Post – 2016-11-02

भारतीय मुसलमान और भारतीय बुद्धिजीवी -2

(हमारा यह लेख अनुभववादी है वस्‍तुपरक नहीं। इसमें ग‍‍लतियां गिनाई जाएंगी और वे ठीक लगेंगी तो उनके अनुसार इस कच्‍चे लेख को सुधार लूंगा और गलतियां सुझाने वाले का आभार भी स्‍वीकार करूंगा। हमारा आशय आधिकारिक ज्ञान तक प्रतीक्षा न करते हुए छत्‍तीस के संबंध को तिरसठ में बदलने का, अबोलेपन को दूर करने का और उस बहस को आरंभ करने का है जिसमें संजीदा प्रत्‍यालोचना से हम सबकी समझ बढ़ सके। )

भारतीय मुसलमान नब्‍बे फीसदी भारतीय है और दस प्रतिशत विदेशी। जो विदेशी होने का दावा करते हैं वे भी पचास प्रतिशत भारतीय है, पचास प्रतिशत विदेशी। भारतीय मुसलमान नब्‍बे प्रतिशत धर्मान्‍ध है और दस प्रतिशत सन्‍देहवादी । जिसने भारतीय स्ंस्‍कृति को गंगाजमुनी बनाया था उसे सच्‍चा मुसलमान बनाने के काेड़े मार मार कर कट्टर मुसलमान बनाया गया और उस संस्‍कृति को नष्‍ट किया गया जिसका रोना रोया जाता है। जाली टोपी पहनने वाले निन्‍नानबे प्रतिशत भारतीय मूल के मुसलमान मिलेंगे और एक प्रतिशत विदेशी मूल पर गर्व करने वाले। भारतीय मुसलमानों को अपने को सच्‍चा मुसलमान सिद्ध करने का दबाव और इसे साबित करने के लिए कुछ भी करने की तत्‍परता, विदेशी मूल का दावा करने वालों की तुलना में अधिक रहती है, जब कि सामान्‍य स्थिति में होना इससे उल्‍टा चाहिए। विदेशी मूल के दावेदार प्राय: जमींदार थे, शिक्षा और उच्‍च जीवन स्‍तर की सुविधाएं थीं जिनका उन्‍होंने लाभ भी उठाया इसलिए सामान्‍यत: उनकी जीवनशैली दूसरे संभ्रान्‍त भारतीयों से अलग नहीं दिखाई देती। सामाजिक मर्यादा में भी। उग्रवादी से लेकर आपराधिक गतिविधियों में संलिप्‍तता भी भारतीय मूल के मुसलमानों में ही अधिक पाई जाती है जिसका एक कारण आर्थिक और दूसरा अपनी हैसियत से अधिक कुछ कर गुजरने की इच्‍छा भी रहती है। अत: बड़े डान हाजी मस्‍तान, दाऊद और शकील का एक समानान्‍तर अंडरवर्ल्‍ड है जिसमें से ही कुछ हिन्‍दू भी निकले हैं। परन्‍तु विदेशी मूल के मुसलमानों में सांस्‍कृतिक श्रेष्‍ठतावाद बहुत प्रबल रहा है जिसने भारतीय सांप्रदायिकता का एक प्रधान कारण माना जा सकता है।

भारतीय मूल के मुसलमान पहले मूर्तिपूजक थे इसलिए उन्‍होंने इस्‍लाम में भी बुतपरस्‍ती का, कीर्तन, भजन, अगियारी या धूमगन्‍ध का रास्‍ता निकाल लिया । शुरुआत दरगाहाें से हुई और फिर ताे चार चिराग जलाने तक आ गई। कुरान की प्रतियों, मस्जिदों का दैवीकरण आरंभ हो गया। मैं नहीं जानता कि यह बुतशिकनों की हार थी या बुतपरस्‍तों की विजय, क्‍योंकि जीतने वाले बहुत कुछ हार चुके थे, और जिसे बचाना चाहते थे, उसे बचा नहीं पाए । ऊपर से जिस मजहब को मान चुके थे उसके भीतर अपने को समायोजित करने में कठिनाई के कारण वे अपने आप से ही खीझने आैर सचाई को छिपाने लगें। जो लोग मन्दिरों और मठों से मूर्तिपूजा या देववाद को जोड़ने की आदत बना चुके हैं, उन्‍हें देववाद या प्रतीकपूजा के विस्‍तार का पता ही नहीं।

