Post – 2018-04-28

प्रसन्नता से जुड़े कुछ और शब्द

मोद (आमोद, प्रमोद)

मोद का भारतीय जीवन में क्या महत्त्व है, इसे दुर्भाग्य से हम इसलिए नहीं पहचान पा रहे हैं कि इसका लाभ आज की राजनीति में मोदी को मिल सकता है, जिनको पीठ की और से देखने वालों को भारत में बुद्धिजीवी कहा जाता है। उनकी चिढ मोदक तक से है। हद तो यह कि हलवाई तक मोदक से चिढ कर इसे लड् डू कहने लगे हैं। मोदकप्रिय मुद मंगलदाता की महिमा के कारण मोदक पूरी तरह लुपत नहीं हो पाया है और न होने दिया जा सकता। यह दूसरी बात है कि मोद का आनन्द से कोई संबन्ध है यह बहुतों को उपसर्ग (आ-, प्र-) अथवा प्रत्यय (-इत) लगने के बाद ही पता चल पाता है।

मोद का अर्थ है, हरा भरा होना (यवो वृष्टीव मोदते, ऋ.2.5.6; ओषधीः प्रति मोदध्वं पुष्पवतीः प्रसूवरीः , 10.97.3); आनन्द, प्रसन्नता ( कीळन्तौ पुत्रै: नप्तृभिर् मोदमानौ स्वे गृहे , ऋ. 10.85.42 ) , तुष्टि (उपप्रक्षे वृषणो मोदमाना दिवस्पथा वध्वो यन्त्यच्छ,. 5.47.6), उल्लास (यत् पर्जन्य कनिक्रदत् स्तनयन् हंसि दुष्कृतः । प्रतीदं विश्वं मोदते यत् किं च पृथिव्यामधि ।,5.83.9); क्रीडा भाव ( स मोदते नसते साधते गिरा नेनिक्ते अप्सु यजते परीमणि , 9.71.3), किल्लोल करना, (मुमोद गर्भः वृषभः ककुद्मानस्रेमा वत्सः शिमीवाँ अरावीत्, 10.8.2)

ऋग्वेद में जिस मरणोत्तर आनन्दलोक की कल्पना की गई है उसमें इसे आप्तकामता के रूप में प्रस्तुत किया गया है (यत्रानन्दाश्च मोदाश्च मुदः प्रमुद आसते । कामस्य यत्राप्ताः कामास्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दः परि स्रव, 9.113.11)

परंतु मोद जल की जिस संज्ञा से संबंध रखता है उसका प्रयोग प्रस्राव (urination) के लिए रूढ़ हो गया, जिसे जीमूत में पाकर ही हम समझ पाते हैं इसका पुराना अर्थ सामान्य जल था.

आह्लाद

आह्लाद ‘आ’ उपसर्ग है यह कहने की आवश्यकता नहीं है, परंतु यह उन शब्दों में है जिनके साथ उपसर्ग न लगा हो तो हम उन्हें तत्काल समझ ही नहीं सकते। इस विषय में मनोरंजक प्रसंग याद आता है। मैंने अपने एक लेख में ‘वदंती’ शब्द का प्रयोग किया था. संपादन के क्रम में इस पर हिंदी के एक बहुत समर्थ व्यक्ति की नजर पड़ी, उन्होंने मुझसे फोन पर जिज्ञासा की कि इसका अर्थ क्या है। हिंदी में इसका पहले शायद किसी ने भी प्रयोग न किया था। उन्होंने स्पष्ट किया के किंवदंती शब्द तो सुना था; वदंती के रूप में प्रयोग देखने में नहीं आया। वदंती का अर्थ है ख्याति या प्रसिद्धि, जब किवदंती संदिग्ध जनश्रुति है। फर्क मामूली है। ‘ किं’ के जुड़ने से संदिधता का भाव आजाता है। मूल शब्द के अभाव में केवल उपसर्ग से कोई शब्द नहीं बन सकता इतना तो सर्वविदित है, परंतु सही प्रयोग भी नया होने पर अटपटा प्रतीत होता है। वह जिस अनुशासन में दीक्षित थे उसमें प्रयोग की नवीनता से अधिक प्रामाणिकता पर बल दिया जाता है और इसलिए उनकी आशंका अपनी जगह पर सही थी, हमारे लिए सही होना सटीकता पर निर्भर था।

परंतु आह्लाद से उपसर्ग निकल जाने के बाद जो शब्द बचता है वह है ‘ह्लाद‘‘/‘ह्राद’ जिसका एक अर्थ ‘हार्दिक’ या हृदय से संबंधित व और दूसरा जल के भंडार या ‘ह्रद’ से संबंधित। अब ‘ह्रदय’, ‘ह्र्द’ और ‘आह्लाद’ तीनों के विषय में यह कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि इनकी उत्पत्ति जलवाची ‘हर’/’ह्र’ से हुई है. आप चाहे तो हार्दिक अनुरोध है का अनुवाद request with water कर सकते हैं, परं अपनी जिम्मेदारी पर । अंग्रेजी के heart और cord का हृदय से संबंध है, और हो सकता है hard, horror और horrid का भी हो (तु. पूत) ।

प्रसंगवश यह याद दिला दें कि ऋग्वेद में आह्लाद का प्रयोग तो नहीं हुआ है परंतु हार्द (अपस्पृण्वते सुहार्दम् – जो सुहृदयों या नेकदिल लोगों को भी ददूर भगाता है, 8.2.5) का प्रयोगहुआ है। हम जिस अर्थ मे हृदय छलनी कर देने का प्रयोग करते हैं, उस अर्थ में हृदयाविध (उतापवक्ता हृदयाविधश्चित्, 1.24.8 ); किसी के पास दिल न होने (बतो बतासि यम नैव ते मनो हृदयं चाविदाम, 10.10.13 – यमदेव, अफसोस है कि तुम इतने खस्ताहाल हो, न तो तुम्हें दिल मिला, न दिमाग) का हवाला है। दिल के कठोर (बज्जर कै छाती) होने और उस पर अपनी प्रेमपाती नुकीली टांकी से लिख कर सहानुभूति पैदा करने पर तो तीन ऋचाएं हैंः
परि तृन्धि पणीनां आरया हृदया कवे ।
अथ ईम् अस्मभ्यं रन्धय।
वि पूषन् आरया तुद पणेः इच्छ हृदि प्रियम् ।
अथ ईम् अस्मभ्यं रन्धय ।
आ रिख किकिरा कृणु पणीनां हृदया कवे ।
अथ ईम् अस्मभ्यं रन्धय ।। 6.53.5-7

छक कर या जी भर कर पीने का भी मुहावरा चलता था ( शं नो भव हृद आ पीत इन्दो पितेव सोम सूनवे सुशेवः ) साथ ही दिल जलाने का भी । जुए के पासे ठंढा होते हुए भी दिल जलाते है (शीताः सन्तो हृदयं निर्दहन्ति, 10.34.9) । शत्रुओं का दिल दहलाने (भियं दधाना हृदयेषु शत्रवो पराजितासो अप नि लयन्ताम्, 10.84.7), कलेजा चीरने (ताभिर्विध्य हृदये यातुधानान्) के मुहावरे भी प्रचलित थे। प्रेमिकाओं की निष्ठुरता के लिए उनके दिल की उपमा लकड़बग्घे से दी गई है (सालावृकाणां हृदयान्येत’ 10.95.15) और दिल मिला कर जी जान से मन चित्त लगा कर काम करने की इबारत तो कुछ लेगों को याद भी होगी (समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वो । समानमस्तु वो मनो यथा वो सुसहासति, 10.191.4)। हम अपनी भाषा में अनवरत परिवर्तन होते रहने के बाद भी हजारों साल के पुराने पदबंध और मुहावरे प्रयोग में लाते हैं यह सोच कर हैरानी होती है।

