Post – 2016-01-16

अस्पृश्य ता– 18
‘’तुम इत्ती सी बात पर इतना घबरा गए कि हिन्दुत्व खतरे में है का नारा लगाने लगे। जानते हो जब खतरे की बात की जाती है तो हिंसा का पर्यावरण तैयार किया जाता है। उसके बाद जीने मरने के बीच चुनाव करते हुए डरे लोग हिंसा पर उतारू हो जाते हैं और मारे वे जाते हैं जिनसे वे डरे हुए थे। उन्हें समझ में नहीं आता कि यह सब हो क्यों रहा है? जब तक समझने का प्रयत्न और अपने बचाव का उपाय करते हैं तब तक काफी संख्या में मारे जा चुके होते हैं। गरज कि जिन्हें खतरनाक बताया गया था, उनकी समझ में नहीं आता कि हमसे उसे क्या खतरा था? तुम कर क्या रहे हो, यह सोचा भी है?’’

‘’सोचने का काम जब से तुमने सँभाल लिया तब से सोचने की अनुमति तुमसे ले कर सोचना पड़ता है। तुम बताओ कि यह आरोप गढ़ने से पहले तुमने जो कहा उस पर सोचा था, या नहीं?’’

‘’इसमें सोचने की क्या बात है? तुम हिन्दुओं को मरने मारने के लिए भड़का रहे हो और इसके नतीजे हम भुगत चुके हैं?’’

‘’और फिर भी अक्ल नहीं आई। जानते हो क्यों ? क्योंकि भारतीय वामपन्थ भावाकुल आन्दोलन रहा है, जिसमें विवेक से अधिक भावुकता से काम लिया गया और इसके कारण इसे बार-बार धोखा खाना पड़ा और फिर भी सुधरने के लक्षण दिखाई नहीं देते। इस रूमानियत से बाहर आओ तब समझ में आएगा कि जब बिना किसी आधार के या क्षीण आधार के असुरक्षा की भावना भड़काई जाती है तब उसके परिणाम वह होते हैं जिससे तुम हमें आगाह कर रहे हो। यह काम तुम लोग कर रहे हो जो गालियॉं देने की स्वतन्त्रता पाने के बाद भी, आए दिन, कराहते हो कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता खतरे में है। सभी तरह की सुरक्षाओं से लैस होने के बाद भी कहते हो, असुरक्षा बढ़ गर्इ है। इसी से उस तरह की प्रतिक्रिया पैदा होती है और होती थी, जिसकी तुमने याद ताजा करा दी।

’’जहॉं आधारहीन या क्षीणाधार अफवाहों से लोगों के मन में दहशत उतार कर वह उग्र और विवेकशून्य अन्धप्रतिक्रिया उभारी जाती है वहीं यह आरोप लग सकता है। यह मत भूलो कि इसमें करता कोई और है, भरता कोई और। इसके पीछे कुछ शक्तियॉं होती हैं जो अपने जघन्य इरादों के कारण सामने नहीं आना चाहतीं, जो चेहरे सामने आते हैं वे अपने दिमाग से काम नहीं लेते और जब तब कुछ आतुर लोग अपने हितों को ले कर उनके साथ हो लेते हैं।

‘’इससे ठीक विपरीत है वह विश्लेषण, जिसमें कार्यों, प्रवृत्तियों और उनके संभावित इरादों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए अपनी सीमाओं को समझने और उन परिणतियों से बचने के उपाय सोचने का आग्रह किया जाता है। तुम इन दोनों में फर्क तक नहीं कर पाते, समाधान क्या निकालोगे।

’’तुम्हें जो इत्ती सी बात लगती है उसके पीछे मुझे वे महाशक्तियाँ दिखाई देती हैं जिनकी योजनाऍं लगातार कारगर हुई हैं और जिनके कारण विश्वमानवता को खतरा है। इस नीति की सबसे बड़ी सफलता यह रही है कि इसने यहॉं के दो प्रधान समुदायों को बहुत चतुराई से एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया और द्वेष को इस तरह सामूहिक चेतना में उतार दिया कि वे न रहें तो भी वह जहर काम करता रहे। ये दोनों इस बात पर सहमत नहीं हो सके कि दोनों का दुश्मन वह है जो छिप कर, बचाव करने के जाल में फँसा कर, दोनों की एकता को असंभव बना रहा है, जिससे वे उसके विरुद्ध खड़े होने की जगह आपस में लड़ते रहें। इसे सैयद अहमद जैसा विवेकशील व्यक्ति भी न समझ सका। जो काम पहले अंग्रेज करते रहे वही, उनके चले जाने के बाद तुम करते रहे, और बदली परिस्थितियों में उसका सबसे प्रभावशाली उपयोग अमेरिकी पूँजीवाद कर रहा है जिसका पंजा ईसाइयत बनी हुई है। उससे तुम्हारी साँठ गॉंठ है, वहॉं तुमको पाला पोसा जा रहा है, इसलिए तुम उस जाल को देख ही नहीं पाते और छोटे से छोटा बहाना तलाश कर मुस्लिम असुरक्षा को उभारने का प्रयत्न करते हो, जब कि हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनों को सबसे अधिक खतरा उस पूँजीवादी हथकंडे से है जिसके सबसे बड़े भुक्तभोगी, आज की तिथि में मुसलमान हैं, हम नहीं। उन्हें अन्तर्राष्ट्रीाय स्तर पर बदनाम करके उनके प्रति निर्वेदता पैदा की जा रही है, जिसमें उनके विरुद्ध किसी समय किये जाने वाले जघन्यतम अपराध को इस रूप में प्रचारित किया जा सके कि इसके अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। जरा इसके इतिहास पर तो ध्यान दो।‘’

हंटिंगटन और मुसलिम समुदाय
’’तुमने हंटिग्टन की वह किताब कानफ्लिक्ट आफ सिविलाइजेशन्स पढ़ी है?”

”कानफ्लिक्ट नहीं क्लैश आफ सिविलाइजेशन्स! जानते हो यह कब आई थी 1996 में ! इससे पहले यह अमेरिकी विदेशनीति के किसी जर्नल में निबन्ध के रूप में प्रकाशित हुआ था। इतिहास पर गौर करो, 80 के दशक में अफगानिस्तान सोवियत प्रभाव में आता है और उसे हटाने के लिए अमेरिका दक्षिण अरब के एक कट्टरतावादी संगठन का इस्तेमाल करता है और उसे नशीले पदार्थो की तस्करी का बाजार सौंप देता है और उसे इतना उग्र बना देता है कि वह शा‍न्ति के लिए खतरा बन जाता है। 1988-89 के बीच उसी से अलकायदा का जन्म और उसके नेता के रूप में ओसामा बिन लादेन का उदय होता है जो अमेरिका विरोधी हो जाता है और कई देशों में अमेरिकी ठिकानों को निशाना बनाने के बाद 2001 में वर्ल्डं ट्रेड सेंटर पर हमला कर देता है। कुछ लोगों का शक है कि अमेरिका को इसकी पूर्वसूचना थी और उसने जानबूझ कर इसे हो जाने दिया, जिससे अरब देशों को रौंदने का बहाना मिल सके। असंभव नहीं है, हथियारों के कारोबार पर पलने वाला अमेरिकी पूँजीवाद अपने ही नागरिकों को नशे और मनचलेपन का शिकार बना कर अपना काम निकाल सकता है तो अपने कुछ सौ नागरिकों और कुछ अरब की संपदा की बलि देना उसके लिए अकल्प नीय नहीं। 1996 में यह पुस्तक आई और इसमें केवल अलकायदा ही नहीं समूचे मुस्लिम समुदाय का ही ऐसा चित्रण किया गया कि लगे जहॉं भी मुसलमान है, शान्ति के लिए खतरा हैं और दुर्भाग्य की बात, इस चाल को मुस्लिम समुदाय ने समझा नहीं और इस झॉंसे में पड़ गए कि पश्चिमी दुनिया उनसे डर गई है और ऐसी बहकी-बहकी बातें करने लगे और उन्हीं संकेतों पर बढ़ते चले गए जिन्हें अपने भय के रूप में अमेरिका ने प्रसारित किया था। पहले हंटिंगटन की पुस्ततक की इन पंक्तियों को देखो:
Islam’s Bloody borders
… Muslims from non-Muslims. While at the macro or global level of world politics the primary clash of civilizations is between the West and the rest, at the micro or local level it is between Islam and the rest.
Intense antagonisms and violent clashes are pervasive between local Muslims and non-Mulim peoples. In Bosnia, Muslims have fought a bloody and disastrous war with Orthodox Serbs and have engaged in other violence with Catholic Croatians. In Kosovo, Albanian Muslims unhappily suffer Serbian rule and maintain their own parallel underground government, with high expectations of probability of violence between the two groups. The Albanian and Greek governments are at loggerheads over the rights of their minorities in each other’s country. Turks and Greeks are historically at each others throats. On Cyprus, Muslim Turks and Orthodox Greeks maintain hostile adjoining states. In the Caucasus, Turkey and Armenia are historic enemies, and Azeris and Armenians have been at war over control of Nagorno-Karabakh. In the north Caucasus, for two hundred years Chechens, Ingush, and other Muslim peoples have fought off and on for their independence from Russia, a struggle bloodily resumed between Russia and Chechenya in 1994. Fighting also has occurred between the Ingush and the Orthodox Ossetians. In the Volga basin, the Muslim Tatars have fought the Russians in the past and in the early 1990′ reached an uneasy compromise with Russia for limited sovereignty. 255

अमेरिकी छाया युद्ध
इस्लाम और बाकी सभी के बीच टकराव को वास्तविकता में बदलने के लिए अमेरिका अपने इशारों पर चलने वाले दक्षिण अरब का ही इस्तेमाल करता रहा। भारत में इस्लामी कटटरता को बढ़ावा देने के लिए सऊदी अरब की ओर से जो प्रयत्न किए जाते रहे उनके पीछे अमेरिका का हाथ था । गुजरात में सांप्रदायिक दंगो के बाद अमरीकी दूतावास के कुछ अधिकारी पश्चिम बंगाल के मदरसों से संपर्क करने पहुंचे थे। आज की स्थिति में भारत के हिंदुओं और मुसलमानों यह पता होना चाहिए कि दोनों ब्रिटेन के उस जाल को नहीं समझ सके जिसमें वह उत्तर भारत को दक्षिण भारत से अलग करके, हिंदुओं को मुसलमानों से अलग करके, ऊंची जातियों को पिछली जातियों से अलग करके, एक ही जाति की उपजातियॉं तैयार करके, आटविक जनों को आधुनिक जनों से अलग करके, जितनी भी कल्पनीय दरारें संभव थी,पैदा करके उनमें टकराव की नीति अपनाई । उनको अलग करके उनमें जहर बो कर झगड़े पैदा करते रहे कि चैन से हमारे ऊपर शासन करते रहें और वे सांप्रदायिक भावनाओं को उस सीमा पर पहुंचाने में सफल हुए कि उनके जाने के साथ देश के टुकड़े हो जाएँ। यदि इतनी बड़ी कीमत चुका कर भी हमारा दिमाग ठिकाने नहीं आया तो मानना होगा, हमने भारी मोल चुकाया है पर मोल के बदले कुछ पाया नहीं। हमने इतिहास से कोई शिक्षा ग्रहण नहीं की। समाज को होश में आने के लिए कितनी ठोकरें खानी पड़ेगी यह हमें ही सोचना होगा। यदि जैसा कि हंटिंगटन ने कहा, व्यापक स्तर पर यह टकराव पश्चिम और शेष दुनिया का, वेस्ट और रेस्ट का है और यह सम्येताओं का टकराव नहीं है, अपितु लुटेरों और उनसे घबराए और बौखलाए हुए समुदायों का टकराव है, तो शेष दुनिया को अपने बचाव के लिए एक जुटता कायम करनी होगी। समस्याओं को सुलझाना होगा अन्यथा हमारी बर्बादी तक अमेरिका का खेल चलता रहेगा।

टकराव नहीं आत्म रक्षा की चुनौती
”हम एक बहुत बड़ी ताकत के सामने हैं, जो दुनिया में विगत महायुद्ध के बाद सभी हिंसक गतिविधियों में परोक्ष या प्रत्य क्ष रूप में शामिल रहा है, जिसके पास दुनिया के सबसे संहारकारी हथियार हैं, दुनिया भर का भाड़े पर जुटाया हुआ आला दिमाग है, जिसकी दुष्प्रेचार-शक्ति का कोई जवाब नहीं, जिसके सूचना संग्रह के औजार और कारोबार इतने पैने हैं कि दुनिया के एक एक व्यतक्ति के दिल, दिमाग और इरादे को भॉंप सके और जरूरत पड़ने पर किसी का कच्चा चिट्ठा सामने रख सके, जिसमें हद दरजे की मक्कारी है और जो किसी से केवल कार्यसाधक रिश्ते ही रख्ता है, जिसके संजाल मानवाधिकार और गैर सरकारी संगठनों के रूप में पूरे संसार में फैले हैं, जो अकेला देश है जो राष्ट्र मंडल को अपनी जूती समझता है और उसकी परवाह किए बिना किसी सीमा तक जा कर कुछ भी कर सकता है। उससे टकराने के लिए नहीं, उसके चंगुल से अपने बचाव के लिए शेष विश्वव को अपनी एकता कायम करनी होगी और अपने भीतर बैठे, विदेशी पैसे पर पलने वाले संगठनों पश्चिम की ओर दौड़ लगाने वाले अवसरवादियों से भी सावधान रहना होगा। ईसाइयत एक मत के रूप में हमारे देश के लिए, जहॉं मतों और संप्रदायों की संख्या गिनने चलें तो आधे छूट जाँय, खतरे की चीज नहीं हैं, परन्तु उसके पीछे काम करने वाला पंजा, उसकी योजनाऍं केवल भारतीयों के लिए ही नहीं, शेष विश्व के लिए चिन्ता का विषय हैं और इनको नियन्त्रित किया जाना अपरिहार्य है। इसके लिए आपसी दूरियॉं कम करना जरूरी है।
१७ जनवरी २०१६

Post – 2016-01-15

अस्पृश्यता – 17

”तुम जो ईसाइयत के खतरे की बात कर रहे थे वह पहले समझ में नहीं आ रही थी, परन्तु कल तुमने किसी वेंकट का पोस्ट शेयर किया था, उसे पढ़कर तो मैं हैरान रह गया।”

”कहना चाहिए था, पढ़ कर पहली बार ऑंख खुली। हैरानी की क्या बात थी उसमें?”

