परछांइयां भी उठ कर हैें हंगामे में शामिल
क्या जोश, क्या खरोश है, क्या जोरे जबां है।
सोचा कि तेरे खाक से पुतला तो बना लू
पर जान डालने को बता आग कहां है ।।
Month: April 2018
Post – 2018-04-23
परछांइयां भी उठ कर हैें हंगामे में शामिल
क्या जोश, क्या खरोश है, क्या जोरे जबां है।
सोचा कि तेरे खाक से पुतला तो बना लू
पर जान डालने को बता आग कहां है ।।
Post – 2018-04-23
परछांइयां भी उठ कर हैें हंगामे में शामिल
क्या जोश, क्या खरोश है, क्या जोरे जबां है।
सोचा कि तेरे खाक से पुतला तो बना लू
पर जान डालने को बता आग कहां है ।।
Post – 2018-04-22
संतापसूचक शब्द और जल (5)
(आज विषय पर आने से पहले यह स्पष्ट कर दूं कि मैं प्राय: ऋग्वेद के ही उद्धरण इसलिए देता हूं कि वह लिखित भाषा का प्राचीनतम दस्तावेज है और वह संस्कृत की तुलना में बोलियों के अधिक निकट पाता हूं। )
क्लेश
क्ल/कल का अर्थ जल है, यह हम पहले देख आए हैं। कृश/क्लिश का उद्भव जल से है इस पर भी हम विचार कर आए हैं। अब क्लेश की अवधारणा के जल से संबंध के विषय में कुछ कहने को नहीं रह जाता। प्रसंगवश, समूह और विराट के अमूर्त पदों के लिए भी जल के पर्यायों में से किसी का सहारा लिया गया है अतः यह सम्भव है कि अंग्रेजी क्लास का भी क्ल से सम्बन्ध हो, और यही बात क्लॉथ, क्ले, क्लेम, के विषय में कही जा सकती है. क्रोश और अं. कर्स की निकटता भी रोचक है.
व्यथा
व्यथा के साथ ही यदि व्याधि की और उसके साथ आधि की याद न आ जाती तो हम यह न सोच पाते कि इसमें वि उपसर्ग है और अब हम इसी बात पर चकित अनुभव करते हैं कि मूल शब्द अथ अव्यय है जिसका अर्थ इससे अब और यहाँ, है जिसका प्रयोग प्रस्थान या इससे आगे, इसके बाद, के आशय में किया जाता है। इसके भी पीछे है. अत जिसका अर्थ है चलना, घूमना, भ्रमण करना। इसके तकार के टकार में बदलने से अट बना है जिसका अर्थ वही है और इसी का संज्ञा रूप अटन है जिससे अटवी -वनस्थली व्युत्पन्न है। अत और अट दोनों में से किसी में पीड़ा या अवसाद का भाव नहीं है। ऋग्वेद में अत का प्रयोग अथ की तरह यहाँ (अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा – यहाँ हमारे इस यज्ञ में आओ; अत आ यातमश्विना – अश्विनों यहाँ पधारो ) और अथ का तब (अथा हि वां दिवो नरा पुनः स्तोमो न विशसे – ऐ देवो उसके बाद फिर कभी तुम्हारी कीर्ति कम व होगी ) फिर (अथा को वेद यत आबभूव- फिर कौन जनता है क्या हुआ ). अत/ अद का अवांतर रूप है जिसका अर्जिथ जल है। उसकी गतिशीलता और भ्रामकता अत में बनी हुई है. और इसलिए लगता है इसी के अर्थोत्कर्ष से इस चक्कर में पड़े रहने ने दुःख, थकान और मनोव्यथा का अर्थ ग्रहण कर लिया.
