Post – 2016-02-16

हमको मिलैगो कित्‍ता

”अरे भाई उधर कहां जा रहे हो ?”
उसने मुझे देखा था और देख कर भी मेरी उपेक्षा करते हुए आगे निकलाता जा रहा था। मैंने रोका।

वह बोला, ”तुम्हारे पास बैठने का कोई फायदा है ? बकवास करोगे और सुनना पड़ेगा।”

”तुमको कुछ नहीं सुनना है। आओ, बैठो, चुप रहूँगा, बातचीत बन्द हो जाय पर ऑक्सीजन तो साथ ले सकते हैं।”
”ऑक्सीजन लेने के लिए तुम्हारे साथ बैठना जरूरी है? तुम्हारे पास आकर तुम्हारी बकवास की ऑंच से ऑक्सीजन भी कार्वन में बदल जाती है। उसने तंज तो किया पर आकर पास बैठ गया।

बात उसी ने शुरू की, ‘’तुम जो ज्ञान बघारते हो उसमें मेरी कोई दिलचस्पी् नहीं हैं। किताबें मैंने भी पढ़ी हैं, तुमसे अधिक पढ़ी हैं, तुमसे बहुत बड़े बड़े लोगों के विचारों से पाला पड़ा है। उनके सामने तुम कुछ नहीं हो, बोलना शुरू करते हो तो सोचना पड़ता है, बैठे रहें या भाग खड़े हों। फिर भी तुमने कहा कि हिन्दी तब राष्ट्रभाषा न बन सकी परन्तु निकट भविष्य में बन सकती है तो पहले तो लगा हिन्दी शाविनिस्ट बोल रहा है, परन्तु जब तुमने तमिल के महत्व को और अपनी बोलियों के साथ उसके संबन्ध को रेखांकित किया तो लगा तुम्हारे पास सचमुच कोई नयी समझ और सोच है । उसे सुनने के लिए मैं तुम्हें लगातार कुरेद रहा हूँ और तुम कांग्रेस और गॉंधी, उन्नीसवीं शताब्दी और बीसवीं शताब्दी में पेंगें भर रहे हो। हद होती है सहनशक्ति की भी।”

” देखो मैं बात तो वही कर रहा था। उस जिजीविषा की, उस स्वधा या एलान वाइटल की जिससे कोई समाज आगे बढ़ता है, प्रक़ति विकास की अगली उूँचाइयॉं छूती है, प्राणी अपने दैन्य से उूपर उठता है, नयी उूँचाइयॉं ही नहीं छूता, उन उूॅचाइयों से उूपर की संभावनाओं को लक्ष्य करके नई मंजिलें तय करता है, और उसके ह्रास की जिसमें उूँचाइयों पर पहुँचे हुए समाज और देश और सभ्यताऍं ढलान को अपना आसान रास्ता मान कर अनायास लुढ़कती चली जाती है, और जिनका समाज पहले चरण से आगे परन्तु कुछ नीचे सरकता हुआ उस अधोगति को प्राप्त होता है जिसमें उसका अपना ही अतीत-गौरव हास्यास्पद लगता है, भुखमरी के कगार पर पहुँचे पर अपने नवाबी इतिहास का दावा करते हुए अपने धेले की पेंसन के लिए हजारों की तैयारी करने वाले लखनवी ताँगावालों की तरह। तॉंगे का ज़माना भी खत्म हो गया, अब पता नहीं क्या कर रहे होंगे वे, संभव है भिखारी हो चुके हों।

‘आलसी समाज गुरुत्वातकर्षण के अनुरूप ढलान का रास्ता चुनता है और ओजस्‍वी समाज गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध ऊपर उठता है, जोखिम उठाता है, कुर्बानियां देता है, मिटने के लिए तैयार होकर अपने जिंदा होने को प्रमाणित करता और गरिमा के साथ जिन्दा रहने की कोशिश करता है। जड़ पदार्थ गुरुत्वाकर्षण के नियम का उल्लंघन नहीं कर पाता, वह हमेशा नीचे गिरता है, जीवन- मामूली अंकुर तक, गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध खड़ा होता है, ऊर्जा गुरुत्वा कर्षण का तिरस्कार करती है, उसका ह्रास या मुमूर्षा अपनी निर्जीविता या निष्क्रियता के कारण गुरुत्वा कार्षण के समक्ष समर्पण कर देता है। जिजीविषा में त्याागने का आवेश होता है, मिट कर भी अपने स्‍वत्‍व को बचाने का विवेक होता है। मुमूर्षा में जो भी मिले, उसके बल पर पाने की बेचैनी होती है।

‘मैं उन्नी सवीं शताब्दी और बीसवीं शताब्दी‍ के बीच झूले नहीं झूल रहा था, यह समझाने का प्रयत्न कर रहा था कि कहने को हम बीसवीं शताब्दी में उस लक्ष्य को पाने की ओर बढ़ रहे थे जो 1857 में नहीं पाया जा सका, परन्तु वास्तव में हम पाने की आकुलता में अपनी स्वधा को खोते जा रहे थे और इस गिरावट के बीच गॉंधी सुख, भोग, लाभ आदि के गुरुत्वा्कर्षणों के विरुद्ध अकेला खड़ा था और गुरुत्वाकर्षित पर्यावरण के दबाव में इतनी निजी उूर्जा के बाद भी पिस कर रह गया।

”” हिन्दी पर आओगे या उठूँ।”

” मैं तो चाहूँगा तुम बैठो और यह देखो कि हिन्दी कहने से कई तरह के संशय पैदा होते हैं, इसलिए आज हमें अपनी किसी भाषा की बात करनी चाहिए। हिन्दी बिना सरकारी प्रयास के अखिल भारतीय संपर्क की भाषा थी और अहिंदी भाषी क्षेत्रों में इसके लिए गहन अनुराग था, और इस कारण ही प्रकृत न्याय से सभी ने इसे भारत की संपर्क भाषा के रूप में उन्नीसवीं शताब्दी तक स्वीकार किया था। बीसवीं शताब्दी के कांग्रेस में जो प़व़ृत्तियॉं आरंभ में दबी रह गईं वे उस खास बिन्दु से जब लगा कि स्वानधीनता संभव है, इस जोड़तोड़ में लग गई कि हमें इससे क्यां मिलेगा। तुमको जगन्नाथ दास रत्नाकर की … यार किताबों का नाम तक भूलने लगा है अब तो। खैर किताब का नाम जो भी हो, उद्धव गोपियों को समझाने के लिए कृष्ण की पाती ले कर पहुँचते हैं तो वे उन्हें घेर लेती हैं, पूछने लगती है, ‘हमको लिखो है कहा हमको लिखो है कहा, हमको लिखो है कहा कहन सबै लगीं। और उनकी एक और पंक्ति भी याद आ रही है, ‘नेकु कही नैनन, अनेक कही बैनन सों, रही सही सोउू कहि दीनी हिचकीनि सों।

”गिरावट बहुमुखी थी, भाषा के सवाल को तो गॉंधी को छोड़ कर बहुत कम लोगों ने दूसरे कारणों से हिन्दीन को भारत की स्वाीभाविक संपर्क भाषा माना था जब कि उन्नीसवीं शताब्दीी में कोई दुविधा थी ही नहीं, जिन्होंने माना था उन्होंने गाँधी के निजी प्रभाव के कारण था। इसकी ओर तो पहले ध्यान दिया ही नहीं गया था परन्तु गॉधी के निजी प्रयास से बहुत कुछ संभव लगने लगा था, परन्तु 1930 के बाद जब यह लगने लगा कि ब्रितानी सत्ता इस देश में कुछ दिनों की मेहमान है, पहले के आन्दोलनकारी ”हमको मिलैगो कित्ता, हमको मिलैगो कित्ता , हमको मिलैगा कित्ता सोचन सभी लगे” और इसकी अभिव्यक्ति उन सभी व्याजों से होने लगी जिनका रत्नाकर जी ने गोपियों के सन्दर्भ में हवाला दिया है।

”मैं चाहता था तुम इतिहास की उस गति को समझो जिसमें जो हुआ उससे अलग कुछ हो ही नहीं सकता था फिर भी जो हुआ वह न तब सबको सही लग रहा था न इतिहास ने उसे सही साबित किया। इसी प्रवृत्ति के कारण उन्नीसवी शताब्दी में जबकि हिन्दी के विषय में सर्वानुमति सी बनी हुई थी, उसे बीसवीं शताब्दीज में कूड़दान में डाल दिया गया। गॉंधी ने उसे उस कूड़दान से बाहर निकाला, परन्तु न तो वह भाषाविज्ञानी थे, न उनके प्रस्तावों को हिन्दी समाज ने स्वीकार किया न ही दूसरे अंचलों के लोगों ने। फिर भी उनके आभामंडल के कारण प्रयत्न जारी रहा और अपनी कमियों के कारण सफल न हो पाया। कारण वही, हमको मिलैगो कित्ता’ का। हम इसके व्यौरे में न जाऍं तो ही अच्छा । इस व्यौलरे में भी न जाऍं कि जो लोग पहले अपने कारोबारी लाभ के लिए अंग्रेजों की सेवा में लगे थे, उन्हें जब लगा कि भारत को स्वतन्‍त्र होने से रोका नहीं जा सकता तो उन्होंने कांग्रेसी चोला पहनना आरंभ कर दिया।

उदाहरण के लिए 1935 में मारवाड़ी परिषद ने अपने अधिवेशन में यह प्रस्ताव पास किया कि अब भारत को स्वतन्त्र होंने से कोई रोक नहीं सकता इसलिए मारवाडि़यों को स्वतन्‍त्र्ाता संग्राम में भाग लेना चाहिए और इसके बाद कलकत्ता के अनेक तरुण मारवाड़ी स्वतन्त्रीता संग्राम में ‘कूद पड़े।‘

तुम जानते हो मेरा इन बातों का ज्ञान बहुत कम है, तुम दूसरों की अन्‍तर्कथा से स्वयं जान सकते हो और मुझे बता सकते हो। पन्द्रह अगस्त 1947 को मैं सोलह साल का था। तरुणाई का वह संवेदनशील चरण और उके ठीक बाद जो लूट मची, कालाबाजारी और रिश्वतखोरी का जो दौर सामने आया उसने इस तरह आहत किया कि उसके दाग मेरी चेतना में आज भी देख सकते हो। ऐसी स्थिति में जो केन्द्रीय सेवाओं में उच्च पदों पर विराजमान थे और जो मुख्यत: मद्रास और बंगाल से थे, क्योंकि अंग्रेजी शिक्षा के दो ही अग्रणी क्षेत्र थे, बंगाल और मद्रास और इसका उन्हें इतना लाभ मिला था कि वे ब्रितानी उपनिवेश के भीतर अपना एक उपनिवेश कायम कर चुके थे और शेष भारतीयों के प्रति उसी हेकड़ी से व्य वहार करते थे, जैसे अंग्रेज उनके समेत पूरे भारत से। रियासतों के स्वाार्थ अंग्रेजी राज से जुड़े थे, ज़मीदारों के स्वार्थ उसी से जुड़े थे, अमलों के स्वार्थ उससे ही जुड़े थे इसलिए स्वतन्त्र भारत में स्वहित के अनेक रूप थे जो खुल कर नहीं तो अन्दर खाने उसी सें जुड़े थे और इसी बीच हिन्दी समाज को लगा कि उसे आगे बढ़ने का मनचाहा मौका मिल गया। वे आज भी जश्न मनाने वाले अधिवेशन की अगुआई करते हैं और यह नहीं जानते कि इन आयोजनों का हिन्दीतर भाषाक्षेत्रों में कितना बिघातक प्रभाव पड़ता है।

ऐसी स्थिति में हिन्दीै का विरोध होना, और इसके राष्ट्र भाषा होते हुए भी राजभाषा बना दिया जाना एक सोचा समझा धोखा था जिसके परिणाम विघातक होने को ही थे, परन्तुु आज परिस्थितियाँ भिन्न हैं। सुनने का धैर्य हो तो बताउूँ।”

उसने कोई जवाब न दिया, उठ खड़ा हुआ।

Post – 2016-02-15

बैताल फिर उसी डाल पर

गॉंधी मेरी नजर में बीसवीं शताब्दी के अकेले ऐसे नेता थे जिनको सत्ता की भूख नहीं, एक नया भारत बनाने की उत्कट कामना थी जो आधुनिक भी हो, स्वावलंबी भी हो और अपनी जमीन पर दृढ़ता से खड़ा भी हो।
अकेले नेता नहीं, दूसरे । ये सपने सबसे पहले स्वामी दयानन्द‍ ने देखे थे। वह क्षेत्र जिसमें गॉंधी का प्रभाव सबसे गहन था और वे मसले जिनको गॉंधी ने अपने सरोकारों से जोड़ा, और वह जमीन जिसमें गॉंधी अपनी फसल उगा सके दयानन्द सरस्वसती ने तैयार की थी। उनके सामने भी पूरे समाज का विकास था, आधुनिकता और परंपरा की गहरी समझ, सामाजिक भेदभाव का निवारण, स्त्री शिक्षा का उपक्रम, कुरीतियों, जैसे बाल विवाह, का निषेध और सामाजिक वर्जनाओं, जैसे विधवा विवाह, का विरोध और उच्च जीवनादर्शों का पालन आदि के बहुमुखी और समावेशी कार्यक्रम थे और इनसे जुड़ी थी स्वतन्त्रता की कामना।

