Post – 2020-01-11

हम अपनी कहते हैं, चुप रहते तो बच भी जाते
मिटने की शर्त है, पर कहने को मजबूर भी हैं ।

Post – 2020-01-11

सच को हर रंग में देखा है, मगर देखिए फिर,
सच के कुछ रंग सचाई से बहुत दूर भी हैं।

Post – 2020-01-10

आत्महत्या से बचते हुए

लेखक के लिए आत्महत्या करने के दो रास्ते हैं पहला तथ्यों के साथ छेड़छाड़, चुनाव, अनुकूल आने वाले तथ्यों को जगह देना, और उससे भिन्न पढ़ने वाले साक्ष्यों और तथ्यों को छोड़ देना।

दूसरा, जिस अपराध से बचा ही नहीं जा सकता, पर प्रयत्न किया जा सकता है, वह है किसी संकीर्ण दायरे में – दायरा जाति, धर्म, देश या वर्ग हित, विचारधारा किसी का भी हो सकता है – बंध कर, उन्हीं तथ्यों को एक सँकरी नजर से देखना।

जो लोग इनमें से किसी सीमा में बँध कर सोचते हैं, बहुत आसानी से अपने से असहमत होने वालों को सोचने और बोलने का अधिकार नहीं देते। यदि फासिज्म इसी को कहते हैं तो, भारत में, इसका सबसे अधिक प्रयोग, अपने को सबसे अधिक पवित्र सिद्ध करने वाले, भारतीय कम्युनिस्टों ने किया है। आत्महत्या का यह भी एक रूप है जिसमें जिस दर्शन से आपको मानव जाति के उद्धार की आशा हो, उसके व्यावहारिक रूप को देखकर आपको उससे डर लगने लगे। जिसको मूल्यवान समझते थे उसका सर्वस्व चला जाना आपके जीवन की आकांक्षा को ही समाप्त कर देता है।

मैं सदा से यह मानता आया था और आज ही मानता हूं कि सक्रिय राजनीति – सत्ता पर अधिकार करने की राजनीति- अपराध से बच नहीं सकती, इसलिए बुद्धिजीवियों को इससे दूर रहना चाहिए । इसे मैं पहले लिख चुका हूं, इसलिए किसी गवाही की जरूरत नहीं।

मैंने जीवन में कुछ पाना नहीं चाहा यह कहना तो गलत है, परंतु अपने विवेक और अंतरात्मा के विरुद्ध किसी भी कीमत पर कुछ नहीं चाहा , इसका भोक्ता भी मैं हूं और गवाह भी मैं हूं। जो किसी से नहीं डरता वह अपनी अंतरात्मा से डरता है, डर मुझे भी लगता है, परंतु अपनी अंतरात्मा से। अंतरात्मा मूल्य-बोझिल शब्द है, स्वविवेक उससे अच्छा तो है, परंतु इसकी व्याख्या में इतनी छूट है, कि एक अपराधी भी अपनी परिस्थितियों में अपने विवेक का तर्क दे सकता है, और जो कुछ कर चुका है उसे सही ठहरा सकता है।

एक विचारक के रूप में सभी संकीर्णताओं से बचने की कोशिश के बाद भी मैं इस बात का कायल हूं कि हमें सत्ता लोलुप लोगों की विचार दृष्टि से बचते हुए एक मार्गदर्शक विचारक की भूमिका का निर्वाह करना चाहिए, जिससे उनमें से जो अपने को अधिक नैतिक और बहुमान्य सिद्ध करना चाहें वे हमारे सुझाए हुए रास्ते के निकट रह सकें।

हाल के दिनों में मुझे अपने आप से लगातार संघर्ष करना पड़ा है । पाला बदलने वाले, या किन्हीं पालों से जुड़े माध्यमों के कारण हम जानते हैं, कौन किसके साथ है, पर यह नहीं जान पाते कि सच्चाई क्या है।

