Post – 2017-09-01

ऐसा क्या है कि जिस इरादे से काम करता हूँ वह किसी दूसरी परिणति की ओर मुड जाता है? मैंने रेलवे के हाल के हादसों को अपने जीवन अनुभव और उससे मिले सीमित ज्ञान की रौशनी में समझने और समझाने का प्रयत्न किया। अभी आधार सामग्री पेश कर रहा था कि आत्मचरित इतना प्रधान हो गया कि प्रश्न उठा कि क्या इसे आत्मकथा नही बनाया जा सकता ?

यह प्रश्न मेरे सम्बन्ध में एक ख़ास अर्थ रखता है। जिस आग ने मुझे जो कुछ हूँ वह बनाया, और जिन बाधाओं ने मुझे अपनी संभावनाओं तक पहुँचने न दिया उनका कथन कुछ तरुणों के लिए प्रेरक भी हो सकता है, यह एकमात्र बचा आकर्षण है जो मुझे उस काम को पूरा करने के लिए प्रेरित कर सकता है जिसे पूरा करने के लिए ही मैंने अक्षर का अभ्यास करने के साथ ही यह तय किया था कि मैं लेखक बनूंगा। सच कहे तो लेखक शब्द से परिचित न था, इसलिए सोचा कवि बनूंगा और जब कुछ बाद में पता चला कि कविता के अलावा गद्य जैसा भी कुछ होता है जो व्यथा-कथा को अधिक विश्वसनीयता से प्रकट कर सकता है तो फिर लेखक बनने का सपना सजोने लगा।

मैंने आत्मकथा लिखने के लिए लेखक बनाना चाहा था और वही काम एक दर्जन प्रयोगों के बाद न कर सका। सभी के कारण पुस्तक की भूमिका में ही गिनाये जा सकते हैं, पर कभी यह सोच कर छोड़ दिया कि मुझसे अधिक यातना तो हमारे ही समाज के असंख्य लोगों ने, विशेषतः दलितों ने झेली हैं. उनकी पीड़ा के समक्ष मेरी व्यथा कहाँ ठहरती है और कभी यह सोचकर कि आत्मकथा आत्मरति की अभिव्यक्ति है, कुछ अध्याय लिख कर, उनके कुछ अंश छपाकर भी उदासीन हो गया। कारण दूसरे दबाव भी थे। आज भी हैं। पर आज पहली बार इसका आवरण पृष्ठ तैयार किया। आवरण क्या अंतिम सत्य तक पहुंचा सकता है यह तो आगे पता चलेगा, पर वह है निम्न रूप मेंः

(ऊपर)
जैसी बीती न किसी पर बीते।
फिर भी कितना गरूर है इस पर।।

(और पुस्तक का नाम)

जैसी मिली, मिली, मगर
ये जिन्दगी मिली तो है

अगली किश्त का चरित्र कुछ तो बदला ही. जो कहने की भूमिका तैयार करता हूँ उसे पहले जैसा सोचा कह नही पाता, यह तो सिद्ध हुआ हीः

आप को मुझसे बचाए भगवान
वर्ना बरबादियों का अंत नहीं।