Post – 2020-04-07

#शब्दवेध(3)
#भाषा_और_इतिहास

भाषा के पाँव नहीं होते, वह कहीं स्वयं जा नहीं सकती। जब आर्यों की जाति के भारत पर हमले की, या आर्य भाषाभाषियों के किसी रूप में भारत में प्रवेश की मान्यता का खंडन सर्वमान्य हो गया तो कुछ लोगों ने यह कहना आरंभ किया कि लोग तो नहीं आए पर भाषा आई थी।

बोलने वालों के हिले डुले बिना भाषा कैसे आ गई? हुआ यह होगा कि भाषा ईरान तक फैल गई होगी और पूर्वी ईरान के पड़ोस के लोगों के सम्पर्क में आने वाले भारतीयों में पहुँची होगी और फिर भारत में फैल गई होगी। यह विचत्र सूझ रोमिला जी की है। आधार ? आधार यह कि चलो बाहर से किसी बड़े जत्थे के किसी रूप में आने के प्रमाण नहीं, पर भाषा के भारत से यूरोप तक व्याप्त होने के तो प्रमाण हैं। रहा सवाल आने का तो इसका एक ही तरीका उनकी समझ में आया जो ऊपर है, जाने की संभावना कल्पनातीत थी।

भाषा के विषय में अगली सचाई यह कि यह संक्रामक बीमारी भी नहीं है कि अपने संपर्क में आने वालों को पकड़ ले। यदि यह संभव होता तो हजारों साल से पड़ोस की बोलियों की सीमा रेखाएँ ही बदल गई होतीं। ग्रीक और लातिन ने अपनी दूरियाँ मिटा ली होतीं। पर इस ओर उनका ध्यान नहीं गया, क्योंकि वह मानती हैं कि भाषा विशेषज्ञता के क्षेत्र में आती है और उस पर विशेषज्ञों ने अभूतपूर्व काम किया है। उनकी मान्यता का खंडन करने के लिए उतनी ही गहन विशेषज्ञता होनी चाहिए। [[मेरी पुस्तक (दि वेदिक हड़प्पन्स) के दो माह के अध्ययन के बाद उन्हें एक ही कमी नजर आई थी कि मैंने भाषाविज्ञान जैसे विशेषज्ञता के क्षेत्र में दखल क्यों दिया। विरोधियों की प्रशंसा की भाषा यही होती है। इसका फलितार्थ यह कि अपनी जानकारी के क्षेत्र में उन्हें कोई कमी न मिली। ठीक ऐसी ही संस्तुति आर एस शर्मा से मिली थी। हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य, (1987, प्रथम खंड) पर उनकी राय जाननी चाही तो उन्होंने कहा था, ‘और सब तो ठीक है पर तुमने मोहनजोदड़ो लिखा है, आज कल मान्यता यह है कि स्थान नाम का जो उच्चारण स्थानीय लोग करते हों वही प्रयोग में आना चाहिए और इसलिए इसे मोहेंजोदड़ो होना चाहिए। अर्थात् प्राचीन इतिहास के ‘विश्रुत’ जिन विद्वानों की मान्यताओं का मैंने खंडन किया था उनको तलाशे भी दूसरी कोई कमी न मिल सकी। मैंने शर्मा जी आश्वासन दिया था कि अगले संस्करण में यह भूल सुधार दी जाएगी, क्योंकि उनके सम्मुख यह याद दिलाने की धृष्टता नहीं कर सकता था कि जिस दिल्ली में हम बात कर रहे हैं उसे ही दिल्ली, देहली और देल्ही लिखा जाता है। नाम का लक्ष्य नामधेय का अभिज्ञान कराना होता है और यदि यह प्रयोजन नाम ही नहीं उपनाम से भी सिद्ध हो जाता है तो वह सही है अन्यथा शुद्धता के चक्कर में पड़े तो कल को कोई इससे भी शुद्ध उच्चारण के साथ उपस्थित हो कर आपके सुझाव में भी सुधार कर सकता है। ]]

