भाष्य
कल पादटिप्पणी में कहा था *”इसमें प्रयुक्त कतिपय शब्दों की व्याख्या कल।” ्व्याख्या भाष्य बन गई तो लंबाई तो बढ़ेगी ही। धीरज हो तो पढ़ लें। परंतु यह भाष्य भी अन्य पुरुष में ही संभव है।
1. लोकछवि और आत्म छवि की दूरी
थोड़ी बहुत शिकायत तो सभी को रहती है, परंतु कुछ का असंतोष दर्पोक्तियों में व्यक्त होता है। दर्पोक्तियों के लिए सबसे अधिक बदनाम मिर्जा गालिब हैं। मीर भी कुछ कम न थे। फिराक का शेर
आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख़्र करेंगी हम-असरो
जब भी उन को ध्यान आएगा तुम ने ‘फ़िराक़’ को देखा है। सुना होगा।
तुलसी अपने बारे में ऊंचे स्वर में बात नहीं करते। विपर्यय से काम लेते हैं : कबित बिबेक एक नहीं मोरे. साँच कहहुँ लिखि कागद कोरे, परंतु इस साँच का एक पक्ष यह है कि वह अपनी पादुका से अपनी अवहेलना करने वालों का मुँह तोड़ देते हैं। खल उपदेस होइ हित मोरा।
अपनी उपलब्धि पर अनन्य विश्वास और किसी भी कारण से साहित्य और ज्ञान के मठाधीश द्वारा अपनी उपेक्षा या अवमूल्यन का परिणाम है वह क्षोभ जो दर्पोक्ति का रूप ले लेता है। यह दंभ का प्रकाशन नहीं, एक तरह की क्षतिपूर्ति है जो उसे टूटने से बचा लेती है। इसमें अतिरंजित कुछ नहीं होता, सत्य का उसके सही अनुपात में प्रकाशन मात्र होता है। वक्रता सत्य की माँग होती है।
2. आश्चर्यवत पश्यति कश्चिदेनं
यह भी एक दर्पोक्ति ही है। इबारत गीता के दूसरे अध्याय की है । बात आत्मा के संदर्भ में की गई है, कोई इसे देखकर चकित रह जाता है, दूसरा इसे विस्मयकारी बताता है। कोई सुनकर मानने को बाध्य होता है कि यह आश्चर्यजनक है, परन्तु इसके बाद भी, कोई इसे जान नहीं पाता।
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन-
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रुणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।। गीता 2.२९।।
आध्यात्मिक बहस है तो कुछ तो गलत होगी ही, अन्यथा आत्मा को देखने की बात न की जाती। देखा तो किसी आदमी को ही जा सकता है, और उसे तलाश कर मैंने हाजिर कर दिया था, पर आप को विश्वास नहीं होगा कि धरती के आश्चर्यों में एक आश्चर्य यह भी है। आप की तो छोड़िए, उसे स्वयं इसका पता न था। मैंने उसे बताया तो आश्चर्य से मेरा मुँह देखता रह गया।
3. किमाश्चर्यं अनाश्चर्यं तन्मे ब्रूहि परंतप।
मैं समझाता हूँ।
जो आपके ज्ञान और अनुभव के भीतर या उसके अनुरूप होता है, यदि वह कठिन हो तो भी आश्चर्यजनक नहीं लगता। यदि, झूठ, फरेब, अभिचार या पाखंड हो तो वह अटपटा या विचित्र तो लग सकता है पर आश्चर्यवत नहीं लग सकता। आश्चर्यजनक केवल वह होता है जो सत्य होता है, जिसके होने या घटित होने पर आप संदेह नहीं कर पाते और जो आप के ज्ञात नियमों या ज्ञान के स्तर से ऊपर होता है इसलिए जिसे देखते हुए भी आप मान नहीं पाते।