तुम इस बात से प्रसन्न होते हो कि मैं दयानन्द को गॉंधी से बड़ा और उनसे प्रगतिशील मानूँ तो मान लूँगा। स्वामी जी कई मामलों में गॉंधी से आगे थे, उदाहरण के लिए वह विधवा विवाह की बात कर सकते थे, गॉंधी सनातनी थे और वर्णविभाजन तक को मानते थे। कुछ दूसरे मामलों में गॉंधी अधिक समावेशी थे, जैसे वह अकेले सभी मतों के लोगों को साथ ले कर चलने की बात करते हैं जब कि दयानन्द जी हिन्दू समाज को भी ले कर नहीं चल सकते थे। उनके कुछ सूत्र कबीर से जुड़ सकते हैं। सबकी आलोचना करते हुए, उनके ढोंग और पाखंड का उपहास करते हुए एक नई राह पर चलने का आवाहन और वह नई राह स्वयं बनाने का प्रयत्न और अकेले दम पर एक आंदालन और संगठन खड़ा क सकते है । गॉंधी से कम चुंबकीय व्यक्तित्व नहीं था उनका। परन्तु तुम मेरी बात पूरी सुना तो करो। मैंने बीसवीं शताब्दी का अकेला नता कहा था, अकेला नेता नहीं। उन्नीसवीं शताब्दी के अधिकांश नेताओं में ओजस्विता और तेजस्विता थी। बीसवीं शताब्दी में सबका परिपाक अकेले गॉंधी में मिलेगा। तुमने कबीर की ठीक ही याद दिलाई, द्विवेदी जी कबीर के व्‍यक्तित्‍व का वर्णन करते हुए उन्हें अनके विरोधों की संधिभूमि पर खड़ा दिखाते हैं।

आज भी जय गांधी जय जय जय गांधी ही चलेगा। तुम उूबते भी नहीं हो।

मैं यह भी याद दिलाना चाह रहा था कि जिस नये मानव का और ऐसे मानवों से उूर्जस्वित भारत का सपना वह देख रहे थे, उसके नागरिक शिक्षित होंगे, स्वस्थ होंगे, एक दूसरे से प्रेम करने वाले होंगे और स्वतन्त्र होंगे। उनकी रूढ़वादिता में भी प्रगतिशील तत्व हैं और एक सोच भी है कि एक व्यवस्था को जो हजारों साल से चली आई हो तुम एक झटके में तोड़ तो सकते हो, सर्वव्यापी वैकल्पिक व्‍यवस्‍था बना नहीं सकते । इसलिए वह इसके साथ हड़बड़ी में कोई बदलाव न करके पहले उसके सबसे विकृत पक्ष को दूर करना चाहते थे । यदि मेरे कथन में कहीं यह लगे कि वह अखोट थे तो विराटता अखोट नहीं होती, लघुता में ही यह संभव है। तुम हिमालय की उूँचाई भी चाहो और यह भी चाहो कि उसमें खड्ड खाई न हो यह संभव नहीं, यह पिरामिड में अवश्य संभव है, ओबेलिस्म् या लाट में अवश्य संभव है।
मैं जिस विषय पर आना चाहता था वह यह कि गॉंधी अकेले हैं जिनमें उन्नीसवीं सदी की विद्रोही उूर्जा और बीसवीं सदी के निहत्थेपन के मेल से असहयोग और सत्याग्रह के हथियार गढ़ने की क्षमता थी। गॉंधी के इस हथियार के व्यापक प्रसार से मानसिक रूप में यह फैसला हो गया था कि अब स्वराज्‍य को रोका नहीं जा सकता। अब अंग्रेजी शासन भी मनोवैज्ञानिक पराजय स्वीकार कर चुका था और यह सौदेबाजी आरंभ कर चुका था कि कितना देना है, कैसे देना है, कितनी तैयारी के बाद देना है, और किनको किनको क्या देना है कि किसी के प्रति अन्याय न होने पाए और इस बहाने वह ऐसी परिस्थितियॉं पैदा करने की कोशिश में लगे थे जिसमें परिस्थितियॉं इतनी बेकाबू हो जायँ कि स्वनतन्त्रता की मॉंग करने वाले स्वयं हथियार डाल दें और कहें हुजूर आप ही इसे सॅभाल सकते हैं आप ही तब तक सँभालिये जब तक हम दोनों सौतेले भाइयों में मिल जुल कर रहने की समझ नहीं पैदा हो जाती और गॉंधी जानते थे कि जब तक अंग्रेजी हुकूमत है वह दोनों भाइयों के बीच प्रेम तो दूर समझदारी तक पैदा नहीं होने देगी। यहीं गॉंधी एक ऐसे असमंजस के शिकार हो गए थे कि वे भी जल्द से जल्‍द ब्रितानी दबोच से बाहर लाने के उस अभियान में शामिल हो गए थे और इस आशा में शामिल हो गए थे कि जिन कामों और तैयारियों को वह मानवाकार जन्तु ओं को मनुष्य बनाने के लिए जरूरी समझते हैं वे स्वतन्त्र भारत में ही पूरी हो सकती हैं।

‘’तुम्हा्रे मन में अंग्रेजों के प्रति इतना जहर भरा हुआ है कि तुम सोच ही नहीं सकते कि उनमें कोई सदाशयता भी थी। मुस्लिम लीग जिसे तुमने सौतेला भाई कहा वह उसके बाद आती है।‘’

’’देखों सैयद अहमद के बाद नीरद चन्द्र चौधुरी दूसरे आदमी थे जो अंग्रेजों को दुनिया का सबसे सभ्य समाज और उनके शासन को सबसे सभ्य शासन मानते थे। उस कतार में तुम मुझे तीसरी जगह पर खड़ा मान सकते हो और मैं तुम्हारे आकलन से सहमत भी हो जाउूँगा, क्यकि अंग्रेजों ने जो कुछ भी किया अपने निजी हित के लिए नहीं, अपने देश के हित के लिए किया। हमारे अपने राजनीतिज्ञों ने, नेहरू से ले कर आज तक के कांग्रेसियों ने, अपने और अपनों के हित को प्रधानता दी और देशोद्धार करने वाले सभी संगठनों ने, देश और समाज को बॉंटने और लूटने की जिस नीति को अपनाया उसे देखने के बाद वे भी श्रद्धेय बन गए, श्रेष्ठता के कारण नहीं, हमारे अपने ही नेतृत्व से कम जघन्य होने के कारण। जघन्यता को भी देश सेवा बताया जा सकता है, इसकी तो पहले कल्पंना भी नहीं की जा सकती थी, परन्तु हाल में अकारण या कुतर्कपोषित कारणों से जिस तरह के देशविघातक आयोजन होने लगे हैं उसे देखते मेरा अपना भी पतन हो रहा है, कुछ लोग मुझे बौद्धिक से अधिक ज्योतिषी मान सकते हैं क्योंकि मैंने पीछे कभी कहा था कि कांग्रेस और वामपंथी दलों के पास अपनी अस्तित्व रक्षा के लिए कोई औचित्य बचा नहीं है, इसलिए ये उसी बॉंटो और बचे रहो की राजनीति कर सकते हैं और देश का अकूत अहित करते हुए अपने निजी हितों को आगे बढ़ा सकते हैं। मुझमें तो इतनी समझ नहीं न इतनी सावधानी है परन्तु फेस बुक पर मेरे एक मित्र को यह पता था कि अभी हाल के राष्ट्रद्रोही हुड़दंग में अपनी रोटी सेंकने वाले करात और येचुरी और राजा के मार्क्स वाद और उनकी गाडि़यों के माडेल और उनके अपने बच्चों के लिए चुने हुए देश और उसमें उनके भविष्यसपनों के बीच जो दूरी दिखाई दी उसमें उनका वह चरित्र भी सामने आया कि ये आज के टुच्चें नेता अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए अपनी पार्टियों को, अपने देश को और कहते हुए दुख होता है, पर सच का तकाजा है, अपनी मॉं को भी बेच सकते हैं।

गॉंधी यह जानते थे। अकेले वह थे जो कह रहे थे कि भले सत्ता मुस्लिम लीग को सौंप दी जाय, परन्तु देश का बँटवारा नहीं होना चाहिए। अकेले वह थे जो कह रहे थे कि कांग्रेस कुछ पाने के लिए बना एक संगठन था, अब वह प्राप्त हो गया इसलिए अब इसका नाम बदल दिया जाना चाहिए। पर जिनके पास अपना कुछ न था और जो स्वहतन्त्रता को अपनी खानदानी जागीर बनाना चाहते थे उन्होंने वैसा न माना, न होने दिया, न गॉंधी को जीने दिया। गॉधी महान नहीं थे, उनमें महिमा के अनेक शिखर थे और कुछ खाइयाँ भी परन्तु आधुनिक भारतीय मनीषा के शिखर वही हैं और आज के जगत में सबसे सार्थक और अनुकरणीय वही हैं और उस आदमी ने कहा था कि लोगों को बता दो गांधी को अंग्रेजी नहीं आती, क्योकि वही जानता था कि अंग्रेजी शासन ने भारतीयों को अशक्त कर दिया था पर उनकी आत्मा जीवित थी। जो अंग्रेजी नहीं जानते थे उनमे पूरी तरह और जो अंग्रेजी जानते हुए भी अपनी भाषा में सोचते और समझते थे उनमें उससे कुछ कम परन्तु जो अंग्रेजी पर गर्व करते थे उनकी आत्मा तक को अग्रेजी भाषा ने कुचल दिया था। वे परछाइयों को यथार्थ मान कर तितलियॉं पकड़ने को भागते बच्चों जैसे बालिश मूर्ख थे। यह बोध किसी अन्य में नहीं था। उन्नीसवीं शताब्दी के दौर में भी नहीं। गॉंधी का इतना महिमामंडन किया जा चुका है कि मैं उसमें एक तिनका तक नहीं जोड़ सकता, परन्तु गांधी को समझने की योग्यंता तक हमने पैदा नहीं की यह मुझे उनके भाषा विषयक विचारों से ही लगा। अब तुम चाहो तो हिन्दीी के भूत, वर्तमान और संभाव्य पर बात कर सकते हैं।

तुम समझते हो मैं तुम्हारी बकवास सुन रहा था। मैं सोच रहा था हे भगवान, बहरा होना भी एक वरदान है।

सुना ही नहीं तो वह वरदान तो बिना किसी के दिए ही तुम्हें मिल गया। उठो, तुमसे बात करना भी पत्थर से सिर टकराना है।

Post – 2016-02-14

मोहभंग

मैं तुम्हें इधर-उधर की थोड़ी झॉंकी इसलिए दिखा रहा था कि यह बता सकूँ कि उन्नीसवीं शताब्दी में हमारी समझ बीसवीं शताब्दी की तुलना में अधिक सही थी, आत्माभिमान अधिक था, सांप्रदायिक सद्भाव अधिक था, और विरल अपवादों को छोड़ दें तो अधिकांश नेताओं का दृष्टिकोण क्षेत्रीय न हो कर राष्ट्रीय था। हिन्दी क्षेत्र, यहॉं की बोलियों और संस्कृति के प्रति आत्मीय आदरभाव था। दूसरे भाषाक्षेत्रों के लोग शिक्षा के लिए, धर्म संकट की स्थिति में काशी के पंडितों का अभिमत जानने के लिए, और अपने नये विचारों के प्रसार के लिए, अपने पांडित्य की धाक जमाने के लिए काशी आते थे । राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर के जन्मस्थल होने और काशी, मथुरा, हरिद्वार आदि तीर्थस्थलों के हिन्दी क्षेत्र में स्थित होने के कारण यहॉं के लोगों और बोलियों के लिए एक रागात्मक संबन्ध था। भारत बहुलता को वैभव समझता था, व्याधि नहीं। अठारवीं शताब्दी तक पश्चिमी विद्वानों की नजर सतही थी। विविधता को बिलगाव मानती थी और समझती थी कि इनमें एका पैदा ही नहीं हो सकता। उन्नीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक वे इसी भ्रम में भारतीय समाज को निरीह और लाचार मान कर धर्म, विश्वास, आर्थिक दोहन आदि सभी क्षेत्रों में उद्दंडता से व्यवहार करते रहे। 1857 की एक छोटी सी चूक और अपने ही देश के विघाती तत्वों के सहयोग और कुछ अन्य संयोगों ने पासा पलट दिया फिर भी वे भीतर से ‘जान बची लाखों पाए’ वाली चेतना से भीतर तक हिल गए थे। इससे पहले हिन्दू मुसलमान को पहले से ही बँटा मान कर वे निश्चिन्त थे कि ये कभी एक हो नहीं सकते। इसके बाद भारतीय समाज को भीतर से तोड़ने की नई युक्तियों का आविष्कार उनकी कूटनीति का प्रमुख मुद्दा बन गया और अन्य बातों के अलावा, उन्होंने यह पाया कि धार्मिक विभेद उतना विभेदक नहीं है जितना भाषा और संस्कृति का प्रश्न और इसके लिए हिन्दी क्षेत्र सबसे उर्वर है। इसमें उन्होंने भाषा और संस्कृति के अलगाव का वह खेल सैयद अहमद के कंधे पर बन्दूबक रख कर, और दो लिपियों के प्रचलन और एक ही भाषा में अनुपात भेद से दो स्रोतों से आयत्तं शब्दावली के आधार पर एक ही भाषा को दो भाषाओं में बँटा मान कर और उनके बीच टकराव पैदा कर, एक की रीतियों को दूसरे की रीतियों से टकराव का मुद्दा बना कर विषवेलि बोने की योजना बनाई। इसमें वे सफल रहे।