हम यहां इस्‍लाम के धार्मिक विश्‍वास की जांच नहीं कर रहे, न करना चाहते हैं, परन्‍तु उसे जानना जरूरी हो सकता है और हो सकता है कभी उस पर भी, अच्‍छा या बुरा तय करने के लिए नहीं अपितु यह जानने के लिए चर्चा करें कि उन विचारों और विधानोंं का हमारी जानकारी के अनुसार स्रोत क्‍या है और जब तक वे किसी भावधारा में स्‍वीकृत हैं उनका समाज पर क्‍या प्रभाव पड़ता है और उस समाज काे दूसरे समाजों के साथ तालमेल बैठाने में क्‍या समस्‍यायें आती हैं। जब हम इस्‍लाम को विचारधारा न कह कर भावधारा कहते हैं तो इसका कारण यह कि इसमें सोच विचार की गुंजायश नहीं रखी गई है, केवल विश्‍वास करने का, उसमें बह जाने का ही रास्‍ता है। इस्लाम भक्तिमार्गी मजहब है और सच्चे भक्त के पास िदमाग होता है पर जहां उसका टकराव भावना से होता है वहां उसेस्थगित कर दिया जाता है ।

भारत में दो तरह के मत रहे हैं, एक को हम मजहब कह सकते हैं और दूसरे का धर्मदृष्टि । मजहब में विश्‍वास या आस्‍थाभाव इतना प्रबल रहा है कि बुद्धि या किसी तर्कवितर्क की संभावना नहीं रहती, और भक्ति भी अपने इष्‍टदेव तक सीमित रहती है, धर्मदृष्टि में किसी मान्‍यता का आधार उसका औचित्‍य होता है और दूसरे मतो के प्रति द्वेषभाव नहीं होता । मजहब के अस्तित्‍व के लिए यह विश्‍वास जगाना जरूरी होता है कि दूसरे सभी धर्म गलत है, उनमें बुराइयां हैं इसलिए समाज को उन बुराइयों से मुक्‍त करने के लिए इस धर्म का उदय हुआ। इसे अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए इसे ईश्‍वर प्रदत्त या ईश्‍वरीय इच्‍छा का अन्‍तर्ज्ञान किन्‍हीं महापुरषों याइसी प्रयोजन से भेजे गए पैगंबरो की कल्‍पना करनी होती है या स्‍वयं को ही ऐसा पैगंबर बताना होता है। दूसरे विकृत मजहबों से समाज को मुक्‍त करना भी इसका एक लक्ष्‍य बन जाता है जिसमें निन्‍दा से ले कर हिंसा तक का सहारा लिया जा सकता है। इस दृष्टि से आर्यसमाज एक मजहब है और ब्रह्मसमाज एक धर्मदृष्टि । भक्ति आंदोलन मजहब था तो संत आंदोलन धर्मदृष्टि । इस्‍लाम, ईसाइयत, यहूदी मत मजहब हैं और सनातन धर्म एक धर्मदृष्टि ।

भले सभी मजहबों में एक और एकमात्र सर्वोपरि शक्ति की किसी भी नाम से कल्‍पना की जाय, संसार की बनावट, प्रकृति की लीला और मनुष्‍य की अपनी कमजोरियाें के कारण वह सर्वोपरि रह नहीं जाता क्‍योंकि प्राक रतिक उपद्रवों, व्याधियों और मानवीय बुराइयों के लिए एक उतनी ही शक्तिशाली दुष्‍ट सत्‍ता की कल्‍पना करनी होती है जो सच कहें तो इस यह्व, गॉड, अल्‍लाह, से अधिक ताकतवर सिद्ध होता है और उसके सिर उन बुराइयों को डालना जरूरी होता है और कई बार उस सत्ता में विश्वास पैदा करने के लिए अनिष्टकारी घटनाओं या आपदाओं को उसी का प्रकोप बता कर उसका आतंक पैदा किया जाता है ।

