चौदह
कम्युनिस्ट पार्टी के विषय में मेरी जानकारी बहुत अच्छी नहीं, इसलिए तथ्यों में छोटी-मोटी गलतियाँ हो सकती हैं, उदाहरण के लिए बी.टी.आर. के विषय में यह तथ्य छूट गया कि 1954 में उन्हें दुबारा केंद्रीय समिति में ले लिया गया था और बाद के अनेक निर्णायक अवसरों पर जिनमें 1962 में पार्टी का विभाजन भी था, उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही। प्रवृत्ति के आकलन के मामले में मुझ पर भरोसा किया जा सकता है। अनेक बार ‘रहस्यमय’ कारणों से आजीवन पार्टी के हित में काम करने वालों का अपमान, विश्वासघात और नेस्तनाबूदीकरण के बाद भी मार्क्सवाद में भुक्तभोगियों की आस्था का बना रह जाना, विस्मित करता है। शिकायत पार्टी में निर्णायक पदों पर आसीन लोगों से भले बनी रहे, पर निजी सोच-विचार में वामपंथिता ही बनी नहीं रहती है, अपितु जिन विचारों और पद्धतियों के प्रति उस दौर में नफरत सी पैदा कर दी गई थी, उनसे नफरत पर काबू पा भी लिया जाय तो भी, परहेज सा बना रहता है।
ऊपरी साझेदारी और दलगत निष्ठा के बाद भी, कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व में अंदरूनी कलह लगातार बना रहा है। इस खास अर्थ में उसकी हिंसा के शिकार केवल वर्गशत्रु ही नहीं रहे हैं, अपितु अपने सहचर और सहयोगी भी रहे हैं। मात्र किसी एक मामले में असहमति के कारण, कल तक कंधे से कंधा मिला कर चलने वाला मित्र इतना जघन्य कैसे हो जाता है कि दोनों में किसी भी जुगत से अधिक ताकतवर ही सही रह जाता है, परंतु यह सही होकर भी इतना आशंकित रहता है कि दूसरे को मिटाए बिना निश्चिंत नहीं रह सकता।
कहने के लिए कम्युनिज्म मानव गरिमा की उच्चतम अवस्था है, परंतु नेतृत्व की इस असहिष्णुता के कारण पशु-जगत का, यूथपति बने रहने या उसे अपदस्थ करके प्राणान्तक द्वन्द्व से विजेता बन कर उसे पलायन के लिए विवश करने और यूथ की समस्त मादाओं पर एकाधिकार करने का संघर्ष याद आ जाता है। यहां भी यह सोच कर हैरानी होती है कि यूथबद्ध पशुओं का व्यवहार कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व की तुलना में कम गर्हित है, क्योंकि पराजय स्वीकार करने वाले पहले के यूथपति का भौतिक या नैतिक प्राणघात नहीं किया जाता। कुछ दूर तक कम्युनिस्ट दलों का व्यवहार वैचारिक चुनौती की आशंका से मार्जार वत्स के वध की याद दिलाता है, इसलिए दलगत प्रतिबद्धता पर गर्व करने वाले मित्रों पर मैं भीतर से बहुत विचलित अनुभव करता रहा हूँ। स्वतः अपने चुनाव से अपनी बौद्धिक स्वतंत्रता और सर्जनात्मक ऊर्जा का समर्पण करने वाले मानव ड्रोन किसका भला कर सकते हैं, जब कि वे अपने रक्षणीय की रक्षा नहीं कर पाते?
