टूटती चट्टान के उड़ते हुए जर्रों को देख
वे न दीखें, खाक से उठते हुए बन्दों को देख
कम है बीनाई अगर तो देख गिरती चोटियां
शाह के जादों को देखा उनके फरजन्दों को देख।।
Month: December 2017
Post – 2017-12-14
जिसने भगवान को पढ़ा ही नहीं
उसका अच्छा बुरा वही जाने ।
खुद जबां खुद जबीं नहीं है अगर
किसको गिरवीं है वह वही जाने ।।
Post – 2017-12-14
तुम खुश रहो, और मैं भी रहूं, फिर भी ऐ अजीज !
जहराब से सींचा हुआ गुलशन है खुशी का ।।
Post – 2017-12-14
वाह री जिन्दगी तुझे भी सलाम!
ढूंढ़ते थक गया मिली ही नहीं।।
Post – 2017-12-14
मैं उसे क्यों याद करता जिसको भूला ही नहीं।
वह थी मेरी आबरू और मैं था उसका आफताब।।
Post – 2017-12-14
विलियम जोंस से सर विलियम जोन्स का सफर (2)
हम यह समझ लें कि यह इंडोफीलिया (भारत रति) या इंडोफोबिया (भारत भीति) थी क्या तो यह समझने में कुछ मदद मिलेगी किस एकजुटता से यूरोप और अमेरिका के सभी विद्वानों ने इसे उलट कर भारतीयों के मन में यूरोफीलिया और यूरोफोबिया में बदलने के लिए कितना दुर्धर्ष प्रयत्न किया और किन हथकंडों का प्रयोग बिना संकोच के किया और आज तक कर रहे हैं।
इसके फल स्वरूप आज हमें इतना पश्चिमोन्मुख बनाया जा चुका है कि दिमाग से हम खोखले हो चुकें। हम यह तक भूल चुके हैं कि शारीरिक श्रमभार गधे से लेकर बैल, घोड़े, आदमी, मशीन किसी पर डाला जा सकता है और इसमें प्रगति के अनुपात में ही हमारी शक्ति, सुख सुविधा और स्वतंत्रता में वृद्धि होती है। ऐसा हम अपनी बुद्धि और कौशल के बल पर करते हैं।
यदि हम बौद्धिक श्रम किसी दूसरे के हवाले कर दें, उसके कौशल पर भरोसा करके जो कुछ हमें थमा दिया जाय उससे अपना काम चलाने लगें तो इसका मतलब है कि हम गुलाम रहे नहीं, गुलामी हमें इतनी पसन्द आने लगी है कि हम आजाद होना तक नहीं चाहते। आजादी के नारे लगाते हुए अपनी अपना को धौखा अवश्य दे सकते हैं।
गुलाम की शारीरिक क्षमता में कमी नहीं आने दी जाती। केवल उसके मनोबल को तोड़ा जाता है । उसमें यह विश्वास पैदा किया जाता है कि उसकी सुरक्षा, सुख-सुविधा उसकी अनुकंम्पा, समर्पन या सहयोग के बिना संभव नहीं। पश्चिम अपने अभियान में कितना सफल हुआ है, यह इस बात से समझा जा सकता है कि हमारा अपनी भाषा से विश्वास उठ गया है, भाषा में काम करने वाले विद्वानों की क्षमता पर विश्वास उठ गया है, हम कुछ ऐसा कर सकते हैं जो दूसरा कोई नहीं कर सकता, यह विश्वास नष्ट किया जा चुका है, अत: हम किसी क्षेत्र में पहल करने का विश्वास ही नहीं खो चुके हैं, अपितु यदि कोई करे तो उसे समझने की योग्यता तक खो चुके हैं।
हिन्दू किसी को भयभीत करने या उसका दमन करने का प्रयत्न नहीं करता, यह अपनी सीमा में अपनी व्यवस्था बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील अवश्य रहा है। यह व्यवस्था आज के मानकों पर कई मामलों मे अन्याय परक रही है, परन्तु पन्द्रहवीं शताब्दी तक दुनिया के किसी अन्य समाज की अपेक्षा अधिक न्यायपरक और मानवीय रही है और हिंदू समाज आज भी किसी न्यायोचित मांग को अल्पतम विरोध से अपनाने को तैयार हो जाता है।