दुःख
दुःख को इसके उपसर्ग दु: से अलग करके क के रूप में रखें और इस बात पर ध्यान दें कि क/क:/को का अर्थ जल होता है और जल पर्यायों से ही ईश्वर के नाम निकले है – इष= जल, >ईश , तो तमिल के गोपुरम और कोइल/ कोविल = मंदिर, इश्वर का घर, समझ में आ जाएगा। अत: दुःख भी जल का आभाव या अनुपलब्धि ही है. इसमें इतना और जोड़ना होगा कि क में आनंद या तृप्तिदायकता का अर्थ निहित है। यह भी याद दिला दें कि नर्क (न्यर्क – जहां जल नहीं या दुर्लभ है) का अर्थ भी वही है जब कि स्वरग सु-अर्क जल से भरपूर है। दुख यदि जल की दुर्लभता है तो सुख जल की सुलभता। ये संकल्पनाएं उस लंबे दुर्भिक्ष काल की देन हैं, जिसकी हम अक्सर याद लिलाते रहते हैं। पहले की सोकल्पनाएं भिन्न थीं।
Post – 2018-04-22
संतापसूचक शब्द और जल (5)
(आज विषय पर आने से पहले यह स्पष्ट कर दूं कि मैं प्राय: ऋग्वेद के ही उद्धरण इसलिए देता हूं कि वह लिखित भाषा का प्राचीनतम दस्तावेज है और वह संस्कृत की तुलना में बोलियों के अधिक निकट पाता हूं। )
क्लेश
क्ल/कल का अर्थ जल है, यह हम पहले देख आए हैं। कृश/क्लिश का उद्भव जल से है इस पर भी हम विचार कर आए हैं। अब क्लेश की अवधारणा के जल से संबंध के विषय में कुछ कहने को नहीं रह जाता। प्रसंगवश, समूह और विराट के अमूर्त पदों के लिए भी जल के पर्यायों में से किसी का सहारा लिया गया है अतः यह सम्भव है कि अंग्रेजी क्लास का भी क्ल से सम्बन्ध हो, और यही बात क्लॉथ, क्ले, क्लेम, के विषय में कही जा सकती है. क्रोश और अं. कर्स की निकटता भी रोचक है.
व्यथा
व्यथा के साथ ही यदि व्याधि की और उसके साथ आधि की याद न आ जाती तो हम यह न सोच पाते कि इसमें वि उपसर्ग है और अब हम इसी बात पर चकित अनुभव करते हैं कि मूल शब्द अथ अव्यय है जिसका अर्थ इससे अब और यहाँ, है जिसका प्रयोग प्रस्थान या इससे आगे, इसके बाद, के आशय में किया जाता है। इसके भी पीछे है. अत जिसका अर्थ है चलना, घूमना, भ्रमण करना। इसके तकार के टकार में बदलने से अट बना है जिसका अर्थ वही है और इसी का संज्ञा रूप अटन है जिससे अटवी -वनस्थली व्युत्पन्न है। अत और अट दोनों में से किसी में पीड़ा या अवसाद का भाव नहीं है। ऋग्वेद में अत का प्रयोग अथ की तरह यहाँ (अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा – यहाँ हमारे इस यज्ञ में आओ; अत आ यातमश्विना – अश्विनों यहाँ पधारो ) और अथ का तब (अथा हि वां दिवो नरा पुनः स्तोमो न विशसे – ऐ देवो उसके बाद फिर कभी तुम्हारी कीर्ति कम व होगी ) फिर (अथा को वेद यत आबभूव- फिर कौन जनता है क्या हुआ ). अत/ अद का अवांतर रूप है जिसका अर्जिथ जल है। उसकी गतिशीलता और भ्रामकता अत में बनी हुई है. और इसलिए लगता है इसी के अर्थोत्कर्ष से इस चक्कर में पड़े रहने ने दुःख, थकान और मनोव्यथा का अर्थ ग्रहण कर लिया.
दुःख
दुःख को इसके उपसर्ग दु: से अलग करके क के रूप में रखें और इस बात पर ध्यान दें कि क/क:/को का अर्थ जल होता है और जल पर्यायों से ही ईश्वर के नाम निकले है – इष= जल, >ईश , तो तमिल के गोपुरम और कोइल/ कोविल = मंदिर, इश्वर का घर, समझ में आ जाएगा। अत: दुःख भी जल का आभाव या अनुपलब्धि ही है. इसमें इतना और जोड़ना होगा कि क में आनंद या तृप्तिदायकता का अर्थ निहित है। यह भी याद दिला दें कि नर्क (न्यर्क – जहां जल नहीं या दुर्लभ है) का अर्थ भी वही है जब कि स्वरग सु-अर्क जल से भरपूर है। दुख यदि जल की दुर्लभता है तो सुख जल की सुलभता। ये संकल्पनाएं उस लंबे दुर्भिक्ष काल की देन हैं, जिसकी हम अक्सर याद लिलाते रहते हैं। पहले की सोकल्पनाएं भिन्न थीं।
Post – 2018-04-22
संतापसूचक शब्द और जल (5)
(आज विषय पर आने से पहले यह स्पष्ट कर दूं कि मैं प्राय: ऋग्वेद के ही उद्धरण इसलिए देता हूं कि वह लिखित भाषा का प्राचीनतम दस्तावेज है और वह संस्कृत की तुलना में बोलियों के अधिक निकट पाता हूं। )
क्लेश
क्ल/कल का अर्थ जल है, यह हम पहले देख आए हैं। कृश/क्लिश का उद्भव जल से है इस पर भी हम विचार कर आए हैं। अब क्लेश की अवधारणा के जल से संबंध के विषय में कुछ कहने को नहीं रह जाता। प्रसंगवश, समूह और विराट के अमूर्त पदों के लिए भी जल के पर्यायों में से किसी का सहारा लिया गया है अतः यह सम्भव है कि अंग्रेजी क्लास का भी क्ल से सम्बन्ध हो, और यही बात क्लॉथ, क्ले, क्लेम, के विषय में कही जा सकती है. क्रोश और अं. कर्स की निकटता भी रोचक है.
