‘मैं दबाव में आ गया, फिर भी बचाव में कहा, ‘सती प्रथा हमारे समाज में असुर सभ्यता से आई है, हमारे यहॉं थी ही नहीं। देखो दशरथ की रानियों में कोई सती नहीं होती, मेघनाथ की पत्नी सुलोचना होती है।‘
‘चुप रहो। अब भी अपना बचाव कर रहे हो। आई कहीं से हो, तुम यह कर सकते थे, तुमने यह किया है, इतना ही पर्याप्त है। कल्पना में आने की तो बात ही न करो। और जो यह कहते हो कि वे अस्पृश्यता से मुक्त रहे हैं, तो तुमने रंगभेद की क्रूरता को समझा ही नहीं। यदि किसी भी चीज के लिए वातावरण तैयार हो जाए, उसके प्रति श्लाघा से काम लिया जाये तो कोई समाज ऐसा नहीं है, जिसके लोग गर्हित से गर्हित काम न कर सकें। धुले हुए व्यक्ति या समाज नहीं होते, धुली हुई मूल्य-व्यवस्थाऍं होती है। मूल्य व्यवस्था तलवार से अधिक ताकतवर होती है। हमें उन मूल्यों की चिन्ता करनी चाहिए जिन पर हमें गर्व रहा है। आज तो हम उनके मूल्य अपना रहे हैं जिनमें आत्मालोचन की क्षमता तक नहीं।‘
‘मैं चुप लगा गया। बात तो वह सही कह रहा था। उसके चेहरे पर यह सन्तोष साफ दिखाई दे रहा था कि आज उसने मुझे लाजवाब कर दिया है। कुछ समय यह तय करने में लगा कि विषय पर आउूं तो कैसे इसी बीच वह फिर शुरू हो गया, ‘देखो, हम सबकी आदत है, इसमें पूरब पच्छिम का भेद नहीं चलता, प्रशंसा के लिए मनुष्य कुछ भी कर सकता है। गर्हित से गर्हित और क्रूर से क्रूर काम। मौत या यन्त्रणा का भय तक उसे रोमांचक लगने लगता है। मनुष्य में गर्हित से गर्हित अवस्था में अपने को समायोजित करने की अकल्पनीय क्षमता है। गुलाम बनाने का एक यह भी तरीका रहा है – गुलामी के मूल्यों का महिमामंडन । इसलिए नैतिक विवेक और मूल्य व्यवस्था को भी बार-बार परिभाषित करने की, कहो जो अनर्गल है उसे छॉंट कर आत्म-शुद्धि करने की जरूरत होती है। अपने भीतर झॉंक कर दुनिया को समझने की कोशिश होती है और तब हम पाते हैं हमारे भीतर विकृति की वे सारी संभावनाऍं हैं जो उग्र रूप ले सकती हैं, और उसी तरह के अमानवीय कृत्य करा सकती हैं जिनको हम अकल्पानीय मानते हैं – जो दिल ढूँढ़ा आपना मुझसे बुरा न कोय’ फिकरेबाजी नहीं है, एक साधक की अपने मनोलोक की गहरी पड़ताल और आत्म-संघर्ष की देन है। कबीर के इसी आत्म-बोध को गालिब नाकर्दा गुनाह कहते हैं। वह शेर याद है न तुम्हें ।‘
शेर याद था, दुहरा दिया, ‘नाकर्दा गुनाहों की भी हसरत की मिले दाद; यारब अगर इन कर्दा गुनाहों की सजा है।‘
‘मगर बुरे विचारों या आकांक्षाओं के लिए दाद की बात समझ में नहीं आती।‘
‘तब तुम्हें कबीर की पंक्ति ही क्या खाक समझ में आई होगी। पहला है मन की सहज गति जिसमें जघन्यतम विचार या आकांक्षाएँ पैदा हो सकती हैं, होती हैं, हुईं और इनके बाद भी मैंने कैसे आत्म-संयम बरत कर असंख्य गुनाहों से अपने को बचाया। सज्जन के मन में बुरे विचार न आते हों ऐसा नहीं है, वह उनको नियन्त्रित करने और फिर इसको एक ऐसी आदत में ढाल लेने के कारण सज्जन बनता है, जिसमें बुरे विचारों का आना कम हो जाता है या उनको प्रवेश का रास्तात आसानी से नहीं मिलता।‘
‘ठीक यही तत्व-दृष्टि ईसा की थी । सुना है न जब किसी लांछिता पर लोग पत्थर मारने चले तो क्या कहा उन्होंने, ‘पहला पत्थर वह मारे जिसने कोई गुनाह न किया हो।‘ परन्तु उन्ही की आड़ में अपनी सत्ता का खेल खेलने वालों ने एक ओर तो स्त्री के सौन्दर्य को भी उसके जादूगरनी होने का प्रमाण बना दिया था और अपनी भिक्षुणियों या नन्स को उस हिजाब में बन्द रखना आरंभ किया जिसे मुस्लिम समाज ने भी न जाने कब अपना लिया, और दूसरी ओर कई साल के बाद जब वेटिकन के टैंक की सफाई होती थी तब उससे अनगिनत नवजात शिशुओं के कंकाल निकलते थे। एक ओर वे प्रचार के लिए ईसा द्वारा उस अबला को संगसार से बचाने की कहानियॉं सुनाते रहे, दूसरी ओर पोप स्वयं जालसाजी करने, झूठ बोलने, अत्याचार करने वालों को सन्त की गरिमा देते रहे।‘
वह चौक कर मुझे देखने लगा।‘
‘अभी यह हाल में लोक कल्या‘ण की आड़ में ईसाइयत के प्रचार का हथकंडा देखते हो, वह जानते हो उसने किससे सीखा ?’
‘मुझे डर है तुम कहोगे हिन्दुत्व के संपर्क में आने के बाद।‘
‘कई बार तुम मारे डर के लाख टके की बात बोल जाते हो। गोवा का इतिहास पढ़ो, जेवियर्स ने जितने भयंकर अत्याचार ब्राह्मणों पर किए उसकी पड़ताल करो और यह देखो कि इसके बाद भी हथियार के बल पर उन्हें धर्मान्तरित करने में उसे कितनी कम सफलता मिली और फिर अन्तत: भारत से, कहो, मदुरै से आगे उसके तरीके में क्या बदलाव आया यह देखो तो सचाई समझ में आ जाएगी। यहीं से वह खूँखार चेहरा, मानवीय सरोकारों से जुड़ता है और उसके धागों से वह संजाल बुनना आरंभ करता है जिसे समझने में नेहरू ही नहीं, हमारे प्रख्यात विद्वान भी गच्चा खा जाते हैं।‘
‘यह बताओ उसे सन्त की उपाधि इन्क्विजिशन के उन अमानवीय कारनामों के कारण मिली या अपने तरीके में आए उस बदलाव के चलते?’
‘इसका पता लगा कर तुम मुझे बताओगे। लेकिन आज का दिन तुम्हारा रहा, मैं तो जो बात कहना चाहता था उसका मौका ही न दिया तुमने। विचारधारा में एक मामूली सा हस्त क्षेप विषय को कहाँ से कहॉं पहुँचा देता है।‘