इसी तरह उसकी सत्‍ता के लिए उसके अधीन कुछ ऐसी शक्तियों की भी कल्‍पना जरूरी होती है जिनके माध्‍यम से वह अपने आदेश जारी कर सके या अपने शासितों से संपर्क कायम रख सके। ऐंजिल्‍स या फरिश्‍तों की कल्‍पना उसी बहुदेववाद के समान तो नहीं फिर भी उसके निकट पड़ती है, सन्‍तों की कल्‍पना देवप्रतिम व्‍यक्तियों के निकट पड़ती ही है, उनके चमत्‍कार में विश्‍वास को भी जादुई शक्ति से अलग नहीं माना जा सकता। यही हाल प्रतीकविधान या किसी ऐसे पदार्थ में दैवशक्ति की प्रतिष्‍ठा में भी होता जिसे गढ़ें तो किसी जीव-जन्‍तु का आकार बन जाय, नन गढ़े तो पत्‍थर बना रहे। क्रास और इसे श्रद्धापूर्वक छूते हुए भक्‍त, मरियम के चित्र या प्रतिमा के साथ तो कम से कम यह है ही कभी कभी टोपी में भी इसे कल्पित किया जा सकता है जो पोप के सिर से फैल कर भारतीय मुसलमानों में हाल में बहुत तेजी से फैली है। मनुष्‍य की भावना का चरित्र ही ऐसा है कि जिन चीजों से तुष्टि मिलती है उनके एक रूप का विरोध करता है तो भी उसे दूसरे बहाने से जुटा लेता है। अरूप या समस्‍त गुणों से मुक्‍त ब्रह्म का ध्‍यान कठिन पड़ता है।

भारतीय समाज में ऐसी प्रत्‍येक वस्‍तु पवित्र है जिसका हमारे जीवन में उपयोग है। वह अनाज भी हो सकता है, कागज का ऐसा पन्‍ना भी हो सकता है जिसमें ज्ञान की बात लिखी हो या जिस में धर्म और नीति की बात लिखी हो। उसके लिए दावात और कलम और पटरी या अक्षर अभ्‍यास की पटिया पूज्‍य है। परंपरावादी हिन्‍दू किसान अनाज पर पांव नहीं रखता, रास्‍ते में दाना गिरा दिखाई दे तो उसे उठा कर माथे लगा लेगा। वह शस्‍त्र की भी पूजा करता है, तराजू और बाट की भी। वादक वाद्ययन्‍त्र की पूजा करता या पूजा जैसी संभाल रखता है। उस्‍ताद या गुरु को देवता बनाने का आग्रह भी संभवत: भारतीय संगीतकारों में ही पाई जाय वे हिन्‍दू हों या मुसलमान। ऋग्‍वेद में देवता का अर्थ वर्ण्‍यविषय होता है और ऋषि वह पात्र जिससे कोई बात कहलाई गई हो। इसलिए युद्ध पर केन्द्रित एकमात्र सूक्‍त में बाण/ इषु, दुन्‍दुभी, धनु, प्रत्‍यंचा, कवच सभी को देवता बताया गया है, परन्‍तु इसके साथ यह भाव भी जुड़ा हो सकता है कि जो हमारे उपादेय आयुध और उपकरण हैं वे असाधारण देख-संभाल और सुरक्षा के पात्र है। इसी से हिन्‍दू समाज में वह देव भाव आया जिसे फीटिशिज्‍म कह सकते हैं।

भारतीय मुसलमानों ने कुरान, मस्जिद, टोपी, पोशाक सभी को बुतों में बदल दिया। आप को याद है या नहीं मोदी की ‘सभी का साथ’ की परख के लिए एक मौलवी ने उन्‍हें जाली टोपी पहनने को दी तो मोदी ने उसे वापस कर दिया। शाल दी तो सम्‍मान के साथ स्‍वीकार कर लिया। कई स्थितियां ऐसी होती हैं जिसमें टोपी जूता बन जाती है और जूता ताज। जब आप कुछ पाने के लिए किसी की ऐसी शर्त मानने को तैयार हों जो आपके सामान्‍य व्‍यवहार और आत्‍मसम्‍मान से मेल न खाता हो तो टोपी भी जूता बन जाती है। जब अाप आत्मिक कृतज्ञता से किसी अनासक्‍त सेवा भाव से किसी के जूते उतारते, उसे माथे से स्‍पर्श करते है तो वह जूता नहीं रह जाता, ताज में बदल जाता है।

मोदी में यह आत्‍मसम्‍मान है कि वह नाजुक क्षणों में भी सही निर्णय लेता है और उसके विरोधी को भी उस पर कम से कम इतना विश्‍वास तो हो जाता होगा कि यह व्‍यक्ति पाखंडी नहीं है। मोदी ने कितने अंचलों में जा कर सम्‍मान भाव से पेश किए गए कितने टोप और पहनावे बदले हैं, परन्‍तु यह वह अवसर न था।

