Post – 2020-05-27

भगदड़ के लिए उकसा कर बेसँभाल भीड़ को्, दुर्गति में भी, जीवट के यत्किंचित अविस्मरणीय कारनामे दिखाते दे्ख् तालियाँ बजाते हुए ‘क्या खूब रही! क्या खूब रही!! करने वालों की बेरहमी और इरादे हमें अधिक चकित करते हैं। क्या उन्होंने उनके जीवट को काम की अमानवीय शर्तों पर, अगले दिन तक जीने के लिए, मौत से लोहा लेते और इसके बाद भी बिरहा, कजरी, फाग गाते महाकाल के सिर पर खड़े होकर अट्टहास करते देखा ही न था? मेरा मन उनके इस रहस भोलेपन पर ताली बजाने और क्या खूब रही! क्या खूब रही!! करनेे का होता है ।

Post – 2020-05-26

#शब्दवेध(46)
अंधेरे के लिए शब्द नही

अंधकार
अकेला यह शब्द है जिस पर कुछ भरोसा किया जा सकता था, परंतु यह भी अँधेरे के लिए रूढ़ है। इसका अर्थ अँधेरा नहीं होता। अंध/ अंधस का अर्थ है रस, सोमरस। ऋग्वेद में अंध शब्द का इस आशय में 24 बार प्रयोग हुआ है:
इन्द्रो यद्वृत्रमवधीत् नदीवृतं उब्जन् अर्णांसि जर्हृषाणो अन्धसा ।। 1.52.2 (इन्द्र ने अंधस् की मस्ती में आकर जलप्रवाह को अवरुद्ध करने वाले वृत्र का वध करके जल धाराओं को मुक्त किया
सीदता बर्हि: उरु वो सदस्कृतं मादयध्वं मरुतो मध्वो अन्धसः ।। 1.85.6 ( मरुद्गण, आपके आसन के लिए चटाई बिछा दी गई है आप उस पर विराजमान हों और सोमरस के पान से मस्त हों।)
पिबतं मध्वो अन्धसः पूर्वपेयं हि वां हितम् । इन्द्र त्वा वृषभं वयं सुते सोमे हवामहे । 1.135.4 (सोमपान पर तुम्हारा प्रथम अधिकार है, वृष्टिकारी इन्द्र तुझे हम अपने आसवित सोम के पान के लिए बुला रहे हैं) , आदि।

परंतु ऐसा नहीं है कि उस समय अंधे को अंधा नहीं कहा जाता रहा हो। आपसी सहयोग से अंधे और लंगड़े के पहाड़ पार करने की कहानी, जिसे आपने बचपन में कई बार सुना और बच्चों को यदा-कदा सुनाया होगा, वह ऋग्वेद के समय में भी सुनी सुनाई जाती थी, यह दूसरी बात है कि इसे आपसी सूझ का परिणाम न मान कर देव कृपा से प्रेरित बताया जाता था:
याभिः शचीभिः वृषणा परावृजं प्रान्धं श्रोणं चक्षस एतवे कृथः । 1.112.8 जिस दूरदर्शिता से दूर देश में गए असहाय अंधे और लंगड़े को यात्रा में समर्थ बनाया था।’ दो बार और दोहराया गया है।
नीचा सन्तमुदनयः परावृजं प्रान्धं श्रोणं श्रवयन् त्सास्युक्थ्यः ।। 2.13.12
प्रान्धं श्रोणं च तारिषद्विवक्षसे ।।10.25.11

अश्विनी कुमार अपनी चिकित्सा से अंधे की आँखों की रोशनी लौटा देते है, क्षीणकाय को हृष्टपुष्ट कर देते हैं,टूटी हड्डी जोड़ सकते हैं (अन्धस्य चिन्नासत्या कृशस्य चिद्युवामिदाहुर्भिषजा रुतस्य चित्, ऋ. 10.39.3)। वैदिक जन मनाते हैं कि उनके शत्रुओं को कुछ दिखाई न दे और उनकी अपनी रातें भी जगमग रहें (अन्धेनामित्रास्तमसा सचन्तां सुज्योतिषः अक्तवः तान् अभि ष्युः, 10.89.15) अंधेरी से प्रकाश की ओर ले चलने की चिंता करने वाले अंधेरे का अर्थ न जानते हों, यह संभव है ही नहीं। अंतर केवल यह कि उन्हें भूला नहीं है कि अंध का अर्थ पानी हुआ करता था, रस/सोमरस हो सकता है, और अंधकार तो है ही।

अंध उसी समूह में आता है जिसमें अत/ अद, इत/इद, उत/उद, अंत/अंद, इंत/ इंद, उंद, अंध, इंध, ऊध आदि। इन सबका एक अर्थ जल है, पर इनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें अनेक से व्याकरणिक पद बने हैं। अत/ अतर -पानी, अतरौली, अतरौली, अतरौलिया – तटीय स्थान नाम (यद्यप् अलीगढ़ में स्थित अतरौली गंगा की वर्तमान धारा से काफी दूर है) अत/ आत- उसके आगे/बाद; अतः – इसलिए, अत/अद् -पीना/खाना, अत्रि- खानेवाले, अद्य-खाद्य, अत्र (त्र< तर- 1.जल, 2. स्थान, 3. तुलनात्मक प्रत्यय (सं., फा. -तर, अं. अर), 4. स्थानवाचक - यहाँ, और 5. अन्द> अन्ध> अन्न), आदि- आरंभ, इत्यादि – इति-अंत+आदि= समस्त > आदि=इत्यादि), अंत – निकट, भीतर (अंतर/ अन्तः>अंदर)[1]। हम इसकी विस्तृत समीक्षा में नहीं जाएंगे क्योंकि यह संस्कृत के विकास में जिस संक्रमण का सूचक है, उस पर जितनी गंभीर चर्चा जरूरी है वह फेसबुक के मंच के संभव नहीं है जहां लोग मैत्री के आधार पर सहमति या मौन असहमति जताते हैं, कितनों ने धैर्यपूर्वक कई बार पढ़ कर साझा और ग्रहण किया यह पता नहीं चल पाता।

हम अंधकार के पर्याय बात करते हुए जिस तथ्य को रेखांकित करना चाहते हैं, वह यह कि जल की किसी ध्वनि के वाचिक अनुवाद से ही अंधकार को संज्ञा मिली। यहां यह अवश्य स्मरण कराना चाहते हैं कि तमिल में अंद का प्रयोग स्थानवाची विशेषण के लिए होता है जिसका बोलचाल में ‘अ’-कार ही रह जाता है – अन्दम् ( अ-) – वह. इसे अंतम, अंधम् कुछ भी पढ़ा जा सकता है। इसलिए संस्कृत के अंधे के लिए एक अलग शब्द ‘अन्धन् -चलता है।

रात/रात्रि
रात के साथ रत, रत्न- चमकीले पत्थर, रातना – लाल होना, रतनार – ललौंहा, रत्ती – गुंजा, (लाल रंग का एक छोटा सा फल जिसे इसी नाम के बाट के भार की समानता के कारण संज्ञा दी गई) के साथ रख कर समझें। यह समझने में कठिनाई न होगी कि इस नामकरण का आधार अँधेरा नहीं अपितु रात के आसमान की जगमगाहट है। ऋग्वेद में रात की जगमगाहट का एक बहुत मनोरम चित्रण है- पितरों ने जैसे किसी काली घोड़ी को मोतियों से सजा दिया हो (अभि श्यावं न कृशनेभिरश्वं नक्षत्रेभिः पितरो द्यामपिंशन् । ) रात के नामकरण के पीछे यही जगमगाहट है। परंतु हमारी समस्या तो रात को जलपरक सिद्ध करने की है।यह री- टपकना, बहना, उफनना (रीयते) से संबंध रखता है जिसमें गति और प्रवाह भी आते हैं, रीति, रति, रा (राति- दान), रात समाहित हैं। अन्तरिक्षे पथिभि- ईयमानो न नि विशते कतमच्चनाहः । अपां सखा प्रथमजाः ऋतावा क्व स्विज्जातो कुत आबभूव, 10.168.3 (वायुदेव अंतरिक्ष के मार्ग से प्रवाहित होते है, कभी एक दिन के लिए भी कहीं ठहरते नहीं हैं, जल के मित्र हैं, अपने व्रत से अडिग हैं, सर्व-प्रथम उत्पन्न हुए, वे कहां से पैदा हुए, किधर से आए?)[2]।

रजनी
रजनी के विषय में किसी संदेह की आवश्यकता नहीं कि यह रज-जल, रज्जु (तुलना करें, रस>रश्मि>रसरी>रस्सी से), राज, रजत से और फिर रात की जगमगाहट की याद दिलाता है। जब इस शब्द का अर्थ समझ में आ जाएगा, तब अं, ला, रायल और इनके लातिन पूर्वरूपों का भी अर्आथ समझ में आ जाएगा।

नक्त
नक- जल (नक्र- जलचर), नक्श – नख-शिख, रूप, नक्शा, नक्षत्र, E. night, Ger. nacht, L. nox, G. nyx को एक साथ रखकर देखें, किसी व्याख्या की आवश्यकता न पड़ेगी। यहाँ तक कि यह समझ में आ जाने के बाद कि र और ल ही में अभेद नहीं है, न और ल में भी अभेद है, भाषा की कई पहेलियाँ सुलझ जाएँगी। तभी आप नाइट की जगमगाहट और लाइट, डिलाइट ब्लाइट और साइट के और सं. नक्ष, लक्ष, लख, बिलख, लाक्षा (लाख) की आपसी कडी को समझ सकेंगे।

