कार्यसंस्कृति का विनाश
हमारी कार्यसंस्कृति और कर्तब्यनिष्ठा को वामपंथी सक्रियता ने – चक्का जाम, गो स्लो, पेन डाउन, तोड़फोड़ – ने कितना प्रभावित किया, कहें राजनीतिक सक्रियता ने सामाजिक अकर्मण्यता को कितना बढ़ाया, इसका कोई अध्ययन नहीं हुआ, न ही इसका कोई आंकड़ा उपलब्ध है कि पदोन्नति में पहले की वरिष्टता और गुणवत्ता के स्थान पर केवल वरिष्टता को आधार बनाने का अथवा सामाजिक न्याय के तकाजे से अपेक्षाकृत अयोग्य की वरीयता और अनुभवहीनता के बावजूद पदोन्नति ने हमारी कार्यनिष्ठा को किस सीमा तक प्रभावित किया है इस पर कोई अनुसंधान हुआ कि हम इनके प्रभाव को ठीक ठीक बता सकें।
परन्तु एक बात सुनिश्चित रूप में कही जा सकती है कि स्वतन्त्र भारत में देश और समाज को पीछे ले जाने वाले या भीतर से निःसत्व बनाने वाले काम अधिक हुए और आगे ले जाने वाले या ऊर्जा पैदा करने वाले काम नहीं जैसे हुए, वल्कि उन्हें गुलामी की निशानी माना जाता रहा। यह कैसा व्यंग्य है कि हम मुक्त होते ही आजादी का अर्थ ही भूल गए और यह तक भूल गए कि इसकी पहली शर्त है आत्मानुशासन। हम लगातार दूसरों की कमियां निकालते हैं पर आत्मनिरीक्षण तक करने को तैयार नहीं होते। हम सारी दुनिया को ठीक करना चाहते हैं, स्वयं ठीक नहीं होना चाहते। कहें हम उसे ठीक करना चाहते हैं जिसे ठीक नहीं कर सकते, परन्तु जिसे ठीक करना हमारे वश में हैं उसे नहीं। जब में कहता हूँ अपना काम पूरी निष्ठा और समर्पित भाव से करना भी एक राजनीतिक कार्य है, एक क्रांतिकारी काम है, तो यह बात मित्रों की समझ में नहीं आती। यह यथास्थितिवादी सोच मान ली जाती है। जो अपना काम नहीं कर सकता वह कौन सी क्रांति करेगा। निकम्मों और लफ्फाजों द्वारा लाई गई क्रान्ति ऐसी लफ्फाजी तक सीमितरह जातीहै जिसमें किसी को मिलता कुछ नहीं पर असहमति की आजादी भी छीन ली जाती है।
मैं जिस समय की बात कर रहा हूँ उस में भी यूनियनें थीं, प्रतिरोध के उपाय थे, आरक्षण की सुविधाएँ थीं, मांगें रखी जाती थीं, काम बन्द करने की धमकी का सहारा लिया जाता था। अकेला व्यक्ति भी गलत बात का विरोध कर सकता था। सब कुछ मर्यादा में था और लोगों को मर्यादा शब्द का अर्थ पता था। इसकी याद दिलाने वाला ढोंगी नही समझा जाता था।
कम्युनिस्ट पार्टियों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपनाने के बाद प्रतिरोध को जैसा अराजक और उपद्रवकारी रूप देते हुए कार्य संस्कृति को नष्ट करना आरंभ किया, और कुछ और बाद में वोट और सत्ता के लिए कुछ भी देने, कुछ भी करने का पहले का जो चोर दरवाजा था, वह समाजवादी पार्टी की दुर्बुद्धि से, राजपथ, महापथ और एकमात्र पथ बनता चला गया और मर्यादा का निर्वाह करने वाला एक मात्र दल भारतीय जनसंघ और उसका परवर्ती रूप भारतीय जनता पार्टी रह गई, तो मात्र इसके कारण उसकी छवि में और उसकी स्वीकार्यता में क्रमश: किस गति से निरन्तर वृद्धि होती चली गईऔर उसके विरोध में शोर मचाने वालों की विश्वसनीयता उसी अनुपात में गिरी, इसका भी अध्ययन न किया गया। इसका बोध होने पर संघबद्ध हो कर इस बाढ़ को रोकने के प्रयास किए गए और इससे सबका चरित्र उजागर होने लगा और जिसे दक्षिण पंथी कह कर गालियां दी जाती थीं वह मर्यादा की चिंता करने वाली एकमात्र पार्टी बन गई। इसका श्रेय एक व्यक्ति को जाता है जिसे अटल बिहारी वाजपेयी कहा जाता है,जिसे आरएसएस के लोगों ने सोने का हंसिया समझा। निगला न उगला।
कम्युनिस्टों ने क्रान्ति का छोटा रास्ता छोड़कर लोकतान्त्रिक रास्ता अपनाया भी तो मिजाज नही बदला. कार्यसंस्कृति को ही नहीं, सभ्याचार, नागर मूल्यों के साथ-साथ उत्कर्ष की चुनौतियों, गुणवत्ता की भूख और नैतिकता के सरोकार सभी को नष्ट किया। झोला उठाओ, चापलूसी करो, धूर्तता करो, पार्टी सत्ता या संस्था पर कब्जा जमाए है तो कट्टर समर्थक बन कर कैरियर बनाओ, मिलावट करो, कुछ भी करो पर जो चाहते हो उसे पा लो। सफलता योग्यता का एक मात्र प्रमाण है। गांधीजी का साध्य की पवित्रता के साथ साधन की पवित्रता का महत्व भारत की गिरावट का ध्यान आने पर ही समझ में आता है।