Post – 2017-09-03

कार्यसंस्कृति का विनाश

हमारी कार्यसंस्कृति और कर्तब्यनिष्ठा को वामपंथी सक्रियता ने – चक्का जाम, गो स्लो, पेन डाउन, तोड़फोड़ – ने कितना प्रभावित किया, कहें राजनीतिक सक्रियता ने सामाजिक अकर्मण्यता को कितना बढ़ाया, इसका कोई अध्ययन नहीं हुआ, न ही इसका कोई आंकड़ा उपलब्ध है कि पदोन्नति में पहले की वरिष्टता और गुणवत्ता के स्थान पर केवल वरिष्टता को आधार बनाने का अथवा सामाजिक न्याय के तकाजे से अपेक्षाकृत अयोग्य की वरीयता और अनुभवहीनता के बावजूद पदोन्नति ने हमारी कार्यनिष्ठा को किस सीमा तक प्रभावित किया है इस पर कोई अनुसंधान हुआ कि हम इनके प्रभाव को ठीक ठीक बता सकें।

परन्तु एक बात सुनिश्चित रूप में कही जा सकती है कि स्वतन्त्र भारत में देश और समाज को पीछे ले जाने वाले या भीतर से निःसत्व बनाने वाले काम अधिक हुए और आगे ले जाने वाले या ऊर्जा पैदा करने वाले काम नहीं जैसे हुए, वल्कि उन्हें गुलामी की निशानी माना जाता रहा। यह कैसा व्यंग्य है कि हम मुक्त होते ही आजादी का अर्थ ही भूल गए और यह तक भूल गए कि इसकी पहली शर्त है आत्मानुशासन। हम लगातार दूसरों की कमियां निकालते हैं पर आत्मनिरीक्षण तक करने को तैयार नहीं होते। हम सारी दुनिया को ठीक करना चाहते हैं, स्वयं ठीक नहीं होना चाहते। कहें हम उसे ठीक करना चाहते हैं जिसे ठीक नहीं कर सकते, परन्तु जिसे ठीक करना हमारे वश में हैं उसे नहीं। जब में कहता हूँ अपना काम पूरी निष्ठा और समर्पित भाव से करना भी एक राजनीतिक कार्य है, एक क्रांतिकारी काम है, तो यह बात मित्रों की समझ में नहीं आती। यह यथास्थितिवादी सोच मान ली जाती है। जो अपना काम नहीं कर सकता वह कौन सी क्रांति करेगा। निकम्मों और लफ्फाजों द्वारा लाई गई क्रान्ति ऐसी लफ्फाजी तक सीमितरह जातीहै जिसमें किसी को मिलता कुछ नहीं पर असहमति की आजादी भी छीन ली जाती है।

मैं जिस समय की बात कर रहा हूँ उस में भी यूनियनें थीं, प्रतिरोध के उपाय थे, आरक्षण की सुविधाएँ थीं, मांगें रखी जाती थीं, काम बन्द करने की धमकी का सहारा लिया जाता था। अकेला व्यक्ति भी गलत बात का विरोध कर सकता था। सब कुछ मर्यादा में था और लोगों को मर्यादा शब्द का अर्थ पता था। इसकी याद दिलाने वाला ढोंगी नही समझा जाता था।

कम्युनिस्ट पार्टियों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अपनाने के बाद प्रतिरोध को जैसा अराजक और उपद्रवकारी रूप देते हुए कार्य संस्कृति को नष्ट करना आरंभ किया, और कुछ और बाद में वोट और सत्ता के लिए कुछ भी देने, कुछ भी करने का पहले का जो चोर दरवाजा था, वह समाजवादी पार्टी की दुर्बुद्धि से, राजपथ, महापथ और एकमात्र पथ बनता चला गया और मर्यादा का निर्वाह करने वाला एक मात्र दल भारतीय जनसंघ और उसका परवर्ती रूप भारतीय जनता पार्टी रह गई, तो मात्र इसके कारण उसकी छवि में और उसकी स्वीकार्यता में क्रमश: किस गति से निरन्तर वृद्धि होती चली गईऔर उसके विरोध में शोर मचाने वालों की विश्वसनीयता उसी अनुपात में गिरी, इसका भी अध्ययन न किया गया। इसका बोध होने पर संघबद्ध हो कर इस बाढ़ को रोकने के प्रयास किए गए और इससे सबका चरित्र उजागर होने लगा और जिसे दक्षिण पंथी कह कर गालियां दी जाती थीं वह मर्यादा की चिंता करने वाली एकमात्र पार्टी बन गई। इसका श्रेय एक व्यक्ति को जाता है जिसे अटल बिहारी वाजपेयी कहा जाता है,जिसे आरएसएस के लोगों ने सोने का हंसिया समझा। निगला न उगला।

