भारतीय मुसलमान और भारतीय बुद्धिजीवी -2
(हमारा यह लेख अनुभववादी है वस्तुपरक नहीं। इसमें गलतियां गिनाई जाएंगी और वे ठीक लगेंगी तो उनके अनुसार इस कच्चे लेख को सुधार लूंगा और गलतियां सुझाने वाले का आभार भी स्वीकार करूंगा। हमारा आशय आधिकारिक ज्ञान तक प्रतीक्षा न करते हुए छत्तीस के संबंध को तिरसठ में बदलने का, अबोलेपन को दूर करने का और उस बहस को आरंभ करने का है जिसमें संजीदा प्रत्यालोचना से हम सबकी समझ बढ़ सके। )
भारतीय मुसलमान नब्बे फीसदी भारतीय है और दस प्रतिशत विदेशी। जो विदेशी होने का दावा करते हैं वे भी पचास प्रतिशत भारतीय है, पचास प्रतिशत विदेशी। भारतीय मुसलमान नब्बे प्रतिशत धर्मान्ध है और दस प्रतिशत सन्देहवादी । जिसने भारतीय स्ंस्कृति को गंगाजमुनी बनाया था उसे सच्चा मुसलमान बनाने के काेड़े मार मार कर कट्टर मुसलमान बनाया गया और उस संस्कृति को नष्ट किया गया जिसका रोना रोया जाता है। जाली टोपी पहनने वाले निन्नानबे प्रतिशत भारतीय मूल के मुसलमान मिलेंगे और एक प्रतिशत विदेशी मूल पर गर्व करने वाले। भारतीय मुसलमानों को अपने को सच्चा मुसलमान सिद्ध करने का दबाव और इसे साबित करने के लिए कुछ भी करने की तत्परता, विदेशी मूल का दावा करने वालों की तुलना में अधिक रहती है, जब कि सामान्य स्थिति में होना इससे उल्टा चाहिए। विदेशी मूल के दावेदार प्राय: जमींदार थे, शिक्षा और उच्च जीवन स्तर की सुविधाएं थीं जिनका उन्होंने लाभ भी उठाया इसलिए सामान्यत: उनकी जीवनशैली दूसरे संभ्रान्त भारतीयों से अलग नहीं दिखाई देती। सामाजिक मर्यादा में भी। उग्रवादी से लेकर आपराधिक गतिविधियों में संलिप्तता भी भारतीय मूल के मुसलमानों में ही अधिक पाई जाती है जिसका एक कारण आर्थिक और दूसरा अपनी हैसियत से अधिक कुछ कर गुजरने की इच्छा भी रहती है। अत: बड़े डान हाजी मस्तान, दाऊद और शकील का एक समानान्तर अंडरवर्ल्ड है जिसमें से ही कुछ हिन्दू भी निकले हैं। परन्तु विदेशी मूल के मुसलमानों में सांस्कृतिक श्रेष्ठतावाद बहुत प्रबल रहा है जिसने भारतीय सांप्रदायिकता का एक प्रधान कारण माना जा सकता है।
भारतीय मूल के मुसलमान पहले मूर्तिपूजक थे इसलिए उन्होंने इस्लाम में भी बुतपरस्ती का, कीर्तन, भजन, अगियारी या धूमगन्ध का रास्ता निकाल लिया । शुरुआत दरगाहाें से हुई और फिर ताे चार चिराग जलाने तक आ गई। कुरान की प्रतियों, मस्जिदों का दैवीकरण आरंभ हो गया। मैं नहीं जानता कि यह बुतशिकनों की हार थी या बुतपरस्तों की विजय, क्योंकि जीतने वाले बहुत कुछ हार चुके थे, और जिसे बचाना चाहते थे, उसे बचा नहीं पाए । ऊपर से जिस मजहब को मान चुके थे उसके भीतर अपने को समायोजित करने में कठिनाई के कारण वे अपने आप से ही खीझने आैर सचाई को छिपाने लगें। जो लोग मन्दिरों और मठों से मूर्तिपूजा या देववाद को जोड़ने की आदत बना चुके हैं, उन्हें देववाद या प्रतीकपूजा के विस्तार का पता ही नहीं।
हम यहां इस्लाम के धार्मिक विश्वास की जांच नहीं कर रहे, न करना चाहते हैं, परन्तु उसे जानना जरूरी हो सकता है और हो सकता है कभी उस पर भी, अच्छा या बुरा तय करने के लिए नहीं अपितु यह जानने के लिए चर्चा करें कि उन विचारों और विधानोंं का हमारी जानकारी के अनुसार स्रोत क्या है और जब तक वे किसी भावधारा में स्वीकृत हैं उनका समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है और उस समाज काे दूसरे समाजों के साथ तालमेल बैठाने में क्या समस्यायें आती हैं। जब हम इस्लाम को विचारधारा न कह कर भावधारा कहते हैं तो इसका कारण यह कि इसमें सोच विचार की गुंजायश नहीं रखी गई है, केवल विश्वास करने का, उसमें बह जाने का ही रास्ता है। इस्लाम भक्तिमार्गी मजहब है और सच्चे भक्त के पास िदमाग होता है पर जहां उसका टकराव भावना से होता है वहां उसेस्थगित कर दिया जाता है ।
