Post – 2017-12-19

जीते हुए दलों के बीच हारा हुआ लोकतंत्रः

1. भाजपा जीत गई क्योंकि उसे बहुमत मिला।
2. क्योंकि उसका मत प्रतिशत पहले के सभी चुनावों से अधिक रहा।
पर
1. भाजपा हार गई क्योंकि उसको पिछले चुनाव से कम सीटें मिलीं।
2. क्योंकि उसे विकास के नारे से हटकर व्यक्तिगत आक्षेपों का सहारा लेना पड़ा।


1. कांग्रेस की जीत हुई क्योंकि उसको मत प्रतिशत और सीटों में बढ़त मिली।
2. क्योंकि उसके नेता का मनोबल और वाक्कौशल और नेतृत्व क्षमता बढ़ी।
पर
कांग्रेस हारी
1. क्योंकि उसने जातियों के ध्रुवीकरण का खतरनाक खेल खेलने के बाद भी बहुमत नहीं पाया।
2. क्योंकि जीत के लिए मंदिरवाद और हिंदूकार्ड का सहारा लिया।
3. कयोंकि उसके पास किसी भी तरह सत्ता झपटने को छोड़कर कोई मुद्दा न था।


लोकतन्त्र हारा क्योंकि
1. भाषा का जितना गर्हित स्तर देखने को मिला वह अकल्पनीय था।
2. बुद्धिजीवियों और संचार माध्यमों के सोच का स्थान इच्छापूर्ति ने ले लिया था। लगा वे घृणा और अंधश्रद्धा से इतने ग्रस्त हैं कि देश विचारहीनता की उस पराकाष्ठा पर है जो तानाशाही को आमंत्रण देता है।

Post – 2017-12-18

मुझसे लड़ने को वह जिन्दा हो गया
कितनी ताकत है छिपी तकरार में।

Post – 2017-12-17

संस्कृत भाषियों का देश और जोंस की महिमा

विलियम जोंस को शोध नहीं करना था। उनके सामने सब कुछ तय था। न होता तो उन भाषाओं को जिनके विषय में उन्हें कुछ पता न था, एक ही आदि भाषा से व्युत्पन्न न मान लेते। उदाहरण के लिए चीनी और अरबी।

यदि हम उनके सभी व्याख्यानों को ध्यान से पढ़ें तो पाएंगे कि उनको यूरोप मे अपने पदों पर काम करते हुए फारसी का कुछ ज्ञान भले रहा हो, न अरबी का ज्ञान था, न तुर्की का न चीनी का, न अवेस्ता का। संस्कृत उन्होंने कलकत्ता पहुंचने के बाद सीखी पर काम संस्कृत के पंडितों की सहायता से ही करते रहे। वह कोशों से, शब्दावलियों से, किसी जानकार व्यक्ति से कुछ आंकड़े जुटाते हैं, उनमें से अपने उपयोग के कुछ नमूने छांटते हैं और उन्हें खींच तान कर अपने मन्तव्य के समर्थन के लिए प्रमाण बना लेते हैं। उदाहरण के लिए अवेस्ता विषयक उनका ज्ञान उनके परिचित एक पारसी सज्जन बहमान के माध्यम से था:
… I often conversed on them with my friend Bahman; and both of us were convinced, after full consideration, that the Zend bore strong resemblance to Sanscrit, and the Pahlavi to Arabic.
—this examination gave me perfect conviction that the Pahlavi was a dialect of the Chaldaic.

उन्हें जेन्द का एक शब्दसंग्रह मिल गया था, जिस पर उनका ज्ञान आधिकारिक हो गया था:
But when I perused the Zend Glossary, I was inexpressibly surprised to find that six or seven words in ten were pure Sanscrit, and even some of their inflexions fromed by rules of vyākaran… that the language of was al least a dialect of Sanscrit, approaching perhaps as nearly to it as Prācrit, or other popular idioms that we know to have been spoken in India two thousand years ago. From all these facts it is a necessary consequence that the oldest discoverable languages of Persia were Chāldaic and Sanscrit, and when they ceased to be vernacular, the Pahlavi and Zend were deduced from them respectively, and the Pārsi either from Zend or immediately from the dialect of the Brahmans…

अरबी और चीनी के मामले में उनकी खींचतान पराकाष्ठा पर और अवेस्ता के मामले में काम चलाऊ लगती है। चीन के विषय मे जानकारी एक पादरी के माध्यम से मिली थी। चीनी भाषा के संस्कृत से साम्य रखने का एक आधार तो यही था कि मनु ने कहा है पतित क्षत्रिय ही हूण, यवन, सक, चीनी आदि बन गए:
Believe, by Menu, the son of Brahma, we find the following curious passage: “Many families of the military class, having gradually abandoned the ordinances of the Veda, and the company of Brahmens, lived in a state of degradation, as the people of Pundraca and Odra, those of Dravira and Camboja, the Yavanas and Sacas, the pāradas and the Pahlavas, the Chinas and some other nations”

इसी तरह की नितान्त कामचलाऊ जानकारी और उस पर आधारित कयासबाजी के आधार पर वह ईरान को ब्राह्मणों की और उनकी भाषा संस्कृत की मूलभूमि ठहराते हैं। ईरान उनकी नजर में क्या हैः
The most celebrated and most beautiful countries in the world है।… Thus we look on Iran as the noblest island (for so the Greeks and Arabs would have called it) or at least the noblest peninsula on this habitable globe…

ईरान में संस्कृत बोली जाती थी इसका विश्वास दिलाते हुए वह लिखते हैं:
I can assure you with confidence, that hundreds of Parsi nouns are pure Sanscrit, with no other change than such as may be observed in the numerous bhashas, or vernacular dialects of India; that very many Persian imperatives are the roots of Sanscrit verbs; and that even the moods and tense of the Persian verb substantive, which is the model of the rest, are deducible from Sanscrit by an easy and clear analogy; we may hence conclude, that Pahlavi was derived, like tvarious Indian dialects, from the language of the Brahmans; and I must add, that in pure Persian, I find no trace of any Arabian tongue…