”हैरानी इस बात की कि तुम हमारी भाषा बोल रहे थे. लिखा कि विश्वास नहीं कर पाता, क्यों? यह तो तुम्हारे मन की बात हुई, तुमने गलती से हम लोगों के मन की बात लिख दी कि ऐसी सूचनाओं और रपटों पर विश्वास करना मूर्खता है।”

”मूर्खता तुम कह सकते हो, क्योंकि ऐसी मूर्खताऍं लगातार करते आए हो। यदि मै इसे पढ़ने के बाद भी, एक राष्ट्रीय पत्र में छपने के बाद भी, इसकी सत्यता पर विश्वास नहीं करता चाहता था तो इसलिए कि यह ईसाइयत के प्रचार के उस तरीके के विपरीत है जिसे उसने उत्पीड़न का तरीका छोड़ने के बाद अपनाया और जिस पर ही लगातार काम कर रहा है, अब जिसमें पिछड़े और उपेक्षित जनों को आगे बढ़ने का अवसर देने के प्रलोभन से धर्मान्तरित किया जाता रहा है। यदि कोई घटना सामान्य नियम के विरुद्ध हो तो उस विचलन का कोई बहुत सशक्त कारण होना चाहिए। गरीब माता पिता से बच्चों को खरीद कर, अनाथ बच्चों को अपना कर, माता द्वारा परित्यक्त नवजात शिशु को अपना कर, उनका पालन करना और ईसाई बनाना और इस तरह संख्‍या वृद्धि करना समझ में आता है, परन्तु ईसाई बन जाने के बाद उन्हें उत्पीडि़त करने, मलिन स्थितियों में रखने की योजना समझ में नहीं आती। फिर इस लेख को पोस्ट करने वाले व्यक्ति ने जिस आक्रोश भरी भाषा में इसकी भूमिका लिखी है, वह सन्तुलित मन की अभिव्यक्ति नहीं लगती। इसे जिस व्यक्ति ने शेयर कर रखा था उसकी योजनाओं में एक यह भी है कि हिन्दुओं के मन में सांप्रदायिक विक्षोभ पैदा करो। वह विदेशी है और विदेशी हिन्दुत्व कातर हों तो मन में सन्देह पैदा होता है कि वे किसी योजना के अनुसार विघटनकारी का काम कर रहे हैं या सचमुच हिन्दुत्व के प्रति उनकी सहानुभूति सामान्य हिन्दुओं की अपेक्षा अधिक हो गई है। फिर मदर टेरेसा के प्रति जिस अभद्र भाषा का प्रयोग किया गया है वह अशोभन है और उन पर जो लांछन लगाया गया है वह अतर्क्य है। यदि किसी का लक्ष्य अपने धर्मदायादों की संख्या बढ़ाना है तो वह संक्रमित सीरिंज के प्रयोग से उनकी जान खतरे में क्यों डालेगा?”

”तब फिर गोली मारो ऐसी रपटों को। इस पर इतना सिर खपाने की क्या जरूरत । शेयर कर के दूसरों को भी उलझन में डाल दिया।”

”तुम जिन चीजों को दरकिनार कर देते हो, मैं नहीं करता. इतने सारे असंगत तर्कों के बाद भी मैं इसे गढ़ी हुई कहानी नहीं मानता.

“मैं मानता हूँ कि अपने साम्राज्य विस्तार कि लिए मिशनरी गर्हित से गर्हित तरीका अपना सकते हैं. मैं सोचता हूँ कि दलित भाईचारा का जो नया मिशनरी अभियान चलाया जा रहा है उसमे योजनाबद्ध रूप में गर्हित स्थितियों में रहने वाले और ईसाई मत वाली एक जमात तैयार करके ईसाईयों कि लिए आरक्षण की मांग करते हुए सरकारी नौकरियों में प्रवेश का रास्ता निकालने की योजना इसके पीछे हो सकती है और यदि ऐसा है तो यह मेरी ही नहीं सबकी चिंता का विषय होना चाहिए. परन्तु मैं न तो इतनी जल्दबाजी में किसी नतीजे पर पहुँचना चाहूंगा न इस तरह की अभद्र भाषा का प्रयोग करने की हिमायत करूंगा. इस पोस्ट में ईसाईयों की ताक़त को भी नज़रअंदाज़ किया गया है. फूँक से पहाड़ को उड़ाने की नादानी.”

”ईसाईयों की संख्या ही कितनी है इस देश में, यार? तिल का पहाड़ तो तुम बना रहे हो.”

“ईसाइयत की ताकत उससे कई गुना अधिक है जितनी ब्रिटिश साम्राज्य की थी। इस्लामी शासन रहा हो या ब्रितानी शासन ये हमें भौतिक दृष्टि से बाध्य कर पाए थे, चेतना और आत्मा पर इनका अधिकार नहीं था। कारण यह था कि ब्रितानी शासकों ने कम्पनी के दौर में यह समझ लिया था कि धार्मिक असंतोष आर्थिक और प्रशासनिक समस्याएं पैदा कर सकता है. फिर भारतीयों से सीधा संपर्क रखने के कारण उनमें ऐसे लोगों की संख्या खासी थी जो मानते थे की धार्मिक मामलों में हिदुत्व ईसाइयत से अधिक परिष्कृत है. मिशनरियों के शोर मचाने पर कि कम्पनी कि अधिकारियों का हिन्दूकरण हो रहा है पहली बार जब उन्हें प्रचार की छूट मिली तो १८५७ में यह सबक फिर लेना पड़ा कि धार्मिक संवेदनाऍं इतनी प्रबल हैं कि इन्हें उकसाना अपने लिए खतरा मोल लेना है। अत: ईसाई विश्वास में पगे होने के बाद भी उन्होंने धार्मिक हस्तक्षेप से बचने का प्रयत्न किया और अंग्रेजी के प्रवेश के बाद भी शिक्षा को सेक्युलर बनाए रखा। उनके अपने बच्चों के लिए जिनका भविष्य उनके अपने देश में था, उन्होंने कतिपय स्कूल अपनी जलवायु के अनुकूल मसूरी, देहरादून, नैनीताल आदि में खोले। वे उन्हें ईसाई धर्म और विश्वास के अनुरूप ढालते भी थे जो सर्वथा वांछित था। भारतीय शिक्षाप्रणाली उससे प्रभावित न थी और इस बात का ध्यान उन्हों ने अन्त तक रखा कि भारतीय स्कूलों की शिक्षा धर्मनिरपेक्ष रहे।

”स्वतन्त्रता के बाद अंग्रेजों के बच्चे चले गए, स्कू्ल रह गए और इसे भरने के लिए नए शासक बनने को लालायित और अब तक प्रवेश से वंचित संभ्रान्त हिन्दू परिवारों के बच्चों के लिए इनका रास्ताा खुल गया! इनमें बाइबिल आदि का भी पाठ कराया जाता था इसलिए मुस्लिम संभ्रांत वर्ग सचेत रूप में इनसे बचता रहा. इनमें तन से और नाम से हिन्दू परन्तु मनोरचना से ईसाई मूल्यों के प्रति समर्पित और अपने भारतीय आधार को खोने का खतरा न उठाने वाले हिन्दुत्व विमुख और ईसाई-मनस्क प्रभु वर्ग की रचना हुई और फिर इसने शिक्षा पर अधिकार करते हुए सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को नि:सत्व करके अपने को सार्वजनिक स्कूल या पब्लिक स्कूल और सार्वजनिक शिक्षा को सरकारी या म्यूनिस्पै‍लिटी के स्कूल के रूप में तिरस्कृत करते हुए जिस शातिर तरीके से कान्वेंट शिक्षा प्रणाली से अलग शिक्षितों कि प्रति तिरस्कार की ट्रैनिंग दी जाती रही है उसने ईसाइयत न ग्रहण करते हुए भी हिंदुत्व विमुख शिक्षितों की जमात तैयार हुई और इनके द्वारा तैयार किये हुए बौद्धिक पर्यावरण को सामान्य शिक्षा प्रणाली से निकले तरुणों ने भी मानक बौद्धिक आचार और प्रतिक्रिया के रूप में स्वीकार कर लिया. रही सही कमी तुम्हारे वाममार्गियों ने पूरी कर दी, इसलिए कहने को हिन्दू-बहुल हो पर हिन्दू endangered समुदाय है. इसे आहत करना, इसका उपहास करना, इसको अपने घर से निर्वासित करना समाचार तक नहीं बन पाता। इसके मूल्यों को पिछड़ा बताना, इसके लिए चिन्तितों को सिरफिरा या पिछड़ी मानसिकता का बताना सबसे आसान है, जब किक एक स्वर से इसी कि खुलेपन और समावेशिता की, इसके ही ही विरुद्ध दुहाई दी जाती है।

”देखो, शिक्षा मनोरचना का सबसे कारगर माध्यम है, इसीलिए सभी धर्म शिक्षा को अपने अधिकार में करते हुए उस खास जहनियत का निर्माण करते रहे हैं जिसमे उनकी अपनी कमियां भी मूल्यव्यवस्था का अंग बन जाती रही हैं और लोग उनपर गर्व करना सीख जाते रहे हैं. ईसाइयत ने हमारी मनोरचना के स्रोत पर अधिकार कर लिया, उसके माध्यम से हमें जिन उच्चाटन और मारण मन्त्रों का अभ्यास कराया गया है उनके प्रभाव क्षेत्र में हिन्दू संगठन और संस्थाऍं और उनसे जुड़े व्यक्ति ही आते है। इस दायरे से बाहर इनका प्रभाव समाप्त हो जाता है, उल्टे कदाचारी के प्रति सहानुभूति बढ़ जाती है और इनकी ओर इंगित करने वाला व्यक्तिप संकीर्ण दुराग्रही और किंचित् दुष्ट प्रकृति का प्रतीत होता है। यदि उसने आवेश से काम लिया हो तब तो हर हाल में। इस भूमिका में तो मदर टेरेसा के लिए गर्हित विशेषण का प्रयोग भी किया गया है जिसका प्रयोग करने वाले को मैं असन्तुलित चित्त का तो मान ही लेता हूँ और सामान्यत: ऐसे लोगों के प्रामाणिक कथनों को भी उनकी भर्त्सना का हिस्सा या गाली की जुगाली मान कर किनारे कर देता हूँ। परन्तु आज एकाएक यह खयाल आया कि क्या इस व्यक्ति का आक्रोश जायज नहीं है। क्या हम अपनी उपेक्षा या वर्जना से ऐसे लोगों की व्यथा को दबाने और उसे बौखलाहट बन कर प्रकट होने को बाध्य नहीं करते और जब वह बौखलाहट बन जाती है तब हमारा सारा ध्यान उस बौखलाहट में फूटे उदगारों की ओर जाता है और शिकार मिल गया वाले उत्साह से उसे उदाहृत करते हुए हम उसको एक और जख्म देने का अपराध नहीं करते.

तुम जानते हो, एक लंबे समय तक ईसाइयों को यह विश्वास था कि गुलाम के आत्मा नहीं होती। उनको चैटलध्/ कैटल याने chattel कहा भी जाता था, चैटल अर्थात चल संपत्ति. फिर यह मानते रहे कि उसके आत्मा नहीं होती इसलिए उसे किसी सीमा तक उत्पीड़ित करो उसे दर्द नहीं होता.

स्थिति गुलामों जैसी तो नहीं है फिर भी क्या हम ऐसी मानसिकता का निर्माण नहीं कर चुके हैं जिसमें लगे हिन्दू भी मनुष्य होता है पर दूसरों से कम और यह चेतना सभी सुप‍ठित हिन्‍दुओं के मन में भी घर कर गई है?