भाषा में जो भी परिवर्तन होते हैं वे सामाजिक संरचना में परिवर्तनों के परिणाम होते हैं। मनुष्य अपनी भाषा का प्रसार करने के लिए कहीं नहीं जाता। वह भोजन की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है। सामाजिक संचलन आर्थिक गतिविधियों के परिणाम हैं। इस तरह भाषा-शास्त्र का समाज-शास्त्र होता है और समाजशास्त्र का अर्थ-शास्त्र। भाषावैज्ञानिक अध्ययन का यह एकमात्र वैज्ञानिक आधार है और जो अध्येता किसी भी कारण से इसका ज्ञान नहीं रखते या ज्ञान होते हुए भी इसका ध्यान नहीं रखते, वे ही आक्रमण और घुसपैठ करा कर अपनी मनमानी करने को बाध्य होते हैं। सच यह है कि वे इस बात का भी ध्यान नहीं रखते कि युद्ध और आक्रमण का भी आर्थिक आधार होता है। वे इसे न समझने के कारण कुछ कबीलों को प्रकृति से ही युद्धोन्मादी, क्रूर और रक्त-पिपासु बना देते हैं। इसी तरह यूरोपीय विद्वानों ने तैयार की थी रक्तपिपासु, दुर्दांत आर्यों की जाति जिसकी क्रूरता की कहानियों के पीछे वे अपनी क्रूरता को इंसानियत की पराकाष्ठा सिद्ध कर सकें। सचाई इससे उलट यह है कि युद्ध, रक्तपिपासा और क्रूरता का भी आर्थिक और सामाजिक आधार होता है जो प्रकृति की कृपणता जन्य दरिद्रता में अपने को जीवित रखने की विवशता से भी तैयार हो सकता है, और सब से सब कुछ छीन कर अपने पास रखने के लोभ से भी पैदा हो सकता है।

कोलिन रेनफ्रू ने (लैंग्वेज ऐंड आर्कियालॉजी,1987) में ही पहले की सभी मान्यताओं को खारिज करके उस क्षेत्र को जिसे भारत में कृषि और स्थायी आवास के स्थलों की पहचान से पहले कृषि का उद्भव क्षेत्र माना जाता था, वहाँ से बड़े पैमाने पर जन संचलन के अभाव में भी कृषि विद्या के प्रसार के साथ( हम कहें कि आर्थिक सक्रियता के चलते) भाषा के प्रसार की बात की थी। ये ऊहापोह हड़प्पा सभ्यता के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलने, मैकाय (फर्दर एक्सकैवेशन्स ऐट मोहेंजाड़ो, खंड 2 )में आर्य भाषा के समूचे प्रसार क्षेत्र में हड़प्पा सभ्यता के सांस्कृतिक उपादानों के प्रसार की पुष्टि करने के बाद में हो रहे थे। मैलोरी ने भी (1989, इन सर्च ऑफ इंडो-यूरोपयन : लैंग्वेज, आर्किऑलोजी ऐंड मिथ) में रेनफ्रू का उपहास करने और यह प्रतिपादित करने के बाद भी कि लघु एशिया पर्यंत की भाषा भारतीय आर्यभाषा थी, सीधे यह स्वीकार नहीं किया कि भाषा का प्रसार यदि आर्थिक गतिविधियों के चलते हुआ था तो यह तथाकथित हड़प्पा सभ्यता की गतिविधियों के कारण और भारतीय भूभाग से हुआ था।

यहाँ इस इतिहास को याद करने का कारण यह कि कृषि विद्या भी आबादी बढ़ने के साथ नई कृषि-भूमि की तलाश करते हुए किसी भूभाग में फैलने और बसने वालों के साथ फैलती है और उसी के साथ भाषा फैलती है और इसी प्रक्रिया से मध्य उत्तरी भोजपुरी क्षेत्र के पहाडी भाग में पहली बार स्थायी कृषि और आवास में सफल किसानों ने नीचे उतर कर क्रमशः पूरी गंगाघाटी को आबाद किया था और इसी तरह आगे वढ़ते हुए नए कार्यक्षेत्र ( कुरुक्षेत्र) और धर्मक्षेत्र (कृषिकर्म और उसके लिए भूमि का समतल, निष्कंटक बनाना ही पहले का यज्ञ और धर्म था – यज्ञेन यज्ञं अयजन्त देवा, तानि धर्माणि प्रथमानि आसन्) अर्थात् आपया, दृषद्वती और सरस्वती का विस्तृत क्षेत्र पा कर इसे सर्वोपरि क्षेत्र मानते हुए अपना अधिकार जमाया। इसी की याद गीता के धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे में बची रह गई है।

यह यात्रा बहुत मंद गति से, कई हजार साल के दौरान, अनेक बोली क्षेत्रों से गुजरते हुए, स्थानीय जनों में नई सोच रखने वाली आबादी को खेतिहर बनाते और अपनी समाज रचना में आत्मसात करते हुए और अपनी व्यावहारिक भाषा को नए रुप में ढालते हुए, उनकी विशिष्ट ध्वनियों और शब्दभंडार को ग्रहण करते हुए संपन्न हुई थी, परन्तु इसे सबसे लंबी अवधि तक कौरवी क्षेत्र में पूरी सक्रियता दिखाने और ग्राम्य चरण से नागर चरण तक का विकास करने का अवसर मिला, इसलिए इसका पूर्ण संस्कार यहाँ हुआ और वैदिक से लेकर संस्कृत तक के मानक रूप यहीं तय किए गए। इसी के वैदिक चरण की भाषा का व्यवहार देसी और विदेशी व्यापारिक गतिविधियों से जुड़े लोग संपर्क भाषा के रूप में करते थे पर यह ऋग्वेद की साहित्यिक भाषा से उतनी ही भिन्न थी जितनी बोलचाल की भाषाएँ साहित्यिक भाषाओं से होती हैं।