वह फारस में इतिहास की भोर फूटती पाते हैं। अब उन्हें तय करना है कि भारतीय, अरबऔर तातार, अन्यत्र से ईरान में आ बसे थे या ईरान से निकल कर उन क्षेत्रों में पहुंचे थे। वह बताते हैं कि ईरान इन सबके बीच में है, इसलिए फारस को छोड़ कर दूसरा कोई क्षेत्र नहीं हो सकता था जहां से ये सभी निकल सकते थे। दूसरे ब्राह्मणों के प्राचीनतम धर्मग्रन्थ मे अपने देश से बाहर निकलने की साफ मनाही है इसलिए वे भारत से निकल कर ईरान आ ही नहीं सकते थे। मुहम्मद से पहले अरबों के फारस में प्रवेश करने की कोई कथा तक नहीं है। तातारों के मामले में मीदों से पहले ईरान में घुसने की कोई पुराकथा नहीं है, इसलिए यह सिद्ध हो गया कि इन तीनों नस्लों के लोग ईरान से अपने अपने देशों में पहुंचे थे और फिर वह यूरोप के बाशिन्दों को वहां से निकल कर यूरोप में आ बसने की परंपराओं को जुटाते है।
We discover therefore in Persia, at the earliest dawn of history, the three distinct races of men whom we described on former occasions, as possessors of India, Arabia, Tartary; and whether they were collected in Iran from distant regions or diverged from it as from a common centre, we shall easily determine by following considerations. Let us observe in the first place, the central position of Iran, which is bounded by Arabia, by Tartary, and by India; …no country, therefore, but Persia seem likely to have sent forth its colonies to all the kingdoms of Asia. The Brahmans could never have migrated from India to Iran, because they are expressly forbidden by their oldest existing laws to leave the region which they inhabit at this day; the Arabs have not even a tradition of an emigration into Persia before Mohammad, nor had they indeed any inducement to quit their beautiful and extensive domains; and as to the Tartars, we have no trace in history of their departure from their plains and forests till the invasion of the Medes, who, according to etymologists, were the sons of Madai; …The three races, therefore, migrated from Iran as from their common country; and thus Saxon Chronicle, I presume from good authority, brings the first inhabitants of Britain from Armenia; while a late very learned write concludes, after all his laborious researches, that the Goths or Scythians came from Persia; and another contends with great force, that both the Irish and old Britons proceeded severally from the borders of the Caspian; a coincidence of conclusions from different media by persons wholly unconnected, which could scarce have happened if they were not grounded on solid principles. We may therefore hold this position firmly established , that Iran, or Persia in its largest sense, was the true centre of population, of knowledge, of languages and of arts; which instead of travelling westward only, as it has been fancifully supposed, or eastward, as might with equal reason have been asserted, were expanded in all directions to all regions of the world in which the Hindu race had settled under various denominations…

यूरोप के गोरों को काले बंगालियों की सन्तान होने के कलंक से मुक्ति मिल गई। कंपनी को किसी सुदूर अतीत मे अपने वर्तमान रियाया की रियाया होने की कसक से मुक्ति मिल गई। एकहि साधे सब सधे, समस्या से मुक्ति पाने के लिए उसे जड़ से उखाड़ दो। सर विलियम जोन्स ने यही महान काम किया था जिसके लिए उनको तुलनात्मक भाषाविक्ज्ञान का जनक बना दिया गया।

विलियम जोन्स अकूत जिज्ञासा से भरे, संवेदनक्शील, कवि मनस्क व्यक्ति थे। एक व्यक्ति के रूप में उनके लिए मेरे मन में उससे कहीं अधिक आदर है जितना मैक्समुलर के लिए। उन्होंने संस्कृत की जिन कृतियों का अनुवाद किया वे साहित्यिक प्रकृति की थीं और उनकी उन्होंने खुल कर सराहना की। परन्तु न तो वह भाषा वैज्ञानिक थे, न होने का दावा करते थे। संस्कृत के महत्व का उनका आकलन सही था और यह भी सही था कि संस्कृत उनमें से किसी की जननी नहीं थी। वे विविध भाषिक उपस्तरों के ऊपर फैली वैदिकयुगीन बोलचाल की भाषा थी, जिसमें दूसरी भाषाओं के भी तत्व थे। इसका अर्थ है किसी जाति या भाषाभाषी समुदाय का किसी रूप में बहुत बड़े पैमाने पर संचलन नहीं हआ था, अपितु इसकी सांस्कृतिक श्रेष्ठता का इतना भारी दबाव पड़ा था कि सभी अपनी अपनी सीमाओं में इसको आत्मसात करते हुए अपने भाग्योदय में जुट गए थे । परंतु उस चरण पर न तो ऐसी किसी उन्नत सभ्यता के प्रमाण उपलब्ध थे, न साहित्यिक साक्ष्य। जोन्स अपनी सीमाओं में अपनी समस्या का समाधान तलाश रहे थे।

अब हम केवल निम्न तथ्यों की ओर ध्यान दिलाना चाहेंगे:
1. सर विलियम जोन्स तक, जिनके ऊपर इंडोफीलिया या भारत-रति का आरोप लगता रहा है, न तो निष्पक्ष भाव से काम कर रहे, न भारत के हित में काम कर रहे थे।

2. यह दावा कि उन्होंने संस्कृत के महत्व को स्थापित किया, गलत है। वह संस्कृत के महत्व को क्षीण करते हुए यथासंभव यूरोप की क्लासिकी भाषाओं को संस्कृत की समकक्षता में लाने का प्रयत्न कर रहे थे। अब आगे का काम दूसरोंको करना था।