Post – 2016-01-14

अस्पृश्यता – 16

तुम जानते हो धर्म किस अवस्था की उपज है।

जब एक बार बता दिया कि इस पर हमने विचार नहीं किया तो बार बार इसे क्यों उछालते रहते हो । मार्क्स ने इसे संतप्त समाज का अफीम कहा था! अर्थात् पीड़ाहारी ओषधि जो दुख को दबाने या भुलाने का काम करता है उसके निवारण का प्रयत्न नहीं। उसके बाद से हमने इसे नशा समझ कर इधर से मुँह फेर लिया। हम मुहावरे में भी ईश्वर अल्ला के प्रयोग से परहेज करते हैं।

मार्क्स कई बार बड़े पते की बातें करते हैं परन्तु न तो वह सर्वज्ञ थे न ही मैने उनका समस्त साहित्य पढ़ा है, इतिहास में उतर कर किसी भी व्याधि के कारण को समझने का गहन प्रयत्न उनमें था और उनके साथ ही खत्मम हो गया । उसके बाद इतिहास को समझने की जगह इतिहास को गढ़ने के मार्क्सवादी कारखाने चालू हो गए। इस कारखाने में तुम लोगों ने अफीम को हेरोइन बना दिया और इसका सेवन खुद भी करने लगे और दूसरों को भी कराने लगे।

उससे जवाब देते न बन पड़े।

मैंने कहा, देखो, सभ्यता के विकास में धर्म की महत्व पूर्ण भूमिका है। यह दूसरी बात है कि सम्यता का विकास न्यायपरक नहीं, उत्थानपरक रहा है। सभ्यता जितनी ही उन्नत होती जा‍ती है अन्या‍य की चक्की उतनी ही तेज होती जाती है और कई गतियों से घूमती है। हमारे यहॉं युगों की दो तरह की कल्पनाऍं हैं। एक काल के प्रसार को समझने के लिए। यह अनन्त और कल्पंनातीत और इसलिए अन्य सभ्यताओं के लोगों को अविश्वसनीय लगता रहा है। इसमें सृष्टि विकास को मानवकाल में समेट लिया गया या कहो मानवकाल को सृष्टि के आदि से ही जोड़ दिया गया इसलिए इसका यह पक्ष हास्यस्पाद प्रतीत होता है जब कि अनन्तता की अवधारणा दिक और काल की अनन्त ता या अनन्तवत सान्तता आधुनिक विज्ञान के निकट है। यह काल्पनिक या तर्कनासर्जित है। एक दूसरा है जो मानव विकास से जुड़ा है और यह अनुभव सिद्ध और इसलिए वैज्ञानिक है। इसके अनुसार मनुष्य का लोभ और इसके चलते सम्पत्ति पर व्‍यक्ति का अधिकार जिस अनुपात में बढ़ता जाता है मानवीयता का उसी अनुपात में ह्रास होता जाता है, नैतिकता का उसी अनुपात क्षरण होता जाता है और अन्याय उसी अनुपात में बढ़ता जाता है और समाज को चलाने के लिए संस्थाओं और युक्तियों और दमन के औजारों का आरंभ और परिष्कार होता जाता है। इस‍ दृष्टि से सतयुग आदिम समाज का और कलियुग लोभ और संपत्ति पर निजी अधिकार की पराकाष्ठा‍ का और इसलिए अवधि में भी सबसे छोटा युग है। इस धर्म के वृषभ के चतुष्पाद, त्रिपाद, द्विपाद और एकपाद होने की कल्पना बड़ी रोचक है। एक पॉंव पर खड़ा युग घोर अस्थिरता का युग भी है। अब तुम इसे इस नजर से देखो कि धर्म का जिस अनुपात में ह्रास होता जाता है, धर्म के नाम पर तन्त्र या उसका कर्मकांड उतना ही प्रबल और जटिल होता जाता है। जिनको न्याय दिलाने का यह वादा करता है, उन्हीं को इसकी मार सबसे अधिक झेलनी पड़ती है।

‘खैर, इस मुकाम पर यदि मुझसे कोई युगों के आरंभ की तिथि तय करने को कहे तो दूसरे युगों का आरंभ तो न बता पाउूँगा परन्तु कलियुग का आरंभ मैं औद्योगिक क्रान्ति और पूँजीवादी विकास से अवश्य जोड़ना चाहूँगा और इसी अनुपात में दूसरे युगों की कालसीमा घटाना चाहूँगा और अगर कोई कल्कि के अवतार की बात करे जिसके पुराने लोगों ने कभी बाद में पैदा होने की तुक भिड़ाई थी तो मैं पूँजीवाद को कल्कि अवतार मानने में गुरेज न करूँगा।‘

तुम चंडू के आदी तो नहीं ।

मेरी बात बुरी लगी।

बुरी नहीं, भड़ास लगी, कहीं टिक कर रहते नहीं, कहॉं से कहॉं भटक जाते हो।

मैं तुम्हे यह समझाने की कोशिश कर रहा था कि धर्म अन्यांय को सही ठहराने का एक बहुत प्रभावशाली औजार है। मार्क्स ने इससे क्या समझा यह मुझे नहीं पता, परन्तु यदि तुम सोचो कि धर्म को खत्म कर दिया जाय, उसकी पहचान मिटा दी जाय तभी सामाजिक और आर्थिक न्याय स्था‍पित किया जा सकता है, तो यह नासमझी है। इससे भी अधिक नादानी यह समझ है कि यदि धर्म की उपेक्षा या उपहास किया जाय या उसकी ओर से मुँह फेर लिया जाय तो वह अपने आप मर जाएगा, ये तीनों बदहवासी के तीन रूप हैं और अव्यावहारिक भी।

सही तरीका यह है कि यदि समता और समरसता स्थापित हो जाय, लोभ और निजी संग्रह को अल्पतम पर ला दिया जाय, धर्म को नैतिक स्वाभि‍मान से प्रतिस्थापित कर दिया जाय तो अन्याय और वर्चस्व के तन्त्र के रूप धर्म का अन्त हो जाएगा और इसका स्थान वह धर्म ले लेगा जिसे सामाजिक समता, न्या‍य और स्वतन्त्रता के रूप में हमारे पुराणों में पहचाना गया है और जिसे मार्क्स ने आदिम समाजवाद के रूप में पहचाना भी।

मैं जो कह रहा हूँ वह यह कि तुम धर्म को नहीं, धर्मतन्त्र को खत्मं करने का सपना देख सकते हो, धर्म की स्थापना का सपना तो स्वयं तुम्हारा है। तुम समझ रहे हो मैं क्या कह रहा हूँ।

जितना मेरी समझ में आ रहा है तुम पिनक में बोल रहे हो। तुम न्यााय, समानता, स्वचतन्त्रता को धर्म बता रहे हो, जब कि…

मुझे गुस्सा तो आया पर पी गया, नरमी से बोला, ‘भाई जरा धर्म को वृषभ के रूपक और आदिम अवस्था को चतुष्पाद धर्म या धर्म की पूर्णता की अवधारणा पर तो गौर किया होता। तुम लोग इतने आत्महद्रोही क्यों हो कि बचाने के औजार तुम्हारे पास हैं, तुम उन्हें जानते नहीं, काम लाते नहीं, हड़बड़ी में पकड़ना हो तो धार की तरफ से पकड़ते हो और मूठ की ओर से वार करते हो, विरोधी का कुछ नहीं होता, खून तुम्हारा जाया जाता है और तुम उसे दिखाते फिरते हो कि मैंने समाज को बदलने के लिए इतना खून बहाया।

अब इसे फिर इस सिरे से समझो। धर्म का उदय राज्य की स्थापना के साथ हुआ। उससे पहले कबीलों के अपने अपने विश्वास थे, मान्यताएँ थीं जो पितरो की आत्माओं से बढ़ते हुए अपने टोटेमों आदि तक पहुँची जिनकी वे अपने को सन्तति मानते थे और उनके विषेश गुणों और शक्तियों पर गर्व करते थे और विश्वास करते थे कि इससे उनकी समस्याओं का हल निकल आएगा। देखो मेरा इस विषय में बहुत कामचलाउू अध्ययन ही है। अपने कुल के पितरो पर वे बाद में भी आए हो सकते हैं। इसे एक कल्पित व्याख्या समझ कर सुनो और बाद में कुछ गलत लगे तो सुधार लेना। खैर वर्जना या टैबू या हराम की अवधारणा का आरंभ भी उसी चरण से है जब वे उन जीवों-जन्तुओं के मांस को अभक्ष्य मानते थे, और कई बार किसी साम्य के कारण या एक ही कबीले में कई विश्वासों वाले समुदायों के मिलने के कारण, एक साथ कई जीवों का आहार निषिद्ध मान लिया जाता था और इस निषेध का पालन कठोरता से किया जाता था। यह वर्जना किसी साम्य पर भी निर्भर करती थी, जैसे आदमी के पाँच उँगलियाँ होती हैं इसलिए ऐसे जानवर जिनके पाँच उँगलियाँ हों उनका भक्षण नहीं किया जा सकता और फिर इसमें कुछ ढील देते हुए यह सोचना कि अमुक पाँच जीवों को उनके पाँच नख वाले होने के बाद भी भक्षण किया जा सकता है।

तुम धर्म के उदय की बात करने चले और मुड़ गए खान-पान की ओर और ऐसी बातें दुहराने लगे जिन्हें मैं पहले से जानता था!

मैं यह समझने की कोशिश कर रहा था कि धर्म के साथ खान-पान की वर्जनाएँ कैसे जुड़ गई और फिर कैसे उनमें कई बार ढील दी जाती रही या नई वर्जनाएँ जुड़ जाती रहीं। इन पहलुओं का हमारे नृतत्वविदों द्वारा अध्ययन किया जाना चाहिए था। हम विदेशी विद्वानों के भरोसे बैठे रहे। जो काम है वह मुख्यतः उनका किया हुआ ही और उन्होंने केवल धर्मप्रचार के उद्देश्य से जितना जरूरी था उससे अधिक का बखेड़ा मोल नहीं लिया और जिनका धर्मान्तरण करा लिया उनके इतिहास और संस्कृति का भी सफाया कर दिया या बचाया भी तो कुछ पुरानी कहानियों को जब कि मूल्यव्य‍वस्था का अलग से गहराई से अध्ययन किया जाना चाहिए था। कहो, उन्होंने अपने काम की चीज तो तलाश ली, हमने अपने काम की चीज तलाशने की जरूरत नहीं समझी, न उधर ध्यान जा रहा है, जब कि हमारे यहाँ सामाजिक समस्यायें राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं से इस तरह उलझी दिखाई देती है कि आगे का रास्ता की नहीं मिलता।

अब तुम तो बाहर निकलो।

यदि धर्म अन्याय को ढकने वाला औजार है तो विज्ञान भले इससे जुड़े अन्धविश्वासों को ढीला कर दे, अन्यााय करने वाले अपने हथियार को छोड़ नही सकते। आज कल इसका सबसे सफल उपयोग और सबसे क्रूर उपयोग अमरीकी दरिन्दगी की पहल से हो रहा है। जिसे तुम सांप्रदायिक समस्या समझते हो उसकी जड़ों को धर्म में नहीं, कुटिल राजनीति में तलाशने का प्रयत्न करो और उस कुटिलता का सामना करने के औजार तैयार करो।

Post – 2016-01-12

अस्पृश्यतता – 15

‘कल मैं अपनी बात पूरी नहीं कर पाया क्योंकि तुम कुछ थके से लग रहे थे।’

‘थका नहीं था, यह जो धर्म-वर्म का चक्कर है इसमें एक बार घुस जाओ तो निकलने का रास्ता ही नहीं मिलता है, इसलिए हम लोग इससे बचते हैं। तुम तो लगता है उसी दुनिया के लिए बने हो, वहॉं तुम्हें इतना सुकून मिलता है कि बाहर आना ही नहीं चाहते।’

‘तुम इससे बचते नहीं हो, बच सकते ही नहीं, तुम इसे दुम की ओर से पकड़ कर पीछे खींचना चाहते हो, वह वह पलट कर तुम्हें खा जाता है और तुम्हारा चेहरा मुस्लिम लीग के चेहरे में बदल जाता है, जिसे तुम लाल झंडे से छिपाना चाहते हो। जानते हो मैं क्यों सेक्युलरिज्म का झंडा और से‍मेटिज्म का डंडा उठा कर चलने वालों को भग्नचेत, यानी, शिज़ोफ्रेनिक मानता हूँ? इसलिए कि तुम हाहाकार मचाते हो हिन्दू मूल्यों को बचाने का, साथ देते हो उन मूल्यों को नष्ट करने वालों का। बात करते हो समावेशिता का, बहुलता का और साथ देते हो बहुलता और समावेशिता को नष्ट करने वालों का। बात करते हो अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की और वह स्वतन्त्रता तुमने कभी किसी को दी ही नहीं और आज भी स्वतंत्र विचारों को नहीं सुनते, सुनते प्रियं अनिष्टतकरं को हो। तुम्हें किसी ने हाशिए पर नहीं लगाया, स्मृतिभ्रंश और तज्जन्य बुद्धिनाश के शिकार हो गये – स्मृति भ्रंशात् बुद्धिनाश: बुद्धिनाशात प्रणश्यति । कई बार सोचना पड्ता है कि क्या गीता भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी को आगाह करने के लिए त्रिकालदर्शी प्रज्ञा से लिखी गयी थी, और दुख होता है यह सोच कर कि हमारे पितरों ने जो पाठ अपने वंशजो के लिए लिखा था उसको समझने की योग्यता तक तुम अर्जिन न कर सके।

’गजब का स्टैमिना है, बेवकूफी की बातें भी इतने आत्मविश्वास से करते हो कि अनाड़ी आदमी हो तो उसे ही सही मान ले । अरे भई, पढ़ने को बहुत कुछ है दुनिया में, चुनाव करना पड़ता है, कौन सा ज्ञान कब का है और उसे पढ़ कर हम इतिहास के किस मुकाम पर ठहरे रह जाऍंगे। हम नए ज्ञान विज्ञान और आधुनिक सूचनाओं से लैस होने का प्रयत्न करते हैं कि अपने समय के साथ चल सकें, तुम दो हजार, चार हजार पीछे की चीजे़ं पढ़ते हो और वहीं ठिठके रह जाते हो, आगे बढ़ने का नाम ही नहीं लेते। अतीत के अन्धविवर में कितने सुकून से रह लेते हो, यह सोच कर दया आती है। तुम जिसे अनमोल समझ कर गले लटकाए फिरते हो वह गले में बँधा पत्थर है। डूबने वालों के काम आता है। हम तुम्हें बचाने के लिए कहते हैं, ‘हटाओ इसे’, तुम सुनते हो ‘मिटाओ इसे’। हैल्युतशिनेशन के शिकार तो तुम हो।’

दाद दिए बिना न रहा गया, पर याद दिलाना पड़ा, कि जानना जीना नहीं है, निर्मूल हो कर हवा में उड़ते फिरोगे, और इस भ्रम में भी रहोगे कि खासी उूँचाई पर पहुँच गए हो, पर हवा के तनिक से मोड़ या ठहराव के साथ जमीन पर कूड़े की तरह बिखर जाआगे। मूलोच्छिन्न उधिया सकता है, तन कर खड़ा नहीं हो सकता।‘

‘जिस रास्ते पर तुम चल रहे हो, वह अमल में आ जाय तो जानते हो भारत का क्या हाल होगा। वह हिन्दू पाकिस्तान बन जाएगा। भारत का नाम नक्शे पर रहेगा, पर भारत पाकिस्तान की दर्पणछाया बन जाएगा, देखने में उल्टा, परन्तु सर्वांग सदृश। तुम नाम से हिन्दू हो हम आत्मा् से, इसलिए उन मूल्यों के लिए तुम खतरा बन रह हो और उन्हें तुमसे बचाने पर लगे हुए हैं। हम हिन्दुत्व का विरोध नहीं करते, हिन्दू समाज के सैफ्रनाइजेशन का, भगवाकरण का विरोध करते हैं। हम हिन्दुत्व की रक्षा करना चाहते हैं, तुम उसे मिटा रहे हो। समझे?’