ठीक यही काम नीतीश, अरविंद और शिवराज सिंह नहीं कर सके। आप स्‍वयं तय करें कि उनके सिर पर टोपी पड़ी या कुछ और । कुछ पाने के लिए किसी ऐसी शर्त को मानना आ‍दमी की नैतिक गिरावट का प्रमाण बन जाता है।

मुस्लिम समुदाय का प्रगतिशील कहा जान वाला तबका भी हिन्‍दू बुद्धिजीवियों के असर में मुस्लिम लीग के आदर्शों से प्रेरित रहा है । जो बात मुल्‍लाें की समझ में आ सकती है वह भी उसकी समझ में नहीं आती, इसलिए अपने समाज को कट्टर बनाने में सबसे अधिक भूमिका हाल के वर्षों में उसकी रही है जिसे हम सेक्‍युलर सांप्रदायवाद कह सकते हैं और जिसकी लड़ाई केवल हिन्‍दू संगठनों से ही नहीं, पूरे हिन्‍दू समाज, इसकी सांस्‍कृतिक अभिव्‍यक्तियों से है, इसलिए मुसलमानों को अपने बन्‍द दिमाग से बाहर लाने में तो इसकी भूमिका रही ही नहीं, उसे अधिक बन्‍द दिमाग बनाने में इसकी प्रच्‍छन्‍न भूमिका रही है । हिन्‍दू मु‍सलिस संबंधों में बिगाड़ लाने में भी सबसे अधिक भूमिका इसी की रही है और सबसे अधिक नुकसान इसी को उठाना पड़ा है। अल्‍पज्ञ मूर्ख अपने अनुभवों से सीख जाता है, बहुपठित मूर्ख उसका भी लाभ नहीं उठा पाता ।

Post – 2016-11-01

भारतीय मुसलमान और भारतीय बुद्धिजीवी

”मुझे पता है कि अभी सुंदरता की कद्र नहीं है। चेहरे की सुंदरता, विचारों और आरजूओं की सुंदरता, सुंदर लिखावट, आंखों और नजरिए की सुंदरता और यहां तक कि मीठी आवाज की सुंदरता। – रेहाना जब्बारी

अपने साथ जबरदस्ती सेक्स करने की कोशिश करनेवाले शख्स को जान से मार देने के आरोप में करीब 7 साल से जेल की सजा काट रही रेहाना को 25 अक्टूबर को फांसी दे दी गई।

जब्‍बारी की सांकेतिक भाषा में आंखों की सुंदरता, चित्र, अभिनय और मूर्तिकला, नजरिए की सुंदरता में उत्‍कृष्‍ट दर्शनों, आदर्शों की सुन्‍दरता और मीठी आवाज की सुंदरता संभवत: संगीत और गायन के लिए आया है । इस कातर स्‍वर के पीछे इसकी अपनी सुरुचि संपन्‍नता तो आती ही है इसका उत्‍कृष्‍टतम रूप उस वसीयत में है जिसमें उसने कामना की थी कि उसके मानवीय उपयोग में आ सकने वाले अंगों को जमीन में गाड़कर सड़ाने से अच्‍छा है फांसी के तुरत बाद आंखे, हृदय, गुर्दा, किडनी, फेफड़ा और हड्डी तक निकाल कर इनको जरूरतमन्‍द रोगियों या अंगविकल व्‍यक्तियों काे लगा दिया जाय।