3. इससे पहले भारत को पश्चिम के लोग भी सूर्योदय और ज्ञानोदय का देश मानते थे। वह इसे दरकिनार करते हुए ईरान को यह श्रेय दे रहे थे और उस परंपरा को उलट रहे थे जिसमें
उनके अनुसार मध्येशिया से ले कर चीन तक के लोगों को पतित क्षत्रियों द्वारा बसा बताया गया है। ऐसी श्रुति परंपरा यदि अरबों में या तातारों में न थी तो ईरान में भी न थी। उल्टे उसकी श्रुति परंपरा के अनुसार जरद्वस्त्र (जरथुस्त्र ) या पीतांबर धारी मीदिया से वहां गए जिसे संभव है बहमान ने उन्हें सुझाया हो ।

4. जोन्स भारत प्रेमी नहीं थे, भारतद्रोही भी न थे। अच्छे पारखी थे और उस सीमा तक ईमानदार थे जिस सीमा तक किसी इतर की सराहना उनके राष्ट्रहित में बाधक न हो। ऐसी नौबत आने पर वह भारत की व्याजनिंदा कर सकते थे, उसके श्रेयस् को निश्रेयस भी बना सकते थे।

5. उनको तुलनात्मक भाषाविज्ञान का जनक बना दिया गया, पर तुलनात्मक भाषाविज्ञान विज्ञान है ही नही, वह विज्ञानाभास है, इंद्रजाल है। इस सचाई को समझने में भी लंबा समय लगा, पर इसे सही नाम देने का काम मैं कर रहा हूं और आप देख भले न पाएं, इस समय मै लिख नहीं रहा हूं, मैं कपूर तलाश कर रहा हूं उन लोगों की आरती उतारने के लिए जो इसे भाषाशास्त्र कहते गुजर गए, पर उसे सही नाम देने का दायित्व मेरे लिए छोड़ गए।

6. मैं इंद्रजाल को जाने या अनजान, विज्ञान बनाने के प्रयत्न में अपना जीवन उत्सर्ग करने वाले असख्य विद्वानों को नमन करते हुए, उन अज्ञात और असंख्य आत्माओं को भी नमन करता हूं जिन्होंने अन्य धातुओं को सोने में बदलने के लिए प्रयोग किए और जिनके प्रयोगों से रसायन कला शास्त्र बनते हुए विज्ञान बन गई। ठीक यही भाषाविज्ञान के क्षेत्र में भी हुआ।

Post – 2017-12-16

हमारा सोचना अलग हो सकता है, लड़ना तो अलग नहीं हो सकता। उसके लिए तो गुत्थम गुत्था होना ही पड़ता है। विचार की दुनिया में दोनों बने रहें तो दुनिया कायम है।

Post – 2017-12-16

इंडोफीलिया का उपचार

जहर का उतार जहर है तो अपनी इंडोफीलिया से मुक्ति के लिए भारतीयों में यूरोफीलिया पैदा करना। इंडोफोबिया से मुक्त होने के लिए भारतीयों के मन में यूरोफोबिया पैदा करना। यदि भारत में काम करने वालें कंपनी के गोरे कर्मचारियों की विवशता यह थी कि उन्हें भारतीय भाषाएं सीखनी पड़ती थीं और इसके कारण वे भारतीयों के संपर्क में आकर उनके विचारों, आदर्शों से प्रभावित होते थे तो ऐसा उपाय करना कि यह संबन्ध दूरी बनाए रखते हुए, ऐसी परिस्थितियां पैदा करते हुए कि उल्टे वे अंग्रेजी सीखे और उन्हें अंग्रेजी संस्थाओं और शिक्षाप्रणाली की श्रेष्ठता से अवगत कराते हुए अपनी धाक कायम की जाय, और स्वयं हिन्दुओं को धर्मांतरित करने की खुली छूट ईसाई मिशनरियों को दी जाय, हिन्दू समाज की विकृतियों को उभारते हुए उनमें हीनता पैदा की जाय और उनको दूर करते हुए उनके उद्धारक की भूमिका निभाई जाय।

कंपनी यहां व्यापार करने और कमाने आई थी, प्रशासनिक और सामाजिक सुधार के लिए नहीं आई थी, न ही पुर्तगालियों की तरह धर्मप्रचार और व्यापार को समान महत्व देती थी। पुर्तगाल की समस्या उसके सटे स्पेन में इस्लाम के बढ़ते प्रभाव के कारण अंग्रेजों से भिन्न थी। उसमें आर्थिक लाभ और धार्मिक प्रतिहिंसा दोनों समान रूप से प्रबल थी। ब्रिटिश कंपनी का ध्यान शुद्ध लाभ पर था। वह ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहती थी जिससे भारतीय समाज में क्षोभ या उत्तेजना पैदा हो। दूसरी योजनाओं को लागू करने के लिए लंबी तैयारी की जरूरत थी जिसे मात्र चाहने से हासिल नहीं किया जा सकता था। फ्रेंच भी एक प्रतिस्पर्धी शक्ति के रूप में मौजूद थे। अपने भारतीय उपनिवेश में भारतीयों से उनका व्यवहार अधिक सम्मानजनक और आर्थिक दोहन कष्टसाध्य न था इसलिए वहां की जनता सभी मामलों में अधिक खुशहाल थी इसे इक्के दुक्के अंग्रेज लेखकों ने जिनमें एक लुडलो भी थे साफ स्वीकारा था। प्रशासन में कंपनी की रुचि सुशासन के लिए न होकर इसकी कर वसूली से होने वा-ले लाभ के कारण थी जो व्यापार की तुलना में कहीं बहुत अधिक था और इसे और बढ़ाने के लिए अभी भारत के बहुत सारे राज्य और रियासतें जीतने को थीं। ये सारे काम बहुत सूझ बूझ से किए जाने थे।