राग/ रंग/ रंज
राग में जल का साक्षात्कार आसानी से नहीं होता इसके लिए हमें ‘रा’, ‘रे’, ‘री’, ‘रै’, ’ऋ’ की शृंखला पर ध्यान देना होगा जिनमें से प्रत्येक का अर्थ जल है और उसी का प्रयोग धन, किरण, प्रकाश और दूसरे ग्रहों और नक्षत्रों के लिए किया गया है । लगभग इसी स्रोत से रज, राजा और रंज संबंध है। मान्यता है राग का प्रयोग आसक्ति के लिए किया जाता है, परंतु बंगाली में राग मनोमालिन्य के लिए प्रयोग में आता है। यह बात दूसरी है ’अनु-’ उपसर्ग लगने के बाद प्रेम का भाव वापस लौट आता है. ’रज’ के अनेक अर्थों में एक अर्थ जल भी है और रज, राज, रंज में चमक, निर्मलता, रंगीनी, विनोद आज के भाव कभी सांकेतिक और कभी मुक्त भाव से प्रकट होते है। रोचक बात यह है फारसी भाषा में संस्कृत का रंज ( रंजित – रंगा हुआ) रंग में बदल जाता है और राग रंज बन जाता है। इसका यह अर्थ है कि ’राग’ या ’रंग जाने का बहुत प्राचीन काल से लाक्षणिक आशय ग्रहण किया जाता रहा है, और इसलिए इसका प्रयोग मलिनता और आसक्ति दोनों के लिए किया जाता रहा है.

इस प्रसंग में विलियम जोंस की एक टिप्पणी याद आती है, जिसमें उन्होंने कहा था की फारसी भाषा का संस्कृत से वही संबंध है जो भारतीय प्राकृतों का है। उनकी यह टिप्पणी इस दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण हो जाती है कि उन्होंने संस्कृत की मूलभूमि ईरान सिद्ध करने का प्रयास किया था। यहां हम इतना ही संकेत करना चाहते हैं कि फारसी के बहुत से शब्द ऐसे हैं जो भारतीय भाषाओं की प्रकृति के उतने ही अनुरूप है जितने भारतीय बोलियों के शब्द। इनका बहिष्कार करना, हिंदी की प्रकृति को विकृत करने की कुचेष्टा ही कही जाएगी।

Post – 2018-04-28

प्रसन्नता से जुड़े कुछ और शब्द

मोद (आमोद, प्रमोद)

मोद का भारतीय जीवन में क्या महत्त्व है, इसे दुर्भाग्य से हम इसलिए नहीं पहचान पा रहे हैं कि इसका लाभ आज की राजनीति में मोदी को मिल सकता है, जिनको पीठ की और से देखने वालों को भारत में बुद्धिजीवी कहा जाता है। उनकी चिढ मोदक तक से है। हद तो यह कि हलवाई तक मोदक से चिढ कर इसे लड् डू कहने लगे हैं। मोदकप्रिय मुद मंगलदाता की महिमा के कारण मोदक पूरी तरह लुपत नहीं हो पाया है और न होने दिया जा सकता। यह दूसरी बात है कि मोद का आनन्द से कोई संबन्ध है यह बहुतों को उपसर्ग (आ-, प्र-) अथवा प्रत्यय (-इत) लगने के बाद ही पता चल पाता है।

मोद का अर्थ है, हरा भरा होना (यवो वृष्टीव मोदते, ऋ.2.5.6; ओषधीः प्रति मोदध्वं पुष्पवतीः प्रसूवरीः , 10.97.3); आनन्द, प्रसन्नता ( कीळन्तौ पुत्रै: नप्तृभिर् मोदमानौ स्वे गृहे , ऋ. 10.85.42 ) , तुष्टि (उपप्रक्षे वृषणो मोदमाना दिवस्पथा वध्वो यन्त्यच्छ,. 5.47.6), उल्लास (यत् पर्जन्य कनिक्रदत् स्तनयन् हंसि दुष्कृतः । प्रतीदं विश्वं मोदते यत् किं च पृथिव्यामधि ।,5.83.9); क्रीडा भाव ( स मोदते नसते साधते गिरा नेनिक्ते अप्सु यजते परीमणि , 9.71.3), किल्लोल करना, (मुमोद गर्भः वृषभः ककुद्मानस्रेमा वत्सः शिमीवाँ अरावीत्, 10.8.2)

ऋग्वेद में जिस मरणोत्तर आनन्दलोक की कल्पना की गई है उसमें इसे आप्तकामता के रूप में प्रस्तुत किया गया है (यत्रानन्दाश्च मोदाश्च मुदः प्रमुद आसते । कामस्य यत्राप्ताः कामास्तत्र माममृतं कृधीन्द्रायेन्दः परि स्रव, 9.113.11)

परंतु मोद जल की जिस संज्ञा से संबंध रखता है उसका प्रयोग प्रस्राव (urination) के लिए रूढ़ हो गया, जिसे जीमूत में पाकर ही हम समझ पाते हैं इसका पुराना अर्थ सामान्य जल था.

आह्लाद

आह्लाद ‘आ’ उपसर्ग है यह कहने की आवश्यकता नहीं है, परंतु यह उन शब्दों में है जिनके साथ उपसर्ग न लगा हो तो हम उन्हें तत्काल समझ ही नहीं सकते। इस विषय में मनोरंजक प्रसंग याद आता है। मैंने अपने एक लेख में ‘वदंती’ शब्द का प्रयोग किया था. संपादन के क्रम में इस पर हिंदी के एक बहुत समर्थ व्यक्ति की नजर पड़ी, उन्होंने मुझसे फोन पर जिज्ञासा की कि इसका अर्थ क्या है। हिंदी में इसका पहले शायद किसी ने भी प्रयोग न किया था। उन्होंने स्पष्ट किया के किंवदंती शब्द तो सुना था; वदंती के रूप में प्रयोग देखने में नहीं आया। वदंती का अर्थ है ख्याति या प्रसिद्धि, जब किवदंती संदिग्ध जनश्रुति है। फर्क मामूली है। ‘ किं’ के जुड़ने से संदिधता का भाव आजाता है। मूल शब्द के अभाव में केवल उपसर्ग से कोई शब्द नहीं बन सकता इतना तो सर्वविदित है, परंतु सही प्रयोग भी नया होने पर अटपटा प्रतीत होता है। वह जिस अनुशासन में दीक्षित थे उसमें प्रयोग की नवीनता से अधिक प्रामाणिकता पर बल दिया जाता है और इसलिए उनकी आशंका अपनी जगह पर सही थी, हमारे लिए सही होना सटीकता पर निर्भर था।

परंतु आह्लाद से उपसर्ग निकल जाने के बाद जो शब्द बचता है वह है ‘ह्लाद‘‘/‘ह्राद’ जिसका एक अर्थ ‘हार्दिक’ या हृदय से संबंधित व और दूसरा जल के भंडार या ‘ह्रद’ से संबंधित। अब ‘ह्रदय’, ‘ह्र्द’ और ‘आह्लाद’ तीनों के विषय में यह कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि इनकी उत्पत्ति जलवाची ‘हर’/’ह्र’ से हुई है. आप चाहे तो हार्दिक अनुरोध है का अनुवाद request with water कर सकते हैं, परं अपनी जिम्मेदारी पर । अंग्रेजी के heart और cord का हृदय से संबंध है, और हो सकता है hard, horror और horrid का भी हो (तु. पूत) ।