Post – 2020-04-06

#शब्द-वेध(2)
बोली वचनं प्रमाणम्

मुझे पता है मैं जिस विषय पर लिख रहा हूं उसकी जानकारी रखने वाले जिन पुस्तकों को पढ़कर ज्ञानी बनते हैं, उन पर मैं भरोसा नहीं करता, परंतु उनकी सहायता लेता हूं। मैं भाषा की जिन समस्याओं को हल करना चाहता हूं, उनके विषय में जो जानकारी किताबों में उपलब्ध है वह सतही है। वह ज्ञान आरंभ से गलत इरादों से, गलत मान्यताओं से, अलग तरीके अपनाकर, उन तरीकों को वैध बनाने के लिए ज्ञान, भाषा विज्ञान और कोश-निर्माण के जो भी काम हुए, वे उल्टे हुए, यह बात उन विद्वानों को भी पता थी, जो उन गलतियों पर पर्दा डालने के लिए, विज्ञान के नाम पर, सिद्धांत गढ़ रहे थे और रही सही कमी संस्कृत-धातुओं से प्रेरित हो कर भारोपीय आद्य-रूपों की कल्पना करते हुए कोश निर्माण कर रहे थे और उनको प्रमाण मानकर नई बेवकूफियां कर रहे थे। इसलिए विद्वानों से मेरा विरोध मुझे आश्वस्त करता है कि जिसे वे गलत मानते थे परंतु गलत सिद्ध करने का साहस नहीं जुटा पाते थे, उसे गलत सिद्ध करने का तरीका क्या हो सकता है इसकी ओर हमने ध्यान दिया है। हमारे लिए विद्वानों और कोशग्रंथों का कार्यसाधक उपयोग तो है पर निर्णायक महत्त्व नहीं है। उनकी सबसे बड़ी उपयोगिता यह है कि जिन आँकड़ों का संकलन हमारे बस की बात नहीं, वे, वहां, उनके अथक श्रम के कारण, हमें एकत्र मिल जाते हैं।

सोचने का उनका तरीका वैज्ञानिक नहीं था, इसे गलत सिरे से तुलनात्मक भाषाविज्ञान का अध्ययन करने वालों ने आरंभ से अंत तक स्वीकार किया। विलियम जोंस ने इस तर्क का सहारा लेते हुए कि संस्कृत भारत के किसी क्षेत्र की भाषा नहीं है, इसे केवल ब्राह्मण बोलते हैं, इसलिए ब्राह्मण अपनी भाषा लिए दिए किसी ऐसे क्षेत्र से आए हो सकते हैं जहाँ यह भाषा बोली जाती थी। इस क्षेत्र का निर्धारण उन्होंने बोली के आधार पर नहीं केन्द्रीयता के आधार पर किया। वहाँ वह बोली तो मिली नहीं, जो भाषा मिली उसका संस्कृत से वही संबंध था जो भारत की प्राकृतों का। सार रूप में वह मानते रहे कि इतनी उन्नत भाषा का आरंभ किसी बोली से होना चाहिए, उसी का क्रमिक विकास एक शिष्ट (शिक्षितों की) भाषा में हो सकता है और अपनी इस तलाश में वह नोआ की संतानों की भाषा पर पहुँच कर हाथ खड़े कर दिए कि यहाँ वह बोली मिल ही न सकी।

कुछ दूसरे उस बोली की तलाश यूरोप में करने के लिए प्रयत्नशील भी रहे, इलीरियन (पश्चिमी फ्रीजियन) से इतालवी की कुछ समानताएँ भी लक्ष्य कीं, इसे चलाने का प्रयत्न भी किया पर यह लंगड़ा सिद्ध हुआ और वे इस नतीजे पर पहुँचे कि रोामन्स भाषाओं की जननी तो वह निश्चित रूप से है पर भारोपीय की जननी इसे सिद्ध नहीं किया जा सकता, इसलिए अपनी पुरानी जिद पर कायम रहते हुए मूल बोली के क्षेत्र को अज्ञात मान कर लघु एशिया से हित्ती के(हत्तूसा, बोगाजकुई से प्राप्त) पुरातात्विक अभिलेखों में वैदिक समाज, भाषा और विश्वास की निकटता को लक्ष्य करके इसे वैदिक से भी पुरानी सिद्ध करने को तत्पर रहे। हमें उनके नस्लवादी पाठ पर बहस नहीं करनी, याद इस बात की दिलानी है कि वहाँ भी वैदिक साहित्य वैदिक भाषा से पीछे नहीं जा सके, बोली तक नहीं पहुंच सके, क्योंकि वह बोली भारत से बाहर कहीं थी नहीं और भारत में उसकी खोज करने के लिए तैयार नहीं थे।