आरंभ में भारतीय मूल्यों से अभिभूत, भारत में कार्यरत गोरों और यूरोपवासियों में यह विश्वास पैदा करना कि जो कुछ बताया जा रहा है वह पूरी निष्पक्षता और गहन सोच विचार के बाद किया जा रहा है, क्योंकि ये ग्रन्थियां उनके अपने मन में थी, न कि उनको हिन्दुओं की ओर से उन्हें कोई चुनौती मिल रही थी। एक बार उनकी सोच बदल गई तो उनके रुख, कार्य और विचार से क्रमश: छन कर यह विचार भारतीयों में भी उतरना ही था। अब इन्हीं परिस्थितियों में अपनी भूमिका सर बनाए जा चुके विलियम जोन्स ने कितने धैर्य, दक्षता और दूरदर्शिता से निभाई, यह देखा जा सकता है।

याद दिला दें कि जिन आमंत्रित सज्जनों की श्रोता मंडली में उन्होंने अपने व्याख्यान दिए उनमें एक भी भारतीय नहीं था। सभी कंपनी के उच्चपदस्थ अंग्रेज अधिकारी और दूसरे प्रभावशाली सदस्य थे। अब निम्न तथ्यों और अर्धसत्यों पर ध्यान दें:
1. उन्होंने अपने आरंभिक व्याख्यानों में ही बताया था कि यूरोप का आदमी, चाहे किसी भी देश का हो, दूसरी किसी जाति के व्यक्ति से इतना गरिमामय लगता है कि कोई बराबरी हो ही नहीं सकती थी।

इसमें सन्देह नहीं कि जिस चरण पर यूरोप से भारत का सीधा सामना हुआ यूरोप के लगभग सभी देशों में कुछ कर दिखाने की ऊर्जा, दूसरों से आगे बढ़ जाने की स्पर्धा, कर्मठता अपने चरम पर थी और नौचालन में उन्होंने जो प्रगति की थी उसमें एशियाई प्रतिस्पर्धियों को बहुत पीछे छोड़ दिया था। बारूदी हथियारों के विकास में भी आगे थे। आज तो वैज्ञानिक और तकनीकी मामलों मे उनकी पहल, प्रयोग और उपलब्धियां ऐसी हैं कि उन्हें जगद्गुरु न कहा जाय (क्योंकि उनका प्रयत्न ब्राहमणों की तरह सारा ज्ञान और कौशल छिपाकर अपने पास रखने और दूसरों को अपने उत्पादित ज्ञान और माल का उपभोक्ता बनाकर रखने का है), फिर भी दूसरों के पास जो पहुंचा है वह उनसे ही चुराकर, नकल कर, छीन कर पहुंचा है, इसलिए बोध के स्तर पर वह गर्व और आतमविश्वास उनमें पंद्रहवीं शताब्दी से बना रहा है, परन्तु समृद्धि और उच्च जीवनशैली के मामले में उस समय तक वे मुगलों की नकल कर रहे थे, ऐयाशी के मामले में बाद में भी पूरी तरह समाप्त न हुआ और सांस्कृतिक स्तर पर उन्होंने अनेक हिन्दू मूल्यों को आत्मसात् करके अपने को परिष्कृत किया था।

हम केवल यह कहना चाहते हैं कि यूरोप और गोरी नस्लों की श्रेष्ठता का बोध जोंस में किसी अन्य से कम न था, जिसके कारण यूरोप में संस्कृत भाषा को मूलत: हिन्दुओं की भाषा मानने पर अन्तर्व्यथा हो रही थी। हिन्दू उनकी समझ से भी अधोगति में थे और गर्हित प्रतीत हो रहे थे (..nor we reasonably doubt how degenerate and abased for ever the Hindus may now appear)।

यह विजेताओं का अहंकारी आत्मबोध था, जब कि भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा शोषण, दमन और दोहन के कारण विपन्न और असहाय तो था, पर मनोबल के स्तर पर हिन्दू को अपनी मूल्य व्यवस्था के कारण इतना आत्माभिमान था कि इसके दलित/ दमित, और आर्थिक दृष्टि से विपन्न तबकों को भी गोरों का मजहब कबूल न था और वे उनका ‘उद्धार’ करने के लिए माथा रगड़ रहे थे।

2. मैंने जिन पंक्तियों को ध्यान से, एकाधिक बार पढ़ने को कहा था मुझे विश्वास है लाइक करने वालों ही नहीं, टिप्पणी करने वालों ने भी ऐसा न किया होगा। इसलिए मैं उसे दुबारा उद्धृत करते हुए, उसके मर्म को, जैसा मैने समझा है, आप को समझाना चाहूंगा। पहला वाक्य:
The five principal nations, who have in different ages divided among themselves, as a kind of inheritance, the vast continent of Asia, with the many islands depending on it, are the Indians, the Tartars, the Arabs and the Persians: who they severally were, whence, and when they came, where they now are settled, and what advantage a more perfect knowledge of them all may bring to our European world, will be shown , I trust, in five distinct essays; the last of which will demonstrate the connexion or diversity between them, and solve the great problem, whether they had any common origin, and whether that origin was the same, which we generally ascribe to them.
(१) वह एशिया की पांच मुख्य जमातों (जातीयताओं) की बात कर रहे हैं, जिसमें चीन अनुमानत: तुर्कों (तातारों) द्वारा आबाद है।
(२) उन्होंने समय समय पर इसे अपनी बपौती के रूप में आपस में बांटा, अर्थात् ये सभी किसी एक पूर्वज की सन्तानें हैं। जिस बात पर मैं ध्यान दिलाना चाहता था वह यह कि यहां जोन्स नहीं बोल रहे हैं, नोआ की सन्तानों मे से एक द्वारा एशिया बसाने की ईसाई पुराणकथा बोल रही है।
(३) जोन्स कह रहे थे कि एशिया के सभी लोग एक ही पिता की सन्तानें थे इसलिए उनका मूल निवास कोई एक रहा होगा, जहां से वे बिखर कर अलग जा बसे होंगे, जहां आज हम उन्हें पाते हैं।
(४) अर्थात् आज जहां बसे दिखाई देते हैं वह उनकी मूलभूमि नहीं है।
(५) मूल भूमि क्या है, वह आगे के शोधकार्य को इसी समस्या के समाधान के लिए जारी रखने वाले थे।
(६) वह भाषा जो उनके उस पूर्वज की भाषा थी वह तो इनमें से किसी की भाषा नहीं हो सकती, परन्तु कोई ऐसी हो सकती है जिसके तत्व सभी में मिलें।
(७) सभी में जिसके तत्व पाए जाते हैं वही मूल भाषा के सबसे करीब है, और इस दृष्टि से संस्कृत ही वह भाषा थी जिसके तत्व अरबी और चीनी सहित सभी में पाए जाते है।
(८) जो नहीं कहा गया वह यह है कि नोआ की तीन सन्तानों हैम, सैम और जैफेट मे से तीसरे की सन्तानों से एशिया और यूरोप की जातियां पैदा हुई है, पर जैफेट की जबान भले संस्कृत में सबसे अधिक बची रह गई हो, वह संस्कृत नहीं रही हो सकती। संस्कृत सहित यूरोप और एशिया की भाषाएं उसी से निकली हो सकती हैं और इसलिए देखने में भले लगे कि यूरोप और ईरान की सभी भाषाएं संस्कृत से निकली हैं, ये सभी सहोदरा हैं, भले संस्कृत इनकी सबसे बड़ी बहन हो। इस बात को उन्होंने दो टूक शब्दों में इसी व्याख्यान में कुछ बाद में कहा।