प्रसंगवश यह याद दिला दें कि ऋग्वेद में आह्लाद का प्रयोग तो नहीं हुआ है परंतु हार्द (अपस्पृण्वते सुहार्दम् – जो सुहृदयों या नेकदिल लोगों को भी ददूर भगाता है, 8.2.5) का प्रयोगहुआ है। हम जिस अर्थ मे हृदय छलनी कर देने का प्रयोग करते हैं, उस अर्थ में हृदयाविध (उतापवक्ता हृदयाविधश्चित्, 1.24.8 ); किसी के पास दिल न होने (बतो बतासि यम नैव ते मनो हृदयं चाविदाम, 10.10.13 – यमदेव, अफसोस है कि तुम इतने खस्ताहाल हो, न तो तुम्हें दिल मिला, न दिमाग) का हवाला है। दिल के कठोर (बज्जर कै छाती) होने और उस पर अपनी प्रेमपाती नुकीली टांकी से लिख कर सहानुभूति पैदा करने पर तो तीन ऋचाएं हैंः
परि तृन्धि पणीनां आरया हृदया कवे ।
अथ ईम् अस्मभ्यं रन्धय।
वि पूषन् आरया तुद पणेः इच्छ हृदि प्रियम् ।
अथ ईम् अस्मभ्यं रन्धय ।
आ रिख किकिरा कृणु पणीनां हृदया कवे ।
अथ ईम् अस्मभ्यं रन्धय ।। 6.53.5-7

छक कर या जी भर कर पीने का भी मुहावरा चलता था ( शं नो भव हृद आ पीत इन्दो पितेव सोम सूनवे सुशेवः ) साथ ही दिल जलाने का भी । जुए के पासे ठंढा होते हुए भी दिल जलाते है (शीताः सन्तो हृदयं निर्दहन्ति, 10.34.9) । शत्रुओं का दिल दहलाने (भियं दधाना हृदयेषु शत्रवो पराजितासो अप नि लयन्ताम्, 10.84.7), कलेजा चीरने (ताभिर्विध्य हृदये यातुधानान्) के मुहावरे भी प्रचलित थे। प्रेमिकाओं की निष्ठुरता के लिए उनके दिल की उपमा लकड़बग्घे से दी गई है (सालावृकाणां हृदयान्येत’ 10.95.15) और दिल मिला कर जी जान से मन चित्त लगा कर काम करने की इबारत तो कुछ लेगों को याद भी होगी (समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वो । समानमस्तु वो मनो यथा वो सुसहासति, 10.191.4)। हम अपनी भाषा में अनवरत परिवर्तन होते रहने के बाद भी हजारों साल के पुराने पदबंध और मुहावरे प्रयोग में लाते हैं यह सोच कर हैरानी होती है।

राग/ रंग/ रंज
राग में जल का साक्षात्कार आसानी से नहीं होता इसके लिए हमें ‘रा’, ‘रे’, ‘री’, ‘रै’, ’ऋ’ की शृंखला पर ध्यान देना होगा जिनमें से प्रत्येक का अर्थ जल है और उसी का प्रयोग धन, किरण, प्रकाश और दूसरे ग्रहों और नक्षत्रों के लिए किया गया है । लगभग इसी स्रोत से रज, राजा और रंज संबंध है। मान्यता है राग का प्रयोग आसक्ति के लिए किया जाता है, परंतु बंगाली में राग मनोमालिन्य के लिए प्रयोग में आता है। यह बात दूसरी है ’अनु-’ उपसर्ग लगने के बाद प्रेम का भाव वापस लौट आता है. ’रज’ के अनेक अर्थों में एक अर्थ जल भी है और रज, राज, रंज में चमक, निर्मलता, रंगीनी, विनोद आज के भाव कभी सांकेतिक और कभी मुक्त भाव से प्रकट होते है। रोचक बात यह है फारसी भाषा में संस्कृत का रंज ( रंजित – रंगा हुआ) रंग में बदल जाता है और राग रंज बन जाता है। इसका यह अर्थ है कि ’राग’ या ’रंग जाने का बहुत प्राचीन काल से लाक्षणिक आशय ग्रहण किया जाता रहा है, और इसलिए इसका प्रयोग मलिनता और आसक्ति दोनों के लिए किया जाता रहा है.

इस प्रसंग में विलियम जोंस की एक टिप्पणी याद आती है, जिसमें उन्होंने कहा था की फारसी भाषा का संस्कृत से वही संबंध है जो भारतीय प्राकृतों का है। उनकी यह टिप्पणी इस दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण हो जाती है कि उन्होंने संस्कृत की मूलभूमि ईरान सिद्ध करने का प्रयास किया था। यहां हम इतना ही संकेत करना चाहते हैं कि फारसी के बहुत से शब्द ऐसे हैं जो भारतीय भाषाओं की प्रकृति के उतने ही अनुरूप है जितने भारतीय बोलियों के शब्द। इनका बहिष्कार करना, हिंदी की प्रकृति को विकृत करने की कुचेष्टा ही कही जाएगी।

Post – 2018-04-26

शब्द विचार
(पिछली पोस्ट का शेषार्ध)

मेरे पास संस्कृत के दो कोश हैं। एक मोनियर विलियम्स का, दूसरा आप्टे का. आप्टे ने पार्थ का अर्थ युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तथा कृष्ण का अपर नाम दिया है। समाधान अधूरा है। अब हम इसे अपत्यार्थक मान कर उसी कोश में पृथा देखने पर पाते हैं यह कुन्ती का इतर नाम है। अब पार्थ का अर्थ कुन्तीपुत्र हो गया, अर्थात कौन्तेय। पर समस्या बनी रह गई कि कुन्ती को पृथा क्यों कहा जाता था। यहां कोश सहायता नहीं करता। अर्थ की कल्पना आप को करनी है। अत: हम मान सकते हैं कि संभवत: काया से पृथुल थीं। पर यह समस्या बनी रह जाती है कि कृष्ण को पार्थ क्यों कहा गया। क्या इसलिए कि वह स्वयं महाबली थे? संभव है, क्योंकि सूमो पहलवानों की तरह हमारे प्राचीन मल्लों को भी पृथुल काया का माना जाता था – मोटी गर्दन, फूला हुआ पेट, मोटी भुजाएं यह है महाबली इन्द्र का चित्रण – पृथु ग्रीवो, वपोदरो, सुबाहु: अन्धसो मदे । इन्द्र: वृत्राणि जिघ्नते।

पर यह मात्र हमारी ओर से गढ़ी गई एक संभावना है। हो सकता है कहीं किसी के पास इस बात का प्रमाण हो कि या पृथ्वी से इनका संबन्ध किसी ने सुझाया हो। इसलिए मैं आप लोगों के बीच से, जिनमें अनेक का संस्कृत ज्ञान मुझसे बहुत अधिक है, अपेक्षा करता हूँ कि यदि संभव हो तो कोई दूसरा आशय सुझाएँ ।

अब हम गुढाकेश पर आएं। कोश में इसे अर्जुन और शिव की उपाधि बताया गया है, पर आगे कोई खतरा नहीं उठाया गया है। कोशकार लोकमान्य या परंपर में मान्य अर्थ की लक्ष्मण रेखा पार नहीं करता। पहले से ऊटपटांग अर्थ चला आया है, उसे देने में झिझकता नहीं। अदालत की तरह वह जहां विधि व्यवस्था में खोट है, वहां भी, उसी की मर्यादा में निर्णय देता है, पर न्याय करने का दावा नहीं करता। वः फैसले देता है, झगडा निपटाता है, न्याय नहीं करता.