परन्तु उन्होंने दूसरी भाषाओं से हिन्दी क्षेत्र का टकराव दिखाते हुए उस पर्यावरण को विषाक्त करने का प्रयत्न किया। इसे बीम्स के कंपैरेटिव ग्रामर आफ आर्यन लैंग्वे्जेज के संगत विषयों के निरूपण को ध्यानन से पढ़ने वाला समझ सकता है, पदपाठ करने वाला नहीं।
काल्डवेल ने अपने द्रविड़ भाषाओं के तुलनात्मक व्याकरण के माध्यम से दक्षिण को उत्तर से, और दक्षिण के प्रभावशाली ब्राह्मणों को शेष समाज से और शेष समाज को भी तमिल, मलय, सिंहल आदि आन्तरिक फाँकों में बॉंटने का जाल तैयार किया, वह सरल पाठ में इतना तर्कसंगत था कि उसके कुचक्र को समझते और जानते हुए भी मेरे मन में काल्डवेल की प्रतिभा और अधिकार के प्रति गहरा सम्मान है। बीम्स ने उसकी नकल करते हुए तीन खंडों में अपना काम किया परन्तु वह प्रकटत: इतना घटिया है कि एक भाषाविज्ञानी के रूप में कोई बीम्स का नाम नहीं लेता, फिर भी कुछ दूर तक तो वह इस योजना में सफल हुए ही कि हिन्दी के प्रति अन्य, तथाकथित आर्य भाषाओं में स्पर्धा, और हिन्दी प्रदेश में ही हिन्दु्स्तानी के सही चरित्र की चिन्ता‍ के बहाने हिन्दी उर्दू में विरोध उत्पन्न‍ कर सके।

उन्नीसवीं शताब्दी के सांस्कृतिक पर्यावरण को देखते हुए यह स्वाभाविक था कि अखिल भारतीय भाषा के रूप में सभी हिन्दी को वरीयता देते। एक मजेदार बात, जिसका मैं पहले जिक्र कर चुका हूँ, यह है, कि हिन्दी का मतलब वही था जो उर्दू का या रेख्ता का। उर्दू का मतलब था छावनियों में अर्थात् जहॉं भी बाहरी लोगों और स्थानीय जनों के बीच संपर्क की संभावना पैदा हो, वहॉं इस संपर्क से पैदा ऐसी जबान जो सबकी समझ में आ सके, अर्थात् बोलचाल की जबान, दोनों की समझ में आने वाली जबान। रेख्ता का अर्थ ज्ञानमंडल के कोश में और महात्मा गांधी अन्तंर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय द्वारा तैयार कराए गए कोश में जो अर्थ दिया गया है वह गलत है। इसका ठीक वही अर्थ है जो अपभ्रंश का है। रेख्ता का अर्थ है गिरी हुई, पड़ी हुई, बिखरी हुई अर्थात् अपभ्रंश अर्थात् गिरे हुए, दबे हुए या आम जनों द्वारा प्रयोग में लाई जाने वाली जबान। और हिन्दी का अर्थ था हिन्दुस्तान के लोग और उनकी बोलचाल की भाषा। इसका प्रयोग सबसे पहले तो उन लोगों ने आरंभ किया जो हिन्दी शब्द से ही डर कर उसे उर्दू कहने लगे और प्रयत्नपूर्वक फारसी बनाने लगे और उससे भी सन्तोष न हुआ तो अरबी भरने लगे। यह उनकी ही बहुधा विभाजित अन्तश्चे तना का प्रमाण है जिसे बीम्सु के भाषाविज्ञान ने पैदा किया था। हिन्दी के लिए तो पहले खड़ी बोली, जो रेख्ता के ठीक विपरीत थी, काम में आती थी। यदि रेख्ता या उर्दू अर्थात् हिन्दी आमफह्म या बाजार की भाषा थी, गिरी हुई, पड़ी हुई, तो यह जो दिल्ली के आसपास की भाषा एक तरह से अभिजात भाषा, तनी हुई भाषा के रूप में अपना दावा पेश कर रही थी और इसलिए रेख्ता या जनभाषा से कमजोर थी। यह दूसरी बात है कि हिन्दी पर अपना दावा छोड़ने और खड़ीबोली द्वारा इसे अपनाए जाने के बाद भी आरंभिक हिन्दी गद्य लेखकों ने लोकोक्तियों और मुहावरों को अपने लेखों में पिरोने का प्रयत्न किया, पर वह असर न पैदा हुआ जिसके कारण गालिब ने होश सँभालने के बाद गर्वोक्ति की थी कि
‘रेख्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब
‘कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था।
पहले वह फारसी पर गर्व किया करते थे, अब आम जनों की मुहावरेदार भाषा पर गर्व कर रहे हैं, जिसके लिए मीर जाने जाते थे:
मुझको शायर न कहो, मीर कि साहब मैंने
दर्दोग़म कितने किए जमा तो दीवान किया।
या
मुँह तका ही करे है जिस तिस का।
हैरती है यह आइना किसका
शाम ही से बुझा सा रहता है,
दिल हुआ है चिराग मुफलिस का ।।
या
सिरहाने मीर के आहिस्ता बोलो
अभी टुक रोते रोते सो गया है ।

”इस जबान से स्पर्धा पर उतर आए थे गालिब। यदि उनकी लोकप्रिय गजलों को देखें तो इस मामले में ग़ालिब मीर से भी अधिक सिद्धहस्त थे । यही ग़ालिब थे जो मोमिन के एक शेर पर अपना दीवान लुटाने को तैयार थे:
तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता ।
”गौर करो इस शेर में प्रयुक्त शब्दावली और अर्थवैभव पर । इसी का नाम हिन्दी था इसी का नाम हिन्दी है। जिन्हों ने इसकी आत्मा‍ में प्रवेश किया था उन्होंने हिन्दी और हिन्दू के साम्य और ब्रितानी कूटनीति द्वारा दोनों के बीच विभेद के चलते इसे छोड़ तो दिया, पर जन भाषा, या आमफहम की भाषा, या बाजार की भाषा अर्थात् उर्दू कहने लगे और जो खड़ी बोली हिन्दी कही जाने लगी उसमें ज़मीन की गन्ध तक नहीं। हिन्दी सचमुच उूपर से लादी हुई, नकली भाषा, असाहित्यिक पर प्रशासनिक दृष्टि से सबसे जरूरी भाषा लगती है। यह चाहे उूर्दू से अलगाव के कारण हो, या आभिजात्य के कारण, यह अपनी जड़ों से जुड़ नहीं पाई, जब कि उर्दू को हिन्दी से अलग करने के लिए उसे फारसी और अरबी से भरने का चलन आरंभ हो गया और इसको सचेत रूप में बढ़ाया गया।
हम आगे बढ़ते रहे और पीछे खिसकते रहे ।
“हमारी अग्रवर्ती पश्चगति में ब्रिटिश कूटनीति और हमारी अपरिपक्वता दोनों का हाथ है। हमे तोड़ने और उल्टी दिशा में मोड़ने के प्रयत्न उनकी ओर से हो रहे थे, जिसके लिए सैयद अहमद और भारतेन्दु दोनों का उपयोग कर लिया गया। इस मामले में बाबू शिवप्रसाद की समझ अधिक सही थी, परन्तु भारतेन्दु और सैयद अहमद में अन्तर यह है कि भारतेन्दु वंशपरंपरा से और स्वयं अपने आरंभिक सोच में, ‘जुग जीवें सदा विकटोरिया रानी’ वाली राजभक्ति रखते थे और अपने विवेक से अंग्रेजी राज्य से उनका मोहभंग होता गया और वह उस आर्थिक शोषण को समझ सके जिसे उन्होंनने ‘पर धन बिदेस चलि जात यहै अति ख्वारी की पीड़ा से व्यक्त किया था और अमेरिका में हुए स्वतंन्त्रता संग्राम के अनुरूप एक भारतीय तैयारी का सपना देखने लगे थे, कहें, विद्रोही होते चले गए थे जब कि सैयद अहमद ब्रितानी जाल में फँसते चले गए थे और जैसा कि हमने कहा, उस राजनीति का एक मुहरा बन कर रह गए थे।
“फिर भी उस दौर में भाषा की तुलना में लिपि का प्रश्न अधिक कॉंटे का था, क्योंकि सैयद अहमद से ले कर दूसरे सभी जानते थे कि एक बार नागरी लिपि को शिक्षा और अदालतों में प्रवेश का अवसर मिला तो अरबी लिपि जो भारतीय नामों, शब्दों के लिये नितान्त अनुपयुक्त थी, किनारे लग जाएगी, इसलिए उन्होंंने इसे सांस्कृतिक अस्मिता के प्रश्न के रूप में बहुत अडि़यलपन से अपनाए रखा। इस मामले में लगभग सभी मुसलमानों को अन्ततक अरबी लिपि का आग्रह बना रहा, जिसमें तत्ववादी और प्रगतिशील सभी आ जाते है। इस मनोविज्ञान को समझना भारतीय यथार्थ को समझने के लिए जरूरी है परन्तु इस पर हम यहॉं इसकी चर्चा नहीं करेंगे।
“जहॉं तक भाषा का प्रश्नं था, अदालतों और थाने की भाषा फारसी-बहुत भाषा थी जिसे केवल वकील, मुख्तार समझते थे और जिसे जानबूझ कर मुश्किल बना रखा गया था जिससे कोई व्यक्ति यदि यह जानना चाहे कि लिखा क्या गया है तो उसे किसी वकील, मुख्तार या मुंशी की मदद लेनी पड़े। इसे और भी दुरूह बनाने के लिए शिकश्ता में लिखने का चलन था जिसमें सन्दर्भ के बिना अर्थ समझा ही नहीं जा सकता था – उसी लिखित वाक्य को दादा अजमेर गए और दादा आज मर गए, किसी भी रूप में पढ़ा जा सकता था। यह भी उसे गूढ़ या कूट भाषा बनाने का एक तरीका था। इस खास अर्थ में यह भाषा और लिपि सचेत रूप में जनता से दूर ही नहीं जनविरोधी भी थी।
“मुझे हैरानी सिर्फ इस बात पर होती है कि आजादी से पहले जो लोग हिन्दी की वकालत कर रहे थे उन्हें हिन्दी वालों ने इतना नाराज क्यों कर दिया कि वे भी हिन्दी के विरोधी हो गए। सारा कसूर तो हिन्दीवालों का है।
“पर दुबारा सोचने पर लगता है, यह आधी सचाई है। पूरी सचाई तो यह है कि आजादी की लड़ाई भारतीय भाषाओं में नहीं लड़ी गई। भारतीय भाषाओं में तो अधिक से अधिक उनके व्याख्यान होते रहे, लड़ाई जिनसे लड़ी जा रही था उनकी भाषा हिन्दी नहीं थी, अंग्रेजी थी, इसलिए स्वतन्त्रता संग्राम की भी भाषा अंग्रेजी थी।

“तुम जँभाइयॉं ले रहे हो जिसका मतलब है तुम उूब रहे हो । गलत कह रहा हूँ?”

“गलत तुम कहो भी तो यह पता न चलेगा कि कहीं कुछ गलत है। इसके लिए अक्ल की जरूरत पड़ती है, पर उूब रहा हूँ यह तो सच है ही।”

Post – 2016-02-13

गांधीनामा

तुम्हारी कुछ बातें मुझे भी सही लगती हैं।

सही गलत के चक्कर में मत पड़ा करो, जो सही है वह भी गलत हो सकता है, और जो गलत है वह कुछ लोगों केा गलत लग सकता है, दूसरों को सही क्योंकि उसी से कुछ लोगों को नुकसान हो सकता है और दूसरों का फायदा।

वह हँसने लगा। कुछ बोला नहीं।

’’देखो अभी कल एक सज्जन कह रहे थे, गांधी जन-आन्दोलन खड़ा करने के लिए खिलाफत का भी समर्थन कर सकते थे। मैंने कहा, नहीं, यह तथ्य तो है, पर सच नहीं है। गॉंधी से पहले मुसलिम चेतना पर सैयद अहमद का प्रभाव था जो मुसलमानों को कांग्रेस से अलग रहने और अंग्रेजी सरकार का विश्वासपात्र बने रहने की नसीहत देते थे, क्योंकि यह उनके लिए फायदेमन्द था और इसलिए सही था। पर गलत इसलिए था कि मुसलिम हित को सर्वोपरि मानने के कारण वह बौद्धिक रूप में अंग्रेजी कूटनीति के सम्मु‍ख आत्मसमर्पण कर चुके थे, एक असाधारण प्रतिभा, अपनी संकीर्ण सोच के कारण मुहरा बन कर रह गई थी और इससे मुस्लिम समुदाय मुख्य धारा से कट कर दरबाबन्द चेतना का शिकार हो गया था। गॉधी की सोच यह थी कि यदि हमें भारतीय समाज को एकजुट करना है तो हमें उसके किसी हिस्से‍ के ऐसे सरोकार का जो अंग्रेजी सत्ता के लिए असुविधाजनक है, समर्थन करना चाहिए। भीड़ जुटाने का वहॉं प्रश्न नहीं था। परन्तु जल्‍द ही इसके नतीजों ने ही समझा दिया कि यह बहुत बड़ी भूल हो गई और उन्हों ने पूरी कांग्रेस पार्टी को हैरानी में डालते हुए अपना आन्दोतलन ही स्थगित कर दिया और एक लंबे विराम में बाद उसे नये सिरे से खड़ा किया।