व्यथा
व्यथा के साथ ही यदि व्याधि की और उसके साथ आधि की याद न आ जाती तो हम यह न सोच पाते कि इसमें वि उपसर्ग है और अब हम इसी बात पर चकित अनुभव करते हैं कि मूल शब्द अथ अव्यय है जिसका अर्थ इससे अब और यहाँ, है जिसका प्रयोग प्रस्थान या इससे आगे, इसके बाद, के आशय में किया जाता है। इसके भी पीछे है. अत जिसका अर्थ है चलना, घूमना, भ्रमण करना। इसके तकार के टकार में बदलने से अट बना है जिसका अर्थ वही है और इसी का संज्ञा रूप अटन है जिससे अटवी -वनस्थली व्युत्पन्न है। अत और अट दोनों में से किसी में पीड़ा या अवसाद का भाव नहीं है। ऋग्वेद में अत का प्रयोग अथ की तरह यहाँ (अत आ याह्यध्वरं नो अच्छा – यहाँ हमारे इस यज्ञ में आओ; अत आ यातमश्विना – अश्विनों यहाँ पधारो ) और अथ का तब (अथा हि वां दिवो नरा पुनः स्तोमो न विशसे – ऐ देवो उसके बाद फिर कभी तुम्हारी कीर्ति कम व होगी ) फिर (अथा को वेद यत आबभूव- फिर कौन जनता है क्या हुआ ). अत/ अद का अवांतर रूप है जिसका अर्जिथ जल है। उसकी गतिशीलता और भ्रामकता अत में बनी हुई है. और इसलिए लगता है इसी के अर्थोत्कर्ष से इस चक्कर में पड़े रहने ने दुःख, थकान और मनोव्यथा का अर्थ ग्रहण कर लिया.
दुःख
दुःख को इसके उपसर्ग दु: से अलग करके क के रूप में रखें और इस बात पर ध्यान दें कि क/क:/को का अर्थ जल होता है और जल पर्यायों से ही ईश्वर के नाम निकले है – इष= जल, >ईश , तो तमिल के गोपुरम और कोइल/ कोविल = मंदिर, इश्वर का घर, समझ में आ जाएगा। अत: दुःख भी जल का आभाव या अनुपलब्धि ही है. इसमें इतना और जोड़ना होगा कि क में आनंद या तृप्तिदायकता का अर्थ निहित है। यह भी याद दिला दें कि नर्क (न्यर्क – जहां जल नहीं या दुर्लभ है) का अर्थ भी वही है जब कि स्वरग सु-अर्क जल से भरपूर है। दुख यदि जल की दुर्लभता है तो सुख जल की सुलभता। ये संकल्पनाएं उस लंबे दुर्भिक्ष काल की देन हैं, जिसकी हम अक्सर याद लिलाते रहते हैं। पहले की सोकल्पनाएं भिन्न थीं।
Post – 2018-04-22
जो लोग सोचना आरम्भ करते ही इस विषय में सचेत हो जाते हैं लोग क्या कहेंगे, वे अफवाहों के दबाव से बच नही सकते. बहुमत ऐसों का ही होता है इसलिए अकेला पड जाने का जोखिम उठाते हुए भी अपनी और केवल अपनी समझ पर भरोसा ही जरूरी है.
Post – 2018-04-22
जो लोग सोचना आरम्भ करते ही इस विषय में सचेत हो जाते हैं लोग क्या कहेंगे, वे अफवाहों के दबाव से बच नही सकते. बहुमत ऐसों का ही होता है इसलिए अकेला पड जाने का जोखिम उठाते हुए भी अपनी और केवल अपनी समझ पर भरोसा ही जरूरी है.
Post – 2018-04-22
जो लोग सोचना आरम्भ करते ही इस विषय में सचेत हो जाते हैं लोग क्या कहेंगे, वे अफवाहों के दबाव से बच नही सकते. बहुमत ऐसों का ही होता है इसलिए अकेला पड जाने का जोखिम उठाते हुए भी अपनी और केवल अपनी समझ पर भरोसा ही जरूरी है.