भारत में दो तरह के मत रहे हैं, एक को हम मजहब कह सकते हैं और दूसरे का धर्मदृष्टि । मजहब में विश्वास या आस्थाभाव इतना प्रबल रहा है कि बुद्धि या किसी तर्कवितर्क की संभावना नहीं रहती, और भक्ति भी अपने इष्टदेव तक सीमित रहती है, धर्मदृष्टि में किसी मान्यता का आधार उसका औचित्य होता है और दूसरे मतो के प्रति द्वेषभाव नहीं होता । मजहब के अस्तित्व के लिए यह विश्वास जगाना जरूरी होता है कि दूसरे सभी धर्म गलत है, उनमें बुराइयां हैं इसलिए समाज को उन बुराइयों से मुक्त करने के लिए इस धर्म का उदय हुआ। इसे अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए इसे ईश्वर प्रदत्त या ईश्वरीय इच्छा का अन्तर्ज्ञान किन्हीं महापुरषों याइसी प्रयोजन से भेजे गए पैगंबरो की कल्पना करनी होती है या स्वयं को ही ऐसा पैगंबर बताना होता है। दूसरे विकृत मजहबों से समाज को मुक्त करना भी इसका एक लक्ष्य बन जाता है जिसमें निन्दा से ले कर हिंसा तक का सहारा लिया जा सकता है। इस दृष्टि से आर्यसमाज एक मजहब है और ब्रह्मसमाज एक धर्मदृष्टि । भक्ति आंदोलन मजहब था तो संत आंदोलन धर्मदृष्टि । इस्लाम, ईसाइयत, यहूदी मत मजहब हैं और सनातन धर्म एक धर्मदृष्टि ।
भले सभी मजहबों में एक और एकमात्र सर्वोपरि शक्ति की किसी भी नाम से कल्पना की जाय, संसार की बनावट, प्रकृति की लीला और मनुष्य की अपनी कमजोरियाें के कारण वह सर्वोपरि रह नहीं जाता क्योंकि प्राक रतिक उपद्रवों, व्याधियों और मानवीय बुराइयों के लिए एक उतनी ही शक्तिशाली दुष्ट सत्ता की कल्पना करनी होती है जो सच कहें तो इस यह्व, गॉड, अल्लाह, से अधिक ताकतवर सिद्ध होता है और उसके सिर उन बुराइयों को डालना जरूरी होता है और कई बार उस सत्ता में विश्वास पैदा करने के लिए अनिष्टकारी घटनाओं या आपदाओं को उसी का प्रकोप बता कर उसका आतंक पैदा किया जाता है ।
इसी तरह उसकी सत्ता के लिए उसके अधीन कुछ ऐसी शक्तियों की भी कल्पना जरूरी होती है जिनके माध्यम से वह अपने आदेश जारी कर सके या अपने शासितों से संपर्क कायम रख सके। ऐंजिल्स या फरिश्तों की कल्पना उसी बहुदेववाद के समान तो नहीं फिर भी उसके निकट पड़ती है, सन्तों की कल्पना देवप्रतिम व्यक्तियों के निकट पड़ती ही है, उनके चमत्कार में विश्वास को भी जादुई शक्ति से अलग नहीं माना जा सकता। यही हाल प्रतीकविधान या किसी ऐसे पदार्थ में दैवशक्ति की प्रतिष्ठा में भी होता जिसे गढ़ें तो किसी जीव-जन्तु का आकार बन जाय, नन गढ़े तो पत्थर बना रहे। क्रास और इसे श्रद्धापूर्वक छूते हुए भक्त, मरियम के चित्र या प्रतिमा के साथ तो कम से कम यह है ही कभी कभी टोपी में भी इसे कल्पित किया जा सकता है जो पोप के सिर से फैल कर भारतीय मुसलमानों में हाल में बहुत तेजी से फैली है। मनुष्य की भावना का चरित्र ही ऐसा है कि जिन चीजों से तुष्टि मिलती है उनके एक रूप का विरोध करता है तो भी उसे दूसरे बहाने से जुटा लेता है। अरूप या समस्त गुणों से मुक्त ब्रह्म का ध्यान कठिन पड़ता है।