मसि
मसि का अर्थ है स्याही – कालिमा युक्त। इसका दूसरा नाम है रोशनाई, प्रकाशित करने वाली। हिंदी में जिसके लिए लिपि का प्रयोग होता है, उसके लिए एक और शब्द का प्रयोग होता था, ‘दिपि’’ – प्रदर्शित करने वाला। इसी तर्क से ऋग्वेद में लिखित वाणी को सूर्या या सू्र्य की दुहिता कहा गया, परंतु उसमें उलझने का यह सही स्थान नहीं है। ङाँ यह याद दिलाने का सही समय तो है ही कि जब हम दाढी-मूँछ आने के लिए मसें भींगने का मुहावरा प्रयोग में लाते हैं, तो मस के साथ मास/माह<> मस/मह= चंद्रमा की याद रहती है या नहीं। मह, मघ, मेह, मेघ और जल के संबंधों को समझने के लिए जाहिर है, कुछ अध्ययन जरूरी हो सकता है। मह का अर्थ जल है और जब आप किसी को महान कहते हैं तो उसे जलवान अर्थात् द्रव्यवान भी कहते हैं, इसका आप को पता न रहा हो तो अब हो जाना चाहिए।

डार्क(dark)/ ब्लैक(black)/ग्लूम (gloom)
यदि हम अंधकार के अंग्रेजी पर्यायों पर विचार करें तो वहां पर भी वही तर्क लागू होता दिखाई देगा। सं. द्र>द्रु>द्रप्स > ड्रा (draw), ड्राप(drop), ड्रिंक (drink), ड्राइव(drive), के बीच के संबंधों को समझने का प्रयत्न करें, ब्लीक (bleak) >< ब्लीच(bleech) , ब्लैक(black)<ब्लैंक(blank), फ्लो(flow)/ब्लो(blow, - ब्लॉट blot, को और ग्लूम (gloom) को ग्लो (glow), ब्लूम(bloom) को ब्लो(blow)/फ्लो(flow), सैड(sad) को सैट- (satisfaction) से मिलाकर समझें तो पता चलेगा यह तर्क भारतीय बोलियों से आरंभ हो कर यूरोप तक काम करता रहा। __________________________________ [1] यह भाषा के में एक बहुत निर्णायक मोड़ को दर्शाता है। पहले यहाँ के लिए ई का, समीप और निम्न के ईं/इत/इंत/इत्र का बीच और ऊपर के लिए ऊ/ऊँ/ऊत्र और दूरस्थ के लिए अ/आ/आँत/अत्र का प्रयोग होता था। इसकी हल्का आभास ऋग्वेद से और द्रविड़ मानी जाने वाली बोली कुऱुख में मिलता है। सं. भी इससे पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई। ऋ. में ईं/ईम् - भो. ई, हिं इ(-स/-धर), कु. इतरम्- यहाँ में, सं. इतःततः> इतस्ततः के इतः में में इसे लक्ष्य किया जा सकता है। होना इसे भी इतःअतः चाहिए था, जैसा कु. के अतरम् में अं के अदर में मिलता है। परंतु इस संक्रमण के कारण ‘ई’ का स्थान ‘अ’ ने ले लिया। अ का स्थान कुछ समय के लिए ई ने ग्रहण किया( फा. इंतहा, इन्तकाल) फिर ‘त’ ने (सं. तत, ततः, अं. दैट that, there) में देखा जा सकता है। इत्र-अत्र अब अत्र-तत्र हो गया। अंत का भो. अन्ते, हि. सं. अन्त में ‘अ’ की दूरता बनी रही। वैदिक अन्त- निकट, अन्तेवासी आदि में निकटता का सूचक बन गया।
[2] इस ऋचा को नासदीय सूक्त के संदर्भ में ही समझा जा सकता है।

Post – 2020-05-24

#शब्दवेध(45)
अंधेरे के लिए शब्द नहीं
तम/तमस/तमिस्र
अंधेरे के लिए तम का प्रयोग नासदीय सूक्त में भी हुआ है- पहले तम के भीतर तम छिपा हुआ था – तम आसीत तमसा गूढ़ं अग्रे। परंतु तमसा एक नदी का भी नाम था जिसे आजकल टोंस कहते हैं।[1] अब कुछ दूसरे शब्दों पर ध्यान दे सकते हैं जिनसे लालिमा, आवेश, उल्लास आदि का भाव प्रकट होता है – तामर- पानी, तूँबा/तुमड़ी – जलपात्र; *तमतम> टमटम- चलने वाला, वाहन: तमक- आवेश, तमतमाना, तामा > सं. ताम्र, तामझाम, तामरस- 1.कमल, 2.ताँबा, 3.सुवर्ण; तमस्विनी का एक अर्थ रात है तो दूसरा हल्दी। फा. तमाशा, अ. तमन्ना – आकांक्षा । पराकाष्ठा सूचक प्रत्यय -तम पर भी हमारी दृष्टि जानी चाहिए क्योंकि लघुता और महिमा सूचक सभी शब्द जल के पर्याय हैं। ध्यान तुलनात्मक -तर प्रत्यय पर भी जाना चाहिए, जो भी जलार्थक तर ही है। हमें लगता ‘तम’ और temp, temper, tempest, tame, timid, time, temporary, Tames आदि शब्दों के संबंध पर पर नए ढंग से विचार किया जा सकता है, परंतु हम इसका खतरा नहीं उठाएंगे।

हम पाते हैं कि तम मूलतः अंधकार का द्योतक नहीं था और इसको नकारात्मक आशय में प्रयोग में लाया जाने लगा और अनेक नकारात्मक भावों – तमोगुण, तामसी स्वभाव, तमोवृध- निशाचर, तंबू> tomb आदि से भी जब कि उसी के समानान्तर लोक व्यवहार में, उसी मूल से निकले के शब्द दूसरे आशयों में प्रयोग में आते रहे।
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[1] विरल अपवादों, जैसे अचिरावती- निरंतर धारा बदलने वाली, को छोड़कर, सभी नदियों के नाम का अर्थ है जलवाली, सुजला या प्रवहमान है, इसलिए नदियों के नाम के विश्लेषण से भी हम जल के पर्यायों को समझ सकते हैं। सामान्यतः इसका ध्यान विद्वान भी नहीं रख पाते। उदाहरण के लिए सुनीति बाबू की मान्यता थी कि गंगा का अर्थ नदी होता है और यह आस्त्रिक भाषा का है, मुझे उनको यह समझाने में कुछ समय लगा कि गंगा का अर्थ सुजला होता है, कि गं/कं का अर्थ जल है। समय इसलिए लगा कि उस समय मैं तटीय नामों के आधार कर अपना पक्ष रख रहा था। अधिक सटीक उदाहरणों- कं-ज= जलज; कनई, *गंगरा (गगरा), गगरी, गंगाल, की ओर हमारा भी ध्यान न था। आज भी गोमती, गोमल के साथ गाय का आशय जोड़ लिया जाता है, जब कि अर्थ है – जलवाली। गो का अपना नामकरण जल की गतिशीलता से प्रेरित है। गो हो या कम दोनों का अर्थ ‘चल’ है और इसलिए गोट और काउ का शाब्दिक अर्थ है चलने वाला, जैसे सर्प > सर्पेंट का अर्थ है सरकने वाला और ये भी सर- जल, > सरकना> सर्प, सरीसृप, सर्पेंट क्रम से उत्पन्न हैं।
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तिमिर
तिम – जल; तिमि – समुद्र, तिमिंगल – महामत्स्य; टीमटाम – सजावट, दिखावा; टिमटिमाना; टेम- दीपशिखा ।
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धूम/ धाम/ धुँआ/ धुंध/ धुँधला
धू-धू कर आग जलना, धूमधाम से कोई उत्सव मनाना संदेह पैदा करता है कि धूम शब्द कालिमा का द्योतक रहा हो सकता है। शब्द जिस चीज के लिए टैग के रूप में प्रयोग में आता है, उसके रंग का शब्द पर आरोपण करने के कारण हम अपने को आश्वस्त कर लेते हैं कि इसका शाब्दिक अर्थ काला होगा। परंतु ऋग्वेद में ललौहे धुँए का भी उल्लेख है (अच्छा द्यां अरुषो धूम एति, Aloft to heaven thy ruddy smoke ascendeth, ग्रि.) धुँए का रंग सदा काला नहीं दिखता। कभी कभी सफेद भी लगता है। धाम का प्रयोग ऋ. में स्थान और निवास के लिए, पर अनेक बार तेज के लिए भी हुआ है – ‘पुरुहूतस्य धामभिः’ पुरुहूत इन्द्र के तेजों के साथ;’ धामसाचं अभिषाचं स्वर्विदम्’ स्वर्गीय तेजस्विता प्रदान करने और समस्त तेजो के साथ ‘सप्त धामभिः’ जैसे प्रयोग देखने में आते हैं।

यदि इस तरह की अनेकार्थता है तो धू/ धम् का स्रोत जल होना चाहिए। पहले मुझे कुछ सूझा नहीं। परन्तु यदि हमने जो नियम स्थिर किए हैं वे निरपवाद हैं तो कोई शब्द होगा अवश्य। तब मेरा ध्यान ‘धोना’ क्रिया पर, ‘धवल’ वर्ण पर तो जाना ही था। नदियों का एक पर्याय ‘धौती’ का ऋग्वेद में केवल एक बार प्रयोग हुआ है- ‘यो धौतीनां अहिहन् अरिणक् पथः-2.13.5 (‘धौतीनां चलन्तीनां नदीनाम्’ , सायण)।