विज्ञान के छात्र कुछ ऐसे प्रयोगों को प्रदर्शनियों में दिखाया करते थे जिनके पीछे काम करने वाले सिद्धान्तों से अनभिज्ञ लोग चकित रह जाते थे, देखते हैं यह सच है फिर भी मान नहीं पाते। यही हाल उसके साथ है। जिन प्रमाणों को लोग झुठलाने की कोशिश के बाद भी न झुठला पाते हैं न खंडन कर पाते हैं, उनको भी मान नहीं पाते। इसलिए यदि कोई उससे कहे कि तुम्हारी उपेक्षा हुई है तो वह इसे मान नहीं पाता। उल्टे पूछता है, ‘विज्ञान के साधारण नियमों से अनभिज्ञ लोग जिन प्रयोगों को देख कर आश्चर्यचकित रह जाते हैं क्या उन पर यह आरोप लगाया जा सकता है कि वे उन प्रयोगों का प्रदर्शन करने वालों की उपेक्षा कर रहे हैं?’ प्रश्न उपेक्षा का नहीं, हिंदी जगत, सच कहो तो भारतीय समाज के बौद्धिक स्तर का है। औपनिवेशिक मानसिकता जन्य आत्मबल के गिरे हुए स्तर का है। जिसकी पुस्तक किसी भी पाठ्यक्रम में या अनुमोदित संदर्भ ग्रन्थों में न होते हुए भी अपने पृथुल आकार के बाद भी दसेक संस्करण/पुनर्मुद्रण देख चुकी हो और जिसकी माँग बराबर बनी हुई हो वह अपनी उपेक्षा की शिकायत कैसे कर सकता है? इसी स्थिति में किसी दूसरे इतिहासकार को रख कर देख लो।’
मैं तो चुप हो गया, पर बात समझ में आ गई हो यह जरूरी नहीं। कहोगे अधिवक्ता होने के नाते बढ़ा कर बात कर रहा हूँ, इसलिए मैं तुम से ही जिरह करके अपनी बात समझाने का प्रयत्न करूँगा।
अब तुम बताओ हमारे कालेजों, विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों में कितने ऐसे सत्यान्वेषी हैं जो उपाधि बटोरने के बाद किसी शोधकार्य की ओर रुख भी करते हैं? कितने हैं जिनका किया और कराया काम किसी काम का होता है?
तुम गलत समझ रहे हो, शुक्ल जी, रामकुमार जी, धीरेन्द्र जी, द्विवेदी जी, और रामविलास जी की अवज्ञा तो मैं कर ही नहीं सकता। पर इनमें भी चिन्तन की दिशा किसने बदली है?
“नहीं यह उलझाने वाला सवाल नहीं। दो टूक सवाल है। किसने औपनिवेशिक चौखटे के भीतर रह कर काम किया है और किसने उसे तोड़ कर बाहर आने का प्रयत्न किया है?”
“मैंने राहुल जी का नाम तो लिया ही न था, ज्ञान के मठों पर बैठे लोगों की ही बात कर रहा था, पर तुम ठीक कह रहे हो। इस कसौटी पर तो रामविलास शर्मा को छोड़ कर इनमें कोई नाम खरा नहीं उतरेगा, राहुल जी भी नहीं।
“वह तो है। आलोचना रामविलास जी की बहुत हुई। गलतियाँ भी निकाली गई हैं। पर एक बात तो मानोगे ही, भटकता चलने वाला है, कदमताल mark time करने वाला नहीं। ले दे कर एक आदमी मिलता है। नहीं गलती हुई, एक और, पंडित किशोरी दास बाजपेयी।”
