Post – 2016-11-01

मैं जिस मार्क्‍सवाद की बात करता हू्ं उसमें मार्क्‍स कम और ऐतिहासिक और द्वन्‍द्वात्‍मक भौतिकवाद अधिक मानी रखता हैै। पश्चिम में विचारों से क्रान्ति या बड़े परिवर्तन नहीं हुए । धर्म तक का प्रचार हिंसा के बल पर हुआ। अत: वह हिंसा या शक्ति के बिना किसी परिवर्तन की बात नहीं सोच सकते थे और इसके लिए संगठन की, उसकी भूमिका की आवश्‍यकता थी। हम चाहें या न चाहें, वर्तमान अर्धसामन्‍ती और अर्धपूंजीवादी व्‍यवस्‍था जो हमारी सामाजिक और आर्थिक पिछड़ेपन के मूल में है, हमे अपनी अधोगति से उबार नहीं सकती। सामन्‍ती व्‍यवस्‍था खत्‍म हो गई है, या ख्‍ात्‍म हो चली है, पर सामन्‍ती संस्‍कार अधिक मजबूत है । जातिवाद की समस्‍या भी उसी से जुड़ी है। समाजवाद का रास्‍ता पूंजीवाद से हो कर गुजरता है। उसके अपने दोष हैं परन्‍तु वह सूचना, कौशल का विस्‍तार करता है और सामन्‍ती सामाजिक ढांचे को तोड़ता नहीं, व्‍यर्थ कर देता है। पूरी दुनिया को पूंजीवाद और उसका बड़े पैमाने का उत्‍पादन संभाल नहीं सकता। पूंजीवाद को ध्‍वंसकारी सर्जनात्‍मकता कहा जाता है, पर सार्वदेशिक और सार्विक होने के बाद यह व्‍यर्थकारी उत्‍पादन के कारण ध्‍वस्‍त होने को बाध्‍य है इसलिए इसके खात्‍मे के लिए किसी कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन और उस आन्‍दोलन के लिए किसी पार्टी के गठन की आवश्‍यकता न होगी। एक व्‍यापक योजना की जरूरत होगी जो रिक्‍तता में नयी व्‍यवस्‍था कायम कर सके। उसके लिए हल्‍ला, हिंसा, नियन्‍त्रण और तानाशाही की भी जरूरत न होगी न साम्‍यवाद से पहले तानाशाही की जरूरत होगी। साम्‍यवाद स्‍वत: आएगा और यदि उसमें किन्‍हीं का संहार होगा तो उनका जो अपने को किसी काम के लिए दक्ष न बना पाएंगे। यह मेरा सोचना है। हमारे चुनने का सवाल नहीं है, जैसे मौसम को हम चुनते नहीं हैं, वह अपने तई आता है, ठीक ऐसे ही इस व्‍यर्थता के कारण साम्‍यवाद को आना है पर पूंजीवादी व्‍यर्थता के बाद।