यह मर्यादा तो उसके लिए आप्त है, पर हमारे लिए सदा ग्राह्य नहीं होती। गुडाकेश के साथ हमें दो शब्दों का सामना करना है । एक गुड/गुडा, दूसरा केश। अब इनसे साम्य रखने वाले शब्द तलाशने होंगे। हम गुड के साथ गुडिका=गोली या गुटिका, गुड=गुड़, गुडेर = गोलक, और गुडगुडायन – गले की गुड़गुड़हट, पाते है जो बेकार है। एक मात्र गोलाई वाला अर्थ यहां संगत लगता है, इस दृष्टि से हिन्दी गुड़ या मराठी गोड का मूल अर्थ मीठा न होकर गोलाकार पिंडी हुआ जैसे शर्करा का अर्थ बटिया या बटिकाकार है। इसमें मिठास का भाव इसकी विशेषता के कारण प्रधान हो गया और आकारमूलकता तिरोहित हो गई । केश के साथ जुड़ने पर इसका अर्थ हुआ कुंचित केश या लहराते हुए बाल .

अब एक नया सवाल कि केश में वह कौन सी विशेषता आ गई कि इसे इतना महत्व मिला। दूसरे शिव तो जटा के कारण जाने जाते हैं । अब इसी कोश में केशव/ केशिन् = विष्णु और उनके अवतार कृष्ण का नाम बताया गया है और शब्द का अर्थ सुन्दर बालों वाला,किया गया है। पर गुडाकेश शिव की जटाओं को सुन्दर तो कहा नहीं जा सकता । कोश में दिया अर्थ सटीक नहीं है। यहां हमारा ध्यान दूसरे नामों की ओर जाता है- हृषीकेश= (शब्दश:) = हर्षित या लहराते बालो वाला, अर्थात् कृष्ण, पुरुकेशिन / पुलकेशिन, फा. गेसूदराज । समझ नहीं आता कि बिखरे, लहराते, लंबे बालों के साथ क्या रहस्य जुड़ा है।

यहां ऋग्वेद हमारी मदद करता है। इनमें तीन केशियों के अपने ध्रुव नियम का पालन करते हुए एक पहेली रची गई है:
त्रयः केशिन ऋतुथा वि चक्षते संवत्सरे वपत एक एषाम् ।
विश्वमेको अभि चष्टे शचीभिर्ध्राजि_ एकस्य ददृशे न रूपम् । 1.164.44
विस्तार से बचते हुए हम कहें ये तीनो लम्बे केशों वाले अग्नि (लपटों को शिखा कहा ही जाता है,, सूर्य (जिसकी किरणे केश बन कर चमकती हैं और वायु (जिसकी लहरों के बारे में कुछ कहना ही नहीं ) हैं.
अग्नि के प्रसंग में अन्यत्र भी हरिकेश आदि प्रयोग हैं: ( तं चित्रयामं हरिकेशमीमहे सुदीतिमग्निं सुविताय नव्यसे; ऊर्जो नपातं घृतकेशमीमहेऽग्निं ); और एक बार सूर्य के सन्दर्भ में प्रयोग हुआ है (अनागास्त्वेन हरिकेश सूर्य).

अब यह धुंध पूरी तरह छट जाती है और हमारे मन में कोई दुविधा नहीं रह जाती कि गुडाकेश का अर्थ लहराती शिखाओं वाले अग्नि देव हैं या विकीर्ण किरणों वाले सूर्यदेव हैं. अब समझ में आता है कि अग्नि का एक पर्याय भारत है और इसका प्रयोग भी अर्जुन के लिए हुआ है. अर्जुन का अर्थ भी अग्नि है. औए अब तो आपको यह भी पता चल गया होगा कि मैं कोश को अपर्याप्त क्यों मानता हूँ, पर मुझे पार्थ और गुडाकेश के विषय में केवल इतना ही पता था कि इनका अर्थ अर्जुन है. आज जो पता चला वह पहले से पता नहीं था. लीजिये अब आपको व्योमकेश उपनाम वाले अपने आचार्य के नाम का रहस्य भी पता चल गया. पर गुड पर विचार करते हुए अंग्रेजी के good का ध्यान न आया हो तो गुलेल का उपयोग और इसके लिए बने गोलकों का ध्यान आना ही चाहिए था, हरप्पा काल में पत्थर के इन गोलको का आकार क्रिकेट के बाल के बराबर होता था यह हड़प्पा के एक स्थल रोजडी में मैंने देखा था और एक गोला ले भी आया था. ऋग्वेद में पवि संभवत इसे ही कहा गया है. गोल> गोड़>गुड़।

रहा इसके जल से सम्बन्ध की बात तो गुड का अर्थ गुद = जल की ध्वनि, जल, गोदावरी – सुजला , गुद = रस, आनंद में देख सकते है . रसाल के गूदे या गादे का स्वाद लेकर भी समझ सकते है. सूर्य और अग्नि को अपने नाम जल के पर्यायों से मिले हैं यह हम कह आए हैं.

Post – 2018-04-26

शब्द विचार
(पिछली पोस्ट का शेषार्ध)

मेरे पास संस्कृत के दो कोश हैं। एक मोनियर विलियम्स का, दूसरा आप्टे का. आप्टे ने पार्थ का अर्थ युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तथा कृष्ण का अपर नाम दिया है। समाधान अधूरा है। अब हम इसे अपत्यार्थक मान कर उसी कोश में पृथा देखने पर पाते हैं यह कुन्ती का इतर नाम है। अब पार्थ का अर्थ कुन्तीपुत्र हो गया, अर्थात कौन्तेय। पर समस्या बनी रह गई कि कुन्ती को पृथा क्यों कहा जाता था। यहां कोश सहायता नहीं करता। अर्थ की कल्पना आप को करनी है। अत: हम मान सकते हैं कि संभवत: काया से पृथुल थीं। पर यह समस्या बनी रह जाती है कि कृष्ण को पार्थ क्यों कहा गया। क्या इसलिए कि वह स्वयं महाबली थे? संभव है, क्योंकि सूमो पहलवानों की तरह हमारे प्राचीन मल्लों को भी पृथुल काया का माना जाता था – मोटी गर्दन, फूला हुआ पेट, मोटी भुजाएं यह है महाबली इन्द्र का चित्रण – पृथु ग्रीवो, वपोदरो, सुबाहु: अन्धसो मदे । इन्द्र: वृत्राणि जिघ्नते।

पर यह मात्र हमारी ओर से गढ़ी गई एक संभावना है। हो सकता है कहीं किसी के पास इस बात का प्रमाण हो कि या पृथ्वी से इनका संबन्ध किसी ने सुझाया हो। इसलिए मैं आप लोगों के बीच से, जिनमें अनेक का संस्कृत ज्ञान मुझसे बहुत अधिक है, अपेक्षा करता हूँ कि यदि संभव हो तो कोई दूसरा आशय सुझाएँ ।

अब हम गुढाकेश पर आएं। कोश में इसे अर्जुन और शिव की उपाधि बताया गया है, पर आगे कोई खतरा नहीं उठाया गया है। कोशकार लोकमान्य या परंपर में मान्य अर्थ की लक्ष्मण रेखा पार नहीं करता। पहले से ऊटपटांग अर्थ चला आया है, उसे देने में झिझकता नहीं। अदालत की तरह वह जहां विधि व्यवस्था में खोट है, वहां भी, उसी की मर्यादा में निर्णय देता है, पर न्याय करने का दावा नहीं करता। वः फैसले देता है, झगडा निपटाता है, न्याय नहीं करता.