अब धम् के वे अर्थ सामने आए जिनकी ओर पहले ध्यान नहीं गया था : (1) चालन (धमन्तो बाणं, ऋ. 1.85.10), बाण चलाते हुए; (वि सप्तरश्मिः अधमत् तमांसि, ऋ. 4.50.4), अपनी सातों रश्मियों से सभी प्रकार के अंधकारों को दूर भगा दिया (2) वध, (अभि दस्युं बकुरेणा धमन्तोरु ज्योतिश्चक्रथुरार्याय, ऋ. 1.117.21), अपने प्रज्वलित क्षेप्यास्त्र से रहजनों का वध करते हुए सौदागरों के लिए प्रकाश फैला दिया, (3) ध्वनित करना, (इन्द्रेषितां धमनिं पप्रथन् नि, ऋ 2.11.8), इन्द्र प्रेरित ध्वनि करते रहे – धमनिं – शब्दं कुर्वाणां, सायण;; (4) विदीर्ण करना, (भृमिं धमन्तो अप गा अवृण्वत्, ऋ. 2.34.1) भागते हुए बादलों को विदीर्ण करके जल को मुक्त किया; और (5) प्रवाह, (ये द्रप्सा इव रोदसी धमन्ति अनु वृष्टिभिः, उत्सं दुहन्तो अक्षितम्, 8.7.16), They who like fiery sparks with showers of rain blow through the heaven and earth, Milking the spring that never fails ग्रि.. और इस अंतिम तर्क से ही हमारी रक्तवाहिकाओं का नाम धमनी पड़ा है। यूँ तो शिराएँ भी वाहिकाएँ ही हैं, परंतु हम केवल धू और धम् के अर्थविकास पर विचार कर रहे हैं।

आप भले पैंट या पाजामा पहनते हों, कभी कभार धोती तो पहना होगा, न पहना हो तो कुछ पुरुषों-स्त्रियों को धोती पहने तो देखा होगा, पर संभव है इसके अर्थ पर विचार न किया हो। धोती में जल का नहीं आवरण, आवास की तरह लिबास, या निवास की तरह वस्त्र का भाव है। धू से धूम/धुन/ धुआँ ही नहीं धूप शब्द भी निकला है।

Post – 2020-05-23

#शब्दवेध(44)
अंधेरे के लिए कोई शब्द नहीं

काला
काला उस शब्द समूह का हिस्सा है जिसमें कल – जल > कलश- जलपात्र, कलेवा- जलपान; > (cool, cold, OE.col Ger- kuul) कल (>क्ल), – पत्थर, ला. क्लैक्स; कलन- गणना (calculate -to count or reckon,< L.calx-stone), कल->सं. क्ल- जल, स. क्लेद> अ. clay; कला (calligraphy- a fine penmanship कलिया ( – kil, calamity)) काला (caligo- obscure, dim, dark; L. caligo- fog) ,कोइला, (coal, charcoal, O.Narv. kol, Ger. Kohle) कल्हारल – भूनना, (kiln- oven आँवा, भट्ठा; कृशानु ( Gr. kalein- to burn), कळ/ /कड़- पत्थर, निर्मम, ( callous – hardened, cruel,

Post – 2020-05-22

#शब्दवेध(43)
अंधेर तो यह है कि अंधेरे के लिए कोई शब्द ही नहीं

विश्वास नहीं होता? पहले मुझे भी नहीं हो सकता था। 50 साल पहले की बात है, कॉर्ल डार्लिंग बक (Carl D. Buck) द्वारा तैयार किया गया प्रमुख भारोपीय भाषाओं के कतिपय शब्दों के पर्यायवाची कोश (A Dictionary of Selected Synonyms in the Principal Indo-European Languages: A Contribution to the History of Ideas 1st Edition देख रहा था जिसमें प्रत्येक शब्द के सभी प्रमुख भाषाओं के पर्याय देकर उनको कुछ श्रेणी में बांटा गया है और फिर उनकी व्याख्या की गई है। उसमें मकान के लिए जो पर्याय थे सभी का अर्थ था प्रकाशित, जगमग। तब मुझे भी इससे हैरानी हुई थी, परंतु अचरज प्रकट करने के बाद, इसका समाधान उन्होंने इस रूप में निकाला है कि संभवत है आवास को आकाश के आवरण के रूप में कल्पित किया गया था और जगमगाते हुए आकाश से उनको मकान के लिए वे संकल्पनाएं सूझी हों। मैंने 1973 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में इसका उपयोग करते हुए, उन पर्यायों की अपने ढंग से व्याख्या की थी। लेकिन तब मेरे मस्तिष्क में भी यह बात नहीं आई थी कि आवरण के किसी रूप के लिए कोई ऐसा स्वतंत्र शब्द ही नहीं है, जिससे केवल अदृश्यता का बोध हो। यहाँ तक कि रात के लिए भी नहीं। इनके जो भी पर्याय हैं उन सभी का अर्थ या तो प्रकाश/चमक या जल है। रंगो के लिए जो शब्द हैं उनमें सभी का एक अर्थ जल होता है। ऐसा इसलिए है कि न तो अंधकार से कोई आवाज पैदा होती है न ही प्रकाश से। सच कहे तो अंधकार भी काले रंग से अभिन्नता रखता है यद्यपि सही मानी में वह प्रकाश का अभाव है।

हम कह आए हैं कि शब्दों का अर्थ अकेले में नहीं खुलता । अकेले में तो रूढ़ार्थ समझ में आता है, – रूढ़ का अर्थ है उपर से लादा हुआ, जिसके लिए बिल्ला अं. टैग/लेबल का प्रयोग होता है। स्वयं हमारा नाम भी एक बिल्ला ही है। वह किसी का हो सकता है। कुछ संस्थाओं में वस्तु या व्यक्ति के लिए एक संख्या नियत कर दी जाती है, व्यक्ति के रूप में हम एक संख्या में बदल जाते हैं पर हम संख्या नही हैं। सो, रूढार्थ शब्दार्थ नहीं। हमारे लिए एक ही शब्द है, मनुष्य। शब्दार्थ जातिवाची होता है, व्यक्तिवाची संज्ञाएं मात्र टैग हैं। किसी का कोई नाम रखा जा सकता है, पर उससे उसके बारे में इससे अधिक किसी बात का पता नहीं चलता जब कि शब्द नामित के रूप, गुण, (स्व-भाव) का परिचय देता है और उसे हम बिना किसी की सहायता के पहचान लेते हैं।
अब हम अंधकार के पर्यायों पर विचार कर सकते हैं।

कृष्ण
कृष्ण का प्रयोग काले के लिए होता है। इसके साथ आप को कृशानु – आग – की याद आनी चाहिए। इसके आदि मे आए ‘कृश्/कृष् का अर्थ है अंकन, रेखन। इसका प्रयोग बहुत पहले से साल के दिन आदि की गणना के लिए होता आया था और निशान के रूप में खिची रेखा और दिन दोनोे के लिए वार के प्रयोग का यह एक कारण हो सकता है। खेती आरंभ होने पर नम जमीन में लकीर खींच कर, चिड़ियों से बचाने के लिए बीज इसमें डाल कर मिट्टी से ढक दिया जाता था। खेती के लिए इसी से कृषि संज्ञा मिली। कृष भी पानी के लिए प्रयुक्त कर/किर निकला है, (कर- करमोना- भिगोना, करमुआ – पानी में उगने वाला एक साग) । प्रकाश रश्मि के लिए कर और किरण जल के इस कर/ किर मूल से ही निकला है। इसी तर्क से आग के लिए कृशानु का प्रयोग हुआ। कर, कर्ष – खींचना जल की गति की देन है जो कृषि के साथ अधिक लोकप्रिय हुआ लगता है। कृष्ण के तीन अर्थ हैं – जला हुआ, कट या जल कर क्षीण (कृश) हो चुका; कोयले के रंग का या काला और तीसरा आकृष्ट या मोहित जिसकी आदत के कारण वह कुछ बदनाम भी है और स्वयं मोहन और मनमोहन भी हैं।

हमें अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए भाषा की आवश्यकता होती है, भावनाओं को व्यक्त करने के लिए कला और साहित्य की आवश्यकता होती है, परंतु भाषा साहित्य और कला हमारे विचारों और भावनाओं को किस तरह नियंत्रित करते हैं इसकी ओर सामान्यतः हमारा ध्यान नहीं जाता। इसका एक उदाहरण राधा और कृष्ण का नाम और चरित्र है जिसकी कुछ चर्चा यहाँ संभव है।

राध शब्द का अर्थ है, ऋद्धि या संपन्नता लाने वाला (पैसा)। राध का प्रयोग ऋग्वेद में धन के लिए और हमारी समझ से ताँबे के उन पिंडों के लिए, और संभवतः उस रंग के लिए भी होता था, जिनके नमूने सिंधु-सरस्वती सभ्यता से मिले हैं। इसका प्रयोग इसीलिए बहुवचन में भी हुआ है – इन्द्रा वरुण वामहं हुवे चित्राय राधसे, हे इन्द्र और वरुण हम तुम दोनों की विविध प्रकार की संपदा के लिए गुहार लगाते हैं, या ‘करतां नः सुराधसः’ ‘में राध का प्रयोग धन के सामान्य अर्थ में हुआ है। ‘स नो राधांसि आ भर’, वह हमें संपदाओं से भर दे, ‘ राधांसि याद्वानाम् – यदुओं की संपदाएँ में बहुवचन का प्रयोग देखने में आता है, पर इससे यह संकेत नहीं मिलता कि बहुवचन प्रयोग ताम्रपिंडों के लिए ही हुआ है। मेसोपोतामिया में इन पिंडों का नाम स्खलित हो कर संभवतः रूड हो गया था। मैलरी (1989) का मानना है कि अं. रूड- कठोर और रेड – लाल दोनों इसी से निकले हैं। भारत में इसके रंग से साम्य के आधार पर हल्दी का एक पर्याय राधा पड़ा जिसका राधा के गोरेपन से संबंध है ।