इसलिए जहाँ हमें पंडितों द्वारा तैयार किए गए सिद्धांत, विज्ञान, और कोश ग्रंथों पर पूरा भरोसा नहीं है, वहीं जो व्याख्यायें हम देते हैं, वे तर्कसंगति और हेतुवाद पर आधारित है, पर अनेक स्थितियों में एक ही नाद कई स्रोतों से उत्पन्न हो सकता है और उसका अनुनाद उन उन स्रोतों, क्रियाओं, गुणों और उस नाद की आवृत्ति (क्रिया विशेषण) के लिए हो सकती है। ऐसी स्थिति में विचार प्रवाह में इनमें विभेद करने में अपनी सतर्कता के बाद भी हमसे चूक हो सकती है, परन्तु अब समस्या शास्त्रीय न रह कर मोटी समझ की, बोलचाल के प्रयोगों की हो जाती है, इसलिए इसमें अधिकारी बदल जाते हैं। भाषा वैज्ञानिक अवैज्ञानिक सिद्ध होते हैं, तो कम पढ़े-लिखे लोग, अशिक्षित लोग और उनमें भी महिलाएं अधिक भरोसे के हो जाते हैं। कहें, अल्पशिक्षित या अशिक्षित व्यक्ति सिखाए हुए ज्ञान के तुलनात्मक अभाव में बोली के अविकृत रूप और व्यंजना से अधिक परिचित होता है। कुछ प्राचीन प्रयोग जो उसी समाज के उसी स्तर के पुरुषों की बोली से उठ चुके हैं वे महिलाओं की बोली में, लोकगीतों और संस्कार गीतों में, मुहावरों/लोकोक्तियों में, लोरियों और क्रीड़ा में बने रहते हैं। इसलिए किताबी भाषाविज्ञानी जहाँ इस संवाद में कोई योगदान नहीं कर सकते, वहाँ बोलियों की समझ रखने वाले अधिक उपयोगी हो जाते हैं। वे ऐसे समीकरणों पर जिनका अधिक स्वाभाविक वैकल्पिक रूप उनकी जानकारी में हो, सुझाव दे कर या यह जता कर ही कि यहाँ अधिक खींचतान से काम लिया गया है, या यह गले नहीं उतरता, उस पर पुनर्विचार में सहायक हो सकते हैं। परन्तु संस्कृत के आचार्यों द्वारा तैयार किए गए धातुपाठ की याद दिलाना हमारे काम का नहीं, यद्यपि पहुँचते हम भी धातुरूपों – वे मूल नाद जिनमें भाषा के विविध पदों का बीजरूप उपलब्ध हो- पर ही हैं।

संस्कृत से बचते हुए चलना इसलिए भी जरूरी है कि पाश्चात्य भटकाव संस्कृत को ही प्रमाण मानने के कारण आरंभ हुए, जिनसे बाहर निकलने का रास्ता भाषाशास्त्री आज तक नहीं तलाश सके। वह बोली जिसका क्रमिक विकास संस्कृत में हुआ, वह अन्यत्र न पाई जा सकती है न खींचतान कर गढ़ी जा सकती है। जो दबंगई संस्कृत भाषा के विषय में दिखाते हुए यूरोपीय वर्चस्व की स्थापना की गई वह उस बोली के साथ, उसे बोलने वालों के साथ नहीं की जा सकती थी।

Post – 2020-04-05

केरल सरकार के लिए सचमुच गर्व की बात है कि कोरोना से सबसे पहले संक्रमित होने, आबादी के अनुपात में संक्रमण के सबसे अधिक मामले होने पर भी मृत्यु दर सबसे कम है। दूसरों को, विशेषतः दिल्ली को जिसमें हर बात उल्टी है मानवीय सरोकार का पाठ उससे सीखना चाहिए।