(८) जो नहीं कहा गया वह यह है कि नोआ की तीन सन्तानों हैम, सैम और जैफेट मे से तीसरे की सन्तानों से एशिया और यूरोप की जाेतियां पैदा हुई है, पर जैफेट की जबान भले संस्कृत में सबसे अधिक बची रह गई हो, पर वह संस्कृत नहीं रही हो सकती। संस्कृत सहित यूरोप और एशिया की भाषाएं उसी से निकली हो य़-य़-य़-य़सकती हैं और इसलिए देखने में भले लगे कि यूरोप और ईरान की सभी भाषाएं संस्कृत से निकली हैं, ये सभी सहोदरा हैं, भले संस्कृत इनकी सबसे बड़ी बहन हो। इस बात को उन्होंने दो टूक शब्दों में इसी व्याख्यान में कुछ बाद रखा था।

4. किसी को ऐसा न लगें कि वह भारत के प्रति नकारात्मक रुख रखते हैं इसलिए अपने मन्तव्य को स्वीकार्य बनाने के लिए भारत के अतीत गौरव को उन्होंने बहुत खुल कर, बल्कि कुछ लफ्फाजी के साथ पेश किया थाः
The inhabitants of this extensive tract are described by Mr Lord with great exactness, and with picturesque elegance peculiar to our ancient language: “A people, says he, presented themselves to mine eyes, clothed in linen garments somewhat low descending , of a gesture and garb, as I may say, maidenly and well neigh effeminate, of a countenance shy and somewhat estranged, yet smiling out a glozed and bashful familiarity.” Mr. Orme, the Historian of India, who unites an exquisite taste for every fine art with an accurate knowledge of Asiatic manners, observes, in his elegant preliminary Dissertation , that this “country has been inhabited from the earliest antiquity by a people who have no resemblance, either in their figure or in their manners, with any of the nations contiguous with them” and that, “although conquerors have established themselves at different times in different parts of India, yet the original habitants have lost very little of their original character.” The ancients, in fact, give a description of them, which our early travelers confirmed, and our own personal knowledge of the nearly verifies; as you will perceive from a passage in the Geographical Poem of Dionysius which the analyst of ancient Mythology has translated with great spirit:
“To th’ east a lovely country wide extends
“INDIA, whose borders the wide ocean bounds;
“On this the sun, new rising from the main,
“Smiles please’d , and sheds his early orient beam.
“Th’ inhabitants are swart , and in their locks
“Betry the tint of the dark hyacinth.
“Various their functions; some the rock explore,
“And from the mine extract the latent gold;
“Some labour at the woof with cunning skill,
“And manufacture linen; others shape
“And polish iv’ry with nicest care;
“Many retire to rivers shoal, and plunge
“To seek the beryl flaming in its bed,
“Or glittering diamond. Oft the jasper’s found
“Green, but diaphanous; the topaz too
“Of ray serene and pleasing; last of all
“The lovely amethyst, in which combine
“All the mild shades of purple. The rich soil,
“Wash’d by a thousand rivers, from all sides
“Pours on the natives wealth without control.”
Their sources of wealth are still abundant even after so many revolutions and conquests; in their manufacturers of cotton they still surpass all the world; and their features have, most probably, remained unaltered since the time Dionysius; nor we reasonably doubt how degenerate and abased for eve the Hindus may now appear, that in the some early age they were splendid in arts and arms, happy in government, wise in legislation, and eminent in various knowledge: but, since their civil history beyond the middle of the nineteenth century from the present time, is involved in the cloud of fables, we seem to possess only four general media of satisfying our curiosity concerning it; namely, first, their Languages and Letters ; secondly, their Philosophy and Religion; thirdly, the actual remains of their old Sculpture and architecture; and fourthly, the written memorial s of their Sequence and arts.

