हमको मिलैगो कित्ता
”अरे भाई उधर कहां जा रहे हो ?”
उसने मुझे देखा था और देख कर भी मेरी उपेक्षा करते हुए आगे निकलाता जा रहा था। मैंने रोका।
वह बोला, ”तुम्हारे पास बैठने का कोई फायदा है ? बकवास करोगे और सुनना पड़ेगा।”
”तुमको कुछ नहीं सुनना है। आओ, बैठो, चुप रहूँगा, बातचीत बन्द हो जाय पर ऑक्सीजन तो साथ ले सकते हैं।”
”ऑक्सीजन लेने के लिए तुम्हारे साथ बैठना जरूरी है? तुम्हारे पास आकर तुम्हारी बकवास की ऑंच से ऑक्सीजन भी कार्वन में बदल जाती है। उसने तंज तो किया पर आकर पास बैठ गया।
बात उसी ने शुरू की, ‘’तुम जो ज्ञान बघारते हो उसमें मेरी कोई दिलचस्पी् नहीं हैं। किताबें मैंने भी पढ़ी हैं, तुमसे अधिक पढ़ी हैं, तुमसे बहुत बड़े बड़े लोगों के विचारों से पाला पड़ा है। उनके सामने तुम कुछ नहीं हो, बोलना शुरू करते हो तो सोचना पड़ता है, बैठे रहें या भाग खड़े हों। फिर भी तुमने कहा कि हिन्दी तब राष्ट्रभाषा न बन सकी परन्तु निकट भविष्य में बन सकती है तो पहले तो लगा हिन्दी शाविनिस्ट बोल रहा है, परन्तु जब तुमने तमिल के महत्व को और अपनी बोलियों के साथ उसके संबन्ध को रेखांकित किया तो लगा तुम्हारे पास सचमुच कोई नयी समझ और सोच है । उसे सुनने के लिए मैं तुम्हें लगातार कुरेद रहा हूँ और तुम कांग्रेस और गॉंधी, उन्नीसवीं शताब्दी और बीसवीं शताब्दी में पेंगें भर रहे हो। हद होती है सहनशक्ति की भी।”
” देखो मैं बात तो वही कर रहा था। उस जिजीविषा की, उस स्वधा या एलान वाइटल की जिससे कोई समाज आगे बढ़ता है, प्रक़ति विकास की अगली उूँचाइयॉं छूती है, प्राणी अपने दैन्य से उूपर उठता है, नयी उूँचाइयॉं ही नहीं छूता, उन उूॅचाइयों से उूपर की संभावनाओं को लक्ष्य करके नई मंजिलें तय करता है, और उसके ह्रास की जिसमें उूँचाइयों पर पहुँचे हुए समाज और देश और सभ्यताऍं ढलान को अपना आसान रास्ता मान कर अनायास लुढ़कती चली जाती है, और जिनका समाज पहले चरण से आगे परन्तु कुछ नीचे सरकता हुआ उस अधोगति को प्राप्त होता है जिसमें उसका अपना ही अतीत-गौरव हास्यास्पद लगता है, भुखमरी के कगार पर पहुँचे पर अपने नवाबी इतिहास का दावा करते हुए अपने धेले की पेंसन के लिए हजारों की तैयारी करने वाले लखनवी ताँगावालों की तरह। तॉंगे का ज़माना भी खत्म हो गया, अब पता नहीं क्या कर रहे होंगे वे, संभव है भिखारी हो चुके हों।
‘आलसी समाज गुरुत्वातकर्षण के अनुरूप ढलान का रास्ता चुनता है और ओजस्वी समाज गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध ऊपर उठता है, जोखिम उठाता है, कुर्बानियां देता है, मिटने के लिए तैयार होकर अपने जिंदा होने को प्रमाणित करता और गरिमा के साथ जिन्दा रहने की कोशिश करता है। जड़ पदार्थ गुरुत्वाकर्षण के नियम का उल्लंघन नहीं कर पाता, वह हमेशा नीचे गिरता है, जीवन- मामूली अंकुर तक, गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध खड़ा होता है, ऊर्जा गुरुत्वा कर्षण का तिरस्कार करती है, उसका ह्रास या मुमूर्षा अपनी निर्जीविता या निष्क्रियता के कारण गुरुत्वा कार्षण के समक्ष समर्पण कर देता है। जिजीविषा में त्याागने का आवेश होता है, मिट कर भी अपने स्वत्व को बचाने का विवेक होता है। मुमूर्षा में जो भी मिले, उसके बल पर पाने की बेचैनी होती है।