‘यह बताओ, तुम्हारी जमात में कोई ऐसा आदमी मिल सकता है जो होश-हवास में हो? जो उन शब्दों का मतलब जानता हो जिनका वह धड़ल्लेे से प्रयोग करता है? सैफ्रन सैफ्रन चिल्लाशते रहते हो, फिर भगवा भगवा चिल्ला‍ने लगते हो, इनका अर्थ जानते हो? सैफ्रन का अर्थ जानते हो?’

‘जानूँगा क्यों नहीं। सैफ्रन, जाफरान, केसर ।

यह जानते हो कि सैफ्रन अरबी ज़ाफरान का बदला हुआ रूप है ?

‘यह वह नहीं जानता था, फिर मैंने पूछा, ‘ज़ाफरान अरब की जलवायु में नहीं उग सकता यह भी जानते होगे?’

वह तुरत मान गया। फिर मैंने समझाया‍ कि ‘उच्चारण, श्रवण और संचार में इतने टेढ़े मेढ़े रास्ते हैं जिन सबका पता आधुनिक भाषाविज्ञान को भी नहीं है, और यदि उस नियम का पता हो भी जिसमें केसर ज़ाफर बन सकता है तो मुझे अपनी सीमाओं के कारण, उसका ज्ञान नहीं, परन्तु यह पता है कि शब्द वस्तु के साथ जाता है और नयी स्थितियों के अनुसार ढल भी जाता है, और इसलिए यह कश्मीर के उत्पाद अथवा संस्क़ृत में इसके लिए प्रयुक्त, शब्द केसर का प्रसार है और अरब तक सीधे जुड़े भारतीय व्या्पारतन्त्र के प्रताप का इस शब्द के माध्यंम से एक नक्शा तक तैयार किया जा सकती है।

‘तुमसे इसके उत्तर की आशा भी नहीं थी, फिर भी जब तुम भगवाकरण कहते हो तो इसका पता होना चाहिए कि इसका अर्थ क्या है, जानते हो?

‘वह चक्कर खा गया। समझाना पड़ा, ‘भग/भर्ग का अर्थ है अग्नि/सूर्य/प्रकाश। इसका एक अर्थ भाग भी था, पर यह धर्मदृष्टि से सहभागियों का हिस्सा तय करने तक सीमित था। इसके इतिहास में जाना न चाहेंगे क्योंकि तब बात फिर अधूरी रह जाएगी, इसलिए विश्वास करो ये सभी अर्थ थे और इनका पल्लवन भी हुआ, और इससे भक्त और भजन तक पैदा हो गए, परन्तु यहॉं यह समझो कि भगवा का अर्थ था सूर्यवर्ण। इसके लिए जिस रंग को सबसे अनुरूप माना गया था, वह था केसर को उबाल कर उससे पैदा होने वाला रंग और इस‍ तरह केसरिया, शौर्य, गरिमा और गौरव का द्योतक बन गया। अब यह बताओ, गैरिक का अर्थ जानते हो क्या?’

वह नहीं जानता था। बताना पड़ा, ‘गैरिक का अर्थ है गेरू का वर्ण। जानते हो हरित वर्ण या हल्दी के रंग का इससे क्या संबंध है?’

वह यह भी नहीं जानता था, बताना पड़ा कि दसियों हजार साल पहले से एक बहुत बड़े भूभाग में कृमि -निरोधक के रूप में हल्दी और गेरू के रंग का प्रयोग होता आया है। इसलिए हरित वर्ण या हल्दी का रंग और केसर वर्ण दोनों में निकटता है इसलिए केसरिया वास्तव में हल्दिया या हल्दी के रंग में रंगा हुआ, हो कर रह जाता था।

‘अब समझो, एक का संबन्ध शौर्य से है और दूसरे का रोगाणु निवारण से। दोनों के अर्थभ्रम और वर्णभ्रम से गेरू के रंग का या गैरिक ( इनके साथ रामरज मिट्टी के रंग को दीवार आदि की रँगाई आदि के सन्दर्भ में याद किया जा सकता है।) गेरू कृमिनाशक के रूप में प्रयोग में आता था। वस्‍त्र को क़ृमि निवारक बनाने के लिए गेरू या हल्दी में रंगा जाता था । गेरू में रंगा गैरिक या हल्दी में रंगा हरित इसके कारण एक दूसरे के पर्याय बन गए। रोगनिवारण का विस्तार अमरता में हुआ और इनका अर्थ सूर्यवर्ण और अमरता का एक रूप हुआ सूर्यलोक या स्वर्गमें प्रवेश का अवसर। यह के‍सरिेया बाने में प्रतिफलित हुआ। जब तुम सैफ्रनाइजेशन का उपहास करते हो तो क्या जानते हो तुम उन असंख्य बलिदानों का उपहास कर रहे हो। तुम जैसा सोचते हो उससे तो तुम भगत सिंह को भी मूर्ख कह सकते हो, कि अपनी जान बचा सकता था फिर भी जान बूझ कर म़त्य का वरण किया, और मौका मिलते ही भगत सिंह जिन्दााबाद के नारे भी लगा सकते हो। अब नए सिरे से सोचो, पाओगे सैफ्रन का अर्थ है गौरव । शौर्य का वर्ण, त्याग का वर्ण, महिमा का वर्ण, सूर्यवर्ण, शूरो का वर्ण, अमरता का वर्ण, सुवर्ण या सुनहला रंग और जब तुम इसका उपहास करते हो तो इन सबका उपहास करते हो।’

‘जानते हो एक समय था जब यह रंग भारत से ले कर यूरोप तक गौरव, महिमा, त्याग, वलिदान और शौर्य का रंग माना जाता था। तुम जानते हो अवेस्ता का रचनाकार कौन है?’

’जरथुस्त्रं कहते हें शायद ।‘

‘जरथुस्त्र नहीं,जोरास्‍टर अर्थात् जरदवस्त्र, या सुनहले या गैरिक या केसर वर्ण का वस्त्र पहनने वाला। तुमको पता है, रोम के लोग राजा के वस्त्र या लबादे को क्या, कहते थे? स्वर्णिम वस्त्र या केसरिया वस्त्र, purple robe । यार तुम होश में आओ, होश में सोचना समझना और जो कुछ बकते हो उसके परिणामों को समझना शुरू कर दो तो तुमसे अच्छा कौन है? दिल जिगर लो जान लो। हम भी चाहते हैं तुम्‍हें तुम्हारी तूफाने बत्तमीजी और दौरे बदहवासी से तुम्हे बाहर लाना।

Post – 2016-01-10

अस्पृश्यता- 14

”एक घटिया सा शेर है, बहुत लोकप्रिय है, ‘असलियत छिप नहीं सकती बनावट के उसूलों से’ तुमने सुना होगा। शेर घटिया है इसीलिए तुम पर बहुत फिट बैठता है, जब तुमने घर वापसी की हिमायत की तो तुम्हारे मार्क्सवाद की असलियत उजागर हो गई।”

मैं हॅसने लगा, तो बोला क्या हुआ, बात समझ में नहीं आई।

”जब तुम यह समझाना चाहोगे कि ईसाईकरण को तुम मार्क्सवाद मानने लगे हो तो यह समझने में क्यों न आएगा कि मार्क्सवाद लीग की लीक बदल कर ईसाईयत की डगर पर आ गया है क्योंकि भारतीय मार्क्सवादियों को उसमें अधिक मालो-जर दिखाई देने लगा है। मार्क्सवाद का तो लक्ष्य ही है मार्क्सवादियों की किस्मत बदलना। मैं कहता हूं विस्तारवाद का खेल बन्द होना चाहिए चाहे वह क्षेत्रीय विस्तारवाद हो या धार्मिक विस्तारवाद । जब तक यह चलता रहेगा दुनिया में शान्ति कायम नहीं हो सकती। तुम कहते हो विस्ताारवादियों से तो हमने गुप्त समझौता कर लिया है, हिन्दुत्व को मिटाने की लड़ाई में हम तुम्हारे साथ हैं और इस एक नारे के कारण अमेरिका में तुम्‍हारी पूँछ और मूछ दोनो तन गई है। तुम्‍हारे समझौते की तरह ये दोनों भी अदृश्य हैं पर अदृश्य होने के कारण ही तनाव कुछ अधिक है। जब वे अमेरिका से लौट कर देसी लोगों को अपना परिचय देते हुए कहते हैं, ‘इंटरनेशनली रिकाग्नाइज्ड इंटेलेक्चुल’ तो सुनने वाले इसके तेवर से ही धराशायी हो जाते है। क्यों, मैंने कुछ गलत कहा।”

उसको उम्मीद ही न थी कि ताबड़-तोड़ इतनी बेभाव की पडे़गी। कैमरा नहीं था, नहीं तो उसकी फोटो जरूर उतारता। उसका जो भी हो मुझे तो मजा आ ही रहा था, कहा” )देखो, मेरी सीमित समझ से मार्क्सवाद साम्राज्यवाद विरोधी है और इस समझ से भौगोलिक अग्रधर्षण हो या मजहबी अग्रधर्षण हो एक मार्क्‍सवादी को इसका विरोध करना चाहिए। धर्म मेरे लिए तो क्या, उन अमरीकियों के लिए भी हाशिए की चीज है। पता लगाओ कितने अमरीकी रोज तो दूर रविवार को भी चर्च जाते हैं तो तुम्हें हिन्दू समाज में धार्मिकता की कमी को ले कर खिन्न‍ता न होगी। जानते हो, इसका कारण क्या है?”

इसका कारण मार्क्स ने बताया नहीं फिर वह कैसे जानता। हाथ खड़े कर दिए।

मैंने कहा, ”कारण तो तुम जानते हो, बस तार नहीं जोड़ पा रहे हो। तार्किकता जितनी ही अधिक होगी, भावुकता उसी अनुपात में कम होगी। याद करोगे तो दिखाई देगा, विश्वास के बल पर कायम रहने वाले धोखाधड़ी को भी अपना हथियार बनाते हैं और ईसाइयत के इतिहास को देखो तो उसने पाखंड और धोखाधड़ी के लिए धर्मप्रचारकों से आगजनी तक करवाने से गुरेज नहीं किया। याद है तुम्हें?”

याददाश्त उसकी खराब नहीं है, याद था। सही वक्त पर सही चीज याद नहीं आती यह एक समस्या जरूर है।

इसलिए ईसाइयत की ज्ञान और विज्ञान से दो मल्‍ल युद्ध हुए। पहले में उसने इतना अन्ध विश्वास फैलाया, सच कहो तो अपनी वाहिनी समाज के उस तबके को बनाया जो शाेषित, वंचित थे ही अज्ञान के अन्धकार में पल रहे थे और अन्धविश्वासों के सहारे जीने को मजबूर थे। उनको उत्तेजित करके, अपराध की खुली छूट दे कर ही उन्होंने पुरानी ज्ञानसंपदा को नष्ट किया और उस बहुलतावादी सभ्यता को निर्मूल कर दिया, उसे पैगन नाम देकर और इस शब्‍द से और भी गर्हित कल्पनाऍं और संभावनाएं जोड़ कर उस सभ्यता को गाली देते रहे और तुम ही नहीं, मार्क्स तक उनके इन कुकृत्यो पर ताली बजाते रहे।‘’

‘’यार आवेश में तुम होश खो बैठते हो, कब का वह जमाना और कब हुए मार्क्स? वह ताली कैसे बजा सकते थ?’