और भाषा पर विचार करते उन्होंने कहा थाः
The Sanscrit language whatever be its antiquity, is of a wonderful structure; more perfect than the Greek, more copious than the Latin and more exquisitely refined than either, yet bearing with both of them a stronger affinity, both in roots of verbs and in the forms of grammar, than could possibly have been produced by accident; so strong indeed, that no philologer could examine them all three, without believing them to have sprung from some common source, which, perhaps, no longer exists; there is a familiar reason, though not quite forcible, for supposing that both the Gothick and the Celtick, though blended with a very different idiom, had the same origin with the Sanscrit; and the Old Persian might be added to the same family, if this were the place for discussing any question concerning the antiquities of Persia.
उनके इस एक पैराग्राफ को बिना समझे बूझे, मोहन मंत्र की तरह धुरीण माने जाने वाले विद्वानों द्वारा भी दुहराया जाता रहा मानो इसका उद्देश्य संस्कृत भाषा का महत्व समझाना हो जब कि लक्ष्य श्रोताओं और उनके माध्यम से भारतीय पंडितों के मन में यह उतारना था कि संस्कृत अन्य भारोपीय भाषाओं की जननी नहीं है और संस्कृत बोलने वाले भारत में कहीं अन्यत्र से आए थे। विलियम जोंस की पड़ताल हम कल भी जारी रखेंगे।

Post – 2017-12-16

विषस्य विषमौषधम्
(इस लेख को किसी गड़बड़ी के कारण नाम बदल कर दुबारा पोस्ट करना पड़ा। )

जहर का उतार जहर है तो अपनी इंडोफीलिया से मुक्ति के लिए भारतीयों में यूरोफीलिया पैदा करना। इंडोफोबिया से मुक्त होने के लिए भारतीयों के मन में यूरोफोबिया पैदा करना। यदि भारत में काम करने वालें कंपनी के गोरे कर्मचारियों की विवशता यह थी कि उन्हें भारतीय भाषाएं सीखनी पड़ती थीं और इसके कारण वे भारतीयों के संपर्क में आकर उनके विचारों, आदर्शों से प्रभावित होते थे तो ऐसा उपाय करना कि यह संबन्ध दूरी बनाए रखते हुए, ऐसी परिस्थितियां पैदा करते हुए कि उल्टे वे अंग्रेजी सीखे और उन्हें अंग्रेजी संस्थाओं और शिक्षाप्रणाली की श्रेष्ठता से अवगत कराते हुए अपनी धाक कायम की जाय, और स्वयं हिन्दुओं को धर्मांतरित करने की खुली छूट ईसाई मिशनरियों को दी जाय, हिन्दू समाज की विकृतियों को उभारते हुए उनमें हीनता पैदा की जाय और उनको दूर करते हुए उनके उद्धारक की भूमिका निभाई जाय।

कंपनी यहां व्यापार करने और कमाने आई थी, प्रशासनिक और सामाजिक सुधार के लिए नहीं आई थी, न ही पुर्तगालियों की तरह धर्मप्रचार और व्यापार को समान महत्व देती थी। पुर्तगाल की समस्या उसके सटे स्पेन में इस्लाम के बढ़ते प्रभाव के कारण अंग्रेजों से भिन्न थी। उसमें धार्मिक आर्थिक लाभ और धार्मिक प्रतिहिंसा दोनों समान रूप से प्रबल थी। ब्रिटिश कंपनी का ध्यान शुद्ध लाभ पर था। वह ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहती थी जिससे भारतीय समाज में क्षोभ या उत्तेजना पैदा हो। दूसरी योजनाओं को लागू करने के लिए लंबी तैयारी की जरूरत थी जिसे मात्र चाहने से हासिल नहीं किया जा सकता था। फ्रेंच भी एक प्रतिस्पर्धी शक्ति के रूप में मौजूद थे। अपने भारतीय उपनिवेश में भारतीयों से उनका व्यवहार अधिक सम्मानजनक और आर्थिक दोहन कष्टसाध्य न था इसलिए वहां की जनता सभी मामलों में अधिक खुशहाल थी इसे इक्के दुक्के अंग्रेज लेखकों ने जिनमें एक लुडलो भी थे साफ स्वीकारा था। प्रशासन में कंपनी की रुचि सुशासन के लिए न होकर इसलिए थी कि इसकी कर वसूली से होने वाले लाभ के कारण थी जो व्यापार की तुलना में कहीं बहुत अधिक था और इसे और बढ़ाने के लिए अभी भारत के बहुत सारे राज्य और रियासतें जीतने को थीं। ये सारे काम बहुत सूझ बूझ से किए जाने थे।

आरंभ में भारतीय मूल्यों से अभिभूत भारत में कार्यरत गोरों को और यूरोप वासियों में यह विश्वास पैदा करना कि जो कुछ बताया जा रहा है वह पूरी निष्पक्षता और गहन सोच विचार के बाद किया जा रहा है, क्योंकि ये ग्रन्थियां उनके अपने मन में थी, न कि उनको हिन्दुओं की ओर से उन्हें कोई चुनौती मिल रही थी। एक बार उनकी सोच बदल गई तो उनके रुख, कार्य और विचार से क्रमश: छन कर भारतीयों में भी उतरना ही था। अब इन्हीं परिस्थितियों में अपनी भूमिका सर बनाए जा चुके विलियम जोन्स ने कितने धैर्य, दक्षता और दूरदर्शिता से किया, यह देखा जा सकता है।

याद दिला दें कि जिन आमंत्रित सज्जनों की श्रोता मंडली में उन्होंने अपने व्याख्यान दिए उनमें एक भी भारतीय नहीं था। सभी कंपनी के उच्चपदस्थ अंग्रेज अधिकारी और दूसरे प्रभावशाली सदस्य थे। अब निम्न तथ्यों और अर्धसत्यों पर ध्यान दें:
1. उन्होंने अपने आरंभिक व्याख्यानों में ही बताया था कि यूरोप का आदमी, चाहे किसी भी देश का हो, दूसरी किसी जाति के व्यक्ति से इतना गरिमामय लगता है कि कोई बराबरी हो ही नहीं सकती थी।