” गॉघी भारतीय राजनीति में प्रवेश करने से पहले ही एक चमत्कारी पुरुष के रूप में विख्य हो चुके थे और एक साल के भारत दर्शन के बाद तो वह घूरे पर भी खड़े हो जाऍं तो वह तन कर एक टीला बन जाता था और भीड़ स्वत: उनके चुबकीय व्यक्तित्व के कारण एकत्र हो जाती थी और जिधर मुड़ते हवा तक अपना रुख बदल लेती।

आइंस्टाइन और गांधी बीसवीं शताब्दी की दो आश्चर्यजनक विभूतियां हैं, परंतु एक का सरोकार भूत-जगत से था तो दूसरे का प्राणि-जगत से । भूत जगत में हम इच्छानुसार विच्छेेदन, विलगाव, नियन्त्रण कर सकते हैं प्रकृति के रहस्यों को समझ सकते हैं, एक बार विफल होने पर दुबारा अपनी चूक से बच और भूल को सुधार सकते है और इससे श्रम और धन की मामूली सी क्षति को छोड़ कर दूसरी कोई क्षति नहीं होती, परंतु प्राणि-जगत में और खास तौर से मानव जगत में इनमें से कोई सुविधा नहीं होती इसलिए उसमें अपना विवेक और अन्त:प्रज्ञा को छोड़ किसी चीज का सहारा नहीं होता। जाहिर है, उसमें यदि कोई बड़ा प्रयोग किया गया तो उसके परिणाम भयानक हो सकते हैं और इसके अपवाद तो आइंस्टा़इन भी नहीं जिन्होंने यह जान कर कि जर्मनों ने परमाणु बम तैयार कर लिया है, रूजवेल्टी को बम बनाने की सलाह दी थी और उसके सूत्र भी सुझाए थे। रूजवेल्ट बड़े नेता थे, गहन मानवीय संवेदना से युक्त। उनका पोलियो भी उनकी इस संवेदना का ही पुरस्कार था। आइंस्टाइन को क्‍या पता था कि उन्हें नाम से सच्चा मनुष्य या कहो मानववादी पर मिजाज से जल्लाद उत्तराधिकारी मिलेगा जो स्वयं उस भयानक त्रासदी का सूत्रपात करेगा जिसे टालने के लिए उन्होंने यह सुझाव रखा था। उन्होंने प्रतिरक्षा की चिन्ता से कातर हो कर इसमें योगदान दिया था, आक्रामक आयुध के रूप में नहीं।

‘छोटे लोग छोटी गलतियॉं करते हैं जिससे सिर्फ उनका नुसकान होता है, पर महान लोग इतनी महान भूलें करते हैं जिनके लिए गॉंधी ने हिमालयी भूल या हिमालयन ब्लंडर का पद गढ़ा था। यदि ब्लंडर के आकार को मानदंड बनाया जाय तो आइंस्टाइन मानव इतिहास के सबसे बड़े आश्चर्य हैं, जो उनके चकित करने वाले कामों से भी सिद्ध हो सकता है। परन्तु आइंस्टाइन ही ऐसी प्रतिभा थे जो समझते थे कि भौतिकी के क्षेत्र में काम करने से अधिक महत्वपूर्ण है मानविकी के क्षेत्र में काम करना है, क्योंकि सभी मानव प्रयास मानव जीवन को उन्नत बनाने के लिए ही तो, इसलिए अन्तिम दिनों में वह इस ओर भी मुड़े थे। वही कह सकते थे कि आने वाले समयों में किसी को यह विश्वास न होगा कि गॉंधी जैसा कोई व्यक्ति इस धरती पर पैदा हुआ था।

यह विचित्र है कि खिलाफत आंदोलन के परिणाम स्वरुप जो बोरा विद्रोह अंग्रेजों के विरुद्ध आरंभ हुआ था उसे ब्रितानी खुफिया तन्त्र ने यह प्रचारित करके कि अब ब्रिटिश राज खत्म हो चुका है, खलीफा का राज्य स्थापित हो चुका है, सच्चे इस्लामी राज्य में मुसलमानों से अलग किसी को जिंदा रहने का अधिकार नहीं है उसकी दिशा पलट दी थी और इसके बाद वही आक्रोश जो पहले अंग्रेजों के प्रति था, हिन्दुओं के विरुद्ध हो गया और अंग्रेजी प्रशासन ने इसे फैलते जाने की पूरी छूट दे दी। इस उपद्रव की कहानियॉं इतनी हृदयविदारक थीं कि जब इसकी खबर गांधी को लगी तो उन्हों ने कहा था, उन्हें मारना चाहिए था। यह पढ़ कर मैं स्तहम्भित रह गया था। गॉधी की अहिंसा क्या राजनीतिक अवसरवाद है।

यह समझने में कई वर्ष लगे थे कि गॉंधी की अहिंसा, बिना परंपरा का गहन अध्ययन किए ही (या कौन जाने गॉंधी क्या् क्या पढ़ और जान चुके थे), उस सोच से जुड़ी थी जिसमें हिंसा को अक्षम्य पाप तो कहा गया है, परन्तु यह विधान भी है कि आततायी का वध करने पर कोई पाप नहीं लगता। आज की भाषा में कहें तो यह अपरिहार्य और न्यायोचित है। न आततायि बधे दोषो हन्तुःभवति कश्चन ।

कहते हैं आइंस्टााइन के सापेक्षता सिद्धांत के बारे में एक व्यक्ति ने कहा था दुनिया में इसके तीन जानकार है। जिससे उसने ऐसा कहा था उस वैज्ञानिक ने कहा था दो को तो मैं जानता हूं, एक मैं दूसरे आइंस्टांइन, पर यह तीसरा कौन है?

हो सकता है फिकरा हो, पर कई बार फिकरे भी यथार्थ की उससे अधिक गहरी व्याख्या कर जाते हैं जिससे दार्शनिक करना चाहते हैं और कर नहीं पाते।

”सापेक्षता के सिद्धांत पर बात करोगे जिसे तुम जानते नहीं या उस विषय पर बात करोगे जिस के बारे में जैसी भी सही, कुछ जानकारी रखते हो।”

अरे भाई मैं सापेक्षता के सिद्धांत की बात नहीं कर रहा हूं । मैं तो यह कह रहा हूं कि महान से महान वैज्ञानिक भी उसके कुछ पहलुओं को नहीं समझ पाए थे। उन्हें ज्ञेय मानते थे पर ज्ञात नहीं। वे मानते थे कि सच्चाई तो कहीं है, परन्तु प्रमाणित नहीं हो रही है उनके अपने सिद्धांतों के अनुसार मैं केवल इस मोटी खबर को जानता हूं कि उसका जितना अंश ज्ञात और मान्य हो सका, उसकी ओर आइंस्टाइन का ध्यान नहीं था। वह बहुत कुछ ऐसा जानते थे जिस तक किसी अन्य की पहुँच असंभव थी। उनका उल्लेख इसलिए कर रहा हूं कि यह बता सकूं कि गांधी के अहिंसा सिद्धांत को भी उसी तरह से हमारे समाज में नहीं समझा, जैसे सापेक्षता के विशेष सिद्धान्त को। उसको समझने वाला शायद दुनिया में कोई दूसरा नहीं था । पर जितना समझ में आता था उसी पर लोग उन्हें सिर पर उठाए फिरते थे। ठीक यही हाल गांधी का था।

अरे भाई मैं चाहता था तुम यह बताओ हिन्दीं का भविष्‍य क्या है और तुम गांधीनामा ले कर बैठ गए।
उस पर कल बात करेंगे।

Post – 2016-02-12

अधूरे के अधूरे का अधूरा

जब मैं कहता हूं कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेता अपने और अपनों के लिए रियायतें मॉंग रहे थे तो यह एक सामान्य कथन है। यह कुछ लोगों को खटका भी होगा और एक मित्र ने लाल, बाल और पाल का नाम लेते हुए मुझे अपनी स्थिति स्पष्ट करने को भी कहा। मेरा इरादा इन महापुरुषों और इन जैसे महापुरुषों के त्याग और बलिदान और साहस को कम करके ऑंकना नहीं है। यदि हम कांग्रेस के भीतर के प्रथम विभाजन, जिसे नरम दल और गरम दल का नाम दिया गया, पर ध्यान दें तो मुझे नरम दल के नेता अधिक दूरदर्शी दिखाई देते हैं और यह दूरदर्शिता कांग्रेस का विरोध करने वाले सैयद अहमद में भी इस रूप में देखी जा सकती है कि इन्होंने सत्तावन के संग्राम से जो दुर्भाग्यवश विद्रोह बन कर रह गया, शिक्षा ली थी और जानते थे कि इस बीच सीधे इंगलैंड के तख्त के अधीन प्रशासन के आ जाने के कारण ब्रितानी चौकसी और ताकत बढ़ी है, जब कि भारत की सशस्त्र संग्राम छेड़ने की क्षमता को लगभग कुचल दिया गया है। मेरा अध्ययन इस विषय में मेरे अनेक मित्रों से भी कम है और अनुभव का तो सवाल ही नहीं उठता…’’

’’जब न ज्ञान है न अनुभव तो चुप तो रह सकते हो, बीच में टॉंग क्यों अड़ाते हो।‘’

’’इसलिए कि अनुभव किसी के पास नहीं है, और किताबों से अलग अलग सूचनाऍ मिलती हैं, पर वह दृष्टि नहीं जो तथा‍कथित नरम दलीय नेताओं के पास थी। यह नरम दल का ही बोध था जो गॉधी को हस्तान्तरित हुआ या उलट कर कहें कि यह नरम दल का नेतृत्व ही था जिसने गॉंधी की संघर्ष क्षमता को पहचाना और कांग्रेस का नेतृत्व उन्हें सौंपने का फैसला किया। गरम दल के ये तीनों नेता बहुत पढ़े-लिखे थे, साहसी थे, असाधारण वक्ता थे, परन्तु आवेश के कारण उनकी दृष्टि उतनी स्वच्छ- नहीं थी जितनी गॉंधी की। सुभाषचन्द्र बोस भी गरम दलीय सोच के ही थे और गॉंधी उनके मिजाज को समझ लेने के बाद उनसे भी कांग्रेस के नेतृत्व को मुक्त रखना चाहते थे। जोशीले लोग आकर्षक लगते हैं, परन्तु वस्तु्स्थिति का आकलन करने में चूक कर जाते हैं और इसलिए उनके कामों के परिणाम उतने श्रेयस्कर नहीं होते जितने उनके उत्सर्ग भाव से आशा बॅधती है।

” हमारी शक्ति उस खास चरण पर और उससे आगे भी सत्तावन की तुलना में बहुत कम हो गई थी। उससे पहले तलवार बन्दूक, बर्छा फरसा जैसे हथियार जनता के पास थे। अब एक साख लम्बासई से बड़े चाकू छुरे तक हथियार मान कर प्रतिबन्धित थे। बन्दूक सरकारी जॉंच के बाद सरकार के स्वामिभक्तों को दिए जाते थे जो ब्रिटिश सत्ता के पायों-थूनियों का काम करते थे। 1818 के बाद धार्मिक संवेदना की उपेक्षा करते हुए जिस तरह की मनमानी की जाने लगी थी उससे सीख लेते हुए शासन ने संवेदनशीलता दिखाना आरंभ कर दिया था। अत: धार्मिक प्रश्नों पर उस तरह का सामाजिक विक्षोभ जो ज्वालामुखी की तरह फट पड़े, नहीं पैदा किया जा सकता था। उल्टे इसकी ऑंच हिन्दुओं-मुसलमानों की ओर मोड़ कर और पारस्‍‍परिक अविश्वा‍स को बढ़ाने के लिए अपनाये गये तरीकों से उस निकटता को तोड़ा जा चुका था, जो सत्तावन में पैदा हो सकी थी। अत: छिट फुट बम दागने से क्षणिक उत्तेजना तो पैदा की जा सकती थी, बदले की कार्रवाई भी की जा सकती थी, परन्तु सत्ता नहीं खत्म की जा सकती थी। यह ऐतिहासिक विवशता थी जिसका ध्यान रखते हुए ही कोई प्रभावकारी तरीका अपनाया जा सकता था।

”इस मोड़ पर केवल दो चीजें नई थीं और जिनका उपयोग किया जा सकता था। पहला था प्रेस और दूसरा था यह आश्वासन कि भारत का प्रशासन न्याायपूर्वक और भारतीयों के हितों की चिन्ता करते हुए किया जाएगा। गरम दल के नेता पहले का आलोचनात्मक तेवर के साथ पाठ कर रहे थे और नरम दल के नेता उस हितकारी शासन के आश्वासन की व्याख्या करते हुए अपनी मॉंगें रख रहे थे । परन्तु प्रेस पर सरकारी नियन्त्रण था और सत्ता‍ को चुनौती देने वाली या आलोचना करने वाली सामग्री को जब्त कर लिया जाता था, संपादकों, लेखकों को दंडित किया जाता था, और एक अल्पशिक्षित समाज में केवल शिक्षितों तक अपने विचार पहुँचाये तो जा सकते थे परन्तु उन्हें किसी कारगर कार्यक्रम का हिस्र्सा नहीं बनाया जा सकता था।

