Post – 2016-01-04

अस्पृश्यता – 11

हॉं अब बताओ, कल क्या कहने को बाकी रह गया था।

‘कई बातें और कई तरह की बातें हैं। उन्हें समझे बिना हम मध्यकाल तो दूर, आधुनिक काल को भी नहीं समझ सकते। जैसे कि जिसे हम धूर्तता या मूर्खता कहते हैं वे विश्वास का अंग बन जाने के बाद समझदारों के दिमाग को भी नियन्त्रित करती है।‘

‘तुम साफ बोलना कब सीखोगे?

‘देखो ईसाइयों ने स्वर्ग और नरक का भय दिखा कर प्रलय का भय दिखा कर लोगों को धर्मान्तरित करने का जाल रचा। परन्तु यदि यह प्रलय अनन्त काल बाद आये तो स्वर्ग का लोभ और नरक का भय समाप्त हो जाये। इसलिए सृष्टि और प्रलय का दायरा कम करना था। वे प्रलय आने ही वाली है की दहशत पैदा करके अपना काम आसान करना चाहते थे।‘

‘हमारे यहाँ भी था यार। चोटी काल गही, पल में परलै होयगी, जैसी इबारतें तुम्हें याद नहीं आतीं?’

‘जीवन की नश्व रता की धारणा तो रही है। सृष्टि और प्रलय के लिए ऐसी संकरी समझ नहीं रही है। कबीर में भी परलै जीवन के लय या किसी भी कारण से किसी भी समय किसी की मौत आ जाने से है, न कि प्रलय से। हमारे यहॉं कर्म-फल के भोग के लिए इस जन्म में ही इसका कुफल भोगने, अगले जन्म में दुख या हीनतर योनि में जन्म का भय दिखाया जाता रहा इसलिए सृष्टि और प्रलय के समय को संकुचित करने की आवश्यकता न थी। परन्तु जहाँ पुनर्जन्म की अवधारणा नहीं थी, फैसले के दिन अनन्त काल के लिए सुख या यातना के स्वर्ग या नरक का ही विधान था, वहाँ अनन्त काल तक इसकी प्रतीक्षा करने पर इसका प्रभाव कम हो जाता इसलिए काल सीमा घट गई। अग्रधर्षी ईसाइयत ने इस अवधि को कम कर दिया। सत्रहवीं शताब्दी में कैथलिक आर्कबिशप जेम्स उशेर (James Ussher) ने सृष्टि की तिथि 4004 ईसापूर्व में नियत की जो ईसाई विद्वानों के बीच लम्‍बे समय तक मान्य रही। इससे पहले भी सृष्टि र्इसा के जन्म से पाँच हजार साल पहले ही सुझाई गई थी। प्रलय या होलोकास्ट का अन्देशा तो उनमें लगातार बना रहा है, जिस तरह की सामरिक तैयारी को बढ़ावा देते आए हैं उसमें यह नौबत आ भी सकती है।‘

‘तुम को तैंतीस कोटि योनियों में भटकाने के लिए बहुत लम्बेस समय की जरूरत थी, इसलिए उसके अनुसार तुमने विराट युगों और कल्पोंं की कल्पुना की। उनका पुनर्जन्मे में विश्वाकस न था इसलिए अपनी जरूरत से इसे छोटा कर लिया, इसमें हर्ज क्याल है?
‘हो सकता है तुम्हा री बात सही हो, पर हमारी बात आधुनिक विज्ञान की सचाई के अनुरूप रही है, यह तो मानोगे। यह केवल हमारी ही नहीं अग्रधर्षी ईसाइयत के उदय से पहले की सभी सम्यूताओं में काल या एक विराट बोध रहा है। ईसाइयत ने उस बोध को नष्टई किया। और जानते हो जिस बहुदेव वाद को पैगानिज्मत कह कर इसे कई तरह से कलंकित किया गया, उसमें ठीक वैसी ही उदारता थी, दूसरे धर्मो, विश्वायसों के प्रति सहिष्णुतता का भाव था। रोम में भी इससे पहले यही हाल था। इसलिए यह बहुदेववाद की विशेषता है न कि केवल हिन्दूस समाज की।‘

‘अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने के सबके पास अपने तर्क होते हैं।‘

‘मैं श्रेष्ठता के लिए नहीं कह रहा था, मैं कुछ अलग ही बात करना चाहता था, तुमने टोक कर भटका दिया। नरक की आग में जलने की कल्पंना और रौरव नरक में सड़ने की कल्पतना में जलवायु की भूमिका पर कभी ध्याेन देना। वह जलवायु जिसमें सहारा के रेगिस्तान की जलाने वाली गर्मी का अनुभव जुड़ा हुआ है, दोजख की आग की बात करती है, जिसे दंडनीय मानती है उसे जिन्दा जला कर मारने में संकोच नहीं करती, और हमने अपनी आर्द्रताबहुल जलवायु के अनुसार सड़ॉंध वाले कुम्भीापाक की कल्पना की इसलिए मलिनता और सडॉंध को उस पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया कि वह कर्म से जुड़ने के साथ जाति से भी जुड़ जाय और उस जाति का व्यक्ति यदि शिक्षा, स्वच्छता, सभी मानों पर तुम्हारे बराबर या तुमसे भी आगे बढ़ा हुआ हो तो भी हमारी चेतना में उसके प्रति अस्पृुश्यता का भाव बना रह जाता है और समझदार लोगों को भी इस पर विजय पाने के लिए अपने आप से ही संघर्ष करना पड़ता है, जब कि वे इस मामले में हमसे अधिक विवेक से काम लेते रहे हैं।‘

‘तुम्हारी पहली बात में कुछ दम हो सकता है। नरक की कल्पना में, स्वर्ग की कल्प ना तो दोनों की लगभग एक जैसी ही है और साफ लगता है कि ये दोनों कल्पनाऍं किसी एक से आरंभ हो कर दूसरे तक पहुँची हैं।‘

‘अब कालरेखा पर ध्यान दे कर सोचो कि किसने किससे उधार लिया होगा।‘

‘पर जो तुम यह कहते हो कि हम मनुष्यो को जिन्दा जलाने की कल्पना तक नहीं कर सकते वह इसलिए कि तुम अपने को जानते ही नहीं, केवल दूसरों के दोष देख पाते हो। जिस समाज में सती प्रथा का चलन रहा हो, वह यह दावा कैसे कर सकता है?’

(एक क्रम में पढ़े, इसका अगला आधा आगे आज की ही पोस्‍ट में हैा)