Post – 2018-01-17

लौकिक संस्कृत

इस विषय पर मैंने एक मित्र की पोस्ट पर अपनी टिप्पणी दी थी, जिसमें यह सुझाया था कि यदि आधुनिक ग्रीक की तरह पाणिनीय संस्कृत की तरह लौकिक संस्कृत बनाया जा सके तो यह एक जीवन्त और अखिल भारतीय व्यवहार की सर्वमान्य भाषा बन सकती है। इस पर अनेक मतामत आए, इसलिए अपने मत को कुछ विस्तार से रखना जरूरी लगा।

यदि हमें भारतीय मानस को अंग्रेजी की जकड़बन्दी से मुक्त करना है, तो हमें आधुनिक ग्रीक की तरह लौकिक संस्कृत की जरूरत हे। इसके जानकारों के लिए पाणिनीय संस्कृत सीखना आसान हो जाएगा। जीवित भाषा ही नहीं प्रत्येक जीवित प्राणी, पौधा, व्यक्ति, संस्था में बदलाव आता है। वह लौकिक संस्कृत में भी होगा। बदलाव जीवन्तता का और इसका अभाव जड़ता या निष्प्राणता का प्रमाण। जीवित चलता है, जड़ को ढोना पड़ता है। संंस्कृत को ढोया जाता रहा है। द्वादश वर्ष पठेत् व्याकरणम् । जिस भाषा का व्याकरण समझने में बारह साल लग जायं, वह किसके काम आएगी

संस्कृत के छात्रों को अक्षरज्ञान के बाद अष्टाध्यायी रटाई जाती थी। इसका बड़ा अच्छा चित्रण माखनलाल चतुर्वेदी की जीवनी में ऋषि जैमिनी कृष्ण बरुआ ने उन्हीं के शब्दों में दिया है। उसके बाद लघुकौमुदी से साधनिका, फिर अमरकोश को कठस्थ करना। यह उनका अनुभव था। हो सकता है अन्य पाठशालाओं का तरीका भिन्न हो पर अधिक भिन्न नहीं था। मैने स्वयं इसका अनुभव किया है। यह सर्जनात्मकता को कुंद करने और सहज ज्ञेय को असाधारण जपाट श्रम और रटन्त बुद्धि से लंबे अभ्यास से अर्जित किया जाता है। संस्कृत का विद्वान अपने ज्ञान पर नहीं अपने श्रम पर गर्व करता है। वह युगों पुराने ज्ञान को जिसका एक अंश मानव स्वभाव से जुड़ा है और नीतिवाक्यों या सूक्तियों के रूप में उपलब्ध है इसलिए स्थायी महत्व का है अपनी परम उपलब्धि मानता और अवसर कुअवसर दुहराता है। तुलसी की कृपा से रामायण का पाठ करने वाले मात्र साक्षर सदगृहस्त के व्यावहारिक ज्ञान से ऐसे पंडितों का ज्ञान अधिक नहीं होता, फिर भी जब वही बात फर्राटे के बोलता है तो भाषा की दुरूहता और संस्कृत के प्रति आदर के कारण मूल को समझे बिना भी खासा रोब पड़ता है।

सच तो यह है कि संस्कृत का विद्वान संस्कृत का विद्वान संस्कृत बोलना नहीं जानता। वह धाराप्रवाह उदगार करता हे। वह श्रोता को अपनी बात समझाना और उसके मतामत को जानना नहीं चाहता, वह उसे आतंकित करना चाहता हे और इसलिए कंठस्थ को दूसरो की अपेक्षा अधिक वेग से उद्वमित करता है जो संस्कृत जाननेवालों में भी केवल उन्हीं के पल्ले पड़ता है जो पहले उससे कंठस्थ किए रहते हैं। इसे सुनना भी नहीं कहा जा सकता। इसे बौद्धिक जुगाली करना अवश्य कहा जा सकता है।

संस्कृत को जीवित रखने के लिए तीन काम जरूरी हेः
1. संस्कृत को संवाद की, सोचविचार की भाषा बनाना, जिसे लौकिक संस्कृत कह आए हं। यह आसान काम नहीं है। इसकी कुछ समस्यायें हैं। इस पर हम कल चर्चा करेंंगे
2. पाणिनीय संस्कृत के लिए अलग पीठ की स्थापना।
3- ठीक ऐसा ही पीठ की वैदिक के लिए स्थापना
इनमें विरोध पैदा न होगा, अपितु ये एक दूसरे के उत्कर्ष मे सहायक होंगे।

Post – 2018-01-15

सोचना अपने आप से टकराना हे, अपनी बद्धमूल धारणाओं को जांचना, अपनी गांठों को खोलना। यह आत्ममंथन है। अंतर्द्न्द्व। जो लोग लंबे समय से किसी एक ही मत पर कायम हैें उन्होंने उतने समय से सोचना स्थगित कर चुके हें।

Post – 2018-01-15

सोचना अपने आप से टकराना हे, अपनी बद्धमूल धारणाओं को जांचना, अपनी गांठों को खोलना। यह आत्ममंथन है। अंतर्द्न्द्व। जो लोग लंबे समय से किसी एक ही मत पर कायम हैें उन्होंने उतने समय से सोचना स्थगित कर चुके हें।

Post – 2018-01-15

सोचना अपने आप से टकराना हे, अपनी बद्धमूल धारणाओं को जांचना, अपनी गांठों को खोलना। यह आत्ममंथन है। अंतर्द्न्द्व। जो लोग लंबे समय से किसी एक ही मत पर कायम हैें उन्होंने उतने समय से सोचना स्थगित कर चुके हें।