यह मर्यादा तो उसके लिए आप्त है, पर हमारे लिए सदा ग्राह्य नहीं होती। गुडाकेश के साथ हमें दो शब्दों का सामना करना है । एक गुड/गुडा, दूसरा केश। अब इनसे साम्य रखने वाले शब्द तलाशने होंगे। हम गुड के साथ गुडिका=गोली या गुटिका, गुड=गुड़, गुडेर = गोलक, और गुडगुडायन – गले की गुड़गुड़हट, पाते है जो बेकार है। एक मात्र गोलाई वाला अर्थ यहां संगत लगता है, इस दृष्टि से हिन्दी गुड़ या मराठी गोड का मूल अर्थ मीठा न होकर गोलाकार पिंडी हुआ जैसे शर्करा का अर्थ बटिया या बटिकाकार है। इसमें मिठास का भाव इसकी विशेषता के कारण प्रधान हो गया और आकारमूलकता तिरोहित हो गई । केश के साथ जुड़ने पर इसका अर्थ हुआ कुंचित केश या लहराते हुए बाल .

अब एक नया सवाल कि केश में वह कौन सी विशेषता आ गई कि इसे इतना महत्व मिला। दूसरे शिव तो जटा के कारण जाने जाते हैं । अब इसी कोश में केशव/ केशिन् = विष्णु और उनके अवतार कृष्ण का नाम बताया गया है और शब्द का अर्थ सुन्दर बालों वाला,किया गया है। पर गुडाकेश शिव की जटाओं को सुन्दर तो कहा नहीं जा सकता । कोश में दिया अर्थ सटीक नहीं है। यहां हमारा ध्यान दूसरे नामों की ओर जाता है- हृषीकेश= (शब्दश:) = हर्षित या लहराते बालो वाला, अर्थात् कृष्ण, पुरुकेशिन / पुलकेशिन, फा. गेसूदराज । समझ नहीं आता कि बिखरे, लहराते, लंबे बालों के साथ क्या रहस्य जुड़ा है।

यहां ऋग्वेद हमारी मदद करता है। इनमें तीन केशियों के अपने ध्रुव नियम का पालन करते हुए एक पहेली रची गई है:
त्रयः केशिन ऋतुथा वि चक्षते संवत्सरे वपत एक एषाम् ।
विश्वमेको अभि चष्टे शचीभिर्ध्राजि_ एकस्य ददृशे न रूपम् । 1.164.44
विस्तार से बचते हुए हम कहें ये तीनो लम्बे केशों वाले अग्नि (लपटों को शिखा कहा ही जाता है,, सूर्य (जिसकी किरणे केश बन कर चमकती हैं और वायु (जिसकी लहरों के बारे में कुछ कहना ही नहीं ) हैं.
अग्नि के प्रसंग में अन्यत्र भी हरिकेश आदि प्रयोग हैं: ( तं चित्रयामं हरिकेशमीमहे सुदीतिमग्निं सुविताय नव्यसे; ऊर्जो नपातं घृतकेशमीमहेऽग्निं ); और एक बार सूर्य के सन्दर्भ में प्रयोग हुआ है (अनागास्त्वेन हरिकेश सूर्य).

अब यह धुंध पूरी तरह छट जाती है और हमारे मन में कोई दुविधा नहीं रह जाती कि गुडाकेश का अर्थ लहराती शिखाओं वाले अग्नि देव हैं या विकीर्ण किरणों वाले सूर्यदेव हैं. अब समझ में आता है कि अग्नि का एक पर्याय भारत है और इसका प्रयोग भी अर्जुन के लिए हुआ है. अर्जुन का अर्थ भी अग्नि है. औए अब तो आपको यह भी पता चल गया होगा कि मैं कोश को अपर्याप्त क्यों मानता हूँ, पर मुझे पार्थ और गुडाकेश के विषय में केवल इतना ही पता था कि इनका अर्थ अर्जुन है. आज जो पता चला वह पहले से पता नहीं था. लीजिये अब आपको व्योमकेश उपनाम वाले अपने आचार्य के नाम का रहस्य भी पता चल गया. पर गुड पर विचार करते हुए अंग्रेजी के good का ध्यान न आया हो तो गुलेल का उपयोग और इसके लिए बने गोलकों का ध्यान आना ही चाहिए था, हरप्पा काल में पत्थर के इन गोलको का आकार क्रिकेट के बाल के बराबर होता था यह हड़प्पा के एक स्थल रोजडी में मैंने देखा था और एक गोला ले भी आया था. ऋग्वेद में पवि संभवत इसे ही कहा गया है. गोल> गोड़>गुड़।

रहा इसके जल से सम्बन्ध की बात तो गुड का अर्थ गुद = जल की ध्वनि, जल, गोदावरी – सुजला , गुद = रस, आनंद में देख सकते है . रसाल के गूदे या गादे का स्वाद लेकर भी समझ सकते है. सूर्य और अग्नि को अपने नाम जल के पर्यायों से मिले हैं यह हम कह आए हैं.

Post – 2018-04-26

शब्द विचार
(पिछली पोस्ट का शेषार्ध)

मेरे पास संस्कृत के दो कोश हैं। एक मोनियर विलियम्स का, दूसरा आप्टे का. आप्टे ने पार्थ का अर्थ युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तथा कृष्ण का अपर नाम दिया है। समाधान अधूरा है। अब हम इसे अपत्यार्थक मान कर उसी कोश में पृथा देखने पर पाते हैं यह कुन्ती का इतर नाम है। अब पार्थ का अर्थ कुन्तीपुत्र हो गया, अर्थात कौन्तेय। पर समस्या बनी रह गई कि कुन्ती को पृथा क्यों कहा जाता था। यहां कोश सहायता नहीं करता। अर्थ की कल्पना आप को करनी है। अत: हम मान सकते हैं कि संभवत: काया से पृथुल थीं। पर यह समस्या बनी रह जाती है कि कृष्ण को पार्थ क्यों कहा गया। क्या इसलिए कि वह स्वयं महाबली थे? संभव है, क्योंकि सूमो पहलवानों की तरह हमारे प्राचीन मल्लों को भी पृथुल काया का माना जाता था – मोटी गर्दन, फूला हुआ पेट, मोटी भुजाएं यह है महाबली इन्द्र का चित्रण – पृथु ग्रीवो, वपोदरो, सुबाहु: अन्धसो मदे । इन्द्र: वृत्राणि जिघ्नते।

पर यह मात्र हमारी ओर से गढ़ी गई एक संभावना है। हो सकता है कहीं किसी के पास इस बात का प्रमाण हो कि या पृथ्वी से इनका संबन्ध किसी ने सुझाया हो। इसलिए मैं आप लोगों के बीच से, जिनमें अनेक का संस्कृत ज्ञान मुझसे बहुत अधिक है, अपेक्षा करता हूँ कि यदि संभव हो तो कोई दूसरा आशय सुझाएँ ।

अब हम गुढाकेश पर आएं। कोश में इसे अर्जुन और शिव की उपाधि बताया गया है, पर आगे कोई खतरा नहीं उठाया गया है। कोशकार लोकमान्य या परंपर में मान्य अर्थ की लक्ष्मण रेखा पार नहीं करता। पहले से ऊटपटांग अर्थ चला आया है, उसे देने में झिझकता नहीं। अदालत की तरह वह जहां विधि व्यवस्था में खोट है, वहां भी, उसी की मर्यादा में निर्णय देता है, पर न्याय करने का दावा नहीं करता। वः फैसले देता है, झगडा निपटाता है, न्याय नहीं करता.