Post – 2020-04-04

शब्द-वेध

मेरे सामने भाषा पर विचार की दो चुनौतियाँ हैं। एक भाषा की मूल बोली के संस्कृत (भारोपीय) तक की विकास रेखा की पड़ताल है और दूसरी जो इस पर प्रकाश डालने में भी सहायक है, भाषा की, या कम से कम उस भाषा की उत्पत्ति की समस्या, जिससे तथाकथित भारोपीय के बहुनिष्ठ या सर्वनिष्ठ शब्दों की उत्पत्ति का भौगोलिक और भाषाई परिवेश समझ में आता है। पिछले 50 वर्षों के ऊहापोह के बाद दोनों के विषय में मेरे स्पष्ट विचार हैं। भाषा की उत्पत्ति नैसर्गिक ध्वनियों की नकल से हुई, और वह बोली जिसका विकास भारोपीय भाषाओं में हुआ उसका आदिम रूप भोजपुरी क्षेत्र में प्रचलित था। प्रश्न समस्या को सुलझाने का नहीं है। यह काम मैं पहले इसी पन्ने पर कर चुका हूं। चुनौती साक्ष्यों की यथेष्टता का और उनके औचित्य का है ।

[शब्द]
सबसे पहले हम शब्द को ही लें। यदि यह शब्द आद्य भोजपुरी (आद्य भारोपीय) में विद्यमान था तो उसमें दंत्य ध्वनि तो थी, तालव्य का विकास कुछ बाद में हुआ, यह यूरोपीय नजर से समस्या को देखने वालों का विचार है। इसमें आधी सचाई है और आधा फरेब। सचाई यह कि मूल बोली में तालव्य ध्वनि नहीं थी, फरेब यह कि उच्चारण स्थान बदलने से दन्त्य का विकास तालव्य में हुआ।

यह गलती भाषा विज्ञान में नस्लवादी सोच के प्रभाव का परिणाम है जिसमें नस्ल की शुद्धता के लिए किसी दूसरे समुदाय से मेलजोल की संभावना न थी। नस्लवादी सोच हमारे देश में भी रही है, अन्यथा वर्णसंकरता की भर्त्सना न की जाती। पर हमारा सामाजिक यथार्थ इसका खंडन करता है। उसमें अपने गोत्र में विवाह संबंध को वर्जित माना जाता है, यहां तक कि अनुलोम विवाह की अनुमति रही है।

वर्णसंकरता की अवधारणा मातृप्रधान समाज के पुरुषप्रधान समाज में बदलने का परिणाम है और यही विलोम विवाह के निषेध का भी कारण है। हम इसके इतिहास में नहीं जाएगे। यह उल्लेख केवल यह बताने के लिए कि हमारी भाषा से लेकर समाज रचना तक से सामाजिक अंतर्मिलन की पुष्टि होती है और इसलिए हम इस विषय में अधिक संतुलित दृष्टिकोण अपना सकते हैं कि जिस समुदाय ने आद्य भारोपीय बोली जाती थी उसमें तालव्य ‘श’ नहीं था, केवल दंत्य ‘स’ था। ऐसी दशा में मूल शब्द में ‘श’ नहीं ‘स’ रहा होगा।

भोजपुरी की एक अन्य विशेषता स्वर प्रधानता की है इसलिए इसमें एक ही ध्वनि का द्वित्त तो हो सकता है, परंतु असवर्ण-संयोग इसकी प्रकृति के अनुरूप नहीं है। इस सीमा के कारण मूल उच्चारण सबद रहा होगा ऐसा लग सकता है परन्तु हमें सही मूल उच्चारण के लिए उस मूल ध्वनि को समझना होगा जिससे इसका जन्म हुआ।

यह ध्वनि पैदा कैसे हुई? वह आशय इससे कैसे जुड़ा जिसमें इसका प्रयोग होता है? ‘शब्द’ का अर्थ क्या है? जिस मूल ध्वनि से यह शब्द बना उसका क्या दूसरे किसी आशय में भी प्रयोग हुआ हो सकता है? उनकी व्याप्ति कहां तक है? ऐसे अनेक प्रश्न है जिनका उत्तर दिए बिना हम अपनी मूल स्थापना का औचित्य सिद्ध नहीं कर सकते।

मूल ध्वनि होठों के झटके के साथ अलग होने से अर्थात होठ चलाने से उत्पन्न ध्वनि ‘सप्’ है। इसका प्रयोग उन सभी क्रियाओं और कार्यों और विशेषताओं के लिए हो सकता था, जिनमें ओठ का चलना अनिवार्य है। यहां हम पाते हैं कि मूल रूप सपद होना चाहिए, जिसमें ‘द’ प्रत्य’य है।

इस प्रत्यय के निकटवर्ती ध्वनि के प्रभाव से ‘त’, ‘द’ और ‘थ’ तीन रूप हो जाते हैं। इस नियम से सपद का भी पूर्वरूप ‘सपत’ होना चाहिए। यह तकार सप् के शप् हो जाने के बाद ही बना रहा, और इसे हम शप् और शाप (शपति/ शपते) में पाते हैं।