धन सदा किसी के पास नही रहता, मानवीकृत रूप में लक्ष्मी चंचला होती है, इन्द्र के लिए ‘राधानां पते’ का प्रयोग, यादवों की राधाएँ (राधांसि याद्वावाम्) और इन्द्र के अवतार कृष्ण के साथ राधाओं/ गोपियों की लीलाएँ। इन सभी को मिला कर एक चित्र तैयार करें तो चीरहरण तक समझ में आ जाएगा क्योंकि धातु कोई हो, लेन-देन के प्रत्येक चरण पर उनकी शुद्धता की जाँच की जाती थी।

Post – 2020-05-21

शब्दवेध(42)
भाषा और मूर्तिविधान
भाषा श्रुत संसार का पुनरुत्पादन या, अनुनादन नहीं है। यदि ऐसा होता तो उसकी संचार-सीमा उसके भाषा बनने में बाधक होती। चित्र लिपि में केवल उसी वस्तु का बिंब उभर सकता था जिसका वह चित्र था। यदि इसका पालन किया जाता तो संसार में जितनी भी वस्तुएं हैं उन सभी के चित्र बनाने होते और उसके बाद भी भाषा केवल संज्ञाओं का भंडार बनकर रह जाती। इतना ही नहीं, हमारा संसार सिमट कर इतना छोटा हो जाता जितने का चित्र बनाने की क्षमता हममें होती। चित्रांकन को महत्व देते हुए जिन लिपियों का विकास हुआ उनमें भी अमूर्तन से काम लिया गया और इसके बाद भी लिपि चिन्हों की संख्या इतनी अधिक थी अक्षरों की संख्या इतनी अधिक थी कि साक्षर लोग लगभग दुर्लभ थे।

यही समस्या लिपि के विकास से पहले बाह्य जगत के संकेतन के लिए बोल चाल के स्तर पर उपस्थित हुई थी। अनुकरण की सीमा के कारण मनुष्य की भाषा मैं बहुत कम ध्वनियाँ थी। उसका वस्तु बोध और भाव बोध बहुत सीमित था। इसके कारण जिन श्रुत ध्वनियों का अमूर्तन संभव नहीं था, उनका अनुकरण जहाँ संभव हो पाया, जिनका हो पाया उनकी ध्वनियाँ केवल उनकी संज्ञा बन पाईं – कौवा/ क्रो; टिटिहरी, कोकिल, झींगुर, हुँड़ार/हाउंड, डॉग , पपीहा। भाषा की शक्ति अनुनाद से आगे बढ़कर वाचिक संकेत प्रणाली विकसित करने में है परंतु उसने अपना संबंध प्राकृतिक नादों से इतनी दूर नहीं जाने दिया की ध्वनि और ध्वनित के बीच का संबंध पूरी तरह मिट जाए।

पिछड़ी से पिछड़ी भाषा में भी अनुनादी शब्दों की संख्या बहुत सीमित है। आवर्ती ध्वनियाँ अवश्य उन्नत भाषाओं की तुलना में अधिक मिलेगी। उदाहरण के लिए संताली और उसके समकक्ष भोजपुरी के कुछ प्रयोगों को लिया जा सकता है:
अकल सकल – बेचैन
अजक बुजक – बेतरतीब, टेढ़ा-मेढ़ा
अकल पकल – अकाल दुकाल
अकर कुकर – परेशान. बेहाल
अक बक । अका बका
अकबकाव – परेशान, बेहाल, भरमल
अबू-चबू = भो. अकचकाइल
अचल-गँजल – धारासार वर्षा
अचुर बिहुर – आगे-पीछे
अड़ई बड़ई – अक्खड़ भो. अड़बड़, अड़बेंड़
अढोंङ मढोङ – कम मोल पर बेचना, आधा-तिहाई पर…
अदात उदात – कम उम्र का (काम में आने लायक नहीं) – भो. उद्दत बछड़ा
अध पध – अधूरा किया हुआ
अगर डिगर – उल्लंघन – > डग, डगर, डगरल, डग्गा, डुग्गी, *डगमग/डगर, डगोरा > ढिमिलाइल,
अगोर ओडोर – ठिगना और मोटा
अकबक – झटपट (अकबका के)
अलङ फोलङ (अलोङ फोलोङ) – मटरगश्ती

आवर्ती ध्वनियाँ सभी भाषाओं में किसी न किसी अनुपात में पाई जाती हैं। ध्यान देने की बात यह है इनमें भी सीधी नकल नहीं होती और सामान्यतः दूसरे की ध्वनि को कुछ बदल दिया जाता है -फिटफाट, झटपट, टिट-टैट। मनुष्य स्वभावतः एकरसता पसंद नहीं करता, पशुओं से उसका अंतर यह है कि वह नवीनता प्रेमी है।

भाषा श्रुत ध्वनियों का अनुनादन नहीं अनुवादन है, अनुवाचन है , और इसी से यह संगीत से अलग हट कर एक संकेतन प्रणाली का रूप लेती है और इस क्रम में वाचिक ध्वनियों के मूर्ति विधान की एक प्रणाली बनकर अमूर्त भावों विचारों क्रियाओं विशेषताओं और स्थितियों को व्यक्त करने में समर्थ होती है। गीत भाव जगत की गहराइयों को समझने तक सीमित रह जाता है, विचार जगत का स्पर्श नहीं कर पाता। चित्र विधान से संकेतन प्रणाली में बदलते में पुराने अनुभव से मनुष्य जाति को दोबारा गुजरना पड़ा, क्योंकि उसे अपने पुराने अनुभव की याद तक नहीं रह गई थी इसलिए वह भाषा की उत्पत्ति और विकास के नियम को भी समझने में असमर्थ हो चुका था। अब उस वर्णमाला का विकास संभव हुआ जो किसी समुदाय की वाणी को अधिकतम शुद्धता से अंकित करने में समर्थ होती है।

हमें इस इतिहास का ध्यान आने के बाद आश्चर्य नहीं होता कि हमारे विख्यात भाषा विज्ञानियों ने भाषा की उत्पत्ति और विकास पर विचार करते हुए लेखन प्रणाली में संभव हुए विकास को आधार बनाने की कोशिश क्यों नहीं की और जैसे नादान कारीगर अपने औजार को कोसता रहता है उसी तरह वे अनुनादन की प्रक्रिया को अपर्याप्त और असंभव मानकर नैसर्गिक ध्वनियों की भूमिका को क्यों ना समझ पाए और उन्हें ही कोसते रहे।

हमारे लिए तो इतना ही बहुत है कि हम समझ सकें कि शब्दों और मुहावरों के पीछे एक इतिहास, एक दर्शन, एक विचारधारा भी हो सकती है। इसलिए शब्दों पर बात चले तो फूंक फूंक कर पांव रखना एक जरूरत और जिम्मेदारी भी बन जाती है।

इस चर्चा में हम आप को इस मुहावरे के अनुसार चलने की सलाह तो न देंगे, परंतु आप से एक एक वाक्य को घूर घूर कर देखने की अपेक्षा अवश्य करेंगे। आपको पता है लोग घूरने का काम कबसे करते आ रहे है? क्या आपने फारसी के ग़ौर को घूरने से मिला कर देखा है? अब यदि दुबारा ग़ौर करें तो इस शब्द का इतिहास कम से कम चार हजार साल पीछे चला गया। तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ।। 1.22.20 घूरने का अर्थ न जानते हो तो मरियम वेब्स्टर का कोश देख लीजिए जिसमें अंग्रेजी गेज़ का अर्थ बताते हुए लिखा हुआ है, to fix the eyes in a steady intent look often with eagerness or studious attention.

जो कुछ जीवन और व्यवहार से लुप्त हो जाता है वह भी भाषा में एक रहस्यमय तरीके से हजारों साल तक किसी कोने में दुबका बचा रहता है। इसलिए जो इतिहास की किसी पुस्तक में दर्ज नहीं है, जिस तक पुरातत्वविद तक की पहुंच नहीं हो सकती, उसको आप कई बार भाषा में प्रत्यक्ष देख सकते हैं। जो अन्यत्र मृत और अश्मीभूत मिलेगा, वह भाषा में जीवन्त मिल सकता है, वह भी इतना कि आप चाहें तो उसकी धड़कनें भी गिन लेंं, गो यह हर मामले में जरूरी नहीं, क्योंकि इससे आपके दिल की धड़कन बढ़ सकती हैं। जो कुछ साहित्य में अतिरंजित मिलेगा, वह शब्दों में कांटे की तौल मिलेगा और तब आपको पता चलेगा कि कांटे इतने तरह के होते हैं, जिनसे कांटे की बात तो की जा सकती है, कांटे से कांटा निकाला जा सकता है, जरूरत पड़े तो किसी की राह में काँटा बिछाया भी जा सकता है और डंडी को टेढ़ी करके कांटे की तौल को घाटे की तौल बनाया जा सकता है! डंडा मारने और डंडी मारने से पड़ने वाली चोट के फर्क को तभी समझा जा सकता है।