“अब अगले सवाल पर आओ। हिंदी क्षेत्र में ही नहीं पूरे देश में, दो तीन सौ साल के इतिहास में, है कोई ऐसा व्यक्ति जिसे अध्ययन, अध्यापन और ज्ञान की किसी संस्था में घुसने ही न दिया गया हो, पैंतीस साल तक टक्कर मारने के बाद हार कर अंतिम बोगी से सरकारी चाकरी पकडनी पड़ी हो और फिर भी जिसने अपनी सारी ऊर्जा शोधकार्य में ही लगाई हो ? वह भी इस कटु सत्य के होते कि पढ़ने-लिखने की आदत को वहाँ इस बात का प्माण माना जाता है कि इनका जी अपने काम में नहीं लगता।“
“मैदान साफ दिखाई दे रहा है- एक को छोड़ दूसरा कोई नहीं। एको सः द्वितीयो नास्ति।”
“अब इसमें एक और नुक्ता जोड़ लो। ऐसे लोग मिल जाएँगे जो रोज एक कविता लिख लेते हों। ऐसे भी मिल जाएँगे जो एक कहानी रोज लिख लेते हों। ईलियट दफ्तर के काम की तरह, दफ्तर में बैठ कर लिखता था। हेमिंग्वे एक दर्जन पेंसिलें गढ़ कर तैयार कर लेता था, खड़े खड़े लिखता। बारहों जब घिस जातीं तो दिन का काम पूरा। अब तुम अपनी जानकारी के क्षेत्र में किसी ऐसे आदमी का पता करो जो रोज एक शोध लेख पेश कर देता रहा हो। कोई मिल जाय तो बताना।”
4. नैपोलियन का शब्दकोश
“नैपोनियन के कोश में असंभव शब्द नहीं था, यह मुहावरा तब भी चलता है जब नैपोलियन को हार का मुँह देखना पड़ा था और संखिये की मौत मरना पड़ा था, क्योंकि वह अंग्रेजों का शत्रु होकर भी यूरोपियन था। राजा था। पिटा भले वह इसलिए हो कि अंग्रेजों जितना कमीना नहीं था। पहली बार उसने युद्ध में भी नैतिकता के निर्वाह की हिमायत की थी और निर्वाह किया था और इन कमीनों ने युद्ध में उसके साथ क्या किया था यह तो पता नहीं, पर युद्धबंदी बना लेने के बाद उन मर्यादाओं का उल्लंघन करते हुए निपट एकान्त द्वीप में रख कर सता सता कर, संखिया मिला आहार देकर, मारा था।”
“ठीक कहते हो, कुछ बहक गया, आदत दूसरा स्वभाव जो ठहरी। कह यह रहा था कि बहुत मामूली हैसियत के अनगिनत लोग तुम्हें ऐसे मिल जाएँगे जिनके जीवनकोश में असंभव शब्द सचमुच नहीं मिलता, परन्तु मानसिक दासता से ग्रस्त यह देश न उनको पहचान पाता है न उचित सम्मान दे पाता है, उनके काम को देख कर भी विश्वास नहीं कर पाता कि ऐसा संभव था, कि ऐसा कोई भारतीय भी कर सकता था, कि समस्त साधनों से वंचित किए जाने के बाद भी कर सकता था। आश्चर्यवत् तं पश्यन्ति मूढ़ाः । मूढ़ता की पराकाष्ठा यह कि उसकी विपन्नता को ही इस बात का प्रमाण मान लेते हैं कि यदि उसने सचमुच कोई महान काम किया होता तो इतना फटेहाल क्यों रहता।”
“नहीं, मैं हवा में बात नहीं कर रहा हूँ। बहकना अलग बात है, पर बात ठोस प्रमाण के बिना कभी नहीं करता। हर कथन ठोस प्रमाणों पर आधारित होता है। यही मेरी शक्ति है, यही मेरा कवच। भारत भारतरत्न के तमगे बाँटता है, पर रत्न की पहचान तक नहीं कर पाता। यह तक नहीं जानता कि रत्न कितनी दुर्भेद्य शिलाओं के भीतर छिपा रहता है। वह पुराना मुहावरा तक भूल गया है कि रत्न अपनी चमक दिखाने के लिए नाजिरों की तलाश नहीं करता, उन्हें उसकी तलाश करनी पड़ती है – न रत्नमन्विष्यति मृग्यते हि तत्।
“तुमने दशरथ माझी का नाम सुना है?”