मैं सत्ता पाने या सत्ता को बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील किसी दल को निरपराध नहीं कह सकता। वह जो तरीके अपनाते हैं उसके परिणाम पर हम अवश्य ध्यान दे सकते हैं। नागरिकता पहचान नियम एक चुनौती भरा प्रश्न है। भारत में रहने वाला कोई भी मुसलमान अपने नागरिक अधिकार से वंचित हो जाए यह दुर्भाग्यपूर्ण है। परंतु इसे घुसपैठियों का दरवाजा बना दिया जाए, यह कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं है।

इसके बहाने जिन गैर मुसलमानों को विभाजन के समय आश्वस्त किया गया था कि वे वहीं रहे और अपेक्षा की गई थी वे अपने विश्वास, आस्था और सम्मान के साथ जीने पाएँगे,और यदि ऐसा न हुआ तो उन्हें भारत में आने की छूट दी और जीने की व्यवस्था की जाएगी, उनको तकनीकी आधार पर उस सुविधा से वंचित करने का अर्थ क्या होता है?उन्हें भेड़ियों को सुपुर्द कर देना।

नागरिकता संशोधन बिल के ऐक्ट बन जाने से पहले संसद के विचार विमर्श में मुझे लगा था, इसमें गलती की जा रही है। जब बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के धर्म के आधार पर प्रताडित जनों को आश्रय देने का प्रश्न है तो हिंदू, सिख, ईसाई, जैन , जैसी लंबी कवायद की जरूरत न थी। इसे जानते हुए भी यह जानबूझकर लाया गया है, कि कहीं पाकिस्तान और बांग्लादेश के धर्म के आधार पर प्रताड़ित उन मुसलमानों को भी आने का अधिकार न मिल जाए, जिन्होंने मतदान से पाकिस्तान का चुनाव किया था।

भारत कितनी आबादी को संभाल सकता है, चिंता उनके मन में रही होगी, और इसे देखते हुए मुझे यह बिल जो कानून में बदल गया सही लगता है। संविधान के निर्माताओं को इस बात की कल्पना भी नहीं थी कि इन देशों में रहने वालों के साथ ऐसा व्यवहार किया जाएगा। कल्पना से परे होने वाली परिणतियों का ध्यान किए बिना बने संविधान को यथार्थ की कसौटी पर बदला जा सकता है। जिस संविधान में शतक पूरा करने वाले संशोधन किए जा चुके हैं उनमें अपरिहार्य स्थितियों में बदलाव जरूरी लगे तो किया जा सकता है ।

मुझे नागरिक पहचान पत्र वाले विधान पर, इस बात की चिंता है, कि किसी भारतीय मुसलमान को नागरिकता खोनी न पड़े। इसलिए इस पर अचूक तरीका अपनाया जाना चाहिए। परंतु आज की तिथि में जिस तरह का आंदोलन चल रहा है उसमें इस बात को बढ़ावा दिया जा रहा है, कि हमारे आश्वासनों के अनुसार जो भारत में शरण लेना चाहते हैं उन्हें शरण मत दो, और जो नाजायज तरीके से घुसपैठ कर चुके हैं या करने वाले हैं, उनकी पहचान मत होने दो। यह सिलसिला जारी रहे। यह सिलसिला जारी रहे।

आत्महत्या का यह भी एक तरीका है मैं अंतिम तरीके से बचना चाहता हूं। जानना चाहता हूं, आत्महत्या के इन तीनों रूपों में सबसे गर्हित कौन सा है? कोई मेरी मदद करेगा?