Post – 2018-04-22
संतापसूचक शब्द और जल (4)
वेदना
वेदना का संबंध अनुभूति से है। जो अनुभव या ज्ञात हो रहा है वह वेदन है। बाह्य जगत में जो कुछ विद्यमान है वह विद्य है और उसका ज्ञान वेद अर्थात् ज्ञान, जानने की विधि विद्या है।
संस्कृत आचार्य इसे विद् धातु से उत्पन्न मानते हैं। इसके लिए पांच धातुओं की उद्भावना करनी पड़ी है जिनकी संख्या और गण नीचे दिए गए हैं‘
708. विद चेतनाख्याननिवासेषु,(भ्वादिगण)
1064. ‘विद ज्ञाने’ (अदादिगण)
1432. विद्लृ लाभे (तुदादिगण)
1450. विद विचारणे (रुणादिगण)
1171. विद सत्तायाम् (तनादिगण)
वैदिक भाषाविदों के लिए यह कोई समस्या नहीं थी, क्योंकि वे प्राकृत ध्वनियों को स्रोत मानकर चल रहे थे, पर संस्कृत के आचार्यों के लिए यह एक जटिल समस्या थी, जो आठ सौ साल तक चलने वाले प्राकृतिक प्रकोप के कारण अपनी नष्टप्राय जातीय संपदा के उद्धार के बाद उसका अर्थ समझने के लिए लगातार माथापच्ची करने के बाद कुछ युक्तियां निकाल कर संतुष्ट तो न थे, क्योंकि उनका ऊहापोह कभी समाप्त न हुआ, पर उन्होंने लगभग थक कर समझौता कर लिया था। वे समझ नहीं पा रहे थे कि एक ही शब्द के इतने सारे अर्थ कैसे हो सकते हैं ।
इस बात को बार-बार दुहराने की जरूरत नहीं है फिर भी याद दिलाना आवश्यक प्रतीत होता है की जल के गुणों में उसका खाद्य और पेय होना, उसमें कांति का होना, उसका समस्त धनों का स्रोत होना और उसकी गतिशीलता जो सभी दिशाओं में संभव है – ऊंचाई नीचाई तिर्यक और भ्रामक – का होना, आदि इस रहस्य को समझने में सहायक हैं कि कैसे उसी की किसी संज्ञा में अर्थ की सभी संभावनाएं केंद्रित हो जातीं और कुछ आशयों मे नियमित प्रयोग के कारण रूढ़ हो जाती है।
इस सहज बोध के अभाव में उनको एक ही क्रिया के लिए कल्पित धातु को पांच पांच गणों में रखना पड़ा, उनकी रूपावली भिन्न भिन्न रीतियों से चलानी पड़ी और, फिर भी, दुविधा की अनेक स्थितियां बनी रह गई । उनके द्वारा कल्पित धातुएं भी उस बीजावस्था का आभास नहीं दे सकती थीं, जिसमें सर्वसमावेशी अर्थ निहित था, इसलिए वे यह भी नहीं समझ सकते थे की विष्, विश्व और विष्णु में कोई रिश्ता है भी, या नहीं।
संस्कृत भाषा बहुत प्राचीन है और भारोपीय परिवार की दूसरी भाषाओं की तुलना में भी प्राचीन है, परंतु वैदिक उससे प्राचीन है और हमारी बोलियों में वैदिक से भी अधिक प्राचीन सामग्री उपलब्ध है। इसलिए यदि कोई बोलियों (जिनमें आधुनिक साहित्यिक भाषाएं भी शामिल हैं) को प्रधानता दे कर या कम से कम उनकी मदद लेते हुए वेद को समझता है तो वह ऋग्वेद को अधिक गहराई और पारदर्शिता से समझ पाता है।
मैं यहां अपने मत के समर्थन् में श्री अरविंदो के मंतव्य को रखना चाहूंगा :
On examining the vocables of the Tamil language, … I found myself guided by the words and families of words supposed to be pure Tamil, in establishing new relations between Sanskrit and its distant sister, Latin and occasionally , between the Greek and the Sanskrit…. And it was through this Dravidian language that I came first to percieve, what seems to me now the true law , origins and, as it were, embroyology of the Aryan tongues. (The Secrets of the Veda, 996, p. 36 )
****
Nothing can be more fanciful and lawless than the method of mere ingenuity used by the old etymologists down even to the nineteenth century, whether in Europe or India, and when Yask follows these methods, we are obliged to part company with him entirely. Nor in his interpretation of particular texts is he more convincing than the later erudition of Sayan. (p. 17)
****
पाश्चात्य अध्येताओं के विषय में वह कहते हैं: The high hopes that attended its birth, have not been fulfilld by its maturity. It has failed to create a science of langauage. (p. 27 )
*****
Philology has failed to discover the principles on which language was constructed or rather was organically developed. and on the other it has preserved a sufficient amount of the old spirit of mere phantasy and ingenuity and is full of precisely such brilliance of hazardous inference.