इससे रोचक है अघोष ध्वनियों का सानिध्य, जो शप-थ में देखने में आता है। जिसे संस्कृत के विद्वान वर्ण-साम्य (सावर्ण्य) कहते हैं, वह अघोष का अघोष और सघोष का सघोष से साम्य हुआ। सप के शप बनने तक कोई समस्या नहीं, पर प के घोष ‘ब’ होने पर ‘त’ भी वर्णसाम्य के नियम के घोष ‘ब’ हो जाता है। बाँगड़ू प्रभाव से ‘ब’ का स्वर लोप हो जाता है और इस तरह मूल ‘सपत’ संस्कृत का शब्द बनता है।

हम जिस नतीजे पर पहुँचते हैं वह यह कि (1) सबद शब्द का अपभंश नहीं, शब्द सपत का संस्करण है।
2. सबद संस्कृत शब्द के प्रभाव में सपत का नवीकरण हो सकता है, परंतु अर्थभेद के लिए आदिम बोली में सबद रूप अस्तित्व में आ चुका था।
3. सामान्य कथन के अतिरिक्त क्रोध या भर्त्सना और निश्चयात्मक कथन सपत/साप > शपते/शाप और ‘शपथ’ की व्युत्पत्ति भी इसी मूल से है।

परंतु ओठ की सक्रियता केवल बोलने के ही जुड़ी नहीं है। खाते पीते समय भी होठ से ध्वनि निकलती है और भो- सपोड़ना, त. साप्पाडु, अं. सपर/ सूप, और सं. सूप और सूपकार का मूल (धातु रूप) सप् ही हुआ।

Post – 2020-04-03

परिशिष्ट
आप किसके साथ खड़े हैं

इसका उत्तर कई तरह से मिल सकता है। यदि राजनीतिक लगाव रखते हैं तो आप किसी दल का नाम ले सकते हैं। यदि सामाजिक चिंता अधिक गहरी है तो आप कह सकते हैं हम सामाजिक अन्याय का उन्मूलन करने वालों के साथ हैं। आर्थिक विपन्नता से ग्रस्त हैं और सामाजिक स्थिति ऐसी है जिसमें आपको सामाजिक ‘विषमता के निवारण’ के नाम पर जो रियायतें मिलती हैं ,उनमें से भी कोई नहीं मिलतींं, तो आप संपन्न या इस व्यवस्था का का लाभ उठाकर मालामाल हो चुके लोगों की दी जाने वाली रियायतों की ओर उँगली उठाते हुए इसे ही अन्याय और अवसर की असमानता सिद्ध करते हुए इसके विरोध में खड़े हो सकते हैं। कुछ ऐसे लोग जो रोशनी में आपके विरोध में खड़े दिखाई दे सकते हैं धुँधलके में आपके साथ खड़े हो सकते हैं। कई बार तो आप अपने विरुद्ध, अपनी आदत और बीमारी के साथ, अपने देश और समाज के विरुद्ध और उन विदेशी ताकतों के साथ खड़े हो सकते हैं जो समाजवाद की घुट्टी पिला कर आपको अपने ही देश के खिलाफ अपने साम्राज्यवादी योजनाओं के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। आप किसी ऐसे चारे के रूप में पेश किए गए लुभावने खयाल के साथ खड़े दिखाई दे सकते हैं, जैसे आपको हैवान बना कर इनाम में झूठे स्वर्ग का भरोसा देने वाले पुराने मजहब, या धरती पर स्वर्ग उतारने का सपना दिखाने वाले और अपने व्यवहार में पूरी तरह विफल यहां तक कि त्रासदी के नए रूप सिद्ध होने वाले नए मजहब जो कहने को मजहब का विरोध करते हैं पर मजहबियों द्वारा भी इस्तेमाल कर लिए जाते हैं, जैसे भारतीय कम्युनिज्म या सेकुलरिज्म।

आप जहां भी खड़े हैं या खड़े होने की आदत डाल चुके हैं वह आपकी नजर में पूरी धरती पर सबसे सही मुकाम है और आप सबसे सही आदमी। पर आप अपनी समझ से सत्य के साथ खड़े हो सकते हैं और असत्य और पाखंड का समर्थन कर सकते हैं, और इस कड़वी सचाई से अनजान भी रह सकते हैं।

जिस मान्यता से आप वर्षों से जुड़े रहे हैं, या कहें जिसमें आपने अपने जीवन के इतने वर्षों की लागत लगाई हो, उसके विरुद्ध यदि ऐसे तर्क और प्रमाण मिलें, जो उसे गलत सिद्ध कर सकें, या जिन से उसके गलत सिद्ध होने का अंदेशा हो, तो उसे जानना ही नहीं चाहेंगे; जान गये तो मानने को तैयार नहीं होंगे।