Post – 2020-01-10

मैं अभी एक घंटा पहले हैरानी प्रकट कर रहा था कि जेएनयू से वीसी को अब तक हटाया क्यों न गया। छात्रों पर हमला मुझे उसकी रजामंदी से कराया गया लगता था। अब इस कहानी को पढ़ कर लगा इतने सारे सूचना मध्यमों के बादजूद हम कुछ जानते ही नहीं, अफवाहों का बाजार सूचना माध्यमों में भी गर्म है।

Post – 2020-01-08

रोते हुए आए थे, अब रो भी नहीं पाते
इस बीच जो गुजरी है वह जिंदगी अपनी थी।।

Post – 2020-01-08

अपनों को बुरा कहना, कुछ खूब है, यह माना।
अपने को मिटा देना अगला ही कदम होगा ।।

Post – 2020-01-08

मुझे भारतीय मुसलमान अभी मिली है। पढ़ते ह्एु मजा आ रहा है। यह ‘अवश्य पठनीय पुस्तक लगती है। यदि पढ़ें तो प्रतिक्रिया चैट के माध्यम ते अवश्य दें। सस्ता साहित्य मंडल को धन्यवाद।

Post – 2020-01-06

जे.एन.यू. में तांडवनृत्य जघन्य है। पुलिस की प्रतिष्ठा अपराधियों को खोज निकलने से ही बच सकती है।

Post – 2020-01-05

जो पहाड़ बन के तने रहे, उन्हें हँस के हमने उड़ा दिया।
ये न पूछना वे कहाँ गए, हुए खाक? खाक का क्या हुआ ??

Post – 2020-01-05

यूरोप की बौखलाहट
जाली भाषा, जाली इतिहास, जाली भाषाशास्त्र

हमें मार्क्सवादी इतिहासकारों से यह शिकायत नहीं है कि उन्होंने इतिहास को समझने में गलती की। गलती तो वर्तमान परिघटनाओं को समझने में भी सभी से होती है, इसलिए हमारी स्वतंत्रता में गलती करने की स्वतंत्रता भी आती है, जिससे गुलाम वंचित कर दिए जाते हैं। शिकायत यह है कि उन्होंने मार्क्सवादी इतिहास न लिखकर अप्रामाणिक, भाववादी, हिन्दूद्रोही और सांप्रदायिक इतिहास लिखा और सांप्रदायिकता को कुपरिभाषित करते हुए बताया कि अल्पसंख्यक की सांप्रदायिकता सांप्रदायिकता नहीं होती, सेकुलरिज्म होती है और इस तरह एक ओर मुस्लिम अपतोषवाद (जिसमें कट्टरपंथियों की पश्चगामी मांगें मानते हुए समाज को पीछे ले जाया जाता है) को बढ़वा दिया गया, दूसरी ओर मृतप्राय हिंदू संप्रदायवाद को संजीवनी प्रदान की गई।
परन्तु हम उस जालसाजी की बात करना चाहते थे जिससे यूरोपीय विद्वानों ने एक नया पुराण अपने घाव भरने के लिए गढ़ कर तैयार किया, उसे हमें इतिहास के नाम से पढ़ाते रहे और जिसे हमारे वे अध्येता भी सही मानते रहे, जिन्हें तथाकथित मार्क्सवादी राष्ट्रवादी कह कर खारिज करते रहे, जब कि यह खेल इतना खुला हुआ था कि तथ्यों को बिना किसी व्याख्या के तरतीब से रख दिया जाय तो सचाई उजागर हो जाय। मैं अपनी ज्ञानसीमा में वही करना चाहता हूँ।
जोंस ने तो अपने प्रस्ताव में ब्राह्मणों के ईरान से भारत चले आने, तातारों के अपने क्षेत्र में और यूनानियों के ग्रीस पहुंचने की बात की थी, उसमें किसी आक्रमण की कल्पना न थी, न ही हेमू की संतानों के अतिरिक्त किसी अन्य के द्वारा आबाद मान सकते थे।
हम इन दिनों अपनी पांडुलिपि का संपादन कर रहे हैं, इसलिए अपने समय के सबसे प्रख्यात भाषाचिन्तक के विचारों को यह समझने के लिए बिना अनुवाद के लिए दे रहे हैं कि इस कल्पना से कि वे भारतीयों की संतान हैं, या भारतीय उन पर कभी हावी रहे हैं, किस तरह की खलबली मची थी।