क्या क्या आपने कभी नाक के बाल मुहावरे का अर्थ समझने की कोशिश की है। नहीं की होगी। मैं समझाता हूं। आपकी पहुंच नाक ऊंची करने और नाक काटने और बचाने तक ही है। परंतु ऐसे लोग भी हो सकते हैं कि नाक का तो सवाल ही नहीं नाक के बाल को भी कोई काट नहीं सकता। और ऐसे लोगों को जिन्हें वे अपनी नाक का बाल मान लें बचा कर रखना और उनकी हर तरह से रक्षा करना उनका कर्तव्य बन जाता है। इस तरह शब्दों का मूर्तनविधान एक तरह का है और मुहावरों का मूर्तन विधान इससे कुछ अलग।

Post – 2020-05-20

#शब्दवेध(41)
थोड़ा लिखना बहुत समझना

हमारा विषय विस्तृत है। हम समस्त शब्दावली को लेकर विचार नहीं कर सकते। जिन पर विचार करते हैं उनके विषय में बहुत कुछ रह जाता है। मैं जो कुछ कहता हूं उसके छूटे पक्षों पर किसी तरह की जिज्ञासा होने पर उसके समाधान का प्रयत्न कर सकता हूँ।

लोढ़/लोड़/रोड़ के विषय में तो हम यह स्पष्ट कर आए थे कि इनका उद्भव जल की धारा में टूटे और घिसे हुए बटों के आधार पर हुआ था और यह अन्य बातों के अलावा पत्थर, गति, लुंठन, खंडन की भी संज्ञा बने थे। यहाँ कई दिशाएँ खुलती है। पहला यह कि औजार/हथियार बनाने के लिए खेती के आरंभ से बहुत पहले सभी जत्थों को जल धाराओं के उतार क्षेत्र से वटिकाश्म अपने क्षेत्र में लाने होते। परिवहन की विधि और साधन की समस्या भी उसी चरण पर उपस्थित हो गई थी। इसका समाधान भी उसी वटिका के साथ किए गए प्रयोगों से हुआ। पहिए के लिए जो शब्द पाए जाते हैं वे अलग अलग बोलियों के हैं जिनमें उसी क्रिया से उत्पन्न ध्वनि को अपनी ध्वनि-सीमा में नाम दिया गया था पर सभी ध्वनियों का अर्थ विकास लगभग समान दिशाओं में हुआ। रेढू/लेढ़ू का विकास करने वाले को जो ध्वनि रढ़/रड़/रळ/रल; रेढ़/रेड़/रेळ/रेल; रोढ़/रोड़/रोळ/रोल) में से किसी रूप में सुनाई दिया और आंचलिक संपर्क सूत्र जुड़ने के बाद दूसरों द्वारा इतर रूपों में अपनाया गया, उनके प्रयोग के क्रम में किस किस तरह की नफासत चलती रही इसकी सही कल्पना हम नहीं कर सकते, पर हम पाते है भारत से लेकर भारोपीय प्रसार क्षेत्र में आज तक इनसे निकली शब्दावली का प्रयोग होता रहा है। रेढ़ू > rude, rode, rote, rotary, round, rod, road, load, rout, rudder, roll, rail, rally, reel, real, rut, route, rend, हि. रढ़, रेढ़, रीढ़, रेढ़ा, लढ़ा, लढ़िया, रेला, लेंढ़ा, रोड़ा, रोटी, लोढ़ा, लोड-चाह। कुछ हट कर है रेढ़ा का ठेला में बदल जाना और ठेलने का ठेघने में परिवर्तन। अं. रडर पानी के चप्पू के लिए प्रयोग में आता है यह कोई समस्या नहीं पैदा करता क्योंकि ऋ. में रथ का प्रयोग नौवहन में हुआ है (समुद्रस्य आर्द्रस्य धन्वस्य पारे त्रिभी रथैः शत् पद्भिः षडश्वैः)।

परन्तु यह एक संपर्कसूत्र से जुड़े भाषाई समुदाय का आविष्कार था। एक दूसरे ने उसे ही पह(पहु) /बह(बहु) >सं. वह के रूप में सुना या बाद में ढाला, जिसके लिए वही बटिकाश्म पाहन था, गति पहुँचना/ बहुरना था, बहना/ बहाना था। पत्थर पाहन था। त. पो (सं. पवन- चलने वाता, पोत; अं. plo, blow, flow, float, boat) बना। इसका सं. रूप वह, वहन, वह्नि, वाहन बना और यूरोप vehere-वहन, vehicle-वाहन, vein-वाहिका, नली, poem- धाराप्रवाह कथन।

एक तीसरे समुदाय को वही प्रवाही ध्वनि सर/चर, कर के रूप में सुनी गई, सरसर, चरचर, करकर नामों के बीच से एक का सर्वग्राह्य रूप सरकर/सक्कर सं. शर्करा निकला। शर्करा – बटिका, कंकड़। गोरखपुर में एक गाँव है सकरी – कंकरीली जगह। गति के आशय में सर, चर, सरकना, शर्त, सरिता, चरण, चरति, विभिन्न विभक्तियो के साथ -चार, चरित्र, चाल, चलन, चालू, (अं. शर्क shirk, चर char->चार्ज, chariot, character *कर> कार, car, cart, आकार – वर्तुल (सर्कल circle, साइकल cyle, साइक्लोन cyclone, सिकल sickle, शैकल shackle)।. चक्का, चाक, चक्की, चाकर – दौड़-भाग करने वाला. सं. चक्र, चक्री। परंतु चक्र के दो स्रोत हैं, एक का संबंध है पानी के नाद से, दूसरे का पत्थर तराशने, किसी नुकीली धार के खरोंचने आदि से उत्पन्न नाद किर/कर/चर जिसका अर्थ है करना, बनाना, जो अधिक प्रयोग में आता है। अरायुक्त पहिया बनाना असाधारण काष्ठकौशल की अपेक्षा रखता है इसलिए यह मानने वाले लोगों को गलत सिद्ध करने का साहस नहीं कर सकता जो मानते है कि पहिए के आशय वाले चक्र की उत्पत्ति बनाने से है न कि चलने से। तोड़ने के आशय मे शर्करा – शक्कर, खांड (खंडित), बूरा/रवा – चूर्ण, चीनी- बारीक इसी से प्रेरित हैं जिनका सीधे मिठास से कोई संबंध नहीं सभी में पत्थर के टूट कर रेत में बदलने का भाव ही है।

उन घिसे, टूटे गोलाकार पाषाण खंडों को जिस समुदाय ने वट >सं. वर्त-, सुनने और बोलने वाले समुदाय का चक्राकार संकल्पनाओं और गति – बाट, बटोही, सं. वर्त्म, वृत -मार्ग, चक्करदार (परिधि), (अं. wherl, whore, whorl, vert, vertex, vertigo, verve), खडन – वर्तन, वंटन, बेंट/बेत – आघात करने वाला, सं. वेतस, (अ. बैट bat, बैटर batter, बार्टर barter). परंतु यदि इसका कभी पहिए के लिए उपयोग हुआ भी रहा हो तो संकल्पनाओं के लिए इसके प्रयोग ने उसे बाहर कर दिया।

हम अभी तक कल्पित धातुआं के माध्यम से, जिनकी पहुँच, बहुनिष्ठ अक्षरों और समान अर्थ पर ध्यान देने के कारण सीमित रही है, उस बहुअर्थी मूल तक नहीं पहुँच पाते रहे हैं इसलिए एक ही आशय वाली धातु से व्युत्पन्न शब्द में अनेक और अनेक बार विरोधी अर्थ देश कर भी यह समझने से कतराते रहे हैं कि हमारे तरीके में कोई गड़बड़ी है। जैसे मनुष्य की सामाजिकता होती है वैसे ही शब्दों की भी सामूहिकता होती है और इसलिए तुलना के समय हमें उनके समूह की इतर समूह से तुलना अधिक लाभकर प्रतीत होती है।

हमने पिछली चर्चा में तार और कताई बुनाई के शब्दों की बात तो की पर विचार हम नामकरण की समस्या अर्थात् उत्पत्ति पर कर रहे हैं और यह दावा करने के बाद भी कि सामान्य संकल्पनाओं का नामकरण जल के किसी साम्य और नाद से जुड़ा है, उसे उदाहृत करने से रह गए। सू – जल, सवन, आसवन, सुत, सूत, सूत्र, स्यूत के बीच संबंध के विषय में किसी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं। तार के विषय में संक्षेप में कुछ संकेत जरूरी हो सकते हैं।

बचपन में हम एक खेल खेला करते थे। टूटी हुई चूड़ियों के बीच में कपड़ा लपेट कर उसे आग पर जला लेते और फिर कुछ देर के बाद वह पिघलने लगता तो दोनों सिरों को बाहर खींचते तो शीशे का बहुत पतला तार निकलता। चासनी में आपने एक तार, दो तार की चासनी का नाम सुना होगा। रस इतना गाढ़ा हो जाता है कि अब वह बूँद बूँद नहीं टपकता। उसकी एक धार सी बन जाती है। यह धार या तार या सिलसिला (तार-तम्य) तर- पानी, से निकला है। तार एक तरह से धार का ही उच्चारभेद है। प्रकाश-रश्मि एक तार है और रश्मि का संबंध रस से है। आकाश के नक्षत्रों का एक नाम है तारा और पानी के प्रवाह का नाम है धारा। ऋग्वेद में रस्सी के लिए रश्मि का प्रयोग देखने में आता है और रास, रेशम रश्मि से ही निकले हैं।

तार टूटने न पाए, चाहे वह धागे का हो, या संतान परंपरा या विचार परंपरा का- ऋग्वेद का कवि प्रार्थना करता है ‘ मा तन्तुः छेदि वयतो धियं में’ । लगता है पहले धी का प्रयोग भी संतान (वंश के दीपक या धारक) के लिए भी होता था और इस पंक्ति में संतति के धागे के टूटने या परंपरा के भंग होने की चिंता प्रकट की गई है। पुत्र के लिए धी शब्द का प्रयोग साहित्य में बाद में देखने में नहीं आता परंतु लड़की के मामले में आज भी भोजपुरी (मगही, पंजाबी आदि) में धिया शब्द का प्रयोग चलता है। अटूट वाला तार केवल प्रकाश की रेखा में और जल की धारा में देखने में आता है। रश्मि शब्द के पीछे रस का हाथ तो रहेगा ही क्योंकि प्रकाश में ध्वनि नहीं होती इसलिए उसे अपनी संज्ञा जल के रस से प्राप्त करनी ही है, रसरी>रस्सी को अपना नाम जल से मिला इसे रस-जल> रसना – (1) रसेन्द्रिय, (2) रस्सी (रशनाभिर्नयन्ति – रस्सी से बाँध कर ले जाते है; शीर्षण्या रसना रज्जुः अस्य)। फारसी में दारो-रसन – फाँसी का तख्ता और रस्सी (का फंदा)।

Post – 2020-05-19

#शब्दवेध(40)
कोश पर भी भरोसा न करें

फिर करें किस पर?