“ऐसा मुझे लगता है, हो सकता है कुछ अन्य तथ्यों की ओर ध्यान जाने पर इसमें सुधार की अपेक्षा हो। विपिन चन्द्र पाल और अरबिन्दो उस बंगभंग के विरुद्ध विप्लवी गतिविधियों में शामिल हुए थे और यह मान कर शामिल हुए थे कि यह हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दरार डालने के लिए किया गया प्रयास है, परन्तु् इस प्रयास को उन्होंने अपने आन्दोलन से सफल हो जाने दिया। यदि सभी मुसलमान, यहॉं तक कि कांग्रेस में शामिल मुसलमान भी इसका समर्थन कर रहे थे तो विभाजन पर चुप रहना अधिक समझदारी रही होती, क्योंकि विरोध से ब्रिटिश कूटनीति सफल हुई। बंगाल नहीं बँटा पर दिल बॅट गए। बंगाल को प्रशासनिक दृष्टि से अपनी विशालता के कारण बँटना ही था। मैं नही जानता नजरुल इस्लाम की कविता में फारसी शब्दों की वृद्धि का भी यह एक कारण था या नहीं, परन्तु जिसे सुनीति बाबू ने मुसलमानी बांग्ला का नाम दिया उसकी पैदाइश इससे जुड़ी हो सकती है। मैंने इसका विस्तार से अध्यंयन नहीं किया। मुस्लिम लीग की स्थापना का तो इससे सीधा संबन्ध है ही। हम प्रत्येक मामले के विस्ताार में जाऍंगे तो दिशा बदल जाएगी। एक बात का श्रेय अवश्य इन महापुरुषों को जाता है कि इन्हों ने अंग्रेजी में लिखने के साथ हिन्दी, मराठी और बांग्ला में भी लेखन किया और इस दृष्टि से हमारी समस्या के सन्दर्भ में इनका महत्व अवश्य है।

“कांग्रेस के अन्य‍ नेताओं में आवेश था विजन या क्रान्‍‍तदर्शिता नहीं थी जो गांधी के पास थी। गांधी जी के साहित्य का भी मुझे आधिकारिक ज्ञान नहीं है, परन्तु जितना उलट पलट कर देख सका हूँ कहीं यह संकेत नहीं मिलता कि अपने सत्याग्रह को उस ब्राह्मणी शस्त्राागार से लिया था जिसमें प्राण देने की ठान कर अडिग भाव से जिसे गलत मानते हैं उसे मानने से इन्का्र करते रहे और आश्चर्य यह कि यह क्रान्तिकारिता रूढि़वादी ब्राह्मणों में ही थी नवाचारी ब्राह्मण तो सुविधाओं के हाथ बिक जाते थे। रूढि़वादी ईसाइयों, रूढि़वादी ब्राह्मणों की प्रगतिशील और विद्रोही भूमिका का जिक्र हम पहले भी कर आए हैं उसे दुहराने की जरूरत नहीं।

”यह सब तुम सुना क्यों रहे हो।”

” यह बताने के लिए कि गॉधी में एक रहस्यमय तरीके से परंपरा के जीवन्त तत्वों का नये सिरे से आविष्कार था और आधुनिकता के साथ उसका अद्भुत सामंजस्य था। ऐसा ही सामंजस्य पूर्व और पश्चिम के तत्वों का था और ऐसा ही सामंजस्य गरम दल और नरम दल के जीवन्त तत्वों का। गांधी हिंसा का रास्ता चुनने के पक्ष में नहीं थे, परन्तु ‘’हिंसा और कायरतापूर्ण पलायन में से मैं हिंसा को ही तरजीह दूँगा।” अहिंसक मरने के डर से हिंसा से पलायन नहीं करता, मरने और पलायन करने में मरने का वरण करता है, यह रूढि़वादी ब्राह्मणों के फीरोज शाह तुगलक और औरंगजेब दोनों के जजिया के विरोध में सविनय निवेदन के साथ अपनी मॉंग रखने, मॉंग न मानी जाने पर राजादेश की अवज्ञा करने, और हाथी से कुचले जाने पर भी मरने के लिए खड़े होने वालों का एक विशाल क्षेत्र में विस्ताार हो जाना…?

‘गॉंधी का सविनय अवज्ञा और असहयोग नरम दल के वश की बात न थी। बिना हिंसा का सहारा लिए, ‘मैं तुम्हारे गलत कानून और गलत शासन को नहीं मानता, मैं आजाद हूँ और आजाद रहूँगा और आजाद मरूँगा’ छाती तान कर नहीं कह सकता था। ऐसा व्रत लेने वालेों को भी इनके वचाव के साथ ही छुप कर रहना पड़ता और छिप कर प्रतिघात करना पड़ता था, अपनी पहचान जताने के लिए मैं झुकने को तैयार नहीं हूँ।’

” गांधी के सत्याग्रहियों को छुपने, बचते हुए जीने और मात्र यह जताने के लिए जीने की जरूरत नहीं थी। उनके पास एक ऐसा हथियार था जिसे ले कर वे सीधे गलत कानून को चुनौती और अपनी आजादी की घोषणा ही नहीं कर सकते थे, अपने विरोधियों को नंगा भी कर सकते थे। उनमें एक अतीन्द्रिय बोध था जिसमें आधुनिकता और परंपरा, हिंसालभ्य और अहिंसालम्य लक्ष्यों का समावेश था। गॉंधी को उनके समय में भी नहीं समझा गया और उनकी गाथा गाने वालों द्वारा भी अधूरे रूप में ही समझा गया। तुम्हें क्या लगता है।”

”मुझे लगता है कि यदि मेरे हाथ में हथौड़ा होता और तुम्हें अपना मित्र समझ कर उसका तुम पर प्रयोग न करने की ठान कर बैठा होता तो भी अपने को काबू न कर पाता और तुम्हारा सिर फटा मिलता । बात कर रहे थे कि हिंदी का आना अब इतिहास की जरूरत है और गॉंधी माहात्म्य में जुट गए। तुम पिछले जन्म मे चारण रहे होगे।

“चलो, पुनर्जन्म में तुम्हें विश्वास तो पैदा हुआ। लेकिन तुम ठीक कहते हो, मुझे न बोलना आता है, न लिखना। मैं अक्सर अपने विषय को ही भूल जाता हूँ, बोलते समय भी और लिखते समय भी। लेकिन इसका एक फायदा भी है यार। जब पता चलता है कि अरे मुझे इस विषय पर बात करनी थी और उसका तो जिक्र ही नहीं आया तो प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब इसे सलीके से कहूँगा। नतीजा वही होता है। फिर भी लाभ यह कि अपनी ही कमी को पूरा करने के लिए दूसरा लेख, दूसरी किताब आती जाती है, बाजार गरम रहता है और बात पूरी होती लगती नहीं। मरते समय कहूँगा, इसे अगले जनम में समझाउूँगा, पर वैज्ञानिक अगले जनम का रास्ता रोके खड़े हैं। अधूरा कहा और अधूरा लिखा है, इसे मेरे पाठक ही पूरा करेंगे। फिर भी कल मिलते हैं.

Post – 2016-02-11

मैंने कहा था, हिन्‍दी पर अगली पोस्‍ट शाम को, पर नहीं जानता था कि उस पोस्‍ट को पूरा करने के बीच में ही कविता की कृपा हो जाएगी। इसलिए उसे कल के लिए स्‍थगित करते हुए इस खुराफात पर नजर डालें:

रात ऐसी कि तड़प बन गई हो खामोशी।
दिन कुछ ऐसा कि रोशनी में दिखाई न पड़़े।
याद ऐसी है कि कॉमा में जगह ढूढ़ते हैं
चीख ऐसी कि पासबॉं को सुनाई न पड़े ।
गुरुवार, 11 फरवरी 2016
कल मिलेंगे।
पर यह रचना प्रकिया का एक रहस्‍य है जो मुझे भी नहीं मालूम था और आप को भी मालूम न होगा। इससे पहले मैंने उन पोस्‍टों को देखा था जिनमे जेएनयू मे अफजल गुरु की आड़ में अराजकता और राष्‍ट्रद्राेह फैलाने के आयोजन किए गए थे। जेएनयू वामपंथी रुझान के लिए जाना जाता रहा है, वैचारिक खुलेपन के लिए नहीं। वामपन्‍थी भटकाव कदम दर कदम बढ़ते हुए राष्‍ट्रद्रोह और अराजकता का पर्याय बन जाएगा यह सोचा तक न था। यह चिन्‍ता अन्‍तर्मन में थी और काम अपने विषय पर कर रहा था, चिन्‍ता ने विवेक को रौदते हुए कविता मे अपनी अभिव्‍यक्ति ढूढते हुए लेखन क रास्‍ता रोक लिया। अपनी सांकेतिक भाषा में कहा, किस युग में अटके हो, इस यथार्थ को तो देखो। मैं कितना अकिंचन हूॅ और कितना असहाय।
पत्थर भी कोई है जो सिर को सुकून देगा, टकरा भी अगर दूँ तो क्या खून भी निकलेगा।

Post – 2016-02-11

”यह बताओ, तुम्हागरे पास जादू की कौन सी छड़ी है जिससे तुम हिन्दी को भारतीय संपर्क भाषा बनने का सपना देखते हो और कौन सी ऐसी भन्नताऍं हैं जिनके कारण तुमको पाकिस्तान में उर्दू की स्वीकृति असंभव लगती है।”

”इतने सारे सवाल । मैं तो इनमें पहले का ही जवाब दे सकूँ तेा धन्य समझूँगा। पहली बात यह जादू की छड़ी न तो कभी मेरे पास थी, न ही उसकी कामना करता हूँ। छड़ी का जादू छड़ी के हटते ही टूट जाता है। मेरे पास इतिहास की एक मोटी समझ है जिसमें यह संभव प्रतीत होता है।”

”यह समझ सिर्फ तुम्हें है, और किसी को नहीं।”

”दूसरों को इतिहास की बारीक समझ है इसलिए वे इसके साथ छेड़छाड़ करते रहते हैं, इसालिए उसे समझ नहीं पाते। वे उससे डरते हैं, उसे अपनी भट्ठी का ईंधन बना कर रखना चाहते है, और लापरवाही में अपना हाथ भी जला लेते हैं। मैं उसे देखता हूँ, उसके रुख को पहचानता हूँ और उससे संवाद तक कर लेता हूँ क्योंकि उसकी संकेत भाषा समझता हूँ।”

”तब तो तुम्हारी आरती उतारनी पड़ेगी।”

”उसमें तो सीधे आग से पाला पड़ेगा और तुम अपनी दाढ़ी भी जला बैठोगे। इसलिए ऐसा जोखिम मत उठाओ, मैं तुम्हें स्वयं उसके पास ले चलता हूँ।”

”देखो, उन्नीसवीं शताब्दी में कोई इस बात का सपना तक नहीं देखता था कि यह देश कभी आजाद हो सकेगा, सिर्फ अंग्रेजों को पता था कि उनके पॉंव जमीन पर नहीं है, वे अधर में लटके हुए है, उन्‍हें यह आशंका भी थी कि 1857 के दमन का गुस्‍सा भारतीय मानस में भरा हो सकता है और कभी उग्र रूप ले सकता है। इसलिए वे तभी तक सुरक्षित है जब तक भारतीय आपस में लड़ते रहें। यह नीति उन्होंने टीपू (1799) की पराजय और उसके बाद दूसरे मराठा युद्ध में विजय (1805) और 1815 में तीसरे मराठा युद्ध में मराठा प्रतिरोध को पूरी तरह चूर करने के बाद जब कहीं से प्रभावशाली प्रतिरोध का खतरा नहीं रह गया तब अपनाई। इससे पहले वे यह मान कर चल रहे थे कि उन्होंने बंगाल की जमीन मुसलमान शासकों से छीनी थी सो मुसलमान ही उनके विरोधी हो सकते हैं, हिन्दुओं को मुस्लिम शासन से मुक्ति मिली है इसलिए वे आसानी से हमारे साथ आ सकते हैं, उन्होंने हिन्दू सभ्यता और संस्कृति का अध्ययन और इसके नकारात्मक पक्षों की उपेक्षा करते हुए केवल धनात्मक पक्षों को उजागर करने की नीति तो अपनाई ही, इस बात की सावधानी भी बरती कि मिशनरियों की गतिविधियों को काबू में रखा जाय, जिससे वे जिन हिन्दुओं का सहयोग और समर्थन चाहते हैं वे बिदक न जायँ। यह याद रखना जरूरी है कि मुसलिम प्रतिरोध बंगाल में 1857 के संग्राम के बाद भी जारी रहा और उसी से चिन्तित हो कर हंटर ने जो खुफिया विभाग के प्रधान रह चुके थे मुसलमानों को हिन्दुओं के विरुद्ध करने या कहें आपसी झगड़े लगा कर अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने का रास्ता अपनाया था।

”तुम किसी बात को इतना फैला देते हो, यदि मुझे तुम्हारी बीमारी को नाम देना हो तो इसे डायलोफीलिया नाम दूँगा और तुम्हें समझाने का प्रयास करूँगा कि तुमको किसी अस्पताल में भर्ती हो जाना चाहिए।”