’’कभी मार्क्सं और ऐंगेल्स के ईसाइयत विषयक विचार पढ़ो तो पाओगे कि वे इस बात पर सहमत हैं आरंभिक ईसाइयत की भूमिका प्रगतिशील थी, या कुछ ऐसा ही। इस समय शब्द तो दुहरा नहीं सकता, आशय ही दुहरा सकता हूं और वहॉं कोई चूक नहीं है। संभवत: इसी से प्रेरित हो कर हावर्ड फास्ट ने भी पहले स्पार्टकस लिखा, फिर बहुत सारी रचनाऍं कीं परन्तु अन्त में स्वप्नभंग हो गया और द नेकेड गॉड लिखने को बाध्य हुए।‘’

‘’यह एक विकट समस्या है, तुम जानते हो। सभ्यता का विकास मानवीयता के सिद्धान्तों का अतिक्रमण करते हुए हुआ है। नेकेड गाड फास्ट ने इतिहास की समझ में आए बदलाव के कारण नहीं, बल्कि ख्रुश्चेोव के पासापलट के बाद पैदा हुई दुविधा के बाद लिखा था। हॉं, वह भी यह मानते थे कि सताए हुए लोगों को सताने वालों को, उनकी संस्क़ृति को, उनके उस ज्ञान को जिसने उन्हें ताकतवर बनाया था और शेष समाज को पशुसुलभ, या दासता की स्थितियों में रखा था, उन्हें इस बात का हक है कि वे उसका समग्र नष्ट कर दें। इस स्वाभाविक प्रतिक्रिया को मैं समझता हूँ। तुम भी समझो, मार्क्स ने ईसाइयत का समर्थन नहीं किया था, उसके एक चरण की भूमिका की तारीफ की थी। यदि उस ज्ञान- विज्ञान के विनाश पर कोई प्रश्‍न करता तो वह भी इसको निन्दनीय मानते।‘’

’’मैं तुम्हें सिर्फ यह याद दिलाना चाहता था कि पहले तुम मार्क्स का आलोचनात्मक पाठ करो, उसके बाद समझ पाओगे कि मार्क्‍सवाद क्या है। काम समझने से नहीं चलेगा। उस पर चलना भी होगा, दैनन्दिन व्यवहार में लाना होगा। मुझे आज तक ऐसा मार्क्सवादी मिला नहीं। ले दे कर एक मैं बचा हूँ और मुझे तुम मार्क्सवादी मानते ही नहीं। तुम्हारी इस जिद की वजह से ही तो हमारी दोस्ती कायम है।

”परन्तु दूसरा मल्लयुद्ध अरबों के संपर्क में आने के बाद यूरोप में हुअा जिसमें तर्क और प्रमाण के आधार पर बाइबिल की मान्यताओं को नकारने का प्रयत्न किया गया। मगर यह तो सोचो, यह बाइबिल भी दरिंदगी के उसी दौर में लिखी गई। गनीमत यह है कि वहाँ इस बात का हवाला भी है कि किस सन्त ने अपनी ओर से क्या जोड़ा और लोग उसे भी ईसा का कथन मान कर सिर ऑंखों चढ़ाते रहे।”

”उत्ते जना में तुम अपना संयम खो बैठते हो।”

मैं जानता हूँ और जानते हो कई बार मुझे इसमें मजा भी आता है, गो यह भी जानता हूँ कि उत्तेाजना के क्षणों के कहे या लिखे हुए शब्द या किए हुए काम अपने शत्रु को हथियार सौंपने और आ बैल मुझे मार का निमन्त्र ण देने जैसा है। उत्ते जना और पागलपन में एक छोटा सा फर्क है। उत्तेजना में आप कुछ क्षणों के लिए अपना संतुलन खो देते हैं, पागलपन में यह स्था यी भाव बन जाता है। परन्तु जो बात बात पर उत्तेंजित होते रहते हैं, जिनमें कुछ सुनने और समझने का धीरज तक नहीं वे देश और समाज को क्या सँभालेंगे, अपने आप को तो सँभालना सीखें। करना क्या है, क्या कर सकते हैं, क्या आत्ममघाती है इसका निर्णय बाद में होता रहेगा।

Post – 2016-01-08

lअस्प़ृ श्याता – 13

‘अंग्रेजी का एक मुहावरा है, चाइना स्टोर में सॉंड़। एक बार घुसकर अपनी पर आ गया तो सब कुछ टूट कर बिखर जाएगा। तुम्हारे साथ बात करते समय हर बार ऐसा ही होता है, और इसलिए तुमसे बात करते हुए डर भी लगता लगता है और बात करने को जी भी चाहता है और फिर अपने जिन्दगी भर के किए कराए पर पानी न फिर जाए इसकी चिन्ता भी करता हूँ।‘ उसने पहली बार इतनी साफगोई से अपनी बात रखी।

‘इसे इस रूप में क्यों नहीं देखते कि तुम्हें अपने नियंत्रण में रखने की योजना बनाने वालों ने तुम्हारी ज्ञान संपदा को व्यवस्थित करने के नाम पर उसी तरह तोड़ फोड़ कर तुम्हें पकड़ा दिया कि लो इसे सँभालो और मैं पहली बार उन टुकड़ों को जोड़ कर उन्हें उनकी पुरानी पहचान दिलाने का प्रयत्न कर रहा हूँ।‘

‘परन्तु तुमने जो चित्र खींचा वह बहुत निराशाजनक था। पहंले तुम्हारी व्याख्याओं से अपनी महिमा का बोध तो जागता था। कल तुमने ईसाइयत के जिस अदृश्य जाल का खाका खींचा और हिन्दुओं की जिस अधोगति का संकेत दिया वह तो डराने वाला था।‘

‘आज से ठीक तिरपन साल पहले की बात है, मैं शोध के क्रम में इतिहासलेखन की सैद्धान्तिकी पर कुछ पढ़-पढ़ा रहा था कि मेरे गाइड ने सुझा दिया कि टॉयनबी को भी पढ़ जाना। सुझाव विचित्र था, क्योंकि यह एक तरह से विश्वकोश पढ्ने जैसा था, पर, सोचा कोशिश करने में क्या जाता है। उसमें हिन्दू धर्म के बारे में जब पढा कि यह मेच्योर है, तो दिल खुश हो गया और जब इसका अर्थ, उसकी ही व्याख्या से, पता चला तो उतना ही उदास होना ही था। इसका अर्थ था, अब इसमें विकास की संभावनाऍं समाप्त हो चुकी हैं। जैसे पक्की लकड़ी होती है, कुछ वैसा ही, जिसमें वृक्ष का दूध प्रवाहित नहीं होता, बढ़ने, फैलने की संभावनाऍं नहीं बच रहतीं। टॉयनबी के लेखन में ईसाई पूर्वग्रह की शिकायत अनेक आलोचकों ने की है और लम्बे‍ अरसे से हिन्दू समाज ईसाइयत के निशाने पर रहा है, इसलिए उनके मूल्यांकन को यथातथ्य नहीं लिया जा सकता।

‘तुम ज्ञान बघार रहे हो या बात कर रहे हो।’

उसी विश्वकोशीय ग्रन्थ में, सभ्यताओं की स्पंर्धा की चर्चा के प्रसंग में टॉयनबी का मत था कि जब दो सभ्‍यताएं प्रतिस्पर्धा में आती हैं तो दबंग सम्य‍ता दूसरी को दबोचने का और दबाव में आई सभ्यता उसके प्रभाव से बचने, अपने आप में सिकुड़ने और उसे नकारने का प्रयत्न करती है। फिर थक हार कर दबंग सभ्यता के जिस घटक को सबसे निरापद मानती है, उसे अपना लेती है। यह घटक अपनी जगह बना लेने के बाद उसके दूसरे तत्वों को तोड़ता, कमजोर करता, हटाता चलता है और फिर दबंग सभ्‍यता उस पर पूरी तरह हावी हो जाती है। मिसाल के लिए यदि आप औद्योगिक उत्पादन अपनाते हैं, तो बड़ी मशीनों से साथ धोती, चादर, लहँगा खतरे का कारण बनेगा। आप ने तय किया कि चलो धोती की जगह पैंट पहनते हैं। अब इस पैंट को अपनाने के बाद पालथी मार कर गद्दी पर नहीं बैठा जा सकता। जरूरत मेज और कुर्सी की होगी। पीढ़े पर बैठ कर खाना भी असुविधा पैदा करेगा, फिर आप खाने की मेज का सहारा लेंगे और इस तरह दबंग सभ्यता का जो पहला, पहली नजर में निरीह सा घटक था, दूसरी सभ्यता में प्रवेश करने के बाद एक चेन रिएेक्शकन पैदा करेगा और अन्तंत: दबंग सभ्‍यता उसे परास्त करके उस पर हावी हो जाएगी क्योंकि सभ्‍यताएं आवयविक होती हैं।’

‘इसमें गलत क्‍या है।’

‘सभ्य‍ताएं फनीचर नहीं हुआ करती, वेशविन्यास नहीं हुआ करतीं कि वस्त्र बदलने के साथ समाज बदल जाय और उसकी आत्मा या सरल शब्दों में कहें तो चेतना का रूप बदल जाय।

यह सभ्यता की सतही समझ है। टायनबी ने हिन्दू् सभ्यता को तो परिपक्व ही कहा था यहूदी सम्यता को मृत ही नहीं, अश्मीभूत ठहरा दिया था, फिर भी यहूदियों ने दिखा दिया था कि सभ्यताएं बिखर जाती हैं तब भी मरती नहीं हैं, और विभिन्न विजातीय परिवेशों में भी अपने चरित्र को बचाए रख लेती है। उन्‍‍हीं दिनों, इससे ठीक विपरीत, एक दृष्टि के.एम. पणिक्कर की थी जो पेरू में स्वतंत्र भारत के राजदूत रहे थे और जिनका विचार था कि जब दो सभ्यताएं एक दूसरे से टकराती हैं तो कुछ समय के लिए लगता है दबंग सभ्यता दबी हुई सभ्य‍ता पर छा गई और उसे अपने रंग में रंग लिया। यह कुछ उसी तरह होता है जैसे एक गिलास में स्याही की कुछ बूंदें डाले और घोल दें। पानी का रंग स्‍याही के रंग के अनुरूप हो जाएगा, परन्तु यदि कुछ समय बाद देखें तो पाएंगे स्याही का रंग यदि गायब नहीं है तो भी नगण्य है, पानी साफ हो गया है।

‘परन्तु समीकरणों, उपमाओं या माडेलों के माध्यम से हम न तो सचाई के विशिष्ट चरित्र को समझ सकते हैं न ही अपनी समस्याओं का समाधान पा सकते हैं। इसलिए ईसाइयत के हस्तसक्षेप को, इसके चरित्र और कार्ययोजना में आए परिवर्तन को, और इसके नवविस्ता‍र के संभावित परिणामों को समझना जरूरी है।

‘ईसाइयत के साथ समस्या एक भिन्न मत की नहीं है, मत तो यहॉ इतने सारे हैं, एक और सही। इसकी सबसे चौंकाने वाली बात है विदेशी हितों से इसका जुड़ाव, उनके द्वारा इसे दिया जाने वाला समर्थन, उनके द्वारा इसका संचालन, इसकी राष्ट्रनिष्‍ठा का अमरीकीकरण। इसकी सुविधाओं की अल्प-जन-लभ्‍यता, और इसके द्वारा अवान्तर विकल्‍पों और संस्थाओं का भदेसीकरण और इस स्पर्धा में अपने से भिन्न बनने और अवसर को उछल कर हथियाने की आकुतलता का मध्यवित्तीेय परिवारों में प्रसार तथा इस अपेक्षा या इन अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए कदाचार और भ्रष्टाचार का औचित्य । इससे राष्ट्रीय नैतिक प्रतिरोध क्षमता में जितनी तेजी से ह्रास आता है वह हमारी चिन्ता के केन्द्र में होना चाहिए अन्यथा हम इससे उत्पन्न होने वाले नये वर्चस्ववाद को और एक भिन्न‍ प्रकार के सामाजिक भेदभाव के आसन्न परिणामों का आकलन कर ही नहीं सकते।

‘इस देश की दशा अच्छी नहीं है। कानून और व्यवस्था से गहरी शिकायते हैं। आए दिन चोरी, बलात्काकर या हत्या की घटनाएं होती रहती हैं। होती रहें, परन्तु यह किसी ईसाई के साथ नहीं होना चाहिए। यह ब्राह्मणो न परोच्‍य: का आधुनिक पाठ है और इसमें वर्णव्‍यवस्‍था बदल चुकी है। अत: जिस समस्‍या से पूरा देश जूझ रहा है वह पूरे देश के साथ हुआ करे, परन्‍तु यदि किसी ईसाई के साथ हुआ तो यह अपराधी की करतूत न हो कर ईसाइयत पर हिन्दुत्व का आक्रमण बन जाएगा। इसका शोर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मचेगा। यदि उन्हें पता है कि यह किसी अपराधी का काम है तो भी आरोप और योजनाबद्ध दुष्प्रचार हिन्दू संगठनों के विरुद्ध होगा क्योंकि अपराधी को अपराधी सिद्ध करने से इस प्रचार का लाभ नहीं मिल सकता कि वे कितनी खतरनाक स्थितियों का सामना करते हुए ‘दुखी और उत्पीडि़त मानवता के उद्धार के लिए उनके धर्मान्तरण में जुटे हैं। यह प्रचार नैतिक समर्थन के साथ समर्थन मुद्रा के अतिरिक्तन लाभ के साथ लौटता है और अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के कारण संख्या में कम होने के बावजूद इसे भारतीय प्रशासनिक और मूल्यगत ढांचे को तोड़ने, बदलने और विरूपित करने में सफलता मिली है। संघ को अमेरिकी आकलन में आतंकी संगठनों की सूची में स्थान दिलाने में भी भारतीय ईसाइयत की ही भूमिका रही है क्यों कि संघ अकेला, कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि अकेला, ऐसा संगठन है जो वनांचलों और दलित स्तरों पर प्रलोभन और झांसा दे कर धर्मान्तररण का विरोध करता रहा है। उसके कुछ उत्साही जनों ने उनको समझा बुझा कर घर वापसी, अर्थात् यदि धर्म प्रचार और धर्मान्तरण का अधिकार संविधान प्रदत्त है तो इस अधिकार से हम वंचित कैसे रह सकते हैं, इसलिए यदि तुम जिन भी तरीकों से धर्मान्तरण कराते हो, उन्हीं की सीमा में रह कर हम नवधर्मान्तरितों का धर्मान्तरण क्योंं नहीं करा सकते।

इसे अक्षम्य अपराध सिद्ध करने के लिए जिस तरह संचार माध्यम होड़ ले रहे थे वह उस घर वापसी आयोजन से अधिक डरावना था क्योंकि ये माध्यम उस पूरे अभियान पर चुप रहे और ‘समझदारी से चुप क्यों कि चुप्पी् तोड़ने का साहस, दुस्साहस माना जाता, साहसी अपनी नौकरी से भी जाता, जब कि घर वापसी के आयोजन के विरोध का अधिकस्य़ अधिकं फलम्। मैं यह उदाहरण इसलिए रख रहा हूं कि यह समझा सकूं कि यदि कोई कर्म गर्हित है, उसे आप सामान्य स्थिति में नहीं करना चाहेंगे, उसे आपकी विवशता या आतुरता का लाभ उठाते हुए धन, दबाव में कैसे कराया जा सकता है। एक ही कानून का दुहरा पाठ कैसे हो सकता है। परन्‍तु संचार माध्‍यमों की प्रतिक्रिया पर ध्‍यान दो तो लगेगा वे स्‍वतन्‍त्र नहीं है। उनकाे कई तरीकों से ईसाई सरोकारों से बाधा और छाना जा चुका है और उसके भीतर ही अपनी उछलकूद को वे अपनी स्‍वायत्‍तता और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्‍त्रता कह कर अपने को आश्‍वस्‍त करना चाहते हैं कि वे सचेत भी हैं, सन्‍तु‍लित भी और स्‍वतन्‍त्र भी। आमीन।’