ऐसा क्‍यों है कि इस्‍लाम में सुन्‍दरता के लिए जगह नहीं है और क्रूरता के लिए इतनी जगह कि गलती किसी की हो और किसी का खून बहा कर संतोष किया जाय। गलती न हो तो भी खून करने में आनन्‍द लिया जाय। जिस जानवर को एक झटके में काट कर उसकी यातना को कम किया जा सकता हो उसे रेत कर मारा जाए। विचार और पुनर्विचार के लिए इतनी कम जगह क्‍यों है कि जहां अक्‍ल से काम लिया जाना चाहिए वहां भी उत्‍तेजना से काम लिया जाय और आवेग को इतना प्रखर कर दिया जाय कि तार्किक सोच विचार की संभावना कम हो जाय। क्‍यों उन औरतों को भी इतनी दहशत में रहना पड़ता है जो जानती है कि इस्‍लामी कानून इतने स्‍त्रीविरोधी हैं कि उन्‍हें अपना पक्ष तक रखते हुए डर लगे कि इसका अंजाम बुरा हो सकता है फिर भी वे कहें कि इस्‍लाम में औरत को बहुत सम्‍मान की जगह दी गई ? बहुविवाह सम्‍मान है? हिजाब सम्‍मान है ? तीन तलाक सम्‍मान है ? हलाला सम्‍मान है ? अपने ऊपर हुए बलात्‍कार को सिद्ध करने के लिए इतने चश्‍मदीदों को पेश करना सम्‍मान है जितने हों और अपराध में शामिल न हों तो (उसी दशा में वे गवाह बन सकते है) अपराध हो ही न सके और ऐसा न कर पाने पर स्‍वयं मृत्‍युदंड पाना सम्‍मान है ? सुनते हैं और भी बहुत कुछ है जो इसी कड़ी में आता है, जिसे अपमान के सबसे गहित उदाहरण के अतिरिक्‍त कुछ नहीं कहा जा सकता, इससे परिचित होते हुए भी वह ऐसा कह सकती हैं और इसकी हिमायत कर सकती हैं, आश्‍चर्य इस पर होता है। क्‍या बहुत सारी मुस्लिम महिलाओं के पास बुद्धि होती ही नहीं ? नहीं, उन्‍हें इस हद तक कुचल दिया जाता है कि वे सोच नहीं सकतीं या आज्ञापालन के तरीके सोचने के अतिरिक्‍त सोच नहीं सकतीं। इस पर भी कि मुस्लिम पुरुषों में जिन्‍हें हम बुद्धिजीवी मानते हैं वे भी इन सवालों पर इनके विरोध में खड़ी होने वाली महिलाओं का साथ नहीं देते।

हिन्‍दू बुद्धिजीवी इससे बचते हैं यह बात समझ में आती है। वे संघ और भाजपा से अधिक कट्टरता से यह मानते हैं कि भारत हिन्‍दुओं का देश है और उनकी मुखरता हिन्‍दुओं तक सीमित रहनी चाहिए। मानवाधिकार के सवाल हिन्‍दुओं तक सीमित रहने चाहिए और पुरुषों तक तभी जाने चाहिए जब उसका कारण कोई हिन्‍दू हो। हिन्‍दू हो कर वह भला ऐसा कैसे कर सकता था, मुस्लिम भले करते रहे। वे तो होते ही ऐसे हैं कि उन पर किसी बात का असर नहीं पड़ सकता।

मुसलमान किसी के साथ क्‍या करते हैं यह उनके विचार क्षेत्र में नहीं आता क्‍योंकि जहनी स्‍तर पर वे यहां के निवासी नहीं, मेहमान हैं। वे आपस में, अपनी महिलाओं के साथ या हिन्‍दुओं के साथ किस तरह का व्‍यवहार करते हैं यह मानवाधिकार की परिधि में नहीं आता।

यदि हिन्‍दुओं के प्रति उनकी इतनी इकहरी सोच न होती तो संघ और भाजपा तो गांधी जी की हत्‍या के बाद हाशिए पर आ ही गए थे, हाशिए पर रहते। इस सोच ने जिसे मैं कई बार दुहरा चुका हूं कि यह मुस्लिम लीग की सोच है, और यह भी समझा चुका हूं कि यह क्‍यों सेकुलरिस्‍टों में ही पाई जाती है (और बुद्धिजीवी तो होता ही सेक्‍युलर है इसलिए सारे बुद्धिजीवियों में पाई जाती है, जिसमें न मिले वह बुद्धिजीवी नहीं हो सकता), इसलिए लीग अर्थात् सेक्‍युलरिज्‍म ने इस एक तरफा हमले, आक्षेप, योजनाबद्ध अपमान और सांस्‍कृतिक प्रदूषण के द्वारा भाजपा और संघ को स्‍वत:सिद्ध रूप में उदार, सर्वहितचिन्‍तक, सर्वधर्म समदर्शी, देशप्रेमी और प्रगतिशीलों से भी अधिक प्रगतिशील होने का दावा करने का और समाज के मूल्‍यांकन में पहले के किसी भी चरण से अधिक सम्‍मान पाने और इन दावों पर खरा उतरने का अधिकार दिया जब कि हिन्‍दू संस्‍कृति और सम्‍यताविमर्श के मामले में वह उत्‍पाती भले न हों नासमझी में अपना कीर्तिमान रखते हैं ।