फिर हिन्दू किसी को फुसला बहका कर अपने को उसका चहेता क्यों बनाता? उससे किसी को क्या डर हो सकता था जो युद्ध के मैदान में भी निहत्थों पर हथियार नहीं उठाता था। उसके इस शौर्य के आदर्श को पहली बार नैपोलियन ने अपनाया जो अब विश्व का आदर्श तो है, पर जिसका पालन आज भी दिखावटी रूप में ही होता है अन्यथा नागरिक ठिकानों पर बमबारी न होती, निरपराधों पर हमले न होते।।
भौतिक ही नहीं, नैतिक और सांस्कृति्क ऊंचाइयां भी हमें बौना सिद्ध करके, मात्र अपने होने से दहशत पैदा कर सकती हैं, और यूरोप को भारत में इसी का सामना करना पड़ा था। यह एक विचित्र मुठभेड़ थी। मैंने कल कहा, ग्रीस पर रोमनों की भौतिक विजय और सांस्कृतिक समर्पण से इसकी तुलना की थी। अक्सर गलत कह जाता हूं, इसलिए मुझे भी नकारने की कोशिश करते हुए पढ़े। सच यह है कि यह इतिहास में, कम से कम मेरी जानकारी में घटित होने वाली पहली मुठभेड़ थी जिसमें सांस्कृतिक मोर्चे पर एक समाज को असंख्य आक्रमणकारियों के क्रूरतम प्रहारों से ले कर जघन्यतम प्रहारों का सामना करना पड़ रहा था और वह असंख्य घावों को झेलता, प्रतिघात करने में असमर्थ नहीं, अनिच्छुक, अडिग खड़ा था। किरातार्जुनीय का दृश्य आंखों के सामने उपस्थित हो जाय जिसमें समर्पण आघात करने वाले अर्जुन को करना पड़ता है।
याद करें पुर्तगालियों के पैशाचिक उत्पीड़न जिसके अपराधी ज़ेवियर को ईसाई आज भी सन्त मानते हैं, पर इन्उक्सविजिशन की यातना को झेलने के बाद भी, झुकने और बदलने को तैयार न होने वाले हिन्दुओं ने दी वह चुनौती कि उनमें अपने हथियार की धार मुड़ते देख कर यह पता लगाने का खयाल आया कि वह स्रोत क्या है जिससे उन्हें यह शक्ति मिली है।
जिस क्रूरता को यूरोपीय लेखकों ने पुर्तगालियों के सिर मढ़ा वह ईसाइयत और इस्लाम का एकमात्र हथियार था। हिन्दुत्व मजहब होता तो पैशाचिक प्रहारों का शिकार हो गया होता और दूसरे आयुधजीवी देशों और समाजों को ध्वस्त करके एक झटके में ही पूरी तरह धर्मान्तरित कर चुका होता।
यह आश्चर्यों में एक आश्चर्य था कि सात सौ सालों के इस्लामी दमन, उत्पीड़न और अन्याय के बाद भी भारत में मुसलमान अपने को अल्पमत में हैं। ईसाइयत के उससे भी जघन्य पहले प्रयोग में जिसका दोष पुर्तगालियों पर डाल कर दूसरे अपने को साफ पाक सिद्ध करके, अपने को स्वीकर्य बनाने का प्रयत्न करते रहे, पर साथ ही इस नंगी सचाई पर परदा डालते रहे कि उससे पहले उन सबका हथियार वही था जिसके लिए वे पुर्तगालियों और विशेषकर जेवियर को अपराधी मानते हैं। वे यह भी छिपा जाते हैं कि भारत में अपने अनुभवों के बाद यह समझ लिया था कि यातना से अधिक कारगर विचार है और भारत से बाहर जाते हुए उसने अपना तरीका बदल दिया था और उसी तरीके को बाद में आने वाले सभी यूरोपीय उपनिवेशवादियों के अपने मिशनरियों ने अपनाया।
वह स्रोत जिसके बल पर इतनी दृढ़ता बनी हुंई थी वह हिन्दूधर्म न था। इस नाम का कोई धर्म तब था ही नहीं। यह भारतीय मूल्यव्यवस्था थी जिसकी जड़े पाताल तक उतरी हुई हैं, आदिम समाज तक।