यह मर्यादा तो उसके लिए आप्त है, पर हमारे लिए सदा ग्राह्य नहीं होती। गुडाकेश के साथ हमें दो शब्दों का सामना करना है । एक गुड/गुडा, दूसरा केश। अब इनसे साम्य रखने वाले शब्द तलाशने होंगे। हम गुड के साथ गुडिका=गोली या गुटिका, गुड=गुड़, गुडेर = गोलक, और गुडगुडायन – गले की गुड़गुड़हट, पाते है जो बेकार है। एक मात्र गोलाई वाला अर्थ यहां संगत लगता है, इस दृष्टि से हिन्दी गुड़ या मराठी गोड का मूल अर्थ मीठा न होकर गोलाकार पिंडी हुआ जैसे शर्करा का अर्थ बटिया या बटिकाकार है। इसमें मिठास का भाव इसकी विशेषता के कारण प्रधान हो गया और आकारमूलकता तिरोहित हो गई । केश के साथ जुड़ने पर इसका अर्थ हुआ कुंचित केश या लहराते हुए बाल .

अब एक नया सवाल कि केश में वह कौन सी विशेषता आ गई कि इसे इतना महत्व मिला। दूसरे शिव तो जटा के कारण जाने जाते हैं । अब इसी कोश में केशव/ केशिन् = विष्णु और उनके अवतार कृष्ण का नाम बताया गया है और शब्द का अर्थ सुन्दर बालों वाला,किया गया है। पर गुडाकेश शिव की जटाओं को सुन्दर तो कहा नहीं जा सकता । कोश में दिया अर्थ सटीक नहीं है। यहां हमारा ध्यान दूसरे नामों की ओर जाता है- हृषीकेश= (शब्दश:) = हर्षित या लहराते बालो वाला, अर्थात् कृष्ण, पुरुकेशिन / पुलकेशिन, फा. गेसूदराज । समझ नहीं आता कि बिखरे, लहराते, लंबे बालों के साथ क्या रहस्य जुड़ा है।

यहां ऋग्वेद हमारी मदद करता है। इनमें तीन केशियों के अपने ध्रुव नियम का पालन करते हुए एक पहेली रची गई है:
त्रयः केशिन ऋतुथा वि चक्षते संवत्सरे वपत एक एषाम् ।
विश्वमेको अभि चष्टे शचीभिर्ध्राजि_ एकस्य ददृशे न रूपम् । 1.164.44
विस्तार से बचते हुए हम कहें ये तीनो लम्बे केशों वाले अग्नि (लपटों को शिखा कहा ही जाता है,, सूर्य (जिसकी किरणे केश बन कर चमकती हैं और वायु (जिसकी लहरों के बारे में कुछ कहना ही नहीं ) हैं.
अग्नि के प्रसंग में अन्यत्र भी हरिकेश आदि प्रयोग हैं: ( तं चित्रयामं हरिकेशमीमहे सुदीतिमग्निं सुविताय नव्यसे; ऊर्जो नपातं घृतकेशमीमहेऽग्निं ); और एक बार सूर्य के सन्दर्भ में प्रयोग हुआ है (अनागास्त्वेन हरिकेश सूर्य).

अब यह धुंध पूरी तरह छट जाती है और हमारे मन में कोई दुविधा नहीं रह जाती कि गुडाकेश का अर्थ लहराती शिखाओं वाले अग्नि देव हैं या विकीर्ण किरणों वाले सूर्यदेव हैं. अब समझ में आता है कि अग्नि का एक पर्याय भारत है और इसका प्रयोग भी अर्जुन के लिए हुआ है. अर्जुन का अर्थ भी अग्नि है. औए अब तो आपको यह भी पता चल गया होगा कि मैं कोश को अपर्याप्त क्यों मानता हूँ, पर मुझे पार्थ और गुडाकेश के विषय में केवल इतना ही पता था कि इनका अर्थ अर्जुन है. आज जो पता चला वह पहले से पता नहीं था. लीजिये अब आपको व्योमकेश उपनाम वाले अपने आचार्य के नाम का रहस्य भी पता चल गया. पर गुड पर विचार करते हुए अंग्रेजी के good का ध्यान न आया हो तो गुलेल का उपयोग और इसके लिए बने गोलकों का ध्यान आना ही चाहिए था, हरप्पा काल में पत्थर के इन गोलको का आकार क्रिकेट के बाल के बराबर होता था यह हड़प्पा के एक स्थल रोजडी में मैंने देखा था और एक गोला ले भी आया था. ऋग्वेद में पवि संभवत इसे ही कहा गया है. गोल> गोड़>गुड़।

रहा इसके जल से सम्बन्ध की बात तो गुड का अर्थ गुद = जल की ध्वनि, जल, गोदावरी – सुजला , गुद = रस, आनंद में देख सकते है . रसाल के गूदे या गादे का स्वाद लेकर भी समझ सकते है. सूर्य और अग्नि को अपने नाम जल के पर्यायों से मिले हैं यह हम कह आए हैं.

Post – 2018-04-26

मैं शब्द विचार करते हुए जब गलतियां निकालने का आग्रह करता हूं तो इसके पीछे दो उद्देश्य होते हैं। एक यह कि यदि विचार प्रवाह में कोई गलत उदाहरण दे बैठा हूं तो उसकी ओर ध्यान दिलाने पर मैं या तो अपना तर्क पेश करूं, अथवा भूल सुधार कर लूं और दूसरे मित्र जो उसे सही मान चुके हैं वे सही अर्थ ग्रहण कर सकें।

दूसरा यह कि आप को इस विचार-प्रक्रिया में शामिल कर सकूं। जब मैं कहता हूं कि कोश भी भरोसे के नहीं, तो इसलिए नहीं कि मेरा ज्ञान कोशकार से अधिक है, या जिस बात को गलत सिद्ध किया उसके गलत होने का पहले से पता था। उसका आसान तरीका है, उसे कोई अपना और उसके परिणाम कितने आश्चर्यजनक हो सकते हैं, वह स्वयं देख सकता है। आपके पास जितनी शंकाएं हो सकती हैं उनका जवाब बिना भटके मैं नहीं दे सकता, क्योंकि जवाब मेरे पास नही है, उस प्रक्रिया से ही निकलेगा। मुझे केवल उन शब्दों की याद दिलाएं जो उस शृंखला में आते हैं।
आज एक मित्र ने पूछ दिया पार्थ और गुडाकेश का अर्थ। इसी के बहाने मैं उस प्रक्रिया को स्पष्ट कर दूं। पहला चरण कोश देखें, देखें। जितना उस में मिलता है वह संतोषजनक है या नहीं।यदि नहीं है, जो अर्थ मिलता है उसके बाद बाद भी आशंकाएं बनी रह जाती हैं तो सही समाधान के लिए उस शब्द से निकटता रखने वाले शब्दों पर दृष्टि डालें और स्वयं समाधान तलाशें।

मेरे पास संस्कृत के दो कोश हैं। एक मोनियर विलियम्स का।

Post – 2018-04-26

मैं शब्द विचार करते हुए जब गलतियां निकालने का आग्रह करता हूं तो इसके पीछे दो उद्देश्य होते हैं। एक यह कि यदि विचार प्रवाह में कोई गलत उदाहरण दे बैठा हूं तो उसकी ओर ध्यान दिलाने पर मैं या तो अपना तर्क पेश करूं, अथवा भूल सुधार कर लूं और दूसरे मित्र जो उसे सही मान चुके हैं वे सही अर्थ ग्रहण कर सकें।