मेहमानी का भाव मुसलमानों में भी इतना गहरा है कि वे उस तरह के सुधार, उस तरह की वस्‍तुपरकता तक नहीं अपना पाते जिन्‍हें दूसरे, कई मामलों अधिक पिछड़े मुसलिम देश अपना चुके हैं। उदाहरण के लिए बुतपरस्‍ती से परहेज के चलते वे मस्जिद, कुरान की पोथी, या किसी की समााधि या मजार के प्रति पूजा या भावनात्‍मक लगाव नहीं रखते जब कि सेक्‍युलर भारत में यह उल्‍टा है। थोड़ी सी भी असुविधा या खरोंच पर उनका आवेश ऐसी बेचारगी का रूप ले लेती है जिसका मतलब होता है, उनके साथ अकारण जुल्‍म और जुल्‍म भी ऐसा जो इतिहास के सबसे क्रूर चरणों पर हुआ है हो रहा है और यह जिस तरह की उत्‍तेजना का प्रसार करता है वह किसी के लिए हितकर नहीं मानी जा सकती।

यह पोस्‍ट मैंने 29 को लिखी थी पर अधूरी रह गई थी। तब तक भोपाल जेल से पलायन करने वालों के एनकाउंटर का मामला न आया था। आज वह आ चुका है तो उससे बच नहीं सकता। मुझे भी इस बात का पूरा विश्‍वास है कि भगोड़े आरोपियों के पास कोई कट्टा या बारूदी हथियार नहीं था। वे पुलिस वालों को पत्‍थर ही मार रहे थे कि वे उन्‍हें पकड़ने को आगे न बढ़ सकें। वे घिर जाने के बाद भी समर्पण न करके ‘केवल’ पत्‍थर मार रहे थे इसलिए आदर्श स्थिति में उन पर जानलेवा गोली नहीं दागी जानी चाहिए थी। आदर्श स्थिति का अर्थ है जिसमें हम यांत्रिक वस्‍तुपरकता का निर्वाह कर सकें जिसके लिए बहुत कम देशों की पुलिस जानी जाती है और उनमें हमारा नाम नहीं आता।

परन्‍तु इसके अलावा दूसरी कहानियां मुझे उतनी ही जाली लगती हैं जितना जाली बहाना पुलिस अपने बचाव में तैयार करेगी। यह कि प्‍लेट को तोड़ कर उससे ऐसा हथियार नहीं बनाया जा सकता जिससे किसी की जान ली जा सके, अपराधियों की सर्जनात्‍मकता और कारनामों के इतिहास को जानबूझ कर झुठलाने जैसा है। यह तथ्‍य कि वे विचाराधीन थे, छूट भी सकते थे, उन्‍हें निरपराध नहीं सिद्ध करता कारण छूटने के कारण दूसरे होते हैं, जिनमें सर्वविदित अपराधी छूटते रहते हैं।

यदि वे निरपराध होते तो उन्‍हें फैसले का इन्‍तजार करना चाहिए था, भागने का प्रयत्‍न नहीं। उन्‍हें जानबूझ कर भगाया गया, यह कहानी अपनी तार्किक परिणति में कुछ लंबी हो जाती है । यह योजना इतनी बड़ी थी कि पहले उन्‍हें एक जेल से भगाया गया और फिर पकड़ा गया और ऐसी जेल में डाला गया जिसमें भागना कठिन था और इससे भगा कर सफाया किया गया। यह पल्‍ले नहीं पड़ता और यह तो पड़ता ही नहीं कि यह सरकारी योजना थी और जिनसे इसे कराया गया उनको ही सस्‍पेंड कर दिया गया और उनके विरुद्ध जांच बैठा दी गई।

परन्‍तु ये सन्‍देह मेरे हैं जिसने जान बूझ कर उसका पक्ष लेने का चुनाव किया जिस पर दूसरे सभी बुद्धि-जीवी पत्‍थर मारते है और वह भी इस दावे के साथ कि मैं अकेले उसे बचाने के लिए ही नहीं, पत्‍थर मारने वालों को पक्‍का अपराधी (हार्डेंड क्रिमिनल) सिद्ध करने जा रहा हूं और अपना बचाव कर सकते हो तो करो। अभी तक मेेरे बुनियादी आरोपों तक का भी जवाब किसी ने न दिया न आशा है कि इसका देगा। जो अपने ऊपर लगे आरोपों को नकार भी न सकें उन्‍हें दूसराें को परखने और निर्णय देने का अधिकार कैसे मिल गया।