जब उत्पीड़न ( इन्क्विजिशन) के विफल होने पर उन्होंने इसका कारण जानना चाहा तो उन्होंने वेद पुराण का नाम लिया और यहां से आरंभ हुआ उस भाषा को सीखने और उस साहित्य तक पहुंचने का प्रयत्न, जिसे संस्कृत भाषा और उसका धार्मिक साहित्य कहते हैं। मूल्यव्यवस्था की समझ तो आज तक के पंडितों में नहीं है, उनमे हो नहीं सकती थी। भाषा और साहित्य में यह रुचि जानने के लिए न थी, कमियां निकालने के लिए थी।
इस क्रम में सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ से ही वे समानताएं लक्ष्य की जाने लगीं जो भारतीय भाषाओं और उनके यूरोपीय प्रतिरूपों में थीं।
लगभग डेढ़ सौ साल तक विविध देशों के धर्म प्रचारक अपने अपने देशों को इस विचित्र सादृश्य की सूचनाएं भेजते रहे कि संस्कृत और उनकी बोलचाल की भाषाओं तक में गहरी समानताएं हैं। और इस क्रम में जब साहित्य से परिचय हुआ तो पाया भारतीय साहित्य यूरोप के किसी देश से अधिक समृद्धऔर मूल्यव्यवस्था पाश्चात्य मूल्य व्यवस्था से कहीं ऊंची है और यह सनसनी पूरे यूरोप में फैल गई। इसकी दो परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएं हईं। एक, यूरोप के दूसरे देशों की तुलना में अपने को अधिक श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए अुपने को आर्य सिद्ध करने की होड़, दूसरी थी इस ग्लानि के उबरने की छटपटाहट । यह ग्लानि बोध लगभग डेढ़ सौ साल तक बना रहा और इससे बाहर निकलने का रास्ता तलाशा जाता रहा। प्रशासनिक बाधयताओं के कारण ब्रिटेन में यह खलबली कुछ अधिक थी।
कंपनी के कर्मचारियों में बहुत से भारतीय जीवनमूल्यों के कायल हो गए थे। मिशनरियों को यह शिकायत थी कि ब्रिटेन भारत पर राज करेगा और अंग्रेज ईसाइयत छोड़ कर हिन्दू हो जाएंगे। भारत के इतिहास को देखते हुए यह अचरज की बात न थी। शासित का मनोबल इतना ऊंचा रहे कि वह शासकों से किसी रूप में अपने को ऊपर समझे, इससे प्रशासनिक समस्यायें पैदा होती थीं। एक बोध जिसका सामना करना आत्महत्या जैसा था, यह कि यूरोप के काले रंग से घृणा करने वाले, काले रंग को गाली मे शुमार करने वाले गोरे, काले बंगालियों की औलाद हैं, गले नहीं उतर रहा था। यूरोप को, विशेषत: कंपनी को किसी ऐसे उद्धारक की जरूरत थी जो इस ग्लानि और संभावित हानि से बचा सके। विलियम जोंस की प्रतिभा और वाक्कौशल के कारण इस कार्यभार के लिए भारत भेजा गया? उन्हें सभी सुविधाएं दी गईं और उनको महिमामंडित करने के लिए उन्हें भारत पहुंयने के पखवारे के भीतर उनको सर के सम्मान से अलंकृत कर दिया गया।
उनका लक्ष्य था:
१. भारत के विषय में यूरोप और ब्रिटेन में जो महिमामंडन हो चुका था उसे तोड़ना।
२. यह सिद्ध करना कि संस्कृत उन सभी भाषाओं की जननी नहीं है।
३. संस्कृतभाषी भारत के निवासी न थे, वे स्वयं भारत में कही अन्यत्र सेआए थे।
इस काम को उन्होंने किस चतुराई से पूरा किया इस पर हम कल विचार करेंगे।
Post – 2017-12-14
मैं अपनी पीर पर रोता तो आंखें खुश्क हो जातीं।
तुम्हारी पीर तड़पाती है कुछ तुमको पता भी है।।
Post – 2017-12-14
मैं कभी खुलके रो नहीं पाया.