दूसरा यह कि आप को इस विचार-प्रक्रिया में शामिल कर सकूं। जब मैं कहता हूं कि कोश भी भरोसे के नहीं, तो इसलिए नहीं कि मेरा ज्ञान कोशकार से अधिक है, या जिस बात को गलत सिद्ध किया उसके गलत होने का पहले से पता था। उसका आसान तरीका है, उसे कोई अपना और उसके परिणाम कितने आश्चर्यजनक हो सकते हैं, वह स्वयं देख सकता है। आपके पास जितनी शंकाएं हो सकती हैं उनका जवाब बिना भटके मैं नहीं दे सकता, क्योंकि जवाब मेरे पास नही है, उस प्रक्रिया से ही निकलेगा। मुझे केवल उन शब्दों की याद दिलाएं जो उस शृंखला में आते हैं।
आज एक मित्र ने पूछ दिया पार्थ और गुडाकेश का अर्थ। इसी के बहाने मैं उस प्रक्रिया को स्पष्ट कर दूं। पहला चरण कोश देखें, देखें। जितना उस में मिलता है वह संतोषजनक है या नहीं।यदि नहीं है, जो अर्थ मिलता है उसके बाद बाद भी आशंकाएं बनी रह जाती हैं तो सही समाधान के लिए उस शब्द से निकटता रखने वाले शब्दों पर दृष्टि डालें और स्वयं समाधान तलाशें।

मेरे पास संस्कृत के दो कोश हैं। एक मोनियर विलियम्स का।

Post – 2018-04-26

मैं शब्द विचार करते हुए जब गलतियां निकालने का आग्रह करता हूं तो इसके पीछे दो उद्देश्य होते हैं। एक यह कि यदि विचार प्रवाह में कोई गलत उदाहरण दे बैठा हूं तो उसकी ओर ध्यान दिलाने पर मैं या तो अपना तर्क पेश करूं, अथवा भूल सुधार कर लूं और दूसरे मित्र जो उसे सही मान चुके हैं वे सही अर्थ ग्रहण कर सकें।

दूसरा यह कि आप को इस विचार-प्रक्रिया में शामिल कर सकूं। जब मैं कहता हूं कि कोश भी भरोसे के नहीं, तो इसलिए नहीं कि मेरा ज्ञान कोशकार से अधिक है, या जिस बात को गलत सिद्ध किया उसके गलत होने का पहले से पता था। उसका आसान तरीका है, उसे कोई अपना और उसके परिणाम कितने आश्चर्यजनक हो सकते हैं, वह स्वयं देख सकता है। आपके पास जितनी शंकाएं हो सकती हैं उनका जवाब बिना भटके मैं नहीं दे सकता, क्योंकि जवाब मेरे पास नही है, उस प्रक्रिया से ही निकलेगा। मुझे केवल उन शब्दों की याद दिलाएं जो उस शृंखला में आते हैं।
आज एक मित्र ने पूछ दिया पार्थ और गुडाकेश का अर्थ। इसी के बहाने मैं उस प्रक्रिया को स्पष्ट कर दूं। पहला चरण कोश देखें, देखें। जितना उस में मिलता है वह संतोषजनक है या नहीं।यदि नहीं है, जो अर्थ मिलता है उसके बाद बाद भी आशंकाएं बनी रह जाती हैं तो सही समाधान के लिए उस शब्द से निकटता रखने वाले शब्दों पर दृष्टि डालें और स्वयं समाधान तलाशें।

मेरे पास संस्कृत के दो कोश हैं। एक मोनियर विलियम्स का।

Post – 2018-04-25

प्रसन्नता और उल्लास के द्योतक शब्द और जल

हम प्रसन्नता और उल्लास से संबंधित कुछ शब्दों पर विचार करेंगे यूं तो हमने देखा कि हमारे यहां दुख ग्रीष्मकालीनउष्णता और जल के अभाव से अशोक और उल्लास को जल की सुलभता से भरपूर स्थिति के रूप में कल्पित किया है और इसलिए मोटे तौर पर हम यह मान सकते हैं प्रसन्नता और उल्लास से संबंधित शब्दावली का जलसे गहरा संबंध होगा । फिर भी यह जरूरी हो जाता है कि हम कुछ शब्दों को लेकर चर्चा करें सबसे पहले तो इनमे सुख ही आता है जिस पर हमने आज की ही तिथि तिथि में 1 साल पहले विचार किया था और इसलिए उसे आज की तिथि में शेयर कर लिया है उसके पहले पैराग्राफ को मैं यहां दोबारा उद्धृत करना चाहूंगा

सुख/चुक – १. पानी, २. सुख, ३. चोका= धारोष्ण दुग्ध पान , २>४- सौख्य > ५. फा. शौक / शौक़ीन, ६- सोखना > ७- सूखना>८. सं. शुष्क, ६>९. शोषण / शोषित /शोषक, १०. चोषण, ११. चूसना, १२. चस्का, १३. सु- (उपसर्ग) १४. सु-तर (सुंदर),> १५. सुधर /सुधार, १६. सं.(धातु) चूष पाने, १७. शुष शोषणे.
हमने अपनी सीमा के कारण यूरोपीय प्रतिरूपों को छोड़ दिया. ऊपर के आंकड़ों पर ध्यान दें तो धातुओं से ये शब्द नहीं निकल रहे हैं. धातुएं इस शब्दभंडार में से कुछ को समझने के लिए गढ़े घटक हैं. यात्रा धातु से शब्द की ओर न होकर क्रिया विशेष से उत्पन्न ध्वनि से शब्द श्रृंखला से धातु की दिशा में हैं और अब यह धातु उनमें से कुछ का अर्थ समझने में तो सहायता करेगी पर इस पहेली का जवाब न दे पायेगी कि इस ध्वनि से वह अर्थ जुड़ा कैसे.

साथ ही यह भी संकेत करना चाहूंगा अंग्रेजी का suck, succulant, succour, success, shake और नकारात्मक shock , sick, आदि शब्द उसी के सगोत हो सकते हैं.

उल्लास
उल्लास में दो शब्द हैं एक उपसर्ग के रूप में आया है जो उद या उदक है, दूसरा लास है, जिसे समझने के लिए भोज. का लासा पर ध्यान देना उचित होगा रस, लस, रास, लास, लास्य, लासा, लसित, के बीच के संबंध को स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। हां अंग्रेजी के lass बालिका, प्रिया, less कम, loss हानि, lusture चमक, lash कशा, lacerate कोड़े लगाना, last ठिकाना, चलना, सब के बाद, बचा हुआ आदि में रस और उसके वैकल्पिक रूप लस की भूमिका पर है अवश्य लंबी चर्चा की आवश्यकता होगी जिसके अपने खतरे में हैं इसलिए हम उसको इस श्रृंखला मैं सांकेतिक रूप में रख सकते हैं परंतु lact- दूध के विषय में किसी प्रकार की बहस की जरूरत नहीं रह जाती.

