तेरह
पंडित सोइ जो गाल बजावा
इंग्लैंड में शिक्षा प्राप्त करने वाले और अंग्रेजी जीवन शैली अपनाने वाले, काया से भारतीय और मिजाज से अंग्रेज बनने के प्रयत्न में लगे रहते थे। वे हिंदुस्तान और हिन्दुस्तानियों को अंग्रेजों की नजर से देखने की आदत डालते रहे थे। इतनी ‘उन्नत’ शिक्षा पाने के बाद भी इनमें से किसी का दिमाग उतना रौशन नहीं था, जितना उनसे आधी शताब्दी पहले इंग्लैंड पहुँचे, सर सैयद का या इंग्लैंड पहुँचे बिना भी भारतेन्दु का और यह अंतर देश और समाज से जुड़े और उससे उखड़े (उच्छिन्न मूल आकाशबेलि) होने का अन्तर है। यह कथन नेहरू सहित पश्चमी चाल में ढले सभी तीसमारों पर लागू होता है, इसे निम्न उद्धरणों से समझा जा सकता है:
“The sole reason for all this progress in England is that its learning (‘ul?m) and crafts (fan)—everything it has—are in the language of its people…. The people who truly desire India’s good and progress should firmly understand that India’s good depends on only one thing, that its people receive instruction in everything, from the most elevated to the most mundane, in their own languages. These words of mine should be carved in big bold letters on the Himalayas. If India does not get instruction in all branches of learning in its own language, India will never gain any status for civilization (sh?yastag?) and refinement (tarbiyat). That alone is true, true, true. सर सैयद।
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। भारतेन्दु। ध्यान रहे कि यहाँ भारतेंदु भारत के सभी जनों के लिए हिंदी के प्रयोग की बात नहीं करते, अपितु निज भाषा की बात करते हैं।
यह मोटी बात जिनकी समझ में नहीं आ सकती वे यह भी नहीं समझ सकते कि देश बँट कर आजाद हो गए तो फिर इनसे उपनिवेशकालीन मानसिकता से ले कर उपनिवेशकालीन समस्यायें तक ज्यों की त्यौं कैसे बनी रह गईं? पहले पीड़ा थी ‘पर धन विदेश चलि जात यहै अति ख्वारी’ और अब यह अपने ही देश के लुटेरों और लूट-पाट की राजनीति करने वालों के झोले में जाने लगा, क्योंकि स्वतंत्रता की चेतना और देश हित के समक्ष अपने क्षुद्र स्वार्थों का विसर्जन का भाव न तो औपनिवेशिक भाषा के माध्यम से पूरी दुनिया में कही आया है, न आ सकता है।
इसलिए मेरे आकलन में नेहरू सहित कम्युनिस्ट पार्टियों की दिशा और दशा निर्धारित करने वाले विलायती दिमाग, मिजाज और भाषा की श्रेष्ठता के कायल सभी, पिछड़े दिमाग और मिजाज के लोग रहे हैं जिन्होंने पुरानी औपनिवेशिक समस्याओं का विस्तार किया, नई समस्यायें पैदा कीं और अपने ही समाज को ‘बाँटो और राज करो/ बचे रहो’ की नीति पर बेशर्मी से अमल किया। इनको परखने की सीधी कसौटी यह है कि इन्होंने केवल समस्यायें पैदा कीं जब कि जमीन से जुड़े शास्त्री ने अपने सीमित काल में उनके द्वारा पैदा की हुई दुःसाध्य प्रतीत होने वाली समस्याओं का ऐसा हल निकाला कि हम भूल गए कि कभी ऐसी समस्याएँ पेश भी आई थीं।
विलायती सोच और तेवर पर गर्व करने वालों में अहंकार अवश्य भरा था पर देशाभिमान और आत्माभिमान का निपट अभाव था। वे अपनी ‘असाधारण योग्यता’ के बल पर अपने लिए कुछ ‘असाधारण’ पाना चाहते थे और नेहरू की इसी लालसा ने भौतिक स्वतंत्रता प्राप्त भारत को औपनिवेशिकता से बाहर आने नहीं दिया, और लोकतंत्र को वंशतंत्र बनाए रखा।
मैं यहाँ मोदी की बात नहीं करूँगा जिसके विषय में ‘मोदी है तो मुमकिन है’ जैसा मुहावरा उसके आलोचकों को भी आपत्तिजनक भले लगे, विचित्र नहीं लगता। यह एक मजेदार सच है कि भारत की सभी भाषाओं के बुद्धि-व्यवसायी जिन्होंने अभिव्यक्ति और संचार की दक्षता का आजीवन अभ्यास किया है, वे संगठित रूप में, एक स्वर से, जिसका विरोध करते हैं उनकी आवाज अपने ही समाज तक नहीं पहुँच पाती जब कि वह संचार के उपलब्ध सशक्त माध्यमों को भी धता बताता हुआ, अतिजीविता के लिए संघर्ष करते श्रव्य माध्यम से उस समाज से भी अपने को जोड़ लेता है, बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक से सीधा संचार कर लेता है और विश्वमंच से अपनी उसी भाषा के माध्यम से आत्मविश्वास के साथ अपनी उपस्थिति ही दर्ज नहीं कराता, बल्कि उनके द्वारा उसकी आवाज भारत की आवाज के रूप में पहली बार सुनी जाने लगती है। ऐसी स्थिति में अपने बुद्धि-व्यवसायी वर्ग के लिए तुलसी का प्रयोग “पंडित सोइ जो गाल बजावा’ याद आता है।