कम्युनिस्टों ने क्रान्ति का छोटा रास्ता छोड़कर लोकतान्त्रिक रास्ता अपनाया भी तो मिजाज नही बदला. कार्यसंस्कृति को ही नहीं, सभ्याचार, नागर मूल्यों के साथ-साथ उत्कर्ष की चुनौतियों, गुणवत्ता की भूख और नैतिकता के सरोकार सभी को नष्ट किया। झोला उठाओ, चापलूसी करो, धूर्तता करो, पार्टी सत्ता या संस्था पर कब्जा जमाए है तो कट्टर समर्थक बन कर कैरियर बनाओ, मिलावट करो, कुछ भी करो पर जो चाहते हो उसे पा लो। सफलता योग्यता का एक मात्र प्रमाण है। गांधीजी का साध्य की पवित्रता के साथ साधन की पवित्रता का महत्व भारत की गिरावट का ध्यान आने पर ही समझ में आता है।

Post – 2017-09-02

गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दुबारा
हाफिज खुदा तुम्हारा।

रेलवे का संचालन तंत्र ऐसा जिसमें सफल या सफलता चाहने वाला आदमी यन्त्रमानव बन कर काम करता है। उन दिनों यन्त्रमानव कल्पनातीत था। कंप्यूटर कल्पनातीत था। टेलीविजन भारतीय बोधवृत्त से बाहर था। संचार का सबसे तेज माध्यम टेलीफोन था, पर प्रचलित साधऩ टेलीग्राफ औऱ टेलीप्रिंटर औऱ आशुलेखन। यहाँ तक कि फिल्मी मुहब्बत में भी आंखें मिलाने और जी धड़काने की छूट तो थी, पर आंखें लडाने पर पाबन्दी थीं और किसी को यह पता न था कि जी दिल का पर्याय है, या कोई ऐसा अंग जो आँखें मिलने के साथ पैदा होता है आँखें फेरते ही गायब हो जाता है, इसलिए इसे कायविज्ञानी समझ नहीं पाते थे और अक्षिविज्ञानी समझने चलते तो पाते इससे नजर बदलती नहीं नजरिया अवश्य बदल जाता है, जो दर्शन क्षेत्र में आता है । सोच का स्तर इतना गिरा हुआ था किसी को यह पता न था कि आंखें मिलाने और जी के धड़कने का मामला काव्यालोचन और आंखें लड़ाने का मामला भारतीय दंड संहिता के क्षेत्र में आता है, क्योंकि लड़ना लड़ाना वैसे भी जुर्म है, गो संगीन नहीं, पर इसके बाद ही जान देने, जान लेने का कारोबार शुरू हो जाता था जो खासे संगीन हैं।

हमारा जमाना बाद के दशक में पैदा हुओं से दसकों पिछड़ा नहीं था, युगों पिछड़ा था। प्यार कहने से पहले लोग बूढ़े हो जाते थे, और मरते समय भी अपने बच्चों को यह न बता पाते थे कि मैने भी कभी किसी से प्यार किया था, जब कि पोता कहता है, दादा जी वह खंडाला चलने को कह रही है, कुछ पैसों का इन्तजाम करेंगे?

बुढ़पा भूल कर भी गाठ ढीली करने को तैयार होना पड़ता है कि तभी याद आता, रेप तब तक लोगों की जबान से ही नहीं, शव्दकोश से भी गायब था, रैगिंग का नाम सुनने में न आता था। बदहवासी में दरयाफ्त करना पड़ता है, ‘नौजवान तुम मेरे कौन हो? मैं कहां हू? जहां कभी था, उससे आगे या पीछे? आगे के युगों का हिसाब जोड़ लिया था, वह गलत हो गया, कितने युग पीछ हो गए हैं, इसका हिसाब बताओ तो सही । ‘

मेरे समय में दुर्घटनाएं इतनी कम हौती थीं कि मै यह देखने को तरस गया कि तकनीकी दुर्घटना से अलग वह दुर्घटना कब और क्यों होती और होती है तो कैसी होती है, जिससे बचने के लिए आदमी को मशीन का पुर्जा बना दिया जाता है?