सच तो यह है कि कोश तो जितनी बार मैं स्वयं देखता हूँ कि उसे मानदंड बनाएँ तो डी.एच. लॉरेंस से बडा लेखक सिद्ध हो सकता हूँ। लॉरेंस ने अपने एक पत्र में लिखा था कि यदि उन्हें इस बात की सही समझ होती कि किस वर्ण के बाद कौन सा पड़ता है तो डिक्शनरी देखने रहने में उनका जितना समय लगा उसमें जिंदगी के साल दो साल बच गए होते।

लॉरेंस को सिर्फ अंग्रेजी का कोश देखना पड़ता था, मैं जिस बवाल को सिर ले बैठा हूँ उसमें मुझे कई भाषाओं के कोश देखने होते हैं। इसके बाद भी यदि कहता हूँ कि कोश पर भरोसा न करें तो महाभारत की एक सीख, ‘अविश्वसनीय पर तो भरोसा करें ही नहीं, जो विश्वसनीय हो उस पर भी आँख मूँद कर भरोसा न करें (न विश्वसेत अविश्वस्ते विश्वस्ते नाति विश्वसेत), और अपने अनुभव के कारण। कोश में मिलेगा चिह्न जब कि सही शब्द है चिन्ह (चिन/सिन-जल>चिन-आग>चिनगारी>चीन्हा/ चिन्ह)। खास कर के जहाँ लोक व्यवहार और कोश में मतभेद दिखाई दे वहाँ लोक व्यवहार कोश से अधिक भरोसे का होता है।

हमने पीछे लोढ़ने का अर्थ फूल तोड़ना किया जो कुछ परुष लगता है। फूल के संदर्भ मे यह प्रयोग केवल स्त्रियों की भाषा और उनके ही गीतों में आता था। अब लोकगीतों का स्थान फिल्मी गीतों ने ले लिया है इसलिए संभव है आज इसका प्रयोग कहीं न हो रहा हो। पुरुषों की भाषा में लोढ़ने के लिए तोड़ना या चिनना और कभी-कभी उतारना भी चलता था। कोश में लोढ़ने का अर्थ ओटना और ‘साफ करना’ भी दिया है जिसका प्रचलित शब्द तुनना – रेशों को तानना इस क्रम में उसके बीज, धूल-गर्द हटाते हुए उनके गुंजलक को सीधा करना सभी आता है। लोढ़ना धुनाई के बाद पूनी बनाने के लिए (लुंठन, भो. लूँडी – रस्सी और सूत का गोलक बनाना जिससे उपयोग के समय तार/रस्सी उलझे न) अधिक उपयुक्त है। तुनाई में, रेशे जितनी आसानी से खिंच कर अलग हो जाते है, उसी तरह मामूली से मामूली बात पर उखड़ जाने वाले के लिए फा. तुनुकजिजाज, खींच-तान के लिए तना-तनी, जैसी निर्मितियों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए, क्योंकि व्याकरणिक लिंग भेद और घालमेल में इसकी भूमिका रही लगती है (under ‘ideas’ are included emotions and attitudes, Boas)। जो भी हो, हमें मानना होगा कि अर्थभ्रम के कारण कहीं तुनने को भी लोढ़ना कहा जाता रहा होगा। कोश का कोई आधार तो होगा ही। ज्ञानपीठ कोश में लोढ़ना का अर्थ है – ओटना, साफ करना, *फूल तोड़ना।

ओत बुनकरों का ताना या लंबाई में फैलाये जाने वाले धागों का संकुल है। संभवतः इसी के आधार पर सूत कात का उसकी लच्छी बनाने के लिए जिस पटरे पर उसे लपेटा जाता है उसे *ओतेरन (अटेरन) कहते हैं ओट (ओत) का पुराना अर्थ ताना- और उसमें किसी तरह के उतार-चढ़ाव न होने देना तारतम्य । क्या फारसी का तरमीम – नीचे ऊपर हुए धागों को सही करने से संबंध है? हमने इस पर विचार न किया। ओत के लिए ऊप/ऊह का भी प्रयोग होता था। ऊहा – कल्पना का विस्तार, भो. का बेंवत (आपूर्ति की हैसियत) और युद्ध की (वि-ऊह) व्यूह-रचना (चक्र-व्यूह) का जिसे घेरा डालना और क्रमशः इसका दायरा कम करते हुए आदमियों-जानवरों का शिकार करना मंगोलों के युद्ध कौशल की विशेषता रही है। इसका महाभारत के चक्रव्यूह से कालक्रम की दृष्टि से क्या संबंध है इसकी कभी जाँच न की, न यह जरूरी है। ऊहा-पोह में ताने और बाने का स्थान तर्क (ताना)- विचार-सूत्र और वितर्क(बाना) ने ले लिया है। पोहने का प्रयोग हिंदी मे गूँथने-पिरोने के (सप्त सप्त पुनि पोहिए) को लिए और अपोहन – निवारण, उघाड़ना, खंडन के लिए होता रहा है। (तर्क, वितर्क, कुतर्क, तर्कु, तकला>तक्र, संतति/संतान, आदि शब्द भी बुनकरी से निकले हुए शब्द का है इसलिए रुई तुनने, उसके तिनके और बीज अलग करने के लिए भी प्रयोग में आने लगा, संभव है आज से चार-पांच हजार साल पहले भी तुनने के अर्थ में प्रयोग में आता रहा हो, जब से ओत का प्रयोग होता था। ओटने में बीच की दन्त्य ध्वनि केवल मूर्धन्य हो गई है। मूर्धन्यप्रेमी समुदाय ‘ओत’ न बोल कर ‘ओट’ ही बोलता रहा होगा। ओट के साथ अर्थविकास भी हो जाता है और यह परदे, (*ओटने) ओढ़ने को भी अभिहित करता है। ऊह के रास्ते ऊँघने, भो, ओंहाने को भी इसी से नाम मिला हो तो क्या कहेंगे। बुनकरी हमारे समाज की सबसे पुरानी कला है और अंग्रेजी के वूफ (woof – thread of a weft, texture), वीभ (weave – to make by crossing threads, tp move to and fro), वार्प (warp- to twist out of shape) का तो जनक है ही, संतान की संतान – पोता का भी जनक है। यज्ञविधान के सहायकों में पोत्र का जनक भी यही है या नहीो इसपर कभी विचोर नहीं किया।

मुहावरे में ही सही – आए थे हरिभजन को (काम की बात करने) ओटन लगे कपास (फिजूल की बातों में लग गए) का प्रयोग आपने भी किया होगा पर इस बात पर ध्यान न दिया होगा कि कपास ओतने में गड़बड़ी क्या है कि इसे इतनी पब्लिसिटी दे दी गई। गड़बड़ी दो तरह की है। ओतना फैलाना और विषय से हट कर, मूलविषय से हट कर फालतू बातों में उलझ जाना। इस भाव से तो प्रयोग करते समय आप भी परिचित रहे होंगे, पर दूसरी पर आपका ध्यान शायद न गया हो। ताना या ओहन तो धागे का होता है जो कपास से धागा बनाने के बाद ही उसकाे ताना जा सकता है। आप सीधे कपास को ही तानने लगेंगे को क्या होगा? इसी आशय से उर्दू शायरों का कच्चे ( सूत तो तान लिया पर ऐंठन देना रह गया।) अर्थात जोर की जरूरत ही न पड़ेगी। इरादा भाप कर ही आदेश का पालन हो जाएगा।

असल बुनाई तो तब होती है जब तने हुए धागों को नीचे, ऊपर उठा कर धागे पिरोये जाते हैं। यही वयन है। ताने तो बया (ूमंअमत इपतक) जाने कहां कहां से उठा लाती है, बाने पिरो कर उस आश्चर्य को पैदा करती है जिससे प्रकृति का तन्मय हो कर अवलोकन करने वालों ने यह सीखा कि, छोटे छोटे खंडों को मिला जोड़ कर आवरण बनाए जा सकते हेंकर – क्योंकि बया की कला का लाभ वह चटाई, वल्कल आदि बनाने तक उठा चुका था। परंतु बुनाई को उसने पक्षियों ‘वी’ से प्रेरित मान कर, बुनकरों को वाय कह कर, अपनी कृतज्ञता तो जताई, यद्यपि इस डर से कि कहीं वाय और वया के सायुज्य से बुनकर की मर्यादा न कम हो जाए, इससे पहले वस्त्र का पर्याय लगा दिया। वासोवाय।