मुझे सीधे ऐसा कोई मूल रूप दिखाई नहीं देता जिस को इंगित करके हम यह कहें की ‘वि’ का अर्थ जल था। वी का अर्थ पक्षी है, आकाश है, विस्तार है, गति है और इसमें मामूली रूपगत परिवर्तन से बने हुए शब्दों का अर्थ अन्न है, कांति है, प्रकाश, जल हैं , फिर भी जैसा कि हमारा अनुमान है ‘व’ की ध्वनि हमारी ध्वनिमाला में कुछ बाद में जुड़ी है, इसलिए इसका मूल ‘ई’ प्रतीत होता है। यहां हम अधिक विस्तार में नहीं जाएंगे, परंतु कुछ लोगों के लिए ‘ई’ और ‘ऊ’ का शुद्ध उच्चारण करना कठिन होता है और वे इनको ‘य’ और ‘व’ में बदल देते हैं। यह सीमा मोहम्मद रफी तक के साथ थी और हममें से अनेक लोग इसके दोषी पाए जाएंगे। स्वयं इन पंक्तियों का लेखक भी। ये दोनों अन्तस्थ ध्वनियां इसी की देन प्रतीत होती हैं।
पहले हम ऋग्वेद में विद, वेद, वेदस, वित्त, और विदान, विद्वान के प्रयोगों को देखें और फिर समझने का प्रयत्न करें इसकी जड़ें किधर जाती हैं:
विद/ विदा – १. ज्ञान (शक्ती वा यत् ते चकृमा विदा वा); २. पाना – (विदा देवेषु नो दुवः; विदा देवेषु प्रमतिं चिकित्वान्: आ रोदसी बृहती वेविदानाः ) ; ३. खोज (धिया देवा वसुविदा); ४. प्रकट होना (. उषासानक्ता पुरुधा विदाने)
वेद – जानना ( वेद नावः समुद्रियः; सेदु होता सत्यतरो यजाति यथा देवानां जनिमानि वेद;); 2. आह्वान करना (आ वो वाजा ऋभवो वेदयामसि ); 3 धन (तेषां नो वेद आ भर).
वेदस – १. ज्ञान ( विश्ववेदसम् – सर्वज्ञ ); २. धन ( पूषा यत वेदसाम असत वृधे ).
नवेदस – मेधावी (त्रिश्चिन् नो अद्या भवतं नवेदसा)
विवेद.- अच्छी तरह जानना ‘विशेषेण विविच् जानाति’, सायण , प्रकट करना (सूर्यं विवेद तमसि क्षियन्तम्).
वेविदान – जानते हुए ( ववन्दिरे पृथिवी वेविदानाः)
को अद्धा वेद क इह प्र वोचद् देवाँ अच्छा पथ्या3 का समेति ।).
वीत 1. भोजन (वीतयेभक्षणार्थ 1.13.2), 2. चिकना ( मनोजुवो वृषणा वीतपृष्ठा ), 3. आच्छादन (युवा सुवासाः परिवीत आगात् )
इसी ‘विद’ मैं उपसर्ग लगाकर संविदा, निविदा, आदि बहुत से शब्द वैदिक काल में बनाए गए है।
यह ज्ञान, जब दुख की प्रतीति के रूप में आता है ल तो यह वेदना का रूप ले लेता है। और परदुखकातरता समवेदना, तथा अनुभूति प्रवणता में संवेदनशीलता का अर्थ ग्रहण कर लेता है।
हमने आदि ध्वनि ‘ई’, जिसका तमिल में मूल अर्थ ठीक वही रहा लगता है जो अं. के फ् फ्लाई का, अर्थात, ‘उड्डयनशील’ का। अं. में फ्लाई केवल मक्खी के लिए रूढ़ हआ, जब कि तमिल में ‘ई’ मक्खी, शहद की मक्खी और यहां तक कि तिलचट्टे तक के लिए प्रयोग में आता रहा। सं. में यह ई/ ईर/ ईरिण, इष, इषु, ईश) आदि में बचा रहा, पर यही ‘वी’ बन कर सभी पक्षियों के लिए प्रयोग में आता रहा, परन्तु जल और जल के अर्थवैभद को संभाले रहा जिसे हम गति, प्रवाह/ विक्षेप (विष्यति), अन्न, कान्ति आदि में पाते हैं।