‘मैं उन्नी सवीं शताब्दी और बीसवीं शताब्दी के बीच झूले नहीं झूल रहा था, यह समझाने का प्रयत्न कर रहा था कि कहने को हम बीसवीं शताब्दी में उस लक्ष्य को पाने की ओर बढ़ रहे थे जो 1857 में नहीं पाया जा सका, परन्तु वास्तव में हम पाने की आकुलता में अपनी स्वधा को खोते जा रहे थे और इस गिरावट के बीच गॉंधी सुख, भोग, लाभ आदि के गुरुत्वा्कर्षणों के विरुद्ध अकेला खड़ा था और गुरुत्वाकर्षित पर्यावरण के दबाव में इतनी निजी उूर्जा के बाद भी पिस कर रह गया।
”” हिन्दी पर आओगे या उठूँ।”
” मैं तो चाहूँगा तुम बैठो और यह देखो कि हिन्दी कहने से कई तरह के संशय पैदा होते हैं, इसलिए आज हमें अपनी किसी भाषा की बात करनी चाहिए। हिन्दी बिना सरकारी प्रयास के अखिल भारतीय संपर्क की भाषा थी और अहिंदी भाषी क्षेत्रों में इसके लिए गहन अनुराग था, और इस कारण ही प्रकृत न्याय से सभी ने इसे भारत की संपर्क भाषा के रूप में उन्नीसवीं शताब्दी तक स्वीकार किया था। बीसवीं शताब्दी के कांग्रेस में जो प़व़ृत्तियॉं आरंभ में दबी रह गईं वे उस खास बिन्दु से जब लगा कि स्वानधीनता संभव है, इस जोड़तोड़ में लग गई कि हमें इससे क्यां मिलेगा। तुमको जगन्नाथ दास रत्नाकर की … यार किताबों का नाम तक भूलने लगा है अब तो। खैर किताब का नाम जो भी हो, उद्धव गोपियों को समझाने के लिए कृष्ण की पाती ले कर पहुँचते हैं तो वे उन्हें घेर लेती हैं, पूछने लगती है, ‘हमको लिखो है कहा हमको लिखो है कहा, हमको लिखो है कहा कहन सबै लगीं। और उनकी एक और पंक्ति भी याद आ रही है, ‘नेकु कही नैनन, अनेक कही बैनन सों, रही सही सोउू कहि दीनी हिचकीनि सों।
”गिरावट बहुमुखी थी, भाषा के सवाल को तो गॉंधी को छोड़ कर बहुत कम लोगों ने दूसरे कारणों से हिन्दीन को भारत की स्वाीभाविक संपर्क भाषा माना था जब कि उन्नीसवीं शताब्दीी में कोई दुविधा थी ही नहीं, जिन्होंने माना था उन्होंने गाँधी के निजी प्रभाव के कारण था। इसकी ओर तो पहले ध्यान दिया ही नहीं गया था परन्तु गॉधी के निजी प्रयास से बहुत कुछ संभव लगने लगा था, परन्तु 1930 के बाद जब यह लगने लगा कि ब्रितानी सत्ता इस देश में कुछ दिनों की मेहमान है, पहले के आन्दोलनकारी ”हमको मिलैगो कित्ता, हमको मिलैगो कित्ता , हमको मिलैगा कित्ता सोचन सभी लगे” और इसकी अभिव्यक्ति उन सभी व्याजों से होने लगी जिनका रत्नाकर जी ने गोपियों के सन्दर्भ में हवाला दिया है।