‘उस जरूरतमन्‍द की रजामन्दी के बाद क्‍या किसी को आपत्ति करनी चाहिए।‘

’भय, प्रलोभन और छल की स्थिति में सहमति को सहमति नहीं कहा जा सकता। पहले तुम चयन और रजामन्दी में फर्क करना सीखो। धार्मिक स्वतन्त्रता में यह निहित होना चाहिए कि हम स्वयं स्वविवेक से, बिना किसी दबाय या प्रलोभन के, अमुक मत का वरण कर रहे हैं, हिन्दुत्व ने इसका इस सीमा तक आदर किया है कि एक ही परिवार का एक व्यक्ति जैन होता था तो दूसरा वैष्‍णव या शाक्त।, यह छूट पति पत्नी के बीच भी रही है। इस्लााम ने हमेशा तो नहीं अकबर के समय में इसका सम्मान किया और जोधाबाई हिन्दू रह कर मुस्लिम पति के साथ जीवन यापन कर सकीं, परन्तु ईसाइयत में हंगामा उन मुल्लाओं के तर्ज पर होता है कि एक बार जो मुसलमान हो गया वह स्वेच्छा से या किसी के समझाने मनाने से भी यदि अपने पुराने धर्म में वापस जाना चाहेगा तो उसे जान गँवाने की कीमत पर ही ऐसा कदम रखना होगा। एक बार मुसलमान तो हमेशा के लिए मुसलमान। यही ईसाइयत पर भी लागू है फिर एक बार हिन्‍दू तो हमेशा के लिए हिन्दूु का अधिकार भी तो हो। जो सबको सुलभ है वह हिन्‍दू को भी तो सुलभ हो।

‘ देखो, यह तर्क भी गर्णित के स्तर पर सही है, समाजशास्त्र में गलत है क्योंकि समाज में ऐसा एक विशाल तबका होता है जिसे गिनना तक नहीं आता और जो गणितज्ञ होते हैं वे आलसी होते हैं, सब्जी वाले से भाव तो पूछते हैं पर हिसाब लगाने का जिम्मा उसी पर छोड़ देते हैं, और व्यावहारिक अर्थशास्त्र का संचालन वह करता है जिसे गणित का कामचलाउू ज्ञान है। ‘

‘धैर्य की भी एक सीमा होती है, यार।‘ वह उठ खड़ा हुआ।

मैंने कहना चाहा, ‘विषय की तो नहीं।‘ पर चुप रहा। वह ठीक कह रहा था।

Post – 2016-01-06

अस्‍प़ृश्‍यता – 12

अब तुम यह बताओ की यह खेल कब तक चलता रहेगा! तुम किसी बात पर कायम नहीं रहते, विषय कोई भी हो, कहते अपने मन की ही हो। बात भारतीय मध्यकाल की थी, वहां से यूरोप के मध्य काल पर पहुंच गए और फिर इस ईसाइयत में घुस गए और उस से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा है। कई दिन से लगातार उसी पर बोलते जा रहे हो। भाई हद हो गई इस चक्कर बाजी की, जो कुछ कहना है संक्षेप में कहो। आज के बाद फिर ईसाइयत की खोह में नहीं लौटना चाहता। तुम कहो, मैं सुनता रहूंगा, परंतु आज यह अध्याय खत्म होना चाहिए।

मैंने कहा अच्छी बात है। बीच में बोलना नहीं। पहली बात तो यह है हम दूसरों की बुराइयों को देखते हैं, परंतु उन बुराइयों के द्वारा भी सभ्यता का विकास हुआ है इस पर ध्याहन नहीं देते। जब हम ईसाई धर्मविस्तार की बात करते हैं तब यह भी देखना चाहिए, आज तक मानव समाज को समझने के औजार भी इस इन उत्साही धर्मप्रचारकों ने ही सुलभ कराए हैं, भले वह अपना पुराना तरीका, हिंसा और अत्याचार और उत्पीड़न और धोखाधड़ी से धर्मान्तरण कराने की जगह शिक्षा, सद्भाव, विचार सेवाभाव का तरी‍का अपनाने के बाद आरंभ हुआ जिसमें भारत की निर्णायक भूमिका थी। परन्तु हिन्दत्‍व विचारों के स्तर पर समस्त मानवता को समाहित करने के बाद भी व्यवहार से स्तर पर अपनी सीमा में सिकुड़ा हुआ दर्शन था।

’हमेशा से।’ उससे बोले बिना न रहा गया।‘

’वैदिक काल के बाद से। खैर, हम जानते ही नहीं थे दुनिया में कितने तरह के समाज हैं, कितनी भाषाएं हैं, सांस्कृतिक भेद कैसे हैं। यह ग्लानि की बात नहीं है कि उस चरण पर हम वह समझ और विवेक नहीं विकसित कर पाए जिससे अपने से भिन्न असंख्य समुदायों के मिजाज को समझ सकें; या जानते भी थे तो ठीक उसी तरह जैसे आज का यूरोप समझता है कि पूरब की सभ्यताओं का सारा माल-मता उस यूरोप से निकल कर वहॉं पहुँचा है जो ग्रीक वैभव काल तक में भी कबीलाई स्तर से उूपर नहीं उठ पाया था और चरवाही से आगे नहीं बढ़ पाया था। हम भी सोचते थे कि दुनिया की सारी जातियाँ भारत से ही निकली हैं, और सभी भाषाऍं संस्‍कृत का ही बिग्रड़ा हुआ रूप हैं।

’मान गए न तुम भी कि हमारा ऐसा सोचना एक छलावा था।‘

’मैं फिर बहक न जाउूँ इसलिए तुम्हें हिमयुग की त्रासदी और उस बीच असंख्य जनों और भाषाभाषियों के भारत में शरण लेने और फिर राहत का दौर आने पर यहॉं से फिर चतुर्दिक फैलने की याद दिलाते हुए कहना चाहता हूँ कि हमारे इस विश्वास में सचाई का एक प्रबल आधार था, यूरोप कीे इस घपलेबाजी में उसकी बिल्कुल हाल की अग्रता है और धौंसबाजी का फरेब है जिसमें आसक्तिवश उसके विद्वान भी फँसे मिलेंगे। मैं तुम्हें ‘को-बड़-छोट’ के चक्कर में नहीं डालना चाहता। इसे पहले स्पष्ट भी कर चुका हूँ । यहॉं मैं केवल यह याद दिलाना चाहता हूँ कि हमसे मिशनरियों ने सीखा, अपने को नए सिरे से अनुकूलित किया और ऐसी सफलता पाई जो इससे पहले न तो उन्हें मिली थी न ही, किसी और को मिली थी। वैदिक समाज को और उसके आर्यव्रत के प्रसार को इसका अपवाद मान सकते हैं, क्योंकि उस दौर में यहॉं की भाषा, संस्कृति, जीवनमूल्य, सौख्य प्रसाधन और विश्वास भारत से चल कर यूरोप के पूर्वी छोर तक पहुँच गए थे और उसने भी संपर्क में आने वाले जनों के जीवन स्तर व चेतना में उत्थान लाते हुए ऐसा किया था और किया भी अपनी सुदूरगामी अपेक्षाओं के कारण ही था। ’मिश्नरियों ने धर्मप्रचार या धर्मसाम्राज्य के विस्तार के ही लिए सही, असंख्य जनों की बोलियॉं सीखीं, उनमें प्रचार करने के लिए पहले उन्हें शिक्षित करना जरूरी समझा, शिक्षित करने के लिए उनकी बोलियों के अनुरूप रोमन लिपि में बदलाव करके नई लिपियॉं तैयार कीं, उनके व्याकरण तैयार किए। हमारी आज की राज्यभाषाओं के ही नहीं जनभाषाओं के व्याकरण, उनमें शिक्षा देने में पहल उनकी थी। कहो, विकास के नियम के अनुसार वे अनुकूलन क्षमता में हमसे अधिक आगे निकल गए। अब सोचो, क्या‍ हमने उनसे कुछ सीखा, अपने को कहीं से बदला, अपने उसी हथियार को जिसको उन्होंने उपयोगी पाया और अपना लिया हमने उनसे भी अधिक पैना करने की दिशा में कोई काम किया। क्या हमने अपने ही उन आयुधों की शक्ति को पहचाना जिसको उन्होंने अपने तोपखाने में सम्मिलित कर लिया, और ध्यान रहे इसमें प्रचारतन्त्र की महिमा भी शामिल है।‘

‘हमारे यहॉं प्रचारतन्त्र कहॉं था भाई, हमारे यहाँ तो अखबार तक नहीं थे।’

‘ दुनिया का सबसे प्रबल प्रचारतन्त्र तो हमारे ही पास था। इतने सारे आन्दोलन ब्राह्मणवाद के विरुद्ध हुए, कुछ दिनों तक धूम मचाने के बाद सभी हाशिये पर आ गये क्यों, जानते हो। ब्राह्मणवादी प्रचारतन्त्र के कारण जिसने जन जन तक, उसके जन्म से ले कर मरण तक के पूरे व्यापार को अपने प्रचारतन्त्र में बॉंध रखा था, जब कि दूसरे अपने मठों और आन्दोलनों और अनुयायियों तक सिमटे रह गए ।

‘जो नई चुनौतियों के अनुसार अपने को बदलते नहीं हैं वे खत्म हो जाते हैं, इसलिए हिन्दुोत्व के लिए सबसे बड़ा खतरा इस्लांम या ईसाइयत नहीं है, हिन्दुत्व की अधकचरी समझ और अनुकूलन की अक्षमता है। हम अपनी प्रशंसा सुनना चाहते हैं, जब कि प्रशंसा की भूख और लत पतन का कारण और परिणाम दोनों हुआ करती है। जो आगे बढ़ना चाहते हैं वे अपनी आलोचना और सुझाव आमन्त्रित करते हैं, प्रशंसा नहीं।

‘इस बात पर भी ध्यान दो कि अस्पृश्यता पश्चिमी समाज में रंगभेद के रूप में थी और इसने रूप बदले हैं, अपना चरित्र नहीं। उन्होंने उन पिछड़ी, अशिक्षित और स्वच्छता आदि की दृष्टि से लापरवाह या भिन्न दृष्टि रखने वाले लोगों के साथ खान-पान का संबंध नहीं रखा। उन्हें तो उनके कुऍं या जलपात्र का पानी पीने पर भी पेचिश हो जाता है, जैसे राहुल गॉधी को एक दलित के घर भोजन के प्रदर्शन के बाद हुआ था। वे अब इस बात की सावधानी बरतने लगे कि उनके संपर्क में आने वालों को ऐसा न लगे कि उससे भेदभाव किया जाता है। वे प्रयत्नशील रहे कि वे जिनसे परहेज बरतते हुए अपनापन दिखाते हैं, उनके भीतर यह विश्वास पैदा हो सके और कायम रहे कि वे उनका हित चाहते हैं । शिक्षा के साथ उन्होंने आर्थिक प्रलोभन तथा रोजगार के अवसर दिलाने की कोशिश की और चिकित्सा आदि की सुविधाएं प्रदान करते रहे। दोनों ही क्षेत्रों में अपने इसी अनुभव का विस्तार उन्होंने ऊंचे संपन्न तबके को अधिक विशिष्ट बनाने वाली ब्रितानी तलफ्फुज वाली एलीट अंग्रेजी की शिक्षा के कारोबार पर एकाधिकार करके किया जिसके जाल में अपनी अभिजात हैसियत के हामी, नेहरू और उनके संपर्क के दूसरे लोग फँसते चले गए।‘

’तुम नेहरू के बारे में ऐसा कैसे कह सकते, उन्होंने तो इन्दिरा गॉंधी को शिक्षाके लिए शान्ति निकेतन भेजा था।‘

वे स्वतन्त्रता आन्दोलन के दिखाने वाले दॉंत थे जिनके ‘दि’ को सत्‍ता मिलने के बाद हटा लिया गया था। मैं कुछ नहीं कहता, लोग कहते हैं, कि उन्होंने अपने धेवतों को और उनके करीबी बच्चन जी ने हिन्दी के कवि होते हुए अपने पुत्रों को दून स्कूल में ही भेजा था, क्योंकि उन दिनों जब हम सपने देख रहे थे कि अंग्रेज गए, अंग्रेजी जाएगी, नेहरू जानते थे कि हिन्दी नहीं आने दी जाएगी, अंग्रेजी रहेगी, और किसी रहस्यमय तरीके से यह बात हिन्दी के उस कवि को भी मालूम हो गई थी जो लोगों की जबान पर चढ़ जाने वाली कविताओं के सपने देखता था। ठीक उस अवसर पर जब हिन्दी को संविधान के प्रावधान के अनुसार राष्ट्रभाषा घो‍षित होना था, सरकारी कामकाज में आना था, तमिल क्षेत्रवादी आन्देालन का इतना विस्फोटक बन जाना कि किसी व्यक्ति को हिन्दी विरोध में आत्म दाह करना पड़े, जिसका बहाना ले कर नेहरू ने संविधान की प्रतिज्ञा को अमल में आने से रोक दिया, किसी ऐसी साजिश से जुड़ा है जिसका हम अनुमान कर सकते हैं, परन्तु किसी को अपराधी सिद्ध नहीं कर सकते ।‘

’क्षमा करो, मैं अपनी बात पर कायम न रह सका, बीच में छेड़ बैठा, अब अपने विषय पर तो आओ।‘