“नहीं सुना तो मुझे कोई हैरानी नहीं। कोहिनूर का नाम जरूर सुना होगा, क्योंकि उसे न जानने पर तुम्हारे सामान्य ज्ञान के नंबर कट जाते। पर पत्थर किस ताप से गुजरने के बाद कोहिनूर बनता है यह तो तुम्हारे जौहरियों तक को पता नहीं, उनकी समझ में तो केवल इतना आता है कि इसके आगे जवाहर है और पीछे लाल है इसलिए जब दोनों मिल गए ताे बनेगा तो कोहिनूर ही। महानता और नम्रता का संगम देखना हो तो उसको देखो। उसने खुद रोका, ‘मुझे कोहिनूर नहीं बनना, बना तो महारानी के मुकुट की चमक कम हो जाएगी, मैं भारत रत्न बन कर ही संतुष्ट हूँ’ और उसने खुद अपनी कलम से अपना नाम प्रस्तावित करके अपने को भारत रत्न बना लिया। निस्पृहता, त्याग और बलिदान की कोई दूसरी ऐसी मिसाल मिल सके तो बताना।”
“मैं बकवास नहीं कर रहा हूँ, बार बार कहे गए अपने ही कथन को दुहरा रहा हूँ, कि सत्य अपने कण कण में व्याप्त होता है, पत्थर पर कहीं चोट करो उससे सत्य की चिनगारियाँ फूटेंगी। नकली रत्न चमकते रहें इसके लिए हीरों को उपेक्षा की परतों से दबा दिया जाता है। दशरथ माझी ने कहानियों तक में जिसे असंभव माना गया है वह कर दिखाया। पहाड़ तोड़ कर रास्ता तैयार किया, उपेक्षा, उपहास और साधनहीनता को झेलते हुए, “केवल एक हथौड़ा और छेनी लेकर अकेले ही 360 फुट लंबे 30 फुट चौड़े और 25 फुट ऊँचे पहाड़ को काट कर एक सड़क बना डाली। 22 वर्षों के परिश्रम के बाद, दशरथ के बनायी सड़क ने अतरी और वजीरगंज ब्लाक की दूरी को 55 किमी से 15 किलोमीटर कर दिया।”
“नहीं, जानकारी मेरे मुअक्किल की भी अच्छी नहीं है, होती तो उनके जीवन काल में उनके चरणस्पर्श अवश्य करता। उसे तो यह पता तक न था कि उसके कोई अग्रज हो चुके हैं। वे उम्र में उससे दो साल बड़े थे, उन्होंने वास्तविक पहाड़ तोड़ा था। जिस राज्य में उनके इस खुले आश्चर्य को देखने का ताब न रह गया वहाँ के गिरे हुए मनोबल में लालुओं, राबडियों का खानदान की ध्वजाएँ लहराएँ और वहां के लोग पेट भरने के लिए देस-परदेस में अपमान झेलते हुए, नारकीय परिस्थितियों में रहते हुए, गालियों को अपने नाम का पर्याय मानते हुए दिन काटें और घर-घरनी की याद में तड़पते हुए बिरह के गीत गाते रहें, इससे अलग कोई चारा क्या है। इसने तो मानव निर्मित मान्यताओं के पहाड़ गिराए हैं।उनको ध्वस्त देख कर भी ‘मेरी राजनीति का सच यह, उनकी राजनीति सा सच यह, राजनीति से बाहर सच गोल’ वाले देश में कोई इसे संभव न मानें, आश्चर्य में भकुआया इस बात की प्रतीक्षा करता रह जाए कि कहीं से कोई जादू आए, मान्यताओं के मलबे में नई जान फूँके और उसकी राजनीति में नई जान आ जाए, तो उसे हैरानी न होगी। सुना न कल कोई कह रहा था सभ्यता के जीन डिकोड हो गए है, मलबे फिर पहाड़ बनने जा रहे हैं, कोई रोक सके तो रोक ले!”