”मैं चाहता था तुम इतिहास की उस गति को समझो जिसमें जो हुआ उससे अलग कुछ हो ही नहीं सकता था फिर भी जो हुआ वह न तब सबको सही लग रहा था न इतिहास ने उसे सही साबित किया। इसी प्रवृत्ति के कारण उन्नीसवी शताब्दी में जबकि हिन्दी के विषय में सर्वानुमति सी बनी हुई थी, उसे बीसवीं शताब्दीज में कूड़दान में डाल दिया गया। गॉंधी ने उसे उस कूड़दान से बाहर निकाला, परन्तु न तो वह भाषाविज्ञानी थे, न उनके प्रस्तावों को हिन्दी समाज ने स्वीकार किया न ही दूसरे अंचलों के लोगों ने। फिर भी उनके आभामंडल के कारण प्रयत्न जारी रहा और अपनी कमियों के कारण सफल न हो पाया। कारण वही, हमको मिलैगो कित्ता’ का। हम इसके व्यौरे में न जाऍं तो ही अच्छा । इस व्यौलरे में भी न जाऍं कि जो लोग पहले अपने कारोबारी लाभ के लिए अंग्रेजों की सेवा में लगे थे, उन्हें जब लगा कि भारत को स्वतन्त्र होने से रोका नहीं जा सकता तो उन्होंने कांग्रेसी चोला पहनना आरंभ कर दिया।
उदाहरण के लिए 1935 में मारवाड़ी परिषद ने अपने अधिवेशन में यह प्रस्ताव पास किया कि अब भारत को स्वतन्त्र होंने से कोई रोक नहीं सकता इसलिए मारवाडि़यों को स्वतन्त्र्ाता संग्राम में भाग लेना चाहिए और इसके बाद कलकत्ता के अनेक तरुण मारवाड़ी स्वतन्त्रीता संग्राम में ‘कूद पड़े।‘
तुम जानते हो मेरा इन बातों का ज्ञान बहुत कम है, तुम दूसरों की अन्तर्कथा से स्वयं जान सकते हो और मुझे बता सकते हो। पन्द्रह अगस्त 1947 को मैं सोलह साल का था। तरुणाई का वह संवेदनशील चरण और उके ठीक बाद जो लूट मची, कालाबाजारी और रिश्वतखोरी का जो दौर सामने आया उसने इस तरह आहत किया कि उसके दाग मेरी चेतना में आज भी देख सकते हो। ऐसी स्थिति में जो केन्द्रीय सेवाओं में उच्च पदों पर विराजमान थे और जो मुख्यत: मद्रास और बंगाल से थे, क्योंकि अंग्रेजी शिक्षा के दो ही अग्रणी क्षेत्र थे, बंगाल और मद्रास और इसका उन्हें इतना लाभ मिला था कि वे ब्रितानी उपनिवेश के भीतर अपना एक उपनिवेश कायम कर चुके थे और शेष भारतीयों के प्रति उसी हेकड़ी से व्य वहार करते थे, जैसे अंग्रेज उनके समेत पूरे भारत से। रियासतों के स्वाार्थ अंग्रेजी राज से जुड़े थे, ज़मीदारों के स्वार्थ उसी से जुड़े थे, अमलों के स्वार्थ उससे ही जुड़े थे इसलिए स्वतन्त्र भारत में स्वहित के अनेक रूप थे जो खुल कर नहीं तो अन्दर खाने उसी सें जुड़े थे और इसी बीच हिन्दी समाज को लगा कि उसे आगे बढ़ने का मनचाहा मौका मिल गया। वे आज भी जश्न मनाने वाले अधिवेशन की अगुआई करते हैं और यह नहीं जानते कि इन आयोजनों का हिन्दीतर भाषाक्षेत्रों में कितना बिघातक प्रभाव पड़ता है।
ऐसी स्थिति में हिन्दीै का विरोध होना, और इसके राष्ट्र भाषा होते हुए भी राजभाषा बना दिया जाना एक सोचा समझा धोखा था जिसके परिणाम विघातक होने को ही थे, परन्तुु आज परिस्थितियाँ भिन्न हैं। सुनने का धैर्य हो तो बताउूँ।”
उसने कोई जवाब न दिया, उठ खड़ा हुआ।