अब भी कितना भरा भरा सा हूं।।
Post – 2017-12-13
लगती हर एक आखिरी धड़कन मेरे दिल की
गो काम पहाड़ों सा पड़ा है मेरे आगे।
तनहा हूं, अंधेरा है, डगर सूझती नहीं
तू है तो बता और कोई है मेरे आगे।।
Post – 2017-12-12
बे-सर विलियम जोंस से सर विलियम जोन्स का सफर (1)
विलियम जोंस का जज के रूप में चयन कंपनी ने किस आधार पर किया था, यह हमें नहीं मालूम। यह मालूम है कि उन्हें सर की उपाधि भारत में किये गए कामों के पुरस्कार के रूप में ही मिला था। क्या था वह काम? जज के रूप में उनके फैसलों के लिए उनका नाम नहीं लिया जाता। उनकी कीर्ति उनके द्वारा एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना और उसके वार्षिक समारोहों पर दिए भाषणों के कारण है। 2 फरवरी 1786 को अपने तीसरे व्याख्यान की भूमिका में उन्होंने कहा थाः
The five principal nations, who have in different ages divided among themselves, as a kind of inheritance, the vast continent of Asia, with the many islands depending on it, are the Indians, the Tartars, the Arabs and the Persians: who they severally were, whence, and when they came, where they now are settled, and what advantage a more perfect knowledge of them all may bring to our European world, will be shown , I trust, in five distinct essays; the last of which will demonstrate the connexion or diversity between them, and solve the great problem, whether they had any common origin, and whether that origin was the same, which we generally ascribe to them. I begin with India, not because I find reason to believe it the true centre of population or of knowledge, but, because it is the country, which we now inhabit, and from which we may best survey the regions around us, as, in popular language, we speak of the rising sun, and of his progress through the Zodaic, although it had long been imagined, and now demonstrated, that he is himself the centre of our planetary system. Let me here promise, that , in all these inqueries concerning the history of India, I shall confine my researched downwards to the Mohammedan conquests at the beginning of the eleventh century, but extend them upwards, as high as possible, to the earliest authentic records of the human species.
इसे ध्यान से पढ़ें, यदि हो सके तो दो तीन बार तो पता चल जाएगा कि विलियम जोन्स जज के पद पर उसी तरह आए थे, जैसे गुप्त योजनाओं के लिए चुने हुए व्यक्तियों को देश देशांतर के दूतावासों में, जनसेवी संगठनों में या शोधार्थियों आदि के आवरण में नियुक्त किया जाता है। उनको जो वास्तविक कार्यभार सौंपा गया वह था यह सिद्ध करना कि संस्कृत भाषा भारत की भाषा न थी, संस्कृत बोलने वाले कहीं अन्यत्र से भारत आए थे। बाकी का सारा कथन और खोज का घटाटोप इसे ग्राह्य बनाने के लिए जरूरी था, जिससे यह भ्रम पैदा किया जा सके कि इस निष्कर्ष पर वह गहन शोध और दीर्घ चिंतन के बाद पहुंचे हैं।
