Post – 2020-06-22

लिखते समय मेरी एक मात्र चिंता इस बात की रहती है कि मैं अपने विचार को सही सही और सही तरीके से रख पाया या नहीं। वह कितने लोगोे को पसन्द आता है, कितना पसंद आता है इसकी चिंता नहीं करता। हमारे समाज में, और इसलिए फेस बुक पर पसन्द और समझ का यह हाल है कि यदि गालियाँ दी जाएँ तो दाद देने वालों की संख्या हजारों में पहुँच जाती है जब कि सार्थक विचार को पसंद करने वालों की संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है। इसमें भी परिचय के दायरे की भूमिका होती है।

मैं ध्यान और नजर की सीमा के कारण वर्तनी आदि की गलतियाँ भी करता हूँ। उनके सुधार में कोई मदद कर दे तो उपकार मानता हूँ, परन्तु अपने लेखन में किसी का हस्तक्षेप, काट छाँट सहन नहीं करता। यह मेरे साथ ही नहीं है, सभी लेखकों के साथ है। जो इसका बुरा नहीं मानते वे अपने को लेखक कहने के अधिकारी नहीं।

ऐसा एक स्तंभ में लगातार हो रहा है, और उस पर मिली प्रतिक्रियाओं से तुष्ट होने के कारण सुना किसी लेखक को इस कर आपत्ति नहीं कि उसके साथ क्या बर्ताव किया गया है। उन लेखों के खलने वाले अधूरेपन पर ध्यान गया था इसलिए मैने लेखमाला के योजनाकार से आग्रहपूर्वक कहा था कि यदि स्थान सीमा के कारण कुछ काट छाँट करनी हो तो मुझे दिखाए बिना प्रकाशित न करें, संक्षेपण की जरूरत होगी तो मैं कर दूँगा।

उन्होंने मेरे अनुरोध पर ध्यान नहीं दिया। ऐसा पहले कभी न हुआ था। वह लेखकों और उनकी रचनाओं का अपने लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं, एक कीमा पाठ दूसरा मुर्गमुसल्लम पाठ।

यदि प्रस्तुति में यह संकेत होता कि ये प्रकाश्य लेख के उद्धरण हैं तो पंगुता की शिकायत न होती। समझाने की कोशिश की तो पाया उन्हें समझा पाने की योग्यता मुझमें नहीं है। अनुज लेखकों की भावनाओं को आहत होने, छोटे परिजनों का मन दुखाने की अपेक्षा स्वयं आहत होना बुरा नहीं लगता। पर इसका मन पर जो प्रभाव पड़ता है, अपना लेखन जिस रूप में प्रभावित होता है, उसका उपाय करना जरूरी है।

मैं शब्दों पर विचार कर रहा हूँ और घूम कर इतिहास पर पहुँच जा रहा हूँ। आज भी लिखने चला तो वही दिशा, कारण भीतरी कचोट में है। इसलिए तय किया है कि एक घंटे बाद उस लंबे (2500 शब्द) लेख को फेस बुक के हवाले कर दूँगा। कोई पढ़े या न पढ़े, मन हल्का हो जाएगा।