आत्मविसर्जन की यह बाध्यता भूमिगत, संकटकालीन अवस्थाओं की देन हैं, जिसकी अपरिहार्यता का तर्क दिया जा सकता है, परंतु है यह आत्मनिषेध की अवस्था। तेलंगाना संघर्ष के दौर का चित्रण करते हुए राज ने लिखा है कि उस समय एक ओर तो नेताओं को बड़े पैमाने पर जेल में भर दिया गया था, इससे बचे वे ही रह गए थे जो भूमिगत हो गए थे, पार्टी के पत्र प्रतिबंधित थे। किसी से कोई सवाल इसलिए नहीं पूछा जा सकता था कि ऐसा करते हुए अनजाने में ही कहीं कोई ऐसी बात न निकल आए जिससे किसी दूसरे का जीवन संकट में पड़ जाए। किसी न किसी कदर आपको अपनी सभी ज्ञानेन्द्रयों सेे छुटकारा पाना होता था, उन्हें इस तरह छिपा कर रखना होता था जिससे वे आपको बेचैन न कर सकें। आपकी आँखें कहने को हैं पर आप कुछ देख नहीं सकते, कान हैं, पर सुन नहीं सकते, दिमाग है पर जो घुट्टी पिला दी गई है उससे अलग कुछ सोच नहीं सकते। इस रोबोटीकरण ने इतनी तकनीकी अग्रता क्यों हासिल कर ली, जब कि हमारी जरूरत सिर्फ इतनी सी थी कि हम दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों मे से किसी से भी सलाह ले सकते थे।[1]
होना यह चाहिए कि इसको किसी भी अवस्था में व्यवहार्य न मान कर अधिक निरापद तरीके अपनाए जाएँ, परंतु जब कम्युनिस्ट पार्टियों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को स्वीकार कर लिया, जिसका उन्हें लाभ भी मिला, उसके बाद भी इनका आदर्श भूमिगत दौर का आचार क्यों बना रहा? सैद्धांतिक शुद्धता की आड़ में इसने अपने सर्वसमादृत नेताओं – ज्योति बसु, सोमनाथ चटर्जी – के साथ लगभग वही व्यवहार किया जो कभी जोशी जी के साथ किया था। अंतर केवल मात्रा का था, न कि मर्यादा का। नए यूथपतियों ने अपनी ताकत तो दिखा ही दी, आपनी नियति भी तय कर दी।
एक ‘प्रगतिशील’ कथाकार ने एक बार अपने लेखन की उपेक्षा से आहत हो कर ‘कम्युनिस्ट नैतिकता’ शीर्षक से एक पुस्तिका लिख कर अपने साधनों से छापी और वितरित की थी। पुस्तिका मेरे पास नहीं है और लगभग चालीस साल पहले उलट-पलट कर देखी गई उस पुस्तिका में दर्ज शिकायतों की जो याद है उनमें कुछ भी गलत नही था, सिवाय इसके, जिसका उस समय तक मुझे अंदेशा तक नहीं हो सकता था। वह था यह कड़वा सच कि लेखक पार्टी के आंदोलनों और कार्यक्रमों को सफल बनाने के लिए अपनी जान लड़ा देते हैं और पार्टी-नेतृत्व अपने भाषणों और लेखों में कभी उनका नाम तक नहीं लेता। वह उसे पढ़ता भी है, इसका भी पता नहीं चलता। जिन मज़दूरों किसानों को अपनी रचनाओं मे पात्र बनाता है वे फुर्सत हो तो भी वह साहित्य नहीं पढ़ेंगे और अपने मनोरंजन और मस्ती के लिए झाल-मजीरा बजाता है, कभी उस साहित्य को पढ़ता तक नहीं जिसमें उसे नायक बनाया गया है। साहित्य में रुचि रखने वालों, को ऐसी रचनाओं से कुछ मिलता नहीं। उनके साहित्यिक सांस्कृतिक संगठन लेखकों के हित के सवालों को कभी उठाते नहीं।
एक बात जिसका जिक्र उन्हें खास तौर से करना चाहिए था कि जिस यथार्थ की अपनी कल्पना से सृष्टि करके मज़दूरों को संघर्ष करते और विजय प्राप्त करते दिखाता हैं उसका वास्तविकता से कोई मेल नहीं खाता, और इसलिए अपनी रचनाओं के माध्यम से वह साहित्य में भूसा भरता है, जो किसी के काम का नहीं होता और जिन लोगों को हिंदी क्षेत्र से यह शिकायत रही है कि इसमें साहित्य के पठन-पाठन में लोगों की रुचि नहीं है। सच पूछें तो उन्हें शिकायत यह होनी चाहिए कि काउ-बेल्ट तक में भूसा चरने वाले बैलों का अभाव है। तथाकथित हिंदी क्षेत्र में वामपंथी राजनीतिक सक्रियता का निपट अभाव और साहित्य पर प्रगतिशीलता के नाम पर नकली यथार्थ, नकली चरित्र और नकली संघर्ष दिखाते हुए जिस तरह का सर्जनात्मक निर्वात तैयार किया गया, वह इसे सांस्कृतिक दृष्टि से सबसे पिछड़ा प्रदेश बनाने में सबसे प्रधान कारक रहा है।
[1] So many leaders were underground, party papers had been banned, questions were taboo just in case you unwittingly revealed something which could endanger someone else’s life. Somehow you had to take leave of all your senses, hide them away where they could never make you uncomfortable. Your eyes could no longer see, your ears could no could no longer hear and your mind could no longer think anything apart from what the party fed you. Why robotisation took such advanced technical know-how when all we needed to know was to consult the communist parties of the world, I will never know. 69