यह याद दिला दें कि किसी राजा, नवाब या अन्य सत्ताधारी पर विजय की लड़ाई वर्तमान युक्तियों और शक्तियों के बल पर ्होती है और यह आसान होती है क्योंकि इसमें एक बार में किसी एक शासक और उसके कुछ हजार या लाख सैनिकों से सीधा आमना सामना होता है, परन्तु किसी समाज को नियन्त्रित करने का युद्ध उसके इतिहास में उतर कर, उसकी अपव्याख्या से जातीय स्वाभिमान और आत्मविश्वा़ स को नष्ट करते हुए जीता जाता है जिसमें यह दिखाया जाता है कि विजेता सदा से श्रेष्ठ रहा है और विजित सदा से उससे गिरा हुआ रहा है। इसी के चलते मिल को जो प्राचीन सभ्यताओं से सुपरिचित था, जो उसके दुर्भाग्य से एशिया में ही थीं, यह मूर्खतापूर्ण नारा देना पड़ा था कि सभी श्रेष्ठ सिद्धान्त और विचार पश्चिम अर्थात् यूरोप से दूसरे देशों तक पहुंचे हैं।
इतिहास को ध्वस्त किए बिना विजय अधूरी रहती है,क्योंकि तब विरोध प्रबल रहता है।
इस रहस्य को भारत पांच हजार साल पहले से जानता था इसके विस्तार में न जाऊंगा, पर यह याद दिलाने से काम चल जाएगा कि इसी के चलते ब्राह्मणों ने अपनी सनातन श्रेष्ठता और अन्य वर्णों की क्रमिक हीनता को सृष्टि के जोड़ सर्व साधन रहित होते हुए भी अपनी धौंस इस तरह बनाए रखी कि आज भी उसे तोड़ने के अभियान में ब्राहमणों की साझेदारी के बाद भी, चेतना के स्तर पर संविधान और विधि व्यवस्था के औजारों के बाद भी वह मिटने का नाम नहीं ले रहा, उल्टे जिन्हें इससे शिकायत है वे इसे जिलाए रखना चाहते हैं।
यदि दुश्चक्र (vicious circle) का अर्थ शब्दकोश से न समझ आया हो तो इस उदाहरण से समझ सकते हैं। यह ज्ञान पश्चिम में नहीं था, समाज को नियंत्रित करने के लिए भी केवल बल प्रयोग । यह मुस्लिम शासक तो कर सकते थे, विदेशी मूल पर गर्व करने वाले उनके हमयकीं इतनी संख्या में थे कि उनकी अपनी पूरी लश्कर हुआ करती थी। पर कंपनी के लिए न ये संभव था न सैन्यबल पर इतना खर्च करना संभव था कि सारा राजस्व सेना पर खर्च हो इसलिए उसको पहली बार मनुस्मृति के तेलुगु भाषी विद्वान की सहायता से किए गए अनुवाद से जिसमें अनुवादक की योग्यता इतनी ही कि वह मनु को जनु समझ सके और अकार के लिए एकार के उच्चारण की विवशता (बंगाल Bengal, बनारस Benaras) के कारण Gentu Law कहा जाता रहा, उसके विधानों के माध्यम से उन्हें भेद नीति का और समाज को परास्त करने की लड़ाई इतिहास में उतर कर लड़ने की सूझ उन्हें भारत से मिली, यह कहूं तो सारे सेकुलरिस्ट मुझसे लड़ने आ जाएंगे। इतिहास से लड़ने की जगह इतिहास की समझ की मांग करने वाले से लड़ना और जीतना कहीं आसान है ।
जो भी हो, वह संकट यूरोप के लिए बौद्धिक भूचाल जैसा था। ग्रीस पर रोमनों ने विजय पा ली। उनका भौतिक तामझाम ग्रीकों से कहीं आगे था, पर बौद्धिक स्तर पर वे परास्त ही नहीं समर्पित हो गए। ठीक वैसा ही संकट दुबारा उपस्थित हुआ, जब यूरोप के सभी व्यापारियों ने अपने उपनिवेश भारत में कायम कर लिए थे और उनके पीछे उनके मिशनरी भी, जो अन्य सामी मजहबों की तरह गैरमजहबी समाजो को बर्बर मान कर उन्हें अपने मजहब में शामिल करके उनका उद्धार करना चाहते थे. उनका संस्कृत भाषा और भारतीय मनीषा से सामना हुआ तो उन पर जो असर हुआ उसे इंडोफीलिया और इंडोफोबिया की सज्ञा दी गई। रंग भेद अपने चरम पर था। कंपनी की प्रशासनिक बाध्यताएं अलग थीं। कंपनी को अपने भविष्य के संकट से उबारने वाले किसी असाधारण प्रतिभा के व्यक्ति की जरूरत धी और उसे विलियम जोन्स जैसी प्रतिभो मिल गई ।
कहें वह आए तो न्यायाधीश के पद पर थे, पर भूमिका उन्हें एक कुशल वकील की निभानी थी। इसे उन्होंने जिस धैर्य और कलात्मक दक्षता से निभाया उसके कारण मेरे मन में उनके प्रति अगाध सम्मान है, पर सत्यान्वेषी के रूप में मैं उनको ही नहीं , किसी यूरोपीय विद्वान को , चाह कर भी, आदर नहीं दे पाता।
अागे की बात कल।