”और यदि मैने पूछ लिया कि कौन सा अस्पताल तो तुम उसका नाम बताओगे जिसमें तुम आते जाते रहते हो। तुम्हें अपने अस्पलताल से भी प्रेम है और अपने आप से भी, और तुम जो अच्छे नंबर लाते रहे हो वह हिस्ट्री मेड ईजी, साइंस मेड ईजी, यूनिवर्स मेड ईजी जैसी किताबें पढ़ कर। तुम्हें झटपटिया ज्ञान है और मैं तुम्हें उस मनोविश्लेषण से गुजारना चाहता हूँ जिसमें अवचेतन की गहराइयों में उतर कर समस्याओं का कारण समझा जाता है, समाधान वहॉं नहीं मिलता। समाधान कारण को जानने के बाद हमें ही तलाशना होता है।
“तुम्हें आज इतनी ही खूराक काफी है। पहले इसे पचा लो तो उन गॉंठों पर बात करेंगे जिनसे मुक्ति के बिना हम राष्ट्राकवि की उन सरल पंक्तियों का भी अर्थ नहीं समझ सकते जो निरक्षरों को भी बोधगम्य लगती हैं :
हम कौन थे क्यां हो गए हैं और क्या होंगे अभी।
(कुछ घंटों बाद इसका अगला अंश)

अब इस तथ्य पर ध्यान दो िक मध्यकाल में शासकों के जो भी अन्याय रहे होंं सामान्य िहन्दुओं और मुसलमानों के बीच कटुता न थी । इसका प्रधान कारण यह था कि मुसलमानों का नब्बे प्रति शत धरमान्तरित िहन्दू थे िजन्हें विवशता में ऐसा करना पड़ा था। इसलिए दफ्तरों की भाषा जो भी रही हो आम बोलचाल की ज़बान ऐसी थी िजसमें
कुछ अरबी फारसी के शब्द थे जबान िहन्दी थी, हिन्दी ही कही जाती थी ।
सभी मुसलमान अपने क्षेत्र की बोली जानते और बोलते थे। विदेशी मूल पर गर्व करने वाले
आपस मे तुर्की या फारसी बंोलते थे । कविता करते समय उनकी जबान में कुछ ऐसे शब्द भी आ जाते थे जो आम बोलचाल में नहीं आए थे । पर इसे एक दोष माना जाता था । मीर का यह कथन िक ‘क्या जानूँ लोग कहते हैं किसको सरूरे कल्ब । आया नहीं है लफ्ज ये हिन्दी जबाँ के बीच ।’ इस सचाई को बयान करने के लिए काफी है । हाली के बारे में एक बार शमशेर बहादुर सिंह ने बताया था कि वह शब्द विचार के मामले में कहते थे कि हमारे घर में । इसके लिए यह बोला जाता है, अर्थात महिलाओं की बोली को वह भाषा की कसौटी मानते थे । जौक ने गालिब की भाषा का मजाक उड़ाते हुए कहा था मजा कहने का जब है एक कहे और दूसरा समझे, मगर इनका कहा ये आप समझें या खुदा समझे । गरज नाम भले उर्दू भी चलन में आ गया था पर उसका मतलब भी हिन्दी या आम बोलचाल की भाषा ही था, इसलिए भाषा को लेकर हिन्दू मुसलमान का फर्क न था । गालिब भी अपनी चूक सुधारने की ओर मुड़े थे । उनके वे ही शेर लोकप्रिय हैं जो आम जबान और मुहावरों में हैं। यह अलगाव १८७०के बाद प्रयत्न पूर्वक पैदा किया गया और इसी तरह गोकुशी को सह दे कर, कराने की कोशिशें शुरू हुंईं कि जिससे उनके कसाई खानों की ओर ध्यान न जाय। इसे प्रचारित जान बूझ कर किया जाता था। इसको खुले आम कराने के प्रयतन के बाद भी ऐसा विरल मामलों में ही होता था ।
‘तुम फिर बहक रहे हो।’
‘तुम ठीक कहते हो । यह समझो कि औरंगजेब ने भी अपनी मौत को निकट जान कर जो
दर्द और अफसोस भरा, लगभग आत्मग्लानि भरा पत्र दक्षिण भारत से अपने पुत्र को लिखा था उसे मुस्िलम शासकों के व्यवहार में एक मोड़ माना जा सकता है िजसमे भारतीय जमीन और जन से जुड़ने की तड़प साफ देखी जा सकती है यही कारण है १८५७ में । हिन्दू मुसलमान दोनों मेंइतना एका पैदा हो सका।
“यह पँवारा तुम क्यों दुहरा रहे हो?”
“यह याद दिलाने के िलए कि उन्नीसवीं सदी में भारतीय समाज अधिक एकजुट था, कि १८५७ का संग्राग हमारे जातीय आक्रोश की अभिव्यक्ति था, उसका लक्ष्य ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंकने काथा, जब िक सैयद अहमद का अभियान और कांग्रेस का लक्ष्य अपने और अपनों के लिए रियायतें माँगने का था। इसमें नजर िकसको क्या िमला इस पर थी और जब इसने डोमिनियन स्टेटस या स्वतन्त्रता की माँग करना शुरू किया तब भी
इसमें ऐसों का बोलबाला था जो अपने लिए कुछ चाहते थे और लगे हाथ कुछ देश को भी
मिल जाय तो उस पर उन्हें आपत्ति न थी।

Post – 2016-02-09

न मैंने सोचा न मैंने देखा न मैंने जाना

मैंने तो यह सोचा ही नहीं था कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान दोनों की दशा एक जैसी ही है।

पहले तो यह समझो कि हिन्दुस्ताान नाम का कोई देश नहीं है, कभी हुआ करता था, कुछ सौ बरसों तक, अब वह भारत, पाकिस्तान और बांग्ला देश में बट चुका है, इसलिए अगर तुम हिन्दुरस्तान की बात करोगे तो पड़ोसियों को चिन्ता् होगी कि तुम उन्हेंं हड़पना चाहते हो। इंडिया भी उसे ही कहा जाता था। इंडिया जैसा देश भी नहीं है।

तुमने भारतीय संविधान पढ़ा है। इसके लिए संविधान पढ़ने की जरूरत नहीं।

हमारे संविधान में बहुत कुछ गलत था। न होता तो इतनी बार संशोधन की जरूरत नहीं पड़ती। यह नहीं कह सकते कि अभी बहुत कुछ गलत बचा नहीं रह गया है जिसके लिए आगे संशोधनों की जरूरत पड़ सकती है। इंडिया जिस नदी के नाम पर रखा गया था, वह पाकिस्तान में है। हिन्द जिस सिन्ध का ईरानी नाम था वह भी पाकिस्तान में है और देखो यह जो तुम ‘पंजाब सिन्धं गुजरात मराठा द्राविड़ उत्कल बंगा’ गाते हो उसको भी राष्ट्र संघ में चुनौती दी जा सकती है। तुम्हारे देश के किसी भूभाग को दूसरे के नक्शे में दिखा दिया जाय तो कोहराम मच जाता है और तुमने दूसरे देश का एक पूरा प्रान्त ही अपनी राष्ट्रगान में दबोच रखा है और उनको इसकी खबर ही नहीं। वह गाना ऐतिहासिक है, उसे विभाजित हिन्दुरस्तान का राष्‍ट्रगान नहीं बनाना चाहिए था।

इस पर तो मैंने गौर ही नहीं किया था।

गौर तो तुमने इस पर भी नहीं किया होगा कि जो अपने राज्यों की या अंचलों की भाषाऍं हैं उनको राष्ट्रभाषाऍं कहा जाने लगा मानो तुम्हारा देश राष्ट्र मंडल हो, न कि राष्ट्र , और जिसे राष्ट्रभाषा के रूप में परिकल्पित किया गया था और व्यावहारिक रूप में जो आज भी राष्ट्र भाषा है क्योंकि इसी का टूटा फूटा ज्ञान रखने वाला कोई न कोई तुम्हें उन क्षेत्रों के गॉंवों और अनपढ़ों में भी मिल जाएगा जिसने कसम खा रखी थी कि हम हिन्दी को राष्ट्राभाषा नहीं बनने देंगे, पूरे भारतीय भूभाग में कहीं सघन कहीं विरल इसी की उपस्थिति मिलती है, पर संविधान में इसे राजकाज की भाषा या अफिशियल लैंग्वेज कहा गया, भले उसमें काम न होता हो। राज्य भाषाऍं राष्ट्रभाषाऍं और राष्ट्रभाषा राजभाषा। यह उलटबॉंसियों का देश है यार।

तुम्हारी चले तो तुम इसे उपमहाद्वीपीय भाषा बना दो। किसी महाद्वीप या उपमहाद्वीप के लिए एक भाषा की कल्पना अभी तक की नहीं गई। ऐसी नौबत आई तो हम इसे सार्कभाषा तो कह ही सकते हैं।

देखो, स्वाधीनता से पहले भारतवर्ष को दो राष्ट्रीयताओं का देश बनाने का प्रयत्न किया गया और उसे सचाई में भी बदल डाला गया। अब जो एक राष्ट्र बचा रह गया था उसे तुमने दर्जनों राष्ट्रीयताओं का देश बना दिया है। तुम ही सोचो तुम्हें कैसा बावला नेतृत्व मिला और उसने देश को तोड़ने का काम किया है या जोड़ कर रखने का। आज भी ऐसी शक्तियॉं हैं जो इसी काम पर लगी हुई हैं।

अच्छा यह बताओ, यदि तुम्हारा वश चले तो किसे राष्ट्रदगान बनाओगे।

देखो, जब दुनिया में कहीं राष्ट्र की परिकल्पना तक नहीं थी, जब देव वन्द ना और राजा की वन्दना के अलावा कोई वन्दना तक न थी, उस समय एक कवि ने भारत के लिए एक वन्दना गीत लिखा था। मुस्क राओ नहीं, इस देश में बहुत कुछ है जो पच्छिमी नजर से देखने वालों को चकित करता है उसमें यह कथन भी चकित कर सकता है, पर सचाई को नकारा तो जा नहीं सकता, स्वीकारा भले न जाए।

तुम किस गीत की बात कर रहे हो।

विष्णुसपुराण में आए राष्ट्र गान का-
गायन्ति देवा किल गीतिकानि धन्यास्तु ते भारत भूमि भागे
स्वर्गापवर्गास्पद मार्गभूते भवन्ति भूय-पुरुषा सुरत्वात् ।

इस देश का नाम भारत है और युगों से यही नाम है । एक ईमानदार आदमी और स्वाभिमानी देश के लिए एक ही संज्ञा पर्याप्त है। दुनिया में किसी दूसरे देश के दो नाम नहीं होंगे । छद्मनाम चरित्रगत छद्मों की आशंका जगाते हैं । जिस भाषा में भारत तक नहीं कहा जा सकता, वह भाषा भारत की नहीं हो सकती।

तुम जानते हो तुम क्या कह रहे हो।

तुमको समझना होगा कि मैं क्या कह रहा हूँ क्योंकि डरा हुआ आदमी न सच को कह सकता है न समझ सकता है, यथास्थितिवादी होना उसकी नियति है। यदि यह नहीं समझ में आया कि क्या कह रहा हूँ तो इसका भाष्य करके बता दूँ कि मैं कह रहा हूँ हमने भावुकता से अधिक और विवेक से कम काम लिया, हम लोगों को खुश करने की कोशिश में अपना वजूद भूल गए । गनीमत इतनी ही है कि अधिनायक की वन्दना हम करते हैं और अधिनायक पाकिस्तान में पैदा होते हैं, इसलिए किसी भी मामले में हमारी दशा पाकिस्ता‍न जैसी नहीं हो सकती। भाषा के मामले में भी। पाकिस्तान के पास राष्ट्र भाषा है, अपनी भाषा नहीं है। पाकिस्ताान के किसी भाग की भाषा उर्दू नहीं थी। वह उस पर लादी गई इसलिए चल नहीं सकी। उर्दू उनके लिए विदेशी भाषा थी या कहो मुहाजिर भाषा थी और मुहाजिरों के बीच बोली और दूसरों द्वारा लगभग समझ ली जाती है। विदेशी भाषा में शुद्धता पर बहुत जोर होता है। मैट्रन के सामने बच्चे को पूर्णत: अनुशासित रहना होता है, वह लगातार सही होने की कोशिश में यन्त्र साधित और यन्त्रचालित शिशु बन जाता है। नियम कायदे मे बँध कर चेतना के स्तर पर गुलाम, वह केवल अपनी मॉं के साथ जो कुछ करे, शरारतें तक, कभी गलत नहीं होता। जानते हो कामकाजी महिलाऍं के्रच में नन्ही उम्र में ही डाल कर उनके बचपन को क्रश कर देती है इन बच्चो पर तरस भी आता है और इनके भविष्य को ले कर डर लगता है, उनके अपने लिए नहीं, उस समाज के लिए जिसमें बच्चों को मॉं की ममता से समय से पहले ही अलग कर दिया जाता है।

अब तुम बच्चोंा पर बात करोगे।

दे,खो मैं जिन्दा शब्दों में बात करता हूँ इसलि‍ए वे शब्द मुझे बीच बीच में बॉंध लेते हैं, कहो लिपट से जाते हैं कुछ पलों के लिए। तुम मरे हुए, किताबों या कोशों से उठाए हुए या सुने सुनाए अधमरे शब्दों में बात करने के आदी हो इसलिए मेरा उनको दुलराते हुए आगे बढ़ना तुम्हें भटकाव लगता है।