भारतीय समाज में ऐसी प्रत्येक वस्तु पवित्र है जिसका हमारे जीवन में उपयोग है। वह अनाज भी हो सकता है, कागज का ऐसा पन्ना भी हो सकता है जिसमें ज्ञान की बात लिखी हो या जिस में धर्म और नीति की बात लिखी हो। उसके लिए दावात और कलम और पटरी या अक्षर अभ्यास की पटिया पूज्य है। परंपरावादी हिन्दू किसान अनाज पर पांव नहीं रखता, रास्ते में दाना गिरा दिखाई दे तो उसे उठा कर माथे लगा लेगा। वह शस्त्र की भी पूजा करता है, तराजू और बाट की भी। वादक वाद्ययन्त्र की पूजा करता या पूजा जैसी संभाल रखता है। उस्ताद या गुरु को देवता बनाने का आग्रह भी संभवत: भारतीय संगीतकारों में ही पाई जाय वे हिन्दू हों या मुसलमान। ऋग्वेद में देवता का अर्थ वर्ण्यविषय होता है और ऋषि वह पात्र जिससे कोई बात कहलाई गई हो। इसलिए युद्ध पर केन्द्रित एकमात्र सूक्त में बाण/ इषु, दुन्दुभी, धनु, प्रत्यंचा, कवच सभी को देवता बताया गया है, परन्तु इसके साथ यह भाव भी जुड़ा हो सकता है कि जो हमारे उपादेय आयुध और उपकरण हैं वे असाधारण देख-संभाल और सुरक्षा के पात्र है। इसी से हिन्दू समाज में वह देव भाव आया जिसे फीटिशिज्म कह सकते हैं।
भारतीय मुसलमानों ने कुरान, मस्जिद, टोपी, पोशाक सभी को बुतों में बदल दिया। आप को याद है या नहीं मोदी की ‘सभी का साथ’ की परख के लिए एक मौलवी ने उन्हें जाली टोपी पहनने को दी तो मोदी ने उसे वापस कर दिया। शाल दी तो सम्मान के साथ स्वीकार कर लिया। कई स्थितियां ऐसी होती हैं जिसमें टोपी जूता बन जाती है और जूता ताज। जब आप कुछ पाने के लिए किसी की ऐसी शर्त मानने को तैयार हों जो आपके सामान्य व्यवहार और आत्मसम्मान से मेल न खाता हो तो टोपी भी जूता बन जाती है। जब अाप आत्मिक कृतज्ञता से किसी अनासक्त सेवा भाव से किसी के जूते उतारते, उसे माथे से स्पर्श करते है तो वह जूता नहीं रह जाता, ताज में बदल जाता है।
मोदी में यह आत्मसम्मान है कि वह नाजुक क्षणों में भी सही निर्णय लेता है और उसके विरोधी को भी उस पर कम से कम इतना विश्वास तो हो जाता होगा कि यह व्यक्ति पाखंडी नहीं है। मोदी ने कितने अंचलों में जा कर सम्मान भाव से पेश किए गए कितने टोप और पहनावे बदले हैं, परन्तु यह वह अवसर न था।
ठीक यही काम नीतीश, अरविंद और शिवराज सिंह नहीं कर सके। आप स्वयं तय करें कि उनके सिर पर टोपी पड़ी या कुछ और । कुछ पाने के लिए किसी ऐसी शर्त को मानना आदमी की नैतिक गिरावट का प्रमाण बन जाता है।
मुस्लिम समुदाय का प्रगतिशील कहा जान वाला तबका भी हिन्दू बुद्धिजीवियों के असर में मुस्लिम लीग के आदर्शों से प्रेरित रहा है । जो बात मुल्लाें की समझ में आ सकती है वह भी उसकी समझ में नहीं आती, इसलिए अपने समाज को कट्टर बनाने में सबसे अधिक भूमिका हाल के वर्षों में उसकी रही है जिसे हम सेक्युलर सांप्रदायवाद कह सकते हैं और जिसकी लड़ाई केवल हिन्दू संगठनों से ही नहीं, पूरे हिन्दू समाज, इसकी सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों से है, इसलिए मुसलमानों को अपने बन्द दिमाग से बाहर लाने में तो इसकी भूमिका रही ही नहीं, उसे अधिक बन्द दिमाग बनाने में इसकी प्रच्छन्न भूमिका रही है । हिन्दू मुसलिस संबंधों में बिगाड़ लाने में भी सबसे अधिक भूमिका इसी की रही है और सबसे अधिक नुकसान इसी को उठाना पड़ा है। अल्पज्ञ मूर्ख अपने अनुभवों से सीख जाता है, बहुपठित मूर्ख उसका भी लाभ नहीं उठा पाता ।