जो भी हो, जब भी आप किसी के साथ खड़े होते हैं तो किसी के विरोध में खड़े होते हैं, विरोध में खड़े होते हैं तो जाने अनजाने किसी के साथ खड़े होते हैं। जब आप हिंदुत्व के विरुद्ध खड़े होते हैं तो आप मानवता के उन शत्रुओं के साथ खड़े होते हैं जिनमें से एक का सही खाका रसेल ने प्रस्तुत किया था। दूसरे का सही रूप उससे भी अधिक बीभत्स है इसे अब तक न जानते रहे हो तो मरकज और तबलीग की योजनाओं और कारनामों से जान चुके होंगे। इसके बाद भी, आदतन, हिंदुओं में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं मिलेगी जो आज भी बिना यह जाने कि हिंदुत्व क्या है, हिंदुत्व को कोसने और उनका बचाव करने के लिए खड़े हो जाएंगे। मुसलमानों में तो इसलिए भी खड़े हो जाएंगे कि उनकी असुरक्षा की भावना इन कारनामों के सामने आने से बढ़ जाएगी और वे इशारों में बताएंगे कि हिंदुत्ववादी उनका सामुदायिक चरित्र हनन कर रहे हैं। परन्तु यह नहीं बताएँगे कि इन गतिविधियों की जानकारी उन्हें पहले से थी, और इस पर चुप्पी लगाए रहे- कभी लिख कर या बोल कर या किसी कला-माध्यम से विरोध करने की जगह, उस समय भी चुप रहे जब बात बेबात काल्पनिक स्थितियाँ पैदा करके हिंदुत्व पर हल्ला बोल प्रदर्शन करते रहे। यदि उन्हें तबलीग का मौन समर्थक कहने वाले पैदा हो जाएँ तो उन्हें गलत सिद्ध करने का सही तर्क मेरे तलाशे भी न मिलेगा।

हिंदुत्व का नाम आते ही सारा ज्ञान, सारा पांडित्य, सारा तर्क कौशल हवा हो जाता है। पिछले 70 सालों में लगातार एक ही झूठ को बार-बार दोहराते हुए सामुदायिक सौहार्द के नाम पर इस घृणा का पोषण नाजी प्रचार तंत्र का इस्तेमाल करते हुए किया गया, और इसे फोबिया मिश्रित आतंक और घृणा का ऐसा जमा पहनाया गया कि अपने को उदार और मानवीय सिद्ध करने की कोशिश में हमारे समाज के महत्वाकांक्षी बुद्धिजीवी मानव द्रोही मजहबों के सेवादार बन कर इसे मिटाने के लिए प्रयत्न करते रहे।

मैंने अपना समापन लेख समग्र साक्ष्यों के साथ बहुत स्पष्ट रूप में यह बताते हुए कि हम हिंदुत्व का प्रयोग सनातन धर्म के लिए कर रहे हैं और सनातन धर्म मानवीय मूल्यों, बल्कि सत्ता के अविभाज्य नियमों का संकलन है, और मनुष्यता को यदि जीवित रहना है तो इसका पालन भी करना होगा। हिंदू समाज में हिंदुत्व विमुख लोग हैं, हिंदुत्व वंचित लोग भी हो सकते हैं, परंतु वह नहीं हैं, जो किसी भी जाति के हों, अपितु केवल वे जिनका व्यवहार मानवता की अपेक्षाओं के अनुरूप न हो । वे ब्राह्मण भी हो सकते हैं, और नहीं भी। दूसरे देश और काल के ऐसे लोग भी हिंदू की परिभाषा में आते हैं जो मानवीय मूल्यों का सम्मान करते हैं उनसे विचलित होने पर ग्लानि अनुभव करते रहे, और आज भी जिन्होंने दूसरों की अपेक्षा इन मूल्यों को बचा कर रखा है। मैंने यह कहीं दावा नहीं किया कि हिंदू समाज निर्दोष है, या हिंदू समाज का आचरण हिंदुत्व को परिभाषित करता है।

स्वयं हिंदू को और अपने को मानवीय सरोकारों से जुड़ा अनुभव करने वालों को हिंदुत्व के अनुरूप अपने को ढालना होगा। ऐसे कुछ लोगों की समझ में जिनकी बुद्धि पर मुझ को संदेह नहीं है, यह बात समझ में नहीं आई, परंतु उनका आभार है कि उन्होंने अपना पक्ष स्पष्ट रूप में रखा और मुझे यह समझने का अवसर मिला कुछ लोग दूसरे सरोकारों से जुड़े होने के कारण हिंदुत्व को उसका विरोधी मान बैठे हैं, और हिंदुत्व को ब्राह्मणवाद का पर्याय मानते हैं क्योंकि इसे इसी रूप में प्रचारित किया गया है। हिंदुत्व की भर्त्सना करने वाले दूसरे लोगों ने उस लेख को पढ़ा नहीं होगा, या पढ़ते हुए घबराकर छोड़ दिया होगा, परंतु उनकी धारणा में कोई परिवर्तन हुआ होगा इसकी आशा मैं नहीं करता।