’तुम जानते हो, ‘यद्यदाचरते श्रेष्ठ: लोकस्‍तदनुवर्तते’ न्‍याय से धीरे धीरे उन्नति के रास्ते ज्ञान से नहीं, अंग्रेजी के ब्रिटिश उच्चारण से और उसे बोलने की फर्रांट से तय होने लगे और उन्होंने सार्वजनिक शिक्षा या पब्लिक स्कूल का दरजा पा लिया और पब्लिक स्कूल धर्मादे-खाते-की-शिक्षा बन गए। कहो, उन्होंने अपनी सूझ से शासकवर्ग पर अधिकार कर लिया और उसके माध्यम से अपनी गलत बातों और गलत दावों को भी सही सिद्ध करते रहे, जिनमें से एक था, हिन्दी को राष्ट्रतभाषा की जगह राजभाषा बनाना, राष्ट्र भाषा की परिभाषा बदल कर राज्यों की भाषाओं को राष्ट्रभाषाओं का दर्जा देना, और इस तर्क से अंग्रेजी जो पहले विदेशी भाषा मानी जाती थी, उसको नगालैंड की भाषा बता कर, अंग्रेजी को भी भारत की राष्ट्रभाषाओं में से एक और इस तरह जो देश मुसलिम लीग की नासमझी से द्विराष्ट्र बना था, अब नेहरू के आभिजात्यं ने उस बचे हुए राष्ट्र को इतनी राष्ट्रीयताओं का और उनसे उपजी असाध्य समस्या‍ओं का देश बना दिया । मैं कहता हूँ कि कितनी छोटी घटनाऍं या आकांक्षाऍं कितने बड़े अनर्थ कर जाती हैं, इसका सही अनुमान हो तो इसे प्रोत्सानहन देने वाला शायद इसका आरंभ करने से बच जाए। परन्तु इतिहास का निर्णय इसी कारण तो मानना होता है।

‘यार तुम विषय पर तो आओ। तुम इतिहास को इतिहास नहीं रहने देते, किसी न किसी बहाने उसमें वर्तमान को घुसाने की फिक्र में रहते हो।’

‘और फिर उन्होंने हमारी सर्वसुलभ चिकित्सा में प्रवेश किया और इसे जन स्‍वास्‍थ्‍य प्रणाली के स्थान पर अल्प जन सुलभ चिकित्सा प्रणाली बना दिया। उनकी आकांक्षाऍं अलग हैं, उनका दलित और वंचित जनो के प्रति प्रेम अलग है। एक नाटक है, दूसरा असलियत। बताओगे कौन चेहरा उनका है और कौन सा उन्होंने मार्क्सावाद से प्रेरित हो कर अपना लिया।

‘लगता है आज का दिन भी बर्वाद हुआ।’ वह उठ कर खड़ा हो गया। मैं रोकना चाहता तो भी रोक पाता क्या ।

Post – 2016-01-04

अस्पृश्यता – 11

हॉं अब बताओ, कल क्या कहने को बाकी रह गया था।

‘कई बातें और कई तरह की बातें हैं। उन्हें समझे बिना हम मध्यकाल तो दूर, आधुनिक काल को भी नहीं समझ सकते। जैसे कि जिसे हम धूर्तता या मूर्खता कहते हैं वे विश्वास का अंग बन जाने के बाद समझदारों के दिमाग को भी नियन्त्रित करती है।‘

‘तुम साफ बोलना कब सीखोगे?

‘देखो ईसाइयों ने स्वर्ग और नरक का भय दिखा कर प्रलय का भय दिखा कर लोगों को धर्मान्तरित करने का जाल रचा। परन्तु यदि यह प्रलय अनन्त काल बाद आये तो स्वर्ग का लोभ और नरक का भय समाप्त हो जाये। इसलिए सृष्टि और प्रलय का दायरा कम करना था। वे प्रलय आने ही वाली है की दहशत पैदा करके अपना काम आसान करना चाहते थे।‘

‘हमारे यहाँ भी था यार। चोटी काल गही, पल में परलै होयगी, जैसी इबारतें तुम्हें याद नहीं आतीं?’

‘जीवन की नश्व रता की धारणा तो रही है। सृष्टि और प्रलय के लिए ऐसी संकरी समझ नहीं रही है। कबीर में भी परलै जीवन के लय या किसी भी कारण से किसी भी समय किसी की मौत आ जाने से है, न कि प्रलय से। हमारे यहॉं कर्म-फल के भोग के लिए इस जन्म में ही इसका कुफल भोगने, अगले जन्म में दुख या हीनतर योनि में जन्म का भय दिखाया जाता रहा इसलिए सृष्टि और प्रलय के समय को संकुचित करने की आवश्यकता न थी। परन्तु जहाँ पुनर्जन्म की अवधारणा नहीं थी, फैसले के दिन अनन्त काल के लिए सुख या यातना के स्वर्ग या नरक का ही विधान था, वहाँ अनन्त काल तक इसकी प्रतीक्षा करने पर इसका प्रभाव कम हो जाता इसलिए काल सीमा घट गई। अग्रधर्षी ईसाइयत ने इस अवधि को कम कर दिया। सत्रहवीं शताब्दी में कैथलिक आर्कबिशप जेम्स उशेर (James Ussher) ने सृष्टि की तिथि 4004 ईसापूर्व में नियत की जो ईसाई विद्वानों के बीच लम्‍बे समय तक मान्य रही। इससे पहले भी सृष्टि र्इसा के जन्म से पाँच हजार साल पहले ही सुझाई गई थी। प्रलय या होलोकास्ट का अन्देशा तो उनमें लगातार बना रहा है, जिस तरह की सामरिक तैयारी को बढ़ावा देते आए हैं उसमें यह नौबत आ भी सकती है।‘

‘तुम को तैंतीस कोटि योनियों में भटकाने के लिए बहुत लम्बेस समय की जरूरत थी, इसलिए उसके अनुसार तुमने विराट युगों और कल्पोंं की कल्पुना की। उनका पुनर्जन्मे में विश्वाकस न था इसलिए अपनी जरूरत से इसे छोटा कर लिया, इसमें हर्ज क्याल है?
‘हो सकता है तुम्हा री बात सही हो, पर हमारी बात आधुनिक विज्ञान की सचाई के अनुरूप रही है, यह तो मानोगे। यह केवल हमारी ही नहीं अग्रधर्षी ईसाइयत के उदय से पहले की सभी सम्यूताओं में काल या एक विराट बोध रहा है। ईसाइयत ने उस बोध को नष्टई किया। और जानते हो जिस बहुदेव वाद को पैगानिज्मत कह कर इसे कई तरह से कलंकित किया गया, उसमें ठीक वैसी ही उदारता थी, दूसरे धर्मो, विश्वायसों के प्रति सहिष्णुतता का भाव था। रोम में भी इससे पहले यही हाल था। इसलिए यह बहुदेववाद की विशेषता है न कि केवल हिन्दूस समाज की।‘

‘अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के सबके पास अपने तर्क होते हैं।‘

‘मैं श्रेष्ठता के लिए नहीं कह रहा था, मैं कुछ अलग ही बात करना चाहता था, तुमने टोक कर भटका दिया। नरक की आग में जलने की कल्पंना और रौरव नरक में सड़ने की कल्पतना में जलवायु की भूमिका पर कभी ध्याेन देना। वह जलवायु जिसमें सहारा के रेगिस्तान की जलाने वाली गर्मी का अनुभव जुड़ा हुआ है, दोजख की आग की बात करती है, जिसे दंडनीय मानती है उसे जिन्दा जला कर मारने में संकोच नहीं करती, और हमने अपनी आर्द्रताबहुल जलवायु के अनुसार सड़ॉंध वाले कुम्भीापाक की कल्पना की इसलिए मलिनता और सडॉंध को उस पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया कि वह कर्म से जुड़ने के साथ जाति से भी जुड़ जाय और उस जाति का व्यक्ति यदि शिक्षा, स्वच्छता, सभी मानों पर तुम्हारे बराबर या तुमसे भी आगे बढ़ा हुआ हो तो भी हमारी चेतना में उसके प्रति अस्पृुश्यता का भाव बना रह जाता है और समझदार लोगों को भी इस पर विजय पाने के लिए अपने आप से ही संघर्ष करना पड़ता है, जब कि वे इस मामले में हमसे अधिक विवेक से काम लेते रहे हैं।‘

‘तुम्हारी पहली बात में कुछ दम हो सकता है। नरक की कल्पना में, स्वर्ग की कल्प ना तो दोनों की लगभग एक जैसी ही है और साफ लगता है कि ये दोनों कल्पनाऍं किसी एक से आरंभ हो कर दूसरे तक पहुँची हैं।‘

‘अब कालरेखा पर ध्यान दे कर सोचो कि किसने किससे उधार लिया होगा।‘

‘पर जो तुम यह कहते हो कि हम मनुष्यो को जिन्दा जलाने की कल्पना तक नहीं कर सकते वह इसलिए कि तुम अपने को जानते ही नहीं, केवल दूसरों के दोष देख पाते हो। जिस समाज में सती प्रथा का चलन रहा हो, वह यह दावा कैसे कर सकता है?’

(एक क्रम में पढ़े, इसका अगला आधा आगे आज की ही पोस्‍ट में हैा)

Post – 2016-01-04

‘मैं दबाव में आ गया, फिर भी बचाव में कहा, ‘सती प्रथा हमारे समाज में असुर सभ्यता से आई है, हमारे यहॉं थी ही नहीं। देखो दशरथ की रानियों में कोई सती नहीं होती, मेघनाथ की पत्नी सुलोचना होती है।‘

‘चुप रहो। अब भी अपना बचाव कर रहे हो। आई कहीं से हो, तुम यह कर सकते थे, तुमने यह किया है, इतना ही पर्याप्त है। कल्पना में आने की तो बात ही न करो। और जो यह कहते हो कि वे अस्पृश्यता से मुक्त रहे हैं, तो तुमने रंगभेद की क्रूरता को समझा ही नहीं। यदि किसी भी चीज के लिए वातावरण तैयार हो जाए, उसके प्रति श्लाघा से काम लिया जाये तो कोई समाज ऐसा नहीं है, जिसके लोग गर्हित से गर्हित काम न कर सकें। धुले हुए व्‍यक्ति या समाज नहीं होते, धुली हुई मूल्य-व्‍यवस्थाऍं होती है। मूल्य व्यवस्था तलवार से अधिक ताकतवर होती है। हमें उन मूल्यों की चिन्ता करनी चाहिए जिन पर हमें गर्व रहा है। आज तो हम उनके मूल्य अपना रहे हैं जिनमें आत्मालोचन की क्षमता तक नहीं।‘

‘मैं चुप लगा गया। बात तो वह सही कह रहा था। उसके चेहरे पर यह सन्तो‍ष साफ दिखाई दे रहा था कि आज उसने मुझे लाजवाब कर दिया है। कुछ समय यह तय करने में लगा कि विषय पर आउूं तो कैसे इसी बीच वह फिर शुरू हो गया, ‘देखो, हम सबकी आदत है, इसमें पूरब पच्छिम का भेद नहीं चलता, प्रशंसा के लिए मनुष्य कुछ भी कर सकता है। गर्हित से गर्हित और क्रूर से क्रूर काम। मौत या यन्त्रणा का भय तक उसे रोमांचक लगने लगता है। मनुष्य में गर्हित से गर्हित अवस्था में अपने को समायोजित करने की अकल्पनीय क्षमता है। गुलाम बनाने का एक यह भी तरीका रहा है – गुलामी के मूल्यों का महिमामंडन । इसलिए नैतिक विवेक और मूल्य व्यवस्था को भी बार-बार परिभाषित करने की, कहो जो अनर्गल है उसे छॉंट कर आत्म-शुद्धि करने की जरूरत होती है। अपने भीतर झॉंक कर दुनिया को समझने की कोशिश होती है और तब हम पाते हैं हमारे भीतर विकृति की वे सारी संभावनाऍं हैं जो उग्र रूप ले सकती हैं, और उसी तरह के अमानवीय कृत्य करा सकती हैं जिनको हम अकल्पानीय मानते हैं – जो दिल ढूँढ़ा आपना मुझसे बुरा न कोय’ फिकरेबाजी नहीं है, एक साधक की अपने मनोलोक की गहरी पड़ताल और आत्म-संघर्ष की देन है। कबीर के इसी आत्म-बोध को गालिब नाकर्दा गुनाह कहते हैं। वह शेर याद है न तुम्हें ।‘

शेर याद था, दुहरा दिया, ‘नाकर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद; यारब अगर इन कर्दा गुनाहों की सजा है।‘

‘मगर बुरे विचारों या आकांक्षाओं के लिए दाद की बात समझ में नहीं आती।‘

‘तब तुम्हें कबीर की पंक्ति ही क्या खाक समझ में आई होगी। पहला है मन की सहज गति जिसमें जघन्यतम विचार या आकांक्षाएँ पैदा हो सकती हैं, होती हैं, हुईं और इनके बाद भी मैंने कैसे आत्म-संयम बरत कर असंख्य गुनाहों से अपने को बचाया। सज्जन के मन में बुरे विचार न आते हों ऐसा नहीं है, वह उनको नियन्त्रित करने और फिर इसको एक ऐसी आदत में ढाल लेने के कारण सज्जन बनता है, जिसमें बुरे विचारों का आना कम हो जाता है या उनको प्रवेश का रास्तात आसानी से नहीं मिलता।‘

‘ठीक यही तत्व-दृष्टि ईसा की थी । सुना है न जब किसी लांछिता पर लोग पत्थर मारने चले तो क्या‍ कहा उन्होंने, ‘पहला पत्थर वह मारे जिसने कोई गुनाह न किया हो।‘ परन्तु उन्ही की आड़ में अपनी सत्ता का खेल खेलने वालों ने एक ओर तो स्त्री के सौन्दर्य को भी उसके जादूगरनी होने का प्रमाण बना दिया था और अपनी भिक्षुणियों या नन्स को उस हिजाब में बन्द रखना आरंभ किया जिसे मुस्लिम समाज ने भी न जाने कब अपना लिया, और दूसरी ओर कई साल के बाद जब वेटिकन के टैंक की सफाई होती थी तब उससे अनगिनत नवजात शिशुओं के कंकाल निकलते थे। एक ओर वे प्रचार के लिए ईसा द्वारा उस अबला को संगसार से बचाने की कहानियॉं सुनाते रहे, दूसरी ओर पोप स्वयं जालसाजी करने, झूठ बोलने, अत्याचार करने वालों को सन्त की गरिमा देते रहे।‘

वह चौक कर मुझे देखने लगा।‘

‘अभी यह हाल में लोक कल्या‘ण की आड़ में ईसाइयत के प्रचार का हथकंडा देखते हो, वह जानते हो उसने किससे सीखा ?’