पक्षधर होने के कारण मैं उन सारे आरोपों को जो लगाए गए विचारणीय और निष्‍पक्ष जांच के दायरे में मान लेता हूं, परन्‍तु यह मानता हूं कि अपने मित्र का ही नहीं, उस बल का किसके एक एक प्रतिनिधि के पीछे पूरे संगठन की शक्ति होती है, हत्‍या करने वालों का घिर जाने पर भी ऊंचाई का लाभ उठा कर उन तक पहुंचने वालों को रोकने के लिए पत्‍थर मारना या गिराना भी घैर्य चुकने और एनकाउंटर के लिए पर्याप्‍त कारण था। इसके बाद भी यदि कोई भारत में लंबे समय से होते आए एनकाउंटरों का इतिहास नहीं जानता है और यह भूल चुका है कि सिख उग्रवादियों का सफाया करने और पंजाब में स्‍थायी शान्ति लाने के लिए जो एनकाउंटर किये गये थे वे इसकी तुलना में सैकड़ो गुना थे और उन पर हमारे बुद्धिजीवी भी चुप थे क्‍योंकि यह मुसलमानों के विरुद्ध नहीं था इसलिए लीगी नजरिए से यह उपेक्षणीय था जब कि इस एनकांउटर के साथ हिटलर और उसके गैसचैंबर से नीचे की कोई मिसाल सामने आती ही नहीं

Post – 2016-11-01

मैं जिस मार्क्‍सवाद की बात करता हू्ं उसमें मार्क्‍स कम और ऐतिहासिक और द्वन्‍द्वात्‍मक भौतिकवाद अधिक मानी रखता हैै। पश्चिम में विचारों से क्रान्ति या बड़े परिवर्तन नहीं हुए । धर्म तक का प्रचार हिंसा के बल पर हुआ। अत: वह हिंसा या शक्ति के बिना किसी परिवर्तन की बात नहीं सोच सकते थे और इसके लिए संगठन की, उसकी भूमिका की आवश्‍यकता थी। हम चाहें या न चाहें, वर्तमान अर्धसामन्‍ती और अर्धपूंजीवादी व्‍यवस्‍था जो हमारी सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के मूल में है, हमे अपनी अधोगति से उबार नहीं सकती। सामन्‍ती व्‍यवस्‍था खत्‍म हो गई है, या ख्‍ात्‍म हो चली है, पर सामन्‍ती संस्‍कार अधिक मजबूत है । जातिवाद की समस्‍या भी उसी से जुड़ी है। समाजवाद का रास्‍ता पूंजीवाद से हो कर गुजरता है। उसके अपने दोष हैं परन्‍तु वह सूचना, कौशल का विस्‍तार करता है और सामन्‍ती सामाजिक ढांचे को तोड़ता नहीं, व्‍यर्थ कर देता है। पूरी दुनिया को पूंजीवाद और उसका बड़े पैमाने का उत्‍पादन संभाल नहीं सकता। पूंजीवाद को ध्‍वंसकारी सर्जनात्‍मकता कहा जाता है, पर सार्वदेशिक और सार्विक होने के बाद यह व्‍यर्थकारी उत्‍पादन के कारण ध्‍वस्‍त होने को बाध्‍य है इसलिए इसके खात्‍मे के लिए किसी कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन और उस आन्‍दोलन के लिए किसी पार्टी के गठन की आवश्‍यकता न होगी। एक व्‍यापक योजना की जरूरत होगी जो रिक्‍तता में नयी व्‍यवस्‍था कायम कर सके। उसके लिए हल्‍ला, हिंसा, नियन्‍त्रण और तानाशाही की भी जरूरत न होगी न साम्‍यवाद से पहले तानाशाही की जरूरत होगी। साम्‍यवाद स्‍वत: आएगा और यदि उसमें किन्‍हीं का संहार होगा तो उनका जो अपने को किसी काम के लिए दक्ष न बना पाएंगे। यह मेरा सोचना है। हमारे चुनने का सवाल नहीं है, जैसे मौसम को हम चुनते नहीं हैं, वह अपने तई आता है, ठीक ऐसे ही इस व्‍यर्थता के कारण साम्‍यवाद को आना है पर पूंजीवादी व्‍यर्थता के बाद।