फोबिया से ग्रस्त व्यक्ति का दिमाग काम नहीं करता, सिर्फ डर काम करता है, और उसके दबाव में आने के बाद उन्हें स्वयं इसका बोध होता है जिसके लिए उन्हें बहाने तलाशने पड़ते हैं। कहने को वे कहेंगे वे दक्षिणपंथी राजनीति के विरुद्ध है, हिंदू समाज के नहीं। हम यह पहले बताए हैं कि वे सबसे पहले हिंदू समाज से नफरत करते हैं और तब से नफरत करते हैं जब हिंदू संगठनों का कोई नाम तक नहीं जानता था, और आज तक हैं परंतु इससे अनजान हैं। इसे बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं हिंदू समाज के संकट पर हमेशा उन्होंने नकारात्मक रुख अपनाया है और आज भी अपना रहे हैं।

आतताइयों की रक्षा के लिए उन्होंने आतंकवादी गतिविधियों में शरीक, पुलिस की पकड़ में आ चुके अपराधियों को क्षमा दान देते हुए उनका अपराध धार्मिक झुकाव रखने वाले हिंदुओं पर लादते हुए, मीडिया का इस्तेमाल करते हुए, फाइलों को दबाते और नष्ट करते हुए, अदालतों में अपने दिए बयानों को उलटते हुए एक काल्पनिक हिंदू आतंकवाद की सृष्टि करने का प्रयत्न किया और यदि आर वी एस मणि की पुस्तक दि मिथ ऑफ हिंदू टेरर से, जिसमें उनको भी धार्मिक रुझान रखने के कारण गृह मंत्रालय में एक जिम्मेदार पद पर होते हुए अपहरण करने और फँसाने का प्रयत्न किया गया जो उनके सौभाग्य से विफल रहा और उन्होंने तत्काल इसकी रपट थाने में लिखवा दी और इसके बाद उनको इसलिए प्रताड़ित किया जाता रहा किसी तरह वह अपना बयान बदल दें, इसमें विफल होने वाले इंस्पेक्टरों की उन्नति रुक गई, कुछ को विफलता के लिए सजा मिली क्योंकि तत्कालीन गृहमंत्री पसीने छूट रहे थे।

इसमें यह सिद्ध करने के लिए कि 26/11 के मुंबई कांड में भी अपराधियों को बचाते हुए, पाकिस्तानी सरकार की पाकिस्तानी मिली भगत पर पर्दा डालते हुए, हिंदू आतंकवाद सिद्ध करने के लगातार प्रयत्न किए जाते रहे, कसाब तक को हिंदू पहचान देने के प्रयत्न किए जाते रहे, तिथि, फाइल, नोट, बदले हुए नोट, अदालती साक्ष्यों और बयानों, पार्लमेंट की बहसों, और दूसरे दस्तावेजों के इतने पुष्ट प्रमाण हैं कि उनसे गुजरने के बाद स्वयं मैं आश्वस्त हो पाया कि सोनिया समर्थित कांग्रेस और अन्तरात्मा का सौदा करके पद और लूट के लिए दूसरे महत्वाकांक्षी कहाँ तक गिर सकते हैं। हिन्दुत्व द्रोहियों का लक्ष्य हिंदुत्व को समझना नहीं इस पर प्रहार करना होता है। समझने और सराहने की दृष्टि मूर्तिकार और वास्तुकार की होती है, जो यदि मूर्तिभंजक और ध्वंसकारी में पैदा हो जाए तो उसके हाथों में आया हुआ हथौड़ा और मारतौल उसके ही शरीर में आए कंपन और प्रस्वेदन से छूट कर गिर जाएगा और वह जानुपात की मुद्रा में आ जाएगा। इस आशंका से ही दूसरा कारण जुड़ा है। अपने कारनामे को अंजाम देने के लिए वह नजर तो डालता है पर गौर से देखने का साहस नहीं जुटा पाता। वह जहाँ समझने का अभिनय करता है, वहाँ भी समझने से कतराता है, वह गहन विवेचन के नाम पर कुतर्क द्वारा अध्याय (जिसका अध्ययन करना है) उसे दूषित और नष्ट करता है।