मैं अपनी जगह से हिल नही सकता था, या प्राक्सी का प्रबन्ध करके ही शंकानिवारण के लिए भी हट सकता था।

टेलीफोन क्लर्क की ड्यूटी ऐसी कि आप अगले जोड़ीदार के आने के बाद उसे चार्ज र्सौंपने, और यह समझाने के बाद ही कि उसे क्या क्या करना है, काम से मुक्त हो सकते थे। यदि फिटिंग स्टाफ में विभिन्न शिकायतों को ठीक करनेवालों से कोई कमी दूर करने से रह गई तो उसकी खैर नहीं। सब कुछ रेकार्ड समय सीमा में ही होना चाहिए। ड्राइवर ड्यूटी पर आने के बाद पहला काम यह चेक करने का करेगा सारे पुर्जे सही तो है । शिफ्ट का पर्यवेक्षक समस्त गतिविधियों की डायरी तैयार करेगा जिसकी प्रति रोज जिला मकैनिकल इंजीनियर को जाएगी और जिसके विरुद्ध कोई टिप्पणी गई उसके निलंबन की प्रक्रिया आरम्भ।

यदि जोड़ीदार नही आया तो अगले आठ घंटे वहीं बिताने होते और एक बार तो बत्तीस घंटे लगातार जमे रहना पड़ा। रेलवे के संचलन से संबन्धित सभी संभाग – लोकेो मोटिव, इंजीनियरी, , परियात या ट्रैफिक घड़ी के घंटा, मिनिट और सेकंड के दांतेदार पहियों की तरह एक दूसरे से जुड होते और यांत्रिक तालमेल से काम करते हैं। यान्त्रिकता में ढील आई, शिथिलता के दुष्परिणाम अनिवार्य हैं। इसलिए मामूली से मामूली विचलन को बहुत कठोर कदम लेते और दंडित करते हुए हतोत्साहित किया जाता ।

Post – 2017-09-02

खुदा के वास्ते उसको न छेड़ो
वह खुद अपने से छिपता फिर रहा है.

Post – 2017-09-01

हम चुप नहीं हैं फिर भी जबां बन्द है अपनी
जो कह चुके हैं वह भी दुबारा न कहेंगे.

Post – 2017-09-01

ऐसा क्या है कि जिस इरादे से काम करता हूँ वह किसी दूसरी परिणति की ओर मुड जाता है? मैंने रेलवे के हाल के हादसों को अपने जीवन अनुभव और उससे मिले सीमित ज्ञान की रौशनी में समझने और समझाने का प्रयत्न किया। अभी आधार सामग्री पेश कर रहा था कि आत्मचरित इतना प्रधान हो गया कि प्रश्न उठा कि क्या इसे आत्मकथा नही बनाया जा सकता ?

यह प्रश्न मेरे सम्बन्ध में एक ख़ास अर्थ रखता है। जिस आग ने मुझे जो कुछ हूँ वह बनाया, और जिन बाधाओं ने मुझे अपनी संभावनाओं तक पहुँचने न दिया उनका कथन कुछ तरुणों के लिए प्रेरक भी हो सकता है, यह एकमात्र बचा आकर्षण है जो मुझे उस काम को पूरा करने के लिए प्रेरित कर सकता है जिसे पूरा करने के लिए ही मैंने अक्षर का अभ्यास करने के साथ ही यह तय किया था कि मैं लेखक बनूंगा। सच कहे तो लेखक शब्द से परिचित न था, इसलिए सोचा कवि बनूंगा और जब कुछ बाद में पता चला कि कविता के अलावा गद्य जैसा भी कुछ होता है जो व्यथा-कथा को अधिक विश्वसनीयता से प्रकट कर सकता है तो फिर लेखक बनने का सपना सजोने लगा।

मैंने आत्मकथा लिखने के लिए लेखक बनाना चाहा था और वही काम एक दर्जन प्रयोगों के बाद न कर सका। सभी के कारण पुस्तक की भूमिका में ही गिनाये जा सकते हैं, पर कभी यह सोच कर छोड़ दिया कि मुझसे अधिक यातना तो हमारे ही समाज के असंख्य लोगों ने, विशेषतः दलितों ने झेली हैं. उनकी पीड़ा के समक्ष मेरी व्यथा कहाँ ठहरती है और कभी यह सोचकर कि आत्मकथा आत्मरति की अभिव्यक्ति है, कुछ अध्याय लिख कर, उनके कुछ अंश छपाकर भी उदासीन हो गया। कारण दूसरे दबाव भी थे। आज भी हैं। पर आज पहली बार इसका आवरण पृष्ठ तैयार किया। आवरण क्या अंतिम सत्य तक पहुंचा सकता है यह तो आगे पता चलेगा, पर वह है निम्न रूप मेंः

(ऊपर)
जैसी बीती न किसी पर बीते।
फिर भी कितना गरूर है इस पर।।

(और पुस्तक का नाम)

जैसी मिली, मिली, मगर
ये जिन्दगी मिली तो है

अगली किश्त का चरित्र कुछ तो बदला ही. जो कहने की भूमिका तैयार करता हूँ उसे पहले जैसा सोचा कह नही पाता, यह तो सिद्ध हुआ हीः

आप को मुझसे बचाए भगवान
वर्ना बरबादियों का अंत नहीं।