बाने ने बनाने, बनने ‘सजने’, बुनने, बान- बार बार एक ही काम करना, अर्थात आदत; बाना – वेश-विन्यास,, बानक – सज-धज (यहि बानक मो मन बसो ) के लिए कितने शब्द दिए हैं। बनियान का नाम लेते समय यह अक्सर नहीं सूझता कि यहाँ सीधे बुनाई से तैयार की गई होजरी उत्पाद का आशय है।

Post – 2020-05-18

#शब्दवेध (39)
मग-डग

यह उपशीर्षक अटपटा लग रहा होगा, जब कि मग और डग दोनों सार्थक शब्द हैं, क्योंकि हम सोच कर बोलते हैं तब भी जो कुछ जिस रूप में सुना और जाना है उसी रूप में, उसी क्रम से सुनने पर उनका शाब्दिक और पदीय आशय खुलता है, अन्यथा विचित्रता की छाप छोड़ कर रह जाता है।

बचपन में जब परंपरागत घरेलू उपकरणों का स्थान कारखानों में उत्पादित सामानों ने नहीं लिया था और उन पेशों से जुड़े लोग सर्वहारा बन तो गए पर सर्वहारा नहीं माने जाते क्योंकि उनको संगठित करने में श्रम और समय की जरूरत होती, जब कि कम्युनिज्म को पवित्र मुहावरे वाले जुए के खेल के रूप में कल्पित किया और अमल में लाया गया, इसलिए वे देखते देखते भिखारियों की दशा को पहुँच गए, धरिकार (बँसफोड़) का एक जरूरी पेशा होता था। वे बाँस की तीलियों और पट्टियों से बेना, छींटा, दउरा, दउरी, सुपोली, सरकंडों की सींक से सूप बनाया करते थे। इन्हीं में से दउरी/दौरी को बैठी होते हुए दौड़ की बाजी मारते, और लोगों को खेल के नियम का उल्लंंघन देख कर भी चुप लगाए देख कर कबीर साहब को इतना गुस्सा आया था कि वह पूरी दुनिया को पागल करार दे बैठे थे। उनकी नजर उस खास उपकरण पर नहीं पड़ी थी जिसे डगरा कहा जाता था। यह एक बिल्कुल समतल और गोलाकार और आकार में छींटे जैसा होता था। किनारे एक मेढ़र (रिम) लगी होती। उसका उपयोग संभवतः अनाज को डगरा कर एक किस्म के दानाो को दूसरों से अलग करने के लिए किया जाता था। लुढ़काने पर वह चक्कर खाता दूर तक चला जाता था।

सात आठ साल का होने पर एक नया खिलौना देखने को मिला। यह लोहे की पतली सरिया का बना एक गोल छल्ला था जिसे एक पतले डंडे से जिसके सिरे पर बेड़ी अंकुशी लगी होती दौड़ाया जाता था। इसे डग्गा कहते थे। खेल-कूद में भोंदू होते हुए भी मैंने उसे कई बार दूर तक दौड़ाया था, पर मैं सोचता इसे डग्गा क्यों कहा जाता है?[1] कारण मेरी समझ में नहीं आता था।

मैं डगरने, डगराने से परिचित था, चलते समय डग से, चलने से बनी रेखा या डगर से परिचित था, इसके बाद भी डग्गा का अर्थ समझने में मुझे कई साल लगे। इसलिए कबीर साहब ने, मेरी पाठ-पोथी के एक पन्ने से अपने टेढ़े अंदाज में सवाल दागा कि दौरी तो जहाँ रख दो वहीं पड़ी रहती है इसे दौरी क्यों बोलता है तो मैं भी चक्कर खा गया। यह न सूझा कि गोलाकार होने के कारण यह दौड़ सकती है, इसके आधार पर यह नाम रखा गया है।

हमारे बहुत सारे सवालों के जवाब उस क्षेत्र की हमारी जानकारी की परिधि में होते हैं पर हम उनको जोड़ कर देख नहीं पाते और ठीक मौके पर गच्चा खा जाते हैं। पर यहाँ एक समस्या भी थी। चलते तो हम पाँव उठा कर, बीच की दूरी को छोड़ते हुए हैं, दौड़ते भी इसी तरह हैं, फिर लुढ़कने, डगरने से उसका अभेद कैसे हो गया जिसमें आगे बढ़ने वाली चीज का धरती से लगातार संपर्क बना रहता है।

लंबे सोच-विचार के बाद लगा हो सकता है कि गति का कोई रूप हो जो सभी के लिए प्रयोग में आता हो और, जिसका नाता जल के प्रवाह से जुड़ जाता हो। चलने के लिए भो. का एक और शब्द है, टघरल (टघरना) जिसे कौरवी ने टहलना कर दिया है। जो भाव टहलना में नहीं आ पाया है वह यह कि किसी जमी हुई चीज (घी, मोम, राँगा, लाख) के ताप से पिघलने को भी टघरना कहा जाता है। आगे कैसे बढ़ा जा रहा है यह गौण है। डग, डग्गा, डगर। डंगर/ डाँगर- ढोर; ढंग – चलन, चलने का तरीका, किसी काम का तरीका, शऊर; बेढंगा, दौर(दौड़), दौरा, दौड़ी>दउरी सभी का संबंध एक ही कुनबे से है। पानी से इसका क्या संबंध है यह द्रव>द्रवः> द्रवर (सत्यो द्रवो द्रवरः पतंगरः ।के रूप में ऋ.4.40.2 में पाया जाता)। गोरखपुर में एक तटीय स्थान नाम है डँवरपार।

गड में डग के अक्षर का फेर (वर्णविपर्यय) है पर अर्थ की निकटता है। गड़ <गळ<गल<जल में मात्र बोलियों के अनुसार उच्चारण की मामूली भिन्नता है। गड़-चलना, गोड़-चलनेवाला, पैर। गोड़> गोळ> गोल – लुढ़कने वाला, गोली, गोला -गोलाकार; के उच्चारभेद पर ध्यान दें।

गड़>गळ>जल पर ध्यान दें तो समस्या समस्या न रह जाएगी। यह ध्वनि-नियम से ऐतिहासिक क्रम में घटित परिवर्तन नहीं हैं। भाषाई समुदायों की अपनी बोली के कारण है जिनकाे आज भी लक्ष्य किया जा सकता है। मराठी मे धवल धवळ है, राजस्थानी, हरयाणवी में रानी > राणी। गड़ पहले गोलाकार वटिका (वर्तिका- लुढ़कनेवाली) पहिए के लिए चलन में आया फिर गड़ी/गाड़ी पहिए से चलने वाली के लिए। ऋ. में गाड़ी के लिए एक शब्द है ‘गर्त’ जिसे सुन कर आप को अं. कार्ट की याद आ जाएगी। गर्त का गाड़ी से सीधा संबंध है या नहीं, इस पर विचार नहीं किया पर अर्थ उसका भी (गरति- चलति) चलने वाली ही (स्तुहि श्रुतं गर्तसदं युवानं मृगं न भीममुपहत्नुमुग्रम् (विख्यात, गर्त पर सवार, सिंह की तरह प्रचंड शत्रुदलन, युवा (इंद्र) का स्तवन करो) ; आ रोहथो वरुण मित्र गर्तम्, (वरुण और मित्र दोनों गर्त पर सवार हों )। संभव है इसका प्रयोग बड़े पहिए वाले रथ (बग्गी) के लिए होता रहा हो (बृहन्तं गर्तमाशाते )।

कुछ समय पहले तक हमें यह लगता था कि गड़- चलना खुर वाले जानवरों के खुर की आवाज का अनुकरण है, और मनुष्य के पाँव के लिए उसका प्रयोग चलने वाले अंग के साम्य पर आधारित है। तब तक हमारा ध्यान इस प्रसंग में जल की ओर न गया था।

गोलबंद होना- संगठित होना; गोल- (1) वर्तुल; (2) (दल), गोल करना- गायब करना, का अर्थ खोदना, पर गोल-दल, समूह। गढ़ – 1)पत्थर (गढ़वाल), 2) पहाड़ जैसा दृढ़, किला, 3) विशाल गर्त (रामगढ़), 4) वटिका (वर्तिका-लुढ़कनेवाली) गढ़ना- (1) छीलना, काटना, (2) बनाना; गड़ना – भीतर घुसना, धँसना; गड़हा/गड्ढा > सं. गर्त – (1) गाड़ी, (2) गड्ढा। पानी की धार ये सभी क्रियाएँ करती है, कगारों को काटने के कारण वार्त्रघ्न और ढाल पर गहरे गड्ढे, यमकातर, बनाने के स्वाभाविक नियम से। अपने प्रकोप से यह किसी चीज को नष्ट कर सकता है। आपो वै वज्र। त्सुनामी के बाद संदेह करने का कोई कारण नहीं रह जाता।
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[1] यह प्रवृत्ति शैशव में अपने साथ होने वाले व्यवहार से पैदा हुआ था और आजीवन रहा और इसी ने मुझे उन प्रश्नों का उत्तर तलाशने और पाने को प्रेरित क्या जिसे अनेक क्षेत्रों के धुरंधर पंडित दरकिनार करके अनर्गल मान्यताओं को स्वीकार कर लेते हैं। संभव है सुख सुविधा में पले बच्चों में जिज्ञासा की प्रवृत्ति मन्द पड़ जाती हो।