Dugald Stewart, Philosophy of the Human Mind
If these facts be duly weighed, the conjecture of Meiriners will not perhaps appear extravagant, that it was in consequence of this intercourse between Greece and India, arising from Alexander’s conquest, that the Brahmins were led to invent their sacred langauge.* “For unless” he observes, “they had chosen to adopt at once a foreign tongue” against which obvious and insurmountable objections must have presented themselves, “it was necessary for them to invent a new language, by means of which they might express their newly acquired ideas, and, at the same time, conceal from other Indian castes their philosophical doctrines, when they were commonly at variance with commonly received opinions.” I cannot, however, agree with Meiners, in thinking that this task would be so arduous(77) as to require the labour of many successive generations, for with Greek language before them as a model, and their own language as the principal raw material, where would be the difficulty of manufacturing a different idiom, borrowing from the Greek the same, or nearly the same system in inflexions of the nouns and conjugation of the verbs, and thus distinguishing, by new terminations and a new syntax, their native dialect? 78
*Meiriners is not the only writer who has suspected the Sanscrit to be an invention of the Indian priesthood. Colonel Dow, in his “Dissertation concerning the Custom, Manners, Language, Religion and Philosophy of the Hidnoos” is the first Englishman who has expressed this opinion with confidence. “Whether the Shanscrita”, He observes, “was in any period of antiquity the vulgar language of Hidostan, or was invented by the Brahmans to be mysterious repository for their religion and philosophy, is difficult to determine. …In regularity of etymology and grammatical order, it far exceeds the Arabic. It, in short, bears evident marks that it has been fixed on rational principles, by a body od learned men, who studied regularity, harmony, and a wonderful simplicity and enrgy of expression.
“Though the Shanscrita is amazingly copious, a very small grammar and vocabulary serve to illustrate the principle of the whole. …

Mr Colebrooke is equally decisive, and still precise in his statement: “The Sanscrit evidently draws its origin from a primeval tongue, which was gradually refined in various climates, and became Sanscrit in India, Pahlavi in Persia, and Greek on the shores of Mediterranean …It is now become almost a dead language; but there seems no reason for doubting that it was once universally spoken in India.” (On the Sanscrit and Prakrit languages, Asiatic Researches , VII, 201
Certainly if it bore any resemblance to the progress by which Latin became Italian in Italy, Spanish in Spain, and French in France, the effect of the Eastern world exhibits a most wonderful contrast, to what has taken place in modern Europe.

If such a scholar as Dr Bantley or Dr. Parre should make a serious object of studying Sanscrit, he should be able, I think, without much difficulty to ascertain, from internal evidence, which of the two languages was the primitive. And which the derivative dialect. … It seems to be in this way alone that these points can be settled beyond controversy. 88
It is by means of the most overwhelming and unsparing foreign conquests that languages have been generally changed and destroyed; and no causes of this sort have operated in the countries where Sanscrit is alleged to have once prevailed. ….89
“It is improbable hypothesis, that the Brahmins entered India as conquerors, bringing with them their language, religion and civil institutions. “ Bantley, cited by p. 90
…Sanscrit was a language, formed by the Brahmins, and always confined to their order; and that the Greek tongue not only served as a model for its syntax, and system of inflections, but supplied the materials of its vocabulary, on abstract and scientific subjects….90

The most formidable objection, however, is suggested by this consideration that Sanscrit is represented by some as bearing much more resemblance to the Latin than the Greek. Mr. Halhed words are these, “Let me here cursorily observe that as the Latin is an earlier dialect than the Greek, as we now have it, so it bears greater resemblance to the Sanscrit , both in words, inflections and terminations.”(Grammar of the Bengali Language, p. 137
“I began with translating it verbally into Latin, which bears so great resemblance to the Sanscit, that it is more convenient than any other language for a scrupulous literary version. I then turned it into English.” Jones.
The long commercial intercourse of Romans with India, both by sea and land, accounts for any affinity which may subsist between Sanscrit and Latin.
It is sufficient for my argument, if it be granted, that a learned, artful, and aspiring, priesthood existed (at least in embryo), at the time of Alexander’s conquest.