडकाव्य रच बैठा। कथाबंध था कि एक पर्यटक हल्दीघाटा देखने जाता है और पूछता है कि हुआ क्या था? आरंभ कुछ यूँ था :
लिख बैठी है हल्दीघाटी तेरी अमर कहानी को।
रणकौशल की स्फूर्ति शौर्य औ’ साहस भरी जवानी को।

युद्ध क्षेत्र मेंं राणा का आवेश:
उस समर भूमि में प्रवहमान जो सतत रक्त की नाली थी
था आँखों में प्रतिबिंब वही, वह नहीं आँख की लाली थी।।

और अंत में विदा का क्षण:
हरित द्रुम वल्लरियों से भरी अरी मेरी सुरपुरी प्रणाम
अरी कंटक-कुंजों से भरी दरी जीवन सहचरी प्रणाम
अरवली चोटी से उत्तुंग द्रुतगता ओ निस्सरी प्रणाम!
मातृभू की छाती पर पड़ी मालती की शुभ लरी प्रणाम!
वह चौसठपेजी खंडकाव्य कब, कैसे खो गया यह पता न चला। रचनाएँ बहुत सी खोई हैं, पर केवल उसके खोने का दुख आज तक है। जो भी हो, जो काम कोई दूसरा कर सकता है वह मैं भी कर सकता हूँ का विश्वास और एक बड़ा कवि होने का अहसास इसके छह साल बाद तक बना रहा कि आजकल का वह कविता विशेषांक आया जिसमें पहली बार केदारनाथ सिंह की कविताएँ पढ़ीं तो लगा अपनी कल्पित ऊँचाई से एक झटके में नीचे फेंक दिया गया हूँ। असंभव शब्द मेरे कोश में पहली बार आया। फिर तो भवानी भाई, फूल लाया हूँ कमल के क्या करूँ इनका, रघुवीर सहाय, कीर्ति चौधरी कई नाम। लगा मैं कवि के रूप में व्यर्थ हो चुका हूँ। कविता से बाहर का रास्ता सामने था।” पहली बार उसने एक लंबी साँस ली, “फिर भी मेरी मूल प्रकृति कवि की ही है।”*

*इसमें प्रयुक्त कतिपय शब्दों की व्याख्या कल।