विषय पर तो आ यार ।

तो हमारी स्थिति पाकिस्ता न से इसलिए भिन्न है कि उसके पास जो राष्ट्रभाषा है वह भी बाहर से आई हुई है, मुहाजिर है, और जिसमें काम काज हो रहा है वह भी मुहाजिर है। और उसके जो राज्य हैं उनकी अपनी भाषाओं को महत्व दिया ही नहीं गया। या तो उनमें अंग्रेजी में काम होता है या थोड़ा बहुत उर्दू में। उनकी अपनी भाषाऍं कराहने और गाली देने के काम आती हैं। हमारे यहॉं यह कुशल है कि सभी राज्यों की अपनी भाषाऍं और हिन्दी इसीके मध्यदेश की भाषा है। पराई केवल अंग्रेजी है भले एक राज्य के कुछ लाख लोगों को ईसाई बना कर और अंग्रेजी सिखा कर यह दलील तैयार कर ली गई हो कि अंग्रेजी वहाँ की भाषा है। परन्तु सबसे बड़ा अन्तंर यह है कि हमारे यहॉं हिन्दी संपर्क भाषा है और औपचाीरिक संपर्कभाषा या राष्ट्रभाषा का स्था्न ग्रहण कर सकती है, पाकिस्तान से अंग्रेजी को हटाना मुश्किल है।

वह ठठाकर हॅसा, ‘तुमने मुंगेरी लाल के सपने वाले सीरियल देखे थे।

मैंने वह सीरियल तो नहीं देखा पर जानता हूँ वह हास परिहास का था। मैं सीरियस हो कर यह बात कह रहा हूँ लेकिन आज तुम इसे समझ नहीं पाओगे।

Post – 2016-02-08

आत्मघात

‘’यह बात तो किसी से छिपी नहीं है िक देश का बँटवारा उर्दू भाषा को लेकर हुआ था और तुम यह दिखाना चाहते हो कि सब कुछ ठीक ठाक था, मसला लिपि का था।‘’
‘’देखो, भाषा तो बहाना थी। बँटवारा इस दहशत के कारण हुआ था कि भारत स्वतन्त्र होगा तो लोकतंत्र की स्थापना होगी। शासन बहुमत के हाथों में होगा जिसका मतलब है राज्य हिंदुओं का होगा और वह बदले की भावना से काम करेंगे। यह उनकी सोच नहीं थी, मन्त्र फूँक कर, हतचेत करके, इसे उनकी जहन में उतार दिया गया था। उन्हों ने हिन्दू‍ इतिहास को ध्यान से पढ़ने तक का प्रयत्न नहीं किया, अन्यथा वे समझते कि जिन मूल्यों ने ही भारत को मुस्लिमबहुल देश होने से बचाया, ईसाइयत का प्रतिरोध किया उन्हीं ने उन उत्पीड़क कर्मों से उसे बचना सिखाया, जिनके कारण एक प्रभावशाली मुस्लिम नेता ने पाकिस्तान बनाने के समर्थन में यह तर्क किया था कि जिन्हें वे अपना नायक मानते हैं उन्हें हिन्दू खलनायक मानते है, और जिन्हें हिन्दू अपना नायक मानते हैं, उन्हें वे खलनायक मानते हैं, इसलिए दोनों समुदाय साथ नहीं रह सकते।
” वे अपने ही मध्यकाल की यादों से डरे हुए थे और अपने ही मूल्य मानों के कारण डरे हुए थे, क्योंकि वे सोचते थे कि वे जैसा आचरण करते आए हैं वैसा ही दूसरा भी करेगा। यह उनकी सीमा नहीं थी, एकेश्वरवादी सोच की सीमा थी, जिसमें भिन्न मान्यताओं, विचारों, दृष्टियों के लिए तो स्थान होता ही नहीं, आत्मनिरीक्षण तक के दरवाजे बन्द कर दिए जाते हैं और भावना विवेक पर इस तरह हावी हो जाती है कि देखने और जॉंचने की इच्छा‍ तक मर जाती है। अन्यथा मुस्लिम नेताओं ने देखा होता कि मध्यकाल के मुस्लिम शासकों, प्रशासकों और सिपहसालारों के कारनामों के अनुभव के बावजूद किसी हिन्दू राजा या रानी ने मुसलमानों के साथ दुराव तक का व्यवहार नहीं रखा, अत्याचार की तो बात ही दूर है, यद्यपि कई बार इस सद्विश्वास के कारण उन्हें क्षति भी उठानी पड़ी, किसी ने अपने अधिकार क्षेत्र में भी उनके साथ प्रतिशोध या अविश्वास तक का प्रमाण नहीं दिया। जिस मूल्य व्यवस्था ने धर्मान्तरण से बचाया उसी ने इतर धर्मियों का उत्पीड़न करने से भी रोका।‘’
’’यह बताओ, तुम्हें कभी किसी पागल कुत्ते ने काटा था। याद करो, हो सकता है बचपन में काटा हो और सूइयॉं लगी हों, कहने के लिए तुम ठीक हो गए हो, पर जहर तो जहर है यार, उसका हल्का असर कब तक बना रहे कौन जानता है।‘’
’’मैं तुम पर हँसना चाहता हूँ पर हँस इसलिए नहीं पाता कि तुम्हें दु:ख होगा।‘’
’’मैं तुम पर हँसते हुए यह सोच कर रोता रहता हूँ कि तुम घूम फिर कर उसी हिन्दू-मुस्लिम सवाल पर क्यों लौट आते हो। तुम इतने प्यारे दोस्त हो, विचार नहीं‍ मिलते तो क्या, मैं बड़ी पीड़ा के साथ पागल कुत्ते के काटने का मुहावरा तलाश पाया था। उपमा का क्या बुरा मानना।‘’
“परन्तु कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनके लिए उपमा तक तलाशने चले तो उपमा दहशत में पीछे हट जाती है। उनमें ही तुम हो । मैं भाषा पर बात कर रहा था और तुम विभाजन पर पहुँच गए और उसका विवेचन किया तो मुझे ही उस बीमारी से ग्रस्त बता दिया जिसका प्रमाण तुम स्वयं दे रहे थे।
‘’सच कहो तो जिस भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव था वह हिन्दी‍ नहीं, हिंदुस्तानी थी, जिसमें अरबी फारसी शब्दों के प्रयोग की पूरी छूट थी। उसकी कसौटी थी बोधगम्यता, परन्तु उसको ले कर बहुत चर्चा नहीं हुई थी क्योंकि भाषा केन्द्रीय समस्या थी नहीं, वह मात्र ओट थी। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने जो हिंदी-तमिल, हिन्दी-कन्नड आदि कोश तैयार कराए थे उनमें फारसी अरबी के शब्दों संख्या बहुत अधिक थी और उन छोटे कोशों में जिन्हें शब्दसंग्रह कहना अधिक उचित होगा, ऐसे फारसी और अरबी के शब्द भरे हुए थे जिनका शायद ही कोई प्रयोग करता हो । ज्ञानमंडल के हिन्दी शब्दकोश में फारसी और अरबी शब्दों को बहुत उदारता और विवेक से स्थान दिया गया है। मुस्लिम अभिजात वर्ग का आग्रह अरबी लिपि में लिखित भाषा पर था और इसके पीछे अपनी धौंस जमाने की आकांक्षा अधिक प्रबल थी, अपनी भाषा से प्रेम कम । इसमें प्रगतिशील और दकियानूस का फर्क नहीं था।
“बीमारी भी पुरानी थी। यह विवाद 19वीं शताब्दी में ही पैदा हो गया था और इसमें जान बीम्स की बहुत सक्रिय भूमिका थी, जो परोक्ष रूप से मुसलमानों को इस बात के लिए उकसा रहे थे कि वे अपनी भाषा को अधिक अरबी फारसी मंडित करें, इसे मुसलमानों की भाषा मानें और हिन्दू इसके जवाब में अधिक संस्कृतनिष्ठ भाषा अपनाएँ, जब कि फैलन बोलचाल की शब्दावली की वकालत कर रहे थे। यह नूरा कुश्ती थी। इसकी चर्चा यहॉं उचित न होगी। उनकी यह चाल सफल रही और हिन्दी‍ और उर्दू के पक्षधर उनकी इच्छा पूरी करने लगे थे। हंटर के सामने अपने बयान में सैय्यद अहमद का यह कथन कि ‘उर्दू शरीफों की जबान है और हिंदी गँवारों की जबान‘ और इससे तिलमिला कर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का यह फिकरा कि उर्दू नाचने वाली लड़कियों और तवायफों की जबान है। धनी हिन्दु्ओं की बिगड़ी औलादें और ढीले ढाले चरित्र के नौजवान जब रंडियो, रखैलों और भड़ुओं के बीच होते हैं तो उर्दू बोलते हैं।‘ उस जाल में दोनों समुदायों के नेताओं के फॅसने के प्रमाण हैं। भारतेन्दु स्वंयं भी उर्दू में शायरी करते थे और सन्तुलित चित्त से ऐसी बात नहीं कह सकते थे, पर जवाब तो देना ही था। शब्दों के मामूली फर्क से सैयद अहमद बीम्स के जुमले को ही दुहरा रहे थे तो इसकी प्रतिक्रिया में भारतेन्दु उस पाले में पॉंव रख रहे थे जिसमें बीम्स ने हिन्दी को दरिद्र भाषा सिद्ध करते हुए यह सुझाया था कि हिन्दी में तकनीकी शब्दावली का अभाव ही नहीं है, वैसी शब्दावली बन ही नहीं सकती। हिन्दीं को संस्कृतनिष्ठ बनाने की बीमारी के पीछे यही कारण था अन्यथा हिन्दी के संस्कृतज्ञ भी बोलचाल में संस्कृत के तदभव पदों का ही प्रयोग करते थे। भारतेन्दु स्वयं आजीवन इस बीमारी से बचे रहे।
‘’दुखद यह है इन दोनों फिकरों का खुमार जनमानस पर लम्बे समय तक बना रहा इसके कारण हिंदी उर्दू दोनों की प्रतिष्ठा को अघात पहुंचा । इसका सबसे खतरनाक परिणाम मुस्लिम समुदाय का दबे सुर से अंग्रेजी का पक्षधर हो जाना था। यदि अरबी लिपि में लिखित उर्दू राष्ट्र भाषा न बनी तो उस हिन्दुस्तानी से अच्छा है अंग्रेजी ही जारी रहे। परन्तु इसका सबसे बड़ा नुकसान स्वयं अरबी लिपि में उर्दू के हिमायतियों को ही उठाना पड़ा। देश बँट गया पर न उर्दू पाकिस्तान के कामकाज की भाषा बनी न हिन्दी भारत के कामकाज की और इसका कारण भाषाप्रेम का पाखंड रच कर अपना स्वार्थ साधन था।
हम कहें इस खींच-तान का यह असर तो हुआ ही कि अपनी भाषा के प्रति हिन्दी-प्रदेश में हिन्दी़ या उर्दू के प्रति वह गहरा लगाव नहीं पैदा हो सका जो दूसरे प्रदेशों में देखने में आता है। हिन्दी भाषी क्षेत्र भग्नमनस्कता का शिकार बना रहा और आज भी है। जो भी हो भाषा और संस्कृति की आड़ में देश का विभाजन हो जाने के बाद भी न हिन्दी भारत की सरकारी काम काज की भाषा बनी न पाकिस्तान की राष्ट्राभाषा घोषित होने के बाद भी उर्दू।
‘’भारत की बात अलग है, पाकिस्तान के बारे में तुम ऐसा नहीं कह सकते।‘’
‘’मेरी जानकारी ही कितनी है कि कुछ कहूँ, मैं तो डान में प्रकाशित एक लेख की ओर तुम्हारा ध्यान ले जाना चाहता हूँ जिसके बाद मुझे कुछ कहने की जरूरत ही न होगी। इसके लेखक ने इसे शेयर करने की अनुमति दे रखी है इसलिए इसे शेयर करना ही समझ सकते हो:
The status of Urdu is a major issue which does not seem to be getting its due share of attention; in fact it seems to be getting no attention at all, either by the government or by the citizens. Current policies and trends have seen a pathetic downfall in the status of our national language.
The language policy according to the Constitution of Pakistan is
1. The national language of Pakistan is Urdu, and arrangements shall be made for it being used for official and other purposes within 15 years from the commencing day.
2. The English language may be used for official purposes until arrangements are made for its replacement by Urdu (Article 251 of the Constitution of the Islamic Republic of Pakistan, 1973)
It has been 62 years but unfortunately our government has failed to take appropriate measures to replace English with Urdu.
The status of Urdu is a major issue which does not seem to be getting its due share of attention; in fact it seems to be getting no attention at all, either by the government or by the citizens. Current policies and trends have seen a pathetic downfall in the status of our national language.
The language policy according to the Constitution of Pakistan is
1. The national language of Pakistan is Urdu, and arrangements shall be made for it being used for official and other purposes within 15 years from the commencing day.
2. The English language may be used for official purposes until arrangements are made for its replacement by Urdu (Article 251 of the Constitution of the Islamic Republic of Pakistan, 1973)
It has been 62 years but unfortunately our government has failed to take appropriate measures to replace English with Urdu.
We have seen nations progressing because of taking pride in their national language and their identity but we on the other hand are content with hiding our real identity and feel ’embarrassed’ in relegating the status of our national language. We consider those backward who prefer to talk in Urdu while speaking in English has become a symbol of status.
Another problem relevant to the language issue is the flaw in our educational system. It was the government’s responsibility to take proper steps to raise the status of Urdu among citizens which could very well have been achieved through the educational system.
But there is no unanimous educational system in Pakistan. In majority of the systems, English is made compulsory and students are encouraged to talk in English which not only suppresses their love for their national language but also makes the students studying under Urdu-based systems victims of inferiority complex.
Furthermore, citizens are forced to learn English for better job opportunities. Is this supposed to be the policy of a country with Urdu as the national language?
Another point which I would like to add here is that the current trend of writing Urdu in Roman script in SMSs and emails has led to further deterioration in the language’s quality. Mobile phones with Arabic are available in our country, then why not those with Urdu?
It’s high time the government took essential steps like revising the education policy and promoting Urdu writing, debates and poetry competitions on the national level.
The people, especially the youth of Pakistan, should participate in this by bringing about a change in their thoughts and reunite for this cause.
FARIHA SAGHIR
Karachi
JUL 16, 2009 DAWN