Post – 2018-01-15

दर्द की एक ही दवा है बस
हो न ऐसा कि वह दवा आए ।
आप आए यही बहुत कुछ है
आप खुश हैं ये इत्तला आए ।।

Post – 2018-01-15

दर्द की एक ही दवा है बस
हो न ऐसा कि वह दवा आए ।
आप आए यही बहुत कुछ है
आप खुश हैं ये इत्तला आए ।।

Post – 2018-01-15

दर्द की एक ही दवा है बस
हो न ऐसा कि वह दवा आए ।
आप आए यही बहुत कुछ है
आप खुश हैं ये इत्तला आए ।।

Post – 2018-01-14

१. न्यायपालिका का एक भर्त्सना वाक्य है ‘मीडिया ट्रायल’, अर्थात् संचार माध्यमों से दवाव बना कर निर्णय को प्रभावित करना। असन्तुष्ट जजों ने स्वयं मीडिया ट्रायल का सहारा लिया, यह अक्षम्य अपराध है।
२. अभी तक न्यायालय सही गलत के निर्णय के लिए सर्वोपरि था जिसके निर्णय को उच्चतर न्यायालय में ही चुनौती दी जा सकती थी। इन जजों ने मीडिया को सर्वोपरि बना दिया, जो न्यायांग पर कुठाराघात है।
३. रोस्टर की निर्धारित प्रक्रिया के निर्वाह से लोकतंत्र के लिए खतरा पैदा हो गया, जैसी उत्तेजक टिप्पणी करने वाले लोग संतुलित भाषा और सन्तुलित बुद्धि के व्यक्ति नहीं हो सकते। यह राजनीतिज्ञों की भाषा है और उनके किसी राजनीतिक दल से जुड़े ही नहीं उसके इशारे पर काम करने का प्रमाण है।
४. न्यायविचार में सेंसिटिव कुछ नहीं होता। सेंसिटिविटी वस्तुपरकता का अभाव है। ऐसे जज जाति और धर्म के अनुसार निर्णय करके अपनी जाति और धर्म के अनुसार पक्षपात करते रहे हैं।
ऐसा मेरा विचार है जिसे यदि उन्होंने इस सार्वजनिक डोमेन में न ला दिया होता तो कुछ कहने का मेरा साहस न होता।

Post – 2018-01-14

१. न्यायपालिका का एक भर्त्सना वाक्य है ‘मीडिया ट्रायल’, अर्थात् संचार माध्यमों से दवाव बना कर निर्णय को प्रभावित करना। असन्तुष्ट जजों ने स्वयं मीडिया ट्रायल का सहारा लिया, यह अक्षम्य अपराध है।
२. अभी तक न्यायालय सही गलत के निर्णय के लिए सर्वोपरि था जिसके निर्णय को उच्चतर न्यायालय में ही चुनौती दी जा सकती थी। इन जजों ने मीडिया को सर्वोपरि बना दिया, जो न्यायांग पर कुठाराघात है।
३. रोस्टर की निर्धारित प्रक्रिया के निर्वाह से लोकतंत्र के लिए खतरा पैदा हो गया, जैसी उत्तेजक टिप्पणी करने वाले लोग संतुलित भाषा और सन्तुलित बुद्धि के व्यक्ति नहीं हो सकते। यह राजनीतिज्ञों की भाषा है और उनके किसी राजनीतिक दल से जुड़े ही नहीं उसके इशारे पर काम करने का प्रमाण है।
४. न्यायविचार में सेंसिटिव कुछ नहीं होता। सेंसिटिविटी वस्तुपरकता का अभाव है। ऐसे जज जाति और धर्म के अनुसार निर्णय करके अपनी जाति और धर्म के अनुसार पक्षपात करते रहे हैं।
ऐसा मेरा विचार है जिसे यदि उन्होंने इस सार्वजनिक डोमेन में न ला दिया होता तो कुछ कहने का मेरा साहस न होता।

Post – 2018-01-14

१. न्यायपालिका का एक भर्त्सना वाक्य है ‘मीडिया ट्रायल’, अर्थात् संचार माध्यमों से दवाव बना कर निर्णय को प्रभावित करना। असन्तुष्ट जजों ने स्वयं मीडिया ट्रायल का सहारा लिया, यह अक्षम्य अपराध है।
२. अभी तक न्यायालय सही गलत के निर्णय के लिए सर्वोपरि था जिसके निर्णय को उच्चतर न्यायालय में ही चुनौती दी जा सकती थी। इन जजों ने मीडिया को सर्वोपरि बना दिया, जो न्यायांग पर कुठाराघात है।
३. रोस्टर की निर्धारित प्रक्रिया के निर्वाह से लोकतंत्र के लिए खतरा पैदा हो गया, जैसी उत्तेजक टिप्पणी करने वाले लोग संतुलित भाषा और सन्तुलित बुद्धि के व्यक्ति नहीं हो सकते। यह राजनीतिज्ञों की भाषा है और उनके किसी राजनीतिक दल से जुड़े ही नहीं उसके इशारे पर काम करने का प्रमाण है।
४. न्यायविचार में सेंसिटिव कुछ नहीं होता। सेंसिटिविटी वस्तुपरकता का अभाव है। ऐसे जज जाति और धर्म के अनुसार निर्णय करके अपनी जाति और धर्म के अनुसार पक्षपात करते रहे हैं।
ऐसा मेरा विचार है जिसे यदि उन्होंने इस सार्वजनिक डोमेन में न ला दिया होता तो कुछ कहने का मेरा साहस न होता।