विनोद
विनोद एक अर्थ दूर भगाना भी है जिसकी ओर ध्यान सामान्यतः नहीं जाता केवल है इसके पक्ष की और हमारा ध्यान जाता है. इस मैं आए उपसर्ग वी के विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं. हम पहले विचार कर आए हैं. नोद को नुद धातु से व्युत्पन्न किया जाता है. ऋग्वेद में इसका प्रयोग एक स्थल पर जल भंडार को ऊपर उठाने (ऊर्ध्वं नुनुद्रे अवतं त ओजसा – उन्होंने अपनी शक्ति से जल भंडार को ऊपर उछाल दिया: ऊर्ध्वं नुनुद्र उत्सधिं पिबध्यै – पीने के लिए जलराशि को ऊपर हल्दिया ) तिरछी धार से जल की धारा निकलने (जिह्मं नुनुदे्र अवतं तया दिशा सिंचन् उत्सं गोतमाय तृष्णजे) के संदर्भ में हुआ है. संस्कृत में इसका प्रयोग अलग हटाने दूर भगाने के आश्रय में होता रहा है. संभव है तिरछी धार वाले भाव से विनोद की चुहल का सम्बन्ध मनोभाव के स्तर पर हो.

प्रसन्नता
हम हैं संकेत रूप में यह कह आए हैं कि सभी उपसर्गों का स्रोत जल है. प्र/ प्ल की जलर्थकता हमें ज्ञात है. परंतु जब उसका प्रयोग उपसर्ग के रूप में हो तो हमें उसके वैशिष्ट्य वाले अर्थ से ही संतोष कर लेना चाहिए. सत, सद का भी एक अर्थ जल होता है दूसरा होना या विद्यमान होना अच्छा होना आदि है जिससे सत्ता आदि शब्दों का जन्म हुआ है इसी से सीदतु भवान – आप आसन ग्रहण करें, आ नः शृण्वन् ऊतिभिः सीद सादनम् – हमारी गुहार सुनकर अपने संरक्षण के साथ हमारे घर पर विराजमान हो जैसे प्रयोग देखने में आते हैं.

हम उमंग, तरंग, मन के डोलने, चलने, आनंद की हिलोरों, मस्ती में झूमने आदि पर बिना बहस के यह समझ सकते हैं कि इनका सम्बन्ध केवल जल से है.

Post – 2018-04-25

प्रसन्नता और उल्लास के द्योतक शब्द और जल

हम प्रसन्नता और उल्लास से संबंधित कुछ शब्दों पर विचार करेंगे यूं तो हमने देखा कि हमारे यहां दुख ग्रीष्मकालीनउष्णता और जल के अभाव से अशोक और उल्लास को जल की सुलभता से भरपूर स्थिति के रूप में कल्पित किया है और इसलिए मोटे तौर पर हम यह मान सकते हैं प्रसन्नता और उल्लास से संबंधित शब्दावली का जलसे गहरा संबंध होगा । फिर भी यह जरूरी हो जाता है कि हम कुछ शब्दों को लेकर चर्चा करें सबसे पहले तो इनमे सुख ही आता है जिस पर हमने आज की ही तिथि तिथि में 1 साल पहले विचार किया था और इसलिए उसे आज की तिथि में शेयर कर लिया है उसके पहले पैराग्राफ को मैं यहां दोबारा उद्धृत करना चाहूंगा

सुख/चुक – १. पानी, २. सुख, ३. चोका= धारोष्ण दुग्ध पान , २>४- सौख्य > ५. फा. शौक / शौक़ीन, ६- सोखना > ७- सूखना>८. सं. शुष्क, ६>९. शोषण / शोषित /शोषक, १०. चोषण, ११. चूसना, १२. चस्का, १३. सु- (उपसर्ग) १४. सु-तर (सुंदर),> १५. सुधर /सुधार, १६. सं.(धातु) चूष पाने, १७. शुष शोषणे.
हमने अपनी सीमा के कारण यूरोपीय प्रतिरूपों को छोड़ दिया. ऊपर के आंकड़ों पर ध्यान दें तो धातुओं से ये शब्द नहीं निकल रहे हैं. धातुएं इस शब्दभंडार में से कुछ को समझने के लिए गढ़े घटक हैं. यात्रा धातु से शब्द की ओर न होकर क्रिया विशेष से उत्पन्न ध्वनि से शब्द श्रृंखला से धातु की दिशा में हैं और अब यह धातु उनमें से कुछ का अर्थ समझने में तो सहायता करेगी पर इस पहेली का जवाब न दे पायेगी कि इस ध्वनि से वह अर्थ जुड़ा कैसे.

साथ ही यह भी संकेत करना चाहूंगा अंग्रेजी का suck, succulant, succour, success, shake और नकारात्मक shock , sick, आदि शब्द उसी के सगोत हो सकते हैं.

उल्लास
उल्लास में दो शब्द हैं एक उपसर्ग के रूप में आया है जो उद या उदक है, दूसरा लास है, जिसे समझने के लिए भोज. का लासा पर ध्यान देना उचित होगा रस, लस, रास, लास, लास्य, लासा, लसित, के बीच के संबंध को स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। हां अंग्रेजी के lass बालिका, प्रिया, less कम, loss हानि, lusture चमक, lash कशा, lacerate कोड़े लगाना, last ठिकाना, चलना, सब के बाद, बचा हुआ आदि में रस और उसके वैकल्पिक रूप लस की भूमिका पर है अवश्य लंबी चर्चा की आवश्यकता होगी जिसके अपने खतरे में हैं इसलिए हम उसको इस श्रृंखला मैं सांकेतिक रूप में रख सकते हैं परंतु lact- दूध के विषय में किसी प्रकार की बहस की जरूरत नहीं रह जाती.

विनोद
विनोद एक अर्थ दूर भगाना भी है जिसकी ओर ध्यान सामान्यतः नहीं जाता केवल है इसके पक्ष की और हमारा ध्यान जाता है. इस मैं आए उपसर्ग वी के विषय में कुछ कहने की आवश्यकता नहीं. हम पहले विचार कर आए हैं. नोद को नुद धातु से व्युत्पन्न किया जाता है. ऋग्वेद में इसका प्रयोग एक स्थल पर जल भंडार को ऊपर उठाने (ऊर्ध्वं नुनुद्रे अवतं त ओजसा – उन्होंने अपनी शक्ति से जल भंडार को ऊपर उछाल दिया: ऊर्ध्वं नुनुद्र उत्सधिं पिबध्यै – पीने के लिए जलराशि को ऊपर हल्दिया ) तिरछी धार से जल की धारा निकलने (जिह्मं नुनुदे्र अवतं तया दिशा सिंचन् उत्सं गोतमाय तृष्णजे) के संदर्भ में हुआ है. संस्कृत में इसका प्रयोग अलग हटाने दूर भगाने के आश्रय में होता रहा है. संभव है तिरछी धार वाले भाव से विनोद की चुहल का सम्बन्ध मनोभाव के स्तर पर हो.

प्रसन्नता
हम हैं संकेत रूप में यह कह आए हैं कि सभी उपसर्गों का स्रोत जल है. प्र/ प्ल की जलर्थकता हमें ज्ञात है. परंतु जब उसका प्रयोग उपसर्ग के रूप में हो तो हमें उसके वैशिष्ट्य वाले अर्थ से ही संतोष कर लेना चाहिए. सत, सद का भी एक अर्थ जल होता है दूसरा होना या विद्यमान होना अच्छा होना आदि है जिससे सत्ता आदि शब्दों का जन्म हुआ है इसी से सीदतु भवान – आप आसन ग्रहण करें, आ नः शृण्वन् ऊतिभिः सीद सादनम् – हमारी गुहार सुनकर अपने संरक्षण के साथ हमारे घर पर विराजमान हो जैसे प्रयोग देखने में आते हैं.

हम उमंग, तरंग, मन के डोलने, चलने, आनंद की हिलोरों, मस्ती में झूमने आदि पर बिना बहस के यह समझ सकते हैं कि इनका सम्बन्ध केवल जल से है.