Post – 2016-02-06

उर्दू हिन्दी के संबन्ध

”तो तुम मानते हो हिंदी की स्वीकार्यता में उर्दू भाषा रुकावट बनी।”

मैं मानता हूँ एक ही क्षेत्र में दो भाषाऍं आम जबान नहीं हो सकतीं। उर्दू भाषा नहीं है, हिन्दी की एक शैली है जिसमें अरबी-फारसी जानने वाले को अपनी भावना की सटीक अभिव्यक्ति के लिए उनका कोई शब्द या पदबन्ध अधिक उपयुक्त लग सकता है, और संस्कृत जानने वाले को उससे भिन्न शब्द या पदबन्ध अधिक सटीक लग सकते हैं और देशज बोलियों के सौन्दर्य पर मुग्ध किसी व्यक्ति को उनमें अपनी भावना की सही अभिव्याक्ति मिल सकती है और वह उसका प्रयोग कर सकता है। हिन्दी वह महानदी है जो इन सबको समेटते हुए प्रवाहित हो सकती है और ये हिन्दी की उद्दाम शक्ति को प्रकट करते हैं और यह सिद्ध करते हैं कि हिन्दी एक महान भाषा है। इस माने में अंग्रेजी भी हिन्दी से पीछे पड़ेगी जो दूसरी ऐसी भाषा है जिसकी महिमा का एक रहस्य यह है कि उसने अपना अस्सी प्रतिशत बाहर से लिया है। वह भी उतनी उदारता से अन्य भाषाओं के शब्दों और व्यंजनाओं को आत्मसात नहीं करती जितनी उदारता से हिन्दी फिर भी अंग्रेजी दुनिया की किसी दूसरी भाषा से अधिक खुली भाषा रही है। उसके कोशकार उन शब्दों और अभिव्यक्तियों को उसके मानक रूप में शामिल करने में कई दशक लगा दें, कुछ को स्वीकार तक न करें, फिर भी सर्जनात्मक साहित्य में कुछ भी स्वीकार्य है परन्तु लेखक के जोखिम पर । यदि उसको प्रकाशक न मिला तो, या प्रकाशक मिल गया परन्तु वह पाठकों तक नहीं पहुँच पाई तो, वह अपनी रचना के साथ ही रसातल को चला जाएगा। यहीं सही अनुपात और सन्तुलन का प्रश्न आता है।‘’

’’तुमको हिंग्लिश से कोई खतरा नहीं महसूस होता ।‘’

”तुमने भवानी भाई की वे पंक्तियॉं पढ़ी हैं : जिस तरह मैं बोलता हूँ उस तरह तू लिख / और उसके बाद भी मुझसे बड़ा तू दिख । इसका अर्थ जानते हो तुम ।”

” क्या बात करते हो, यदि बोलचाल में किन्हीं शब्दों और पदबन्धों का प्रयोग होता है तो उसे लिखना गलत कैसे हो सकता है। उसे लिखा जाना चाहिए। गरज कि हिंग्लिश से किसी को शिकायत है तो वह दकियानूस है।‘’

”देखो, हिंग्लिश शब्द नया है, उर्दू की तरह अंग्रेजी शब्दबहुल भाषा के लिए एक नया शब्द । और जानते हो इसकी संभावना ग्रियर्सन ने आज से सौ साल से भी पहले लिग्विस्टिक सर्वे आफ इंडिया में ही जता दी थी। उस सर्वे में भयंकर गलतियॉं हैं फिर भी वह आज भी एक महत्वपूर्ण कृति है। अब कंठस्थ तो किया नहीं कि तुम्हेंं सुना दूँ, परखने के लिए तुम्हें ही उस रपट को पढ़ना पड़ेगा। परन्तु एक बात तुम्हारे ध्यान में नहीं आई कि कवि ने यह नहीं कहा कि जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख। यदि लिखता तो उसकी अगली पंक्ति होती, ‘और अपनी परिधि में सिकुड़ा हुआ तू दिख।‘’

”तुम कहना क्या चाहते हो, अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग हिन्दी में नहीं होना चाहिए।”

” क्या मेरे पास या किसी के भी पास इतनी ताकत है कि वह यह निर्देश दे सके कि बोलते समय लोग अमुक शब्दाभंडार का प्रयोग करेंगे और यदि इसका उल्लंघन हुआ तो उनको दंडित किया जाएगा, या सामाजिक रूप में बहिष्कृत किया जाएगा।”

‘’है तो नहीं।‘’ वह इस तरह बोला मानो अपना सिर पीट रहा हो।

मैंने कहा, ”यह मेरी बात नहीं है, न इस विषय में मेरी जानकारी अधिक है पर सुना है एक भाषा के भीतर कई तरह की कूट भाषाऍं और कृत्रिम भाषाऍं और विशिष्ट तथा क्षेत्रीय भाषाऍं व्यावहार में आती हैं। उनकी एक सीमित परिधि होती है जिसमें उन्हें समझा जाता है। इसी तरह विचारों की भी परिधि होती है जिसमें मूर्धन्य ज्ञानी भी होते हैं परन्तु हमारी कसौटी पर मूर्ख और उनकी कसौटी पर हम, उनके प्रभावक्षेत्र में मूर्ख सिद्ध होते हैं। इनमें सभी सही होते हैं, गलत कोई नहीं होता, पर मूर्ख भी कई बार समझदारी की बात और काम करता है, और समझदार भी मूर्खता करते हैं और अपनी मूर्खताओं पर गर्व तक करते हैं। यह एक शास्त्रीय विषय है और इसके पचड़े में पड़ गए तो पता नहीं कहॉं जा कर लाश किनारे लगे। इसलिए मैं फिर भवानी भाई की पंक्ति पर आना चाहूँगा। जिस तरह मैं बोलता हूँ उस तरह तू लिख न कि जिस तरह तू बोलता है उस तरह तू लिख।

”उर्दू और हिन्दी का अन्त र यह नहीं है कि ये दो भाषाऍं हैं, बल्कि यह दो भिन्न स्तरों की अभिव्य क्तियॉं हैं। उर्दू में जिस तरह वे बोलते हैं या बोलते तक नहीं, सोचते हैं उस तरह लिखने की कोशिश की जाती रही और की जाती है। यही दशा संस्कृितगर्भी हिन्दीह की थी। हिन्दी उस जबान का नाम है जिसका मानदंड वह व्यक्ति तय करता है जो अधिक से अधिक साक्षर है और निरक्षर तो है ही। भाषा का चरित्र वहीं से निर्धारित होता है। ताकत लगाकर भी, राजशक्ति का प्रयोग करके भी आप उसे प्रभावित नहीं कर सकते, आपका असर खरोंच बन कर रह जाएगा। अत: जो अपनी कोठरी में या कोटर में बात करना चाहते हैं और यह चाहते हैं कि उनको अपनी कोटर के अनमोल बोल के कारण दूसरों से बड़ा समझा जाए उन पर दया की जा सकती है। उर्दू अपनी पहली ही परीक्षा में फेल हो गई। तुम जितनी भी कोशिश हिन्दी को उर्दू बनाने की करो, यदि तुम्हें बहुजन तक पहुँचना है तो वह हिन्दी बन जाएगी, हिन्दी मानी जाएगीा तुम उर्दू सिनेमा बनाओगे, कुछ शब्द जबरदस्ती भरोगे जो आम आदमी की समझ में नहीं आऍंगे, वह उनका मानी सन्देर्भ को देख कर कयास से लगा लेगा क्योंकि वह इसे अपनी भाषा के ही अधिक पढ़े-लिखों की भाषा मानता है। वह हिन्दू मुस्लिम का भेद करके शब्दों को नहीं समझता। उर्दू के प्रति अतिसंवेदनशीलता ब्रिटिश काल में बढ़ाई गई जिससे हिन्दी भाषियों के साथ इनका संचार तक सीमित रह जाए।

एक और कसौटी बता दूँ । जिस भाषा में गलतियॉं सहने की आदत होती है वही महान भाषा बन सकती है। खीच तान कर भी यदि आपका आशय समझ में आ गया तो सिर माथे। हिन्दीा में यह सराहनीय गुण अंग्रेजी के बाद आएगा, परन्तु है यह इन दोनों के बीच का ही मुकाबला और भारत की अपनी सीमाओं के भीतर यही कसौटी बन सकता है। उर्दू तलफ्फुज या शूद्ध उच्चाररण पर इतना जोर देती रही कि जिस भाषा के नाम पर पाकिस्तान बना उसमें भी वह स्वीाकार्य न हो सकी और भाषा को ले कर कई तरह के टकराव पैदा हो गए जिनमें सबसे बड़ा आघात उसके ही पूर्वी भाग के अलग राष्ट्र बनने के रूप में मिला।

‘’परन्तुू देखो, इतिहास ने भले सच साबित किया हो, समाज में अपने रागबन्ध में बँधे हुए लोग हमारी बात को मान लेंगे, यह सोचना तक नासमझी होगी।‘’

‘’परन्तु हिन्दी एक महान भाषा है यह तुम्हें नहीं कहना चाहिए था, तुम हिन्दी के लेखक हो। अपने मुँह से अपनी तारीफ ही नहीं, अपने से अनन्य किसी भी चीज की, चाहे वह भाषा हो या देश, या धर्म, हमें इनके प्रति निष्ठा समर्पित भाव से दिखानी चाहिए, महान कह कर पल्ला नहीं झाड़ लेना चाहिए।‘’

’’यह सलाह तो मैं देने वाला था, तुम्हारे पल्ले कैसे पड़ गई? पड़ गई तो मैं खुश हूँ कि अत तुम मेरे करीब आते जा रहे हो।”

‘’तुम्हारे करीब मैं? बैठना तो पड़ता है पर होना मुश्किल है।‘’

’’जानता था, यह तुम्हारी किस्मत में नहीं, फिर भी यह जान लो कि हिन्दी और उर्दू में बुनियादी फर्क नहीं है। भाषा का चरित्र उसके व्याकरण से तय होता है, उसके वक्ताओं की आनुपाितक संख्या से तय होता है, उसकी परंपरा से तय होता है और सबसे अधिक उसके निरक्षर या नाममात्र को साक्षर लोगों की जबान से तय होता है और इसलिए एक पृथक भाषा के रूप में अपने सभी प्रयोगों में उर्दू विफल रही, परन्तु एक पृथक शैली के रूप में इतनी सफल रही कि हिन्दी बोलने वाला भी बात बात पर या तो उर्दू का कोई शेर जड़ देता है या संस्कृत या हिन्दी की सूक्तियॉं बोल जाता है। हिन्दी के उन्हीं कवियों की भाषा में प्रवाह मिलता है जिन्हों ने उर्दू की शायरी से कुछ सीखा हो और इसका कारण अरबी फारसी के शब्द नहीं हैं, अपितु यह कि उर्दू कवियों में आरंभ में सूफियों का बोलबाला रहा और सूफियों ने सबसे पहले हमारी बोलियों को पहचाना, उनके माध्यम से जन जन तक पहुँचने का प्रयत्न किया, उनके मुहावरे और उनकी भाषा की रवानगी पर उर्दू की नींव रखी गई इसलिए उूर्द का ज्ञान हमें समृद्ध करता है, रंक नहीं बनाता।

“झगड़ा दर अस्ल भाषा का नहीं लिपि का था। लिपि भाषा नहीं होती यह हम जानते हैं, पर लिपि के साथ भी हमारा भावनात्मक लगाव होता है और मुस्लिम समुदाय का पान इस्लामि ,क आकांक्षाओं के कारण अधिक गहरा था । लिपि न कि भाषा उन्हें दूसरे मुस्लिम देशों से जोड़ती थी। कुुछ लोगों को यह बिल्कु्ल तुच्छ समस्या लगेगी, अवैज्ञानिक तो है ही। सामी भाषाओं के लिए विकसित लिपि तथाकथित आर्य भाषाओं के उपयुक्त नहीं है। बर्नर्ड शा ने तो अंग्रे जी की वर्तनी के सुधार का मार्ग नागरी में देखा था और अपनी संचित संपदा की वसीयत उस आदमी के नाम करने को कहा था जो अंग्रेजी की वर्तनी सुधार दे । पर भावना के क्षेत्र में तार्किकता सिर धुन कर रह जाती है अन्यंथा हमने पूरे देश को जोड़ने के लिए अपनी लिपियों को जो सभी ब्राह्मी से निकली है, एक कर लिया होता और आपसी दूरियॉं कम हो गई होतीं। न हुआ, न होने वाला है”