इसमें सन्देह नहीं कि जिस चरण पर यूरोप से भारत का सीधा सामना हुआ यूरोप के लगभग सभी देशों में कुछ कर दिखाने की ऊर्जा, दूसरों से आगे बढ़ जाने की स्पर्धा, कर्मठता अपने चरम पर थी और नौचालन में उन्होंने जो प्रगति की थी उसमें वे अपने सभी एशियाई प्रतिस्पर्धियों को बहुत पीछे छोड़ दिया था। बारूदी हथियारों के विकास में भी आगे थे। आज तो बैज्ञानिक और तकनीकी मामलों मे उनकी पहल, प्रयोग और उपलब्धियां ऐसी हैं कि उन्हें जगद्गुरु न कहा जाय (क्योंकि उनका प्रयत्न ब्राहमणों की तरह सारा ज्ञान और कौशल छिपाकर अपने पास रखने और दूसरों को अपने उतपादित ज्ञान और माल का उपभोक्ता बनाकर रखने का है), फिर भी दूसरों के पास जो पहुंचा है वह उनसे ही चुराकर, छीन कर पहुंचा है, इसलिए बोध के स्तर पर वह गर्व और आतमविश्वास पंद्रहवीं शताब्दी से बना रहा है, परन्तु समृद्धि और उच्च जीवनशैली के मामले में उस समय तक वे मुगलों की नकल कर रहे थे ऐयाशी के मामले में बाद में भी पूरी तरह समाप्त न हुआ और सांस्कृतिक स्तर पर उन्होंने अनेक हिन्दू मूल्यों को आत्मसात् करके अपने को परिष्कृत किया था। हम केवल यह कहना चाहते हैं कि यूरोप और गोरी नस्लों के श्रेष्ठता का बोध किसी अन्य से कम न था, जिसके कारण यूरोप में संस्कृत भाषा को मूलत: हिन्दुओं की भाषा मा-नने पर अन्तर्व्यथा हो रही थी जो जो उनकी समझ से भी अधोगति में थे और गर्हित प्रतीत हो रहे थे (..nor we reasonably doubt how degenerate and abased for eve the Hindus may now appear), परन्तु यह विजेताओं का अहंकारी आत्मबोध था, जब कि भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा शोषण, दमन और दोहन के कारण विपन्न और असहाय तो था, पर मनोबल के स्तर पर हिन्दू को अपनी मूल्य व्यवस्था के कारण इतना आत्माभिमान था कि इसके दलित/ दमित, और आर्थिक दृष्टि से विपन्न तबकों को भी गोरों का मजहब कबूल न था और वे उनका ‘उद्धार’ करने के लिए माथा रगड़ रहे थे।

2. मैंने जिन पंक्तियों को ध्यान से, एकाधिक बार पढ़ने को कहा था मुझे विश्वास है लाइक करने वालों ही नहीं, टिप्पणी करने वालों ने भी ऐसा न किया होगा। इसलिए मैं उसे दुबारा उद्धृत करते हुए, उसके मर्म को, जैसा मैने समझा है, आप को समझाना चाहूंगा। पहला वाक्य:
The five principal nations, who have in different ages divided among themselves, as a kind of inheritance, the vast continent of Asia, with the many islands depending on it, are the Indians, the Tartars, the Arabs and the Persians: who they severally were, whence, and when they came, where they now are settled, and what advantage a more perfect knowledge of them all may bring to our European world, will be shown , I trust, in five distinct essays; the last of which will demonstrate the connexion or diversity between them, and solve the great problem, whether they had any common origin, and whether that origin was the same, which we generally ascribe to them.
(१) वह एशिया की पांच मुख्य जमातों (जातीयताओं) की बात कर रहे हैं, जिसमें चीन अनुमानत: तुर्कों (एओऑऐतातारों) द्वारा आबाद है।
(२) उन्होंने समय समय पर इसे अपनी बपौती के रूप में आपस में बांटा, अर्थात् ये सभी किसी एक पूर्वज की सन्तानें हैं। जिस बात पर मैं ध्यान दिलाना चाहता था वह यह कि यहां जोन्स नहीं बोल रहे हैं, आदम की सन्तानों मे से एक द्वारा एशिया बसाने की ईसाई पुराणकथा बोल रही है।
(३) जोन्स कह रहे थे कि एशिया के सभी लोग एक ही पिता की सन्तानें थे इसलिए उनका मूल निवास कोई एक रहा होगा, जहां से वे बिखर कर अलग जा बसे होंगे, जहां हम उन्हें पाते हैं।
(४) वे आज जहां बसे दिखाई देते हैं वह उनकी मूलभूमि नहीं है।
(५) मूल भूमि क्या है, वह आगे के शोधकार्य को इसी समस्या के समाधान के लिए जारी रखने वाले थे।
(६) वह भाषा जो उनके उस पूर्वज की भाषा थी वह तो इनमें से किसी की भाषा नहीं हो सकती, परन्तु कोई ऐसी हो सकती है जिसके तत्व सभी में मिलें।
(७) सभी में जिसके तत्व पाए जाते हैं वही मूल भाषा के सबसे करीब है, और इस दृष्टि से संस्कृत ही वह भाषा थी जिसके तत्व अरबी और चीनी सहित सभी में पाए जाते है।
(८) जो नहीं कहा गया वह यह है कि नोआ की तीन सन्तानों हैम, सैम और जैफेट मे से तीसरे की सन्तानों से एशिया और यूरोप की जातियां पैदा हुई है, पर जैफेट की जबान भले संस्कृत में सबसे अधिक बची रह गई हो, पर वह संस्कृत नहीं रही हो सकती। संस्कृत सहित यूरोप और एशिया की भाषाएं उसी से निकली हो सकती हैं और इसलिए देखने में भले लगे कि यूरोप और ईरान की सभी भाषाएं संस्कृत से निकली हैं, ये सभी सहोदरा हैं, भले संस्कृत इनकी सबसे बड़ी बहन हो। इस बात को उन्होंने दो टूक शब्दों में इसी व्याख्यान में कुछ बाद में कहा।