‘मुझे डर है तुम कहोगे हिन्दुत्व के संपर्क में आने के बाद।‘

‘कई बार तुम मारे डर के लाख टके की बात बोल जाते हो। गोवा का इतिहास पढ़ो, जेवियर्स ने जितने भयंकर अत्याचार ब्राह्मणों पर किए उसकी पड़ताल करो और यह देखो कि इसके बाद भी हथियार के बल पर उन्हें धर्मान्तरित करने में उसे कितनी कम सफलता मिली और फिर अन्तत: भारत से, कहो, मदुरै से आगे उसके तरीके में क्या बदलाव आया यह देखो तो सचाई समझ में आ जाएगी। यहीं से वह खूँखार चेहरा, मानवीय सरोकारों से जुड़ता है और उसके धागों से वह संजाल बुनना आरंभ करता है जिसे समझने में नेहरू ही नहीं, हमारे प्रख्यात विद्वान भी गच्चा खा जाते हैं।‘

‘यह बताओ उसे सन्त की उपाधि इन्क्विजिशन के उन अमानवीय कारनामों के कारण मिली या अपने तरीके में आए उस बदलाव के चलते?’

‘इसका पता लगा कर तुम मुझे बताओगे। लेकिन आज का दिन तुम्हारा रहा, मैं तो जो बात कहना चाहता था उसका मौका ही न दिया तुमने। विचारधारा में एक मामूली सा हस्त क्षेप विषय को कहाँ से कहॉं पहुँचा देता है।‘

Post – 2016-01-03

अस्‍पृश्यता – 10

‘तुम इतनी जल्द घबरा क्यों जाते हो! बीच में ही उठ कर खड़े हो गए, दिमाग खराब हो गया! जो है ही नहीं वह खराब कैसे हो जाएगा। सचाई को देखने से कतराते हो, और दुनिया बदलने को लट्ठ लेकर खड़े हो जाते हो।‘

‘सच कहो तो मुझे अभी तक यकीन नहीं आता कि ईसाइयत का चरित्र इतना बर्बर है! वह तो दूसरे समाजों को ही बर्बर बता कर उनका उद्धार करने चल पड़ती है।‘

‘और जानवर बना कर छोड़ देती है। अभी तो मैंने परिचय कराना शुरू किया था, आगे जो कहने जा रहा था, उसे तो तुम झेल ही नहीं पाओगे। ‘

^’इससे बुरा क्या हो सकता है।‘

‘कल की कतरन में आज जो दिखाया (इससे पहले की पोस्‍ट देखें) उसे भी शामिल कर लो तो ईसाइयत के उस चेहरे का पता चल जायगा जो कभी अपने असली रूप में और कभी मानवतावादी मुखौटा ले कर प्रकट होता रहा है।‘

‘तुम्हारा मतलब है जिन चीजों के लिए हम इस्लाम को दोष देते रहे हैं, वे इस्लााम में ईसाइयत से आई हुई हैं।‘

मैंने कुछ कहा नहीं, उसकी हैरानी का मजा लेते हुए, कुछ देर हँसता रहा, फिर खिन्न स्विर में कहा, ‘ईसाई उन्माद का सबसे अधिक शिकार महिलाएँ हुईं। कितनी अनिन्द्य युवतियों को मन को मोहित करने वाली (enchantress) जादूगरनियॉं कह कर उनकी हत्या की गई इसका कोई हिसाब नहीं । पादरियों की इस उद्दंडता का विरोध करने तक का साहस नहीं था किसी में, क्योंकि विरोध करने वाले को भी जादूगर कह कर मौत के घाट उतारा जा सकता था। जानते हो फ्रांस में एक नहर या खाई की खुदाई करते समय एक विचित्र पर्त मिली जो कई मील तक फैली थी और वे उछल पड़े कि भूनिर्मिति की यह नई खोज सिद्ध होगी, पर जब पर्त की पूरी छानबीन की गई तो उसमें जहाँ तहॉं आदमी के बाल, नाखून और हड्डियॉं खोपडि़याँ मिलीं। इसे भी एक लेखक ने विचहंटिंग का प्रमाण माना था। परन्तु विचहंटिंग इतने बड़े पैमाने पर नहीं होता था, इसलिए मेरी समझ से यह था कैथर संप्रदाय को निर्मूल करने वाले पोप इन्नोसेंट तृतीय द्वारा चलाए गए अभियान का प्रमाण। कैथर मत मानने वालों का पूरी तरह सफाया कर दिया गया था। जिन शहरों में यह प्रचलित था उनके निवासियों की उम्र और लिंग का भेद भाव किए बिना कत्ल करके शहर को जला दिया गया था। यह तेरहवीं शताब्दी की घटना है। यूरोप जब आज की सफलता के कारण अपने बुद्धिवादी होने को अपना सनातन चारित्रिक गुण बताता है तो उसे अपनी बदहवासी और धर्मान्धों के सम्मुख अपनी लाचारगी के वे दिन भूल जाते हैं।‘

‘तुम कह रहे हो तो मान लेता हूँ, पर ऐसा हुआ होगा, ऐसा हो सकता है, यह विश्वास नहीं हो पाता।‘

‘विश्वास तो मुझे नहीं होता कि तुम जैसे पढ़ाकू आदमी को आज तक विचहंटिंग का अर्थ और इतिहास नहीं पता है और दूसरी यातनाओं को छोड़ भी दो तो चेस्टिटी बेल्टं का मतलब नहीं जानते, इसकी त्रासदी से परिचित नहीं हो।‘

‘ईसाइयत का यह राक्षसी चेहरा तो सचमुच डरावना है।‘

‘नहीं, डरावना नहीं है, क्योंकि इसने अपने को इतना बदला है कि यह तुम्हारे होली की सी मौज के अनुरूप एक वैलेन्टाइन डे मना कर तुम्हा्रे युवको युवतियों को लुभाने की कोशिश करता है और तुम उसका विरोध करते हो तो डरावना चेहरा तुम्हाारा लगता है।

‘मैं ईसायइत के चरित्र से तुम्हें इसे इसलिए परिचित नहीं करा रहा हूँ कि तुम ईसाइयत से नफरत करो। इतिहास में ऐसी असंख्य घटनाऍं हैं जो हुई हैं, होती रही हैं, पर जिन पर विश्वास न हो पाए कि मनुष्य ऐसा भी कर सकता है। इतिहास के छात्र को नफरत करने का अधिकार नहीं है, पैथोलोजिस्ट के लिए गन्दगी भी नफरत के लिए नहीं होती, कारण को समझने और उससे बचने का उपाय तलाशने के लिए होती है। यही भूमिका किसी भी विश्लेषक की होनी चाहिए। इतिहासकार की तो खासतौर से, क्योंकि उसके सामने पूरे समाज और मानवजाति की व्याधियों को पहचाने और उनसे शिक्षा ग्रहण करने-कराने की जिम्मेवदारी होती है। इतिहास की किताबें लिखने वालों के बीच भी तुम्हें बहुत विरल ही ऐसे इतिहासकार मिलेंगे जो यह तक जानते हों कि उनका दायित्वच क्या है। हमारे देश में तो ढूढ़े न मिलेंगे।’

‘अरे भई, एक अकेले तुम तो हो।‘ उसने फिकरा कसा।

‘मेरा सौभाग्य कहो या दुर्भाग्य मैं इतिहासकार नहीं हूँ या हूँ तो केवल इतिहासकार नहीं हूँ। देखो पहली बात तो यह है कि तुम्हें ईसाई मत या ईसाइयत को पोप के धार्मिक साम्राज्यवाद से, और आज के पूँजीवादी और वर्चस्ववादी दासता से अलग करना होगा। एक धर्म के रूप में इसाई मत मानवतावादी है। एक तन्त्र के रूप में, पोप के साम्राज्यवाद के रूप में, या पूँजीवादी हथियार के रूप में यह यह मानवद्रोही और ईसाद्रोही है और जिस भी देश में है उसके प्रति भी द्रोही है। उसकी आस्था का केन्द्र् अन्यत्र है और यह उसी का औजार है। वह बाइबिल हाथ में लेकर शैतान के घर पानी भरता है ।

‘सोचो, ईसा पश्चिम के नहीं थे, वह पूरब के थे, कम से कम दिमाग से। उनके जीवन के बारे में कुछ भी निश्चित नहीं है, उनका जन्म और जन्मतिथि तक । जिस बेथेलहेम में उनका जन्म दिखाया जाता है, वह तो चौथी शताब्दी में गैर ईसाइयों से दखल किया गया था।
The Church of the Nativity was built over this place in 326 when Emperor Constantine decided to declared Christianity as the official religion of the Roman Empire….Since then, pilgrims from all around the world started coming to Bethlehem to visit this place. The place where Christianity started.” Chris Mitchell, ‘Do We Realy Know Where Christ was Born, 12-25-2015.

ईसा का पालन-पोषण अहिंसावादी परिवेश में हुआ था और उनके आदर्श अपरिग्रहवादी और अहिंसावादी हैं जब कि जिस परिवेश को वह बदलना चाहते थे वह चरवाही का था और चरवाहे चाहे वे घास के मैदान के हों या रेगिस्ताोन के, या यहॉं तक कि उस परिवेश के जिसमे अहिंसा का जन्म हुआ, वे हिंसा और छीना झपटी के बिना सुखी रह नहीं सकते । ईसा की हत्या में सहायक कथित रूप में उनके ही शिष्य, पैसे के लोभ में बने। ईसाई उन्हें यहूदी मान कर यहूदियों से नफरत करते हैं, परन्तु ईसा को मानने वाले तो ईसाई हुए, यहूदी कहॉं रह गए और यहूदी तो ईसा भी थे।‘

‘जानते हो, मैं तुम लोगों से इसलिए खार खाता हूँ कि तुम लोग हर चीज का मूल भारत में तलाशने या दिखाने लगते हो। इंडोफीलिया भी एक व्याधि है, भले इसका रोगी इस पर गर्व करे।‘

‘ईसा का नाम क्याड था, ईसा या क्रिस्ट /क्राइस्ट । एक जमाना था जब वेबर आदि ने भारत का सब कुछ यूरोप से आया सिद्ध करने की झोंक में यह बहस चलाई थी कि कृष्ण का ईश्वरत्व और नाम क्राइस्ट से प्रेरित है, पर यहाँ तो तिथि से ले कर उपदेश तक सब उल्टा दीख रहा है। ईसा या ईश्वर का पुत्र, क्रिस्ट या कृष्ण तुम्हारी ही समझ से। यह मैं मात्र विनोद के लिए याद दिला रहा हूँ क्योंकि इस पर जितनी गहरी पड़ताल होनी चाहिए मैंने की नहीं, पर उनका उपदेश और ईसाइयत का संघ तो बौद्ध मत से इतना प्रभावित है कि कोई इसे नकारता भी नहीं।

‘ईसा कहते हैं, पड़ोसी को प्यार करो, जिस ईसाइयत को हम जानते हैं वह कहती है अपने पड़ोसी को खत्म कर दो। ईसा कहते हैं, सुई के छेद से उूँट का गुजरना संभव है, परन्तु धनी आदमी का स्वर्ग में जाना संभव नहीं। ईसाइयत साम्राज्यवादियों और पूँजीवादियों का औजार बनी हुई है। शिक्षा, स्वास्‍थ्‍य जैसी लोक हितकारी संस्थााऍं भी यदि ईसाइयों के हाथ में गईं तो गरीबों को उनसे वंचित होना ही पड़ेगा । ये दलितों और पीडि़तों के हितैषी हो सकते हैं। ईसा सत्य की बात करते हैं, ईसाइयत कपटजाल से भरी हुई है। ईसा सैल्वेशन या मुक्ति की बात करते हैं और मुक्ति/मोक्ष भारतीय चिन्ताधारा की उपज है जो पश्चिमी दिमाग में पच नहीं पाता।

‘इसलिए ईसाइयत में सदा दो तरह के ईसाई रहे हैं। एक वे जो बाइबिल में विश्वा‍स करते हैं, दूसरे वे जो बाइबिल का इस्तेामाल करते है। पहली कोटि को रूढि़वादी कह सकते हैं और दूसरे को अग्रधर्षी।

‘अग्रधर्षी की जगह प्रगतिशील नहीं कह सकते थे। तुम्हें जिह्वामरोड़ शब्द ..’

मैंने बीच ही में टोक दिया, ‘प्रगतिशील नहीं, अग्रधर्षी, प्रोग्रेसिव नहीं ऐग्रेसिव। प्रगतिशील तो पुरातनवादी ईसाई ही रहे हैं, ईसाइयत के सिद्धान्तों में विश्वास करने वाले और अमल में लाने वाले। दक्षिण अमेरिका और अमेरिका में अन्याय, भेदभाव और दास प्रथा के विरुद्ध लड़ने वाले इन्हीं परंपरावादी ईसाइयों में से रहे हैं। इनकी भूमिका सचमुच क्रान्तिकारी रही है। संख्या में ये रोमन काल से ही हाशिये पर ही रहे हैं। अग्रधर्षी इन्हें मिटाने पर तुले रहे हैं।

‘मैं कहना यह भी चाहता हूँ कि इतिहास में ऐसे दौर भी आते हैं और आते रहे हैं जब जिन्हें तुम पुरातनपन्थी कहते हो उनकी भूमिका क्रान्तिकारी होती है और क्रान्ति का नारा देने वालो की भूमिका विनाशकारी। ‘

’आज पोते को स्कू‘ल छोड़ने की ड्यूटी बजानी है, देर हो रही है।‘

’फिर कल सही।‘
०३ जनवरी. २०१६