Post – 2020-05-17

#शब्दवेध (38)
डगमगाते हुए

गाड़ी का चलन जितना भी बढ़ गया हो, इसे चलते हुए देख कर भी यह नहीं समझ पाते कि इसे गाड़ी क्यों कहा जाता है। बहकावे में आ जाते हैं कबीर के जो किताबों से डरता था कि कहीं पढ़ने पर दिमाग न उलट जाए। पूछना ही था तो मेरे पास आते, पर दुर्भाग्य से तब मैं था नहीं और अब जब हूँ तो कोई मेरी सुनता नहीं। इस बीच राजाओं नवाबों की सैकड़ों पीढ़ियों का अता-पता नही, कबीर की साहबी जस की तस कायम है। चलती को उस जमाने में भी लोग गाड़ी कहते तो कबीर को रोना आ जाता था, जब गाड़ी के नाम पर बैलगाड़ी और घोड़ागाड़ी ही थी आज तो रेलगाड़ी भी है। । कबीर गुस्से में, अपने को छोड़, पूरी दुनिया को बावला सिद्ध कर देते थे। यही एक मामला है जिसमें कबीर मेरे समानधर्मा सिद्ध होते हैं, क्योंकि अपने को छोड़ कर, पूरे जहान को मैं भी बावला समझता हूँ, कबीर आज होते तो उनको भी मान लेता। कबीर की समस्या यह कि इतनी उलटी बात हो रही है, किसी के कान पर जूँ तक नहीं रेंगती, हमारी यह कि कबीर की बात मानने वालों के कान पर इतनी जूएँ रेंगने लगी हैं कि कान दिखाई ही नही पड़ते।

जैसा हम देख चुके हैं, दुनिया की सभी भाषाओं में, सभी लोग, हजारों ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जिनका अर्थ वे नहीं जानते या जिनका जो अर्थ समझ में आता है, उससे उलझन में पड़ जाते हैं कि उसके काम, रूप और नाम में कोई मेल क्यों नहीं है। आप बेफिक्री से कह सकते हैं, नाम को लेकर परेशान क्यो होना! गुलाब को किसी नाम से पुकारें, उसकी गंध वही रहेगी! परंतु उसका नाम न लें तो भी गंध में अंतर न आएगा। प्रत्यक्ष के लिए नाम की जरूरत ही नहीं। भाषा अनुपस्थित को शब्दों के माध्यम से उपस्थित करने की जादूगरी है। भाषा झूठ के माध्यम से – नाम और नामित के संबंध को मिटा कर दुनिया को बर्वाद करने का मारण पाठ भी है। जो शब्दों की सतही जानकारी रखता है वह वस्तुजगत की भी सतही जानकारी रखता है। know your words minutely to control the world confidently.

हम जितने लोगों को देखते हैं उन सभी को नहीं जानते। जिन्हें जानते हैं उनमें भी सभी का परिचय हमें प्राप्त नहीं होता। जिन्हें अच्छी तरह जानते है, उनके साथ भी सालों गुजारने के बाद भी कभी किसी एक अनुभव से इस नतीजे पर पहुंच जाते हैं कि इसे समझा ही नहीं था। शब्दों के साथ हमारा नाता भी कुछ ऐसा ही है , इसलिए यह दावा तो किया ही नहीं जा सकता कि हम सभी शब्दों की जन्म कुंडली से परिचित हैं, पर अधिकाधिक शब्दों की कीमियागरी समझना अपने विषय और परिवेश पर हमारे जादुई पकड़ को मजबूत करता है। हमारी हालत उल्टी है। हम जिन शब्दों को सबसे अधिक उपयोग करते हैं उनका या तो अर्थ नहीं जानते या किसी क्षुद्र लाभ के लिए उनके अर्थ को नष्ट करते रहते हैं।

दुनिया यदि बावरी है तो इसलिए कि वह अक्सर पदार्थ को, जिसमें पद और अर्थ दोनों संपृक्त होते हैं, भूल जाती है, नाम को वस्तु का ध्वनिप्रतीक बना देती है, यह प्रतीक चलता रहता है, और वस्तु और नाम के बीच का संबंध ओझल हो जाता है। इससे हमारे काम में किसी तरह की रुकावट नहीं आती, इसलिए हम इसे अधिक तूल भी नहीं देते। उल्टे अक्सर विषेषज्ञों को भी कहते पाया जाता है कि नाम यादृच्छिक या आर्बिट्रेरी होते हैं। हमारे पास ज्ञानसंपदा इतनी अधिक हो गई है कि लगता है जो जानने योग्य था जाना जा चुका। यह नयी बीमारी नहीं है।

इस तथ्य को दुहराना जरूरी है कि हम किसी नाद को, इतने भिन्न रूपों में सुनते हैं कि एक ही प्रकृत नाद, या अज्ञात भाषा का शब्द, विभिन्न परिस्थितियों में, विभिन्न रूपों में सुना जा सकता है, सुना जाता है और उसका वाचिक अनुकरण सभी अपनी भाषा की ध्वनिव्यवस्था के अनुसार करते हैं, अतः उसके अनगिनत नाम हो सकते हैं और किसी संज्ञा से कल्पना के सहारे प्रकृत नाद पर पहुंचना संभव भी हो तो उसे संगीत में ही व्यक्त किया जा सकता है; भाषा में नहीं।

हम केवल अपनी भाषा की ध्वनि-प्रकृति के अनुसार इस संबंध की तलाश कर सकते हैं। अतः वह ध्वनि ही उस वस्तु, क्रिया, गुण और विरोधी गुण के लिए प्रयोग में आती है। यही संज्ञा का संज्ञेय के कार्य और रूप से निसर्गजात संबंध है। उस क्रिया और नाद की उपेक्षा कर दें तो यह समझना असंभव हो जाता है कि एक ही शब्द में विरोधी अर्थ कैसे हो सकते हैं।

यदि मनुष्य के अपने वश में होता तो वह ऐसी भूल नहीं कर सकता था। यह शब्द की स्यायत्तता को प्रकट करता है और यह स्वायत्तता नाद की अपनी स्वयत्तता से पैदा होती है। मनुष्य केवल उसका चुनाव करता है। कहा जा सकता है कि एक सीमित अर्थ में संस्कृत की धातुएँ उस नाद से वाचिक सन्निकटन का प्रयास है, परंतु धातुओं की सबसे बड़ी सीमा यह है कि उनमें इस तथ्य को खुल कर स्वीकारा नहीं गया है और उनकी व्याप्ति केवल संस्कृत शब्द-भंडार तक है इसलिए उनसे देशज शब्दों की व्याख्या नहीं हो पाती। इसलिए हेमचंद्र ने देसी नाममाला का एक अलग संग्रह किया था जिनकी व्याख्या धातुओं से नहीं हो पाती जब कि प्राकृत नाद के अनुवाचन से देसी, संस्कृत, भारोपीय, और अन्य भाषा परिवारों में, रूप और अर्थ में सदृश और भिन्नतर सभी प्रकार के शब्दों, प्रत्ययो, निपातों और उपसर्गों की व्याख्या संभव है।

अभी तक किसी भाषा का व्युत्पत्तिकोश बना ही नहीं। जिसे व्युत्पत्ति कहा जाता है वह सजात (cognate) शब्दों और रूपों की तलाश से आगे बढ़ नहीं पाता। प्रोटो इंडोयूरोपियन के जिन शब्दमूलों (stem) की तलाश की गई है, उनमें भाषा के प्रसार की उल्टी दिशा चुनने और यूरोपीय बोलियों के हाल के प्रतिरूपों पर अधिक ध्यान देने के कारण पूरी तरह व्यर्थ न होते हुए भी यह सं. धातुओं से भी कम उपयोगी है।

गड़, गढ़, कड़, कढ़ घड़, हड़ (तु, करें हाड़> हड्डी) में लगभग एक ही स्रोत – पत्थर के पत्थर से टकराने, रगड़ खाने से उत्पन्न नाद का हाथ है। रगड़ के आद्यक्षर को हटा दें तो इस उपादान से इस क्रिया के टकराते, घिसते हुुए जलधारा मे आगे बढ़ने से उत्पन्न ध्वनि (र)गड़ सुनाई देगी। अपनी जरूरत से हम दो बटिकाओं को रगड़ कर इच्छित शक्ल देना चाहें तो भी वही ध्वनि निकलेगी। यहाँ तक कि यदि एक बटिका को दूसरी से तोड़ें तो इस क्रिया से उत्पन्न नाद को इसी रूप में सुना और बोला जा सकता है।

अब इन ध्वनियों का अर्थ – (1) उपादान की दृष्टि से – पत्थर, (2) कारक की दृष्टि से जल, (3) क्रिया की दृष्टि से बनाना, तोड़ना, गहराई में जाना, (क्रिया विशेषण की दृष्टि से इन ध्वनियों की आवर्तिता।) ; 4. भावी व्यंजनाओं की दृष्टि से इनके आद्य-अक्षर या मूल का धातुओं के रुप में उपयोग और इनकी सीमा में कुछ मामूली परिवर्तन जिनके विषय में हम सचेत नहीं होते पर जो स्वर-व्यंजन-विन्यास बन कर वह घटक बनाते हैं जिनकी सीमाओं का उल्लंघन सहन नहीं। आगे की चर्चा कल के लिए रखी जा सकती है। आज के लिए इतना ही कि (र)गड़, (र)गड़ा, गढ़, गढ़(ना), गहन, गाड़ना के लिए गढ़ा > घड़ा, गढ़ – पहाड़, गड़हा (गढ़ा), गड्ढा, की विरादरी के कारनामों पर आप भी विचार करें कि इन सभी को समझने में हमारी जानकारी में हमारा ज्ञान-विस्तार हो रहा है या ह्रास।