(८) जो नहीं कहा गया वह यह है कि नोआ की तीन सन्तानों हैम, सैम और जैफेट मे से तीसरे की सन्तानों से एशिया और यूरोप की जाेतियां पैदा हुई है, पर जैफेट की जबान भले संस्कृत में सबसे अधिक बची रह गई हो, पर वह संस्कृत नहीं रही हो सकती। संस्कृत सहित यूरोप और एशिया की भाषाएं उसी से निकली हो य़-य़-य़-य़सकती हैं और इसलिए देखने में भले लगे कि यूरोप और ईरान की सभी भाषाएं संस्कृत से निकली हैं, ये सभी सहोदरा हैं, भले संस्कृत इनकी सबसे बड़ी बहन हो। इस बात को उन्होंने दो टूक शब्दों में इसी व्याख्यान में कुछ बाद रखा था।

4. किसी को ऐसा न लगें कि वह भारत के प्रति नकारात्मक रुख रखते हैं इसलिए भारत के अतीत गौरव को उन्होंने बहुत खुल कर, बल्कि कुछ लफ्फाजी के साथ पेश किया थाः
The inhabitants of this extensive tract are described by Mr Lord with great exactness, and with picturesque elegance peculiar to our ancient language: “A people, says he, presented themselves to mine eyes, clothed in linen garments somewhat low descending , of a gesture and garb, as I may say, maidenly and well neigh effeminate, of a countenance shy and somewhat estranged, yet smiling out a glozed and bashful familiarity.” Mr. Orme, the Historian of India, who unites an exquisite taste for every fine art with an accurate knowledge of Asiatic manners, observes, in his elegant preliminary Dissertation , that this “country has been inhabited from the earliest antiquity by a people who have no resemblance, either in their figure or in their manners, with any of the nations contiguous with them” and that, “although conquerors have established themselves at different times in different parts of India, yet the original habitants have lost very little of their original character.” The ancients, in fact, give a description of them, which our early travelers confirmed, and our own personal knowledge of the nearly verifies; as you will perceive from a passage in the Geographical Poem of Dionysius which the analyst of ancient Mythology has translated with great spirit:
“To th’ east a lovely country wide extends
“INDIA, whose borders the wide ocean bounds;
“On this the sun, new rising from the main,
“Smiles please’d , and sheds his early orient beam.
“Th’ inhabitants are swart , and in their locks
“Betry the tint of the dark hyacinth.
“Various their functions; some the rock explore,
“And from the mine extract the latent gold;
“Some labour at the woof with cunning skill,
“And manufacture linen; others shape
“And polish iv’ry with nicest care;
“Many retire to rivers shoal, and plunge
“To seek the beryl flaming in its bed,
“Or glittering diamond. Oft the jasper’s found
“Green, but diaphanous; the topaz too
“Of ray serene and pleasing; last of all
“The lovely amethyst, in which combine
“All the mild shades of purple. The rich soil,
“Wash’d by a thousand rivers, from all sides
“Pours on the natives wealth without control.”
Their sources of wealth are still abundant even after so many revolutions and conquests; in their manufacturers of cotton they still surpass all the world; and their features have, most probably, remained unaltered since the time Dionysius; nor we reasonably doubt how degenerate and abased for eve the Hindus may now appear, that in the some early age they were splendid in arts and arms, happy in government, wise in legislation, and eminent in various knowledge: but, since their civil history beyond the middle of the nineteenth century from the present time, is involved in the cloud of fables, we seem to possess only four general media of satisfying our curiosity concerning it; namely, first, their Languages and Letters ; secondly, their Philosophy and Religion; thirdly, the actual remains of their old Sculpture and architecture; and fourthly, the written memorial s of their Sequence and arts.

और भाषा पर विचार करते उन्होंने कहा थाः
The Sanscrit language whatever be its antiquity, is of a wonderful structure; more perfect than the Greek, more copious than the Latin and more exquisitely refined than either, yet bearing with both of them a stronger affinity, both in roots of verbs and in the forms of grammar, than could possibly have been produced by accident; so strong indeed, that no philologer could examine them all three, without believing them to have sprung from some common source, which, perhaps, no longer exists; there is a familiar reason, though not quite forcible, for supposing that both the Gothick and the Celtick, though blended with a very different idiom, had the same origin with the Sanscrit; and the Old Persian might be added to the same family, if this were the place for discussing any question concerning the antiquities of Persia.
उनके इस एक पैराग्राफ को बिना समझे बूझे, मोहन मंत्र की तरह धुरीण माने जाने वाले विद्वानों द्वारा भी दुहराया जाता रहा मानो इसका उद्देश्य संस्कृत भाषा का महत्व समझाना हो जब कि लक्ष्य श्रोताओं और उनके माध्यम से भारतीय पंडितों के मन में यह उतारना था कि संस्कृत अन्य भारोपीय भाषाओं की जननी नहीं है और संस्कृत बोलने वाले भारत में कहीं अन्यत्र से आए थे। विलियम जोंस की पड़ताल हम कल भी जारी रखेंगे।

Post – 2017-12-15

हम उसको मिटा सकते थे पर देखिए साहब
वह मुझको मिटाने चला हम साथ हो लिए ।।

Post – 2017-12-15

रुको मैं चांद तारों को
जमीं पर ही बुला लूंगा।
न तुम कहना जमीं है यह
न वे समझें जमीं है यह ।।
……….

मैं किसको मिटाऊं कि खुद आबाद हो सकूं।
वीरानियों में मेरा भी घर घर रहेगा क्या ?
बर्वादियों के बीच भी आए कई मुकाम
घबरा गए हमदर्द, ‘यहीं पर रहेगा क्या?’
…………..
न वह मुझको समझता है न मैं उसको समझता हूं।
मगर नादानियों के बीच भी रिश्ते कई निकले।
मैं पहुंचा उस गली में पूछता उसका पता साहब
तो पूछा उसने ‘मेरे घर से क्या तुम वाकई निकले?’

…………———-

Post – 2017-12-15

हैरान इस बात पर हूं कि लोग इक्जिट पोल के परिणामों पर हैरान हो रहे हैं। नतीजे तो और बुरो आने वाले हैं। कांग्रेस को इसका पता था इसलिए ताजपोशी नतीजों से पहले संपन्न कर ली गई और ईविएम राग का गायन आरंभ हुआ।