बारह
भारतीय कम्युनिज्म की पूँजी
इस दुखद सच्चाई को कई बार दुहराने के बाद भी कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियाँ मुस्लिम लीग का कार्यभार पूरा कर रही हैं, इस तथ्य के सर्वविदित होने के बाद भी कि कम्युनिस्ट पार्टी ने धार्मिक आधार पर प्लेबीसाइट का समर्थन किया था, और इस समर्थन के बाद, ‘नई सोच और खुले दिमाग’ के नौजवानों के प्रचार के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमानों को लगा था कि देश का विभाजन उनके हित में है, जिसके कारण ही यह जनमत संग्रह बँटवारे के पक्ष में चला गया था, इसलिए विभाजन कम्युनिस्ट पार्टी ने किया था, न कि मुस्लिम लीग ने।
मेरी समझ में यह बात नहीं आती थी कि कम्युनिस्ट पार्टी के हिंदू नेताओं का सिर एकाएक इतना फिर क्यों गया था? दूसरी बात जो समझ से परे रही है वह यह कि इस गलती को स्वीकार करने के बाद भी, कम्युनिस्ट पार्टियाँ जिनका अनेक मामलों में आपस में मतभेद है, लगातार लीग की उसी लाइन पर क्यों चलती रहीं? तीसरी बात, इस सच्चाई को जानने के बाद भी, नई पीढ़ी के प्रतिभाशाली नौजवान, उनमें भी विशेषतः हिंदी प्रदेश के नौजवान, कम्युनिस्ट पार्टियों की सोच से ही इतने आकर्षित क्यों अनुभव करते रहे हैं कि प्रतिभाशाली होने का पर्याय वामपंथी होना बना रहा है।
समस्या मुख्यतः यही है, परंतु इसके विश्लेषण के क्रम में हमें अनेक दूसरी समस्याओं को भी विचार क्षेत्र में लेना होगा, या वे स्वतः उपस्थित मिलेंगी।
भौतिक परिघटनाएँ घटित होने के साथ बीत जाती हैं, और हम न तो उनमें लौट सकते हैं, न ही उन्हें बदल सकते हैं, न उनको ठीक उसी रूप में दुहरा सकते हैं। केवल पढ़े लिखे मूर्ख या बेईमान ही यह शोर मचा सकते हैं, कि हिटलर दुबारा आ रहा है, या अमुक व्यक्ति हिटलर बनने जा रहा है।
परंतु चेतना के स्तर पर इतिहास की आकांक्षाएं, प्रवृत्तियाँ, और ग्रंथियां व्यक्ति के जीवन में और समाज के जीवन में हमारी चेतना में इतने लंबे समय तक जारी रहती हैं कि इनसे हुई क्षति को देखते हुए भी हम इनसे मुक्त होना चाहें तो भी मुक्त होना इतना आसान नहीं होता और कई बार तो हमारे प्रयत्न के विपरीत अनुपात में ये अधिक उग्र हो जाती हैं।
जिनके लिए, इस सचाई को जानना और इनका सामना करना जरूरी है, वे जितने भी बड़े विद्वान और गण्य-मान्य क्यों न हों, हमारे द्वारा उठाए जाने वाले प्रश्नों का क्षीण आभास मिलने के बाद इस लेख को पढ़ने को तैयार नहीं हो सकते। अपने कार्ड-धारकों से अपने निर्देश या आदेश के पालन में तनिक भी विचलन देखकर उनसे आत्मालोचन कराते हुए, उन्हें मिटाने की योजनाएं बनाने वालों ने, यदि कभी स्वयं आत्मालोचन किया होता तो उनका वजूद ही मिट जाता।
यह बात में चौंकाने के लिए नहीं कह रहा हूं, यह बताने के लिए कह रहा हूं, कि भारी रकम खर्च करके इंग्लैंड से ऐसी उपाधियां लेकर लौटने के इरादे से विदेश जाने वाले, अपने लिए ऐसे ही अवसर की तलाश में जाते थे, जो भारत में रहकर दुर्लभ था, और इंग्लैंड में पहुंचकर, अपनी चमड़ी के रंग पर ग्लानि अनुभव करते हुए, शेष सभी मामलों में अपने को अंग्रेज बनाने का प्रयत्न करते थे।
तत्कालीन इंग्लैंड में फैबियन समाजवाद के प्रबुद्ध वर्ग के एक दायरे में अधिक लोकप्रिय होने के कारण, इनका झुकाव उस दिशा में हुआ था, जो इनके मंसूबों को अधिक प्रभावित नहीं करता था। अपने श्रम को कम करने के लिए मैं इसके विषय में विकीपीडिया के एक वाक्य को उद्धृत करना चाहूंगा, “फ़ेबियन समाज ब्रिटेन में १८८४ में सगठित किया गया था और १९00 में वह साहित्यिक-पत्रकार दल के रूप में लेबर पार्टी से संलग्न हो गया। फ़ेबियन समाज के प्रवक्ता- बी. तथा एस. वेब्ब दंपत्ति, एम. फ़िलिप्स, एच. जी. वेल्स तथा जॉर्ज बर्नार्ड शॉ आदि थे। फ़ेबियन समाजवाद आधिकारिक रूप में दर्शन के साथ अपना कोई सम्बन्ध नहीं मानता है, परन्तु उसके अनेक प्रवक्ता धर्म का समर्थन करते हैं। ये इतिहास के बारे में अपने विचारों में समाज में प्रत्ययों की निर्णायक भूमिका के मत के पक्षधर हैं और वर्ग संघर्ष से इनकार करते हैं। लेनिन के अनुसार, “फ़ेबियन समाजवाद, अवसरवाद तथा उदारतावादी मज़दूर नीति की सर्वाधिक पूर्ण अभिव्यक्ति है।”
हम जिस बात पर जोर देना चाहते हैं वह यह है कि इनमें समाजवाद से प्रेम या क्रांति के प्रति लगाव की तुलना में लोकतंत्र से जुगुप्सा अधिक प्रबल थी और इस मानी में मनोवैज्ञानिक रूप से ये उन रईसों, जमीदारों, समाज से कटे हुए परंतु महत्वाकांक्षा से भरे हुए छोटे तबके के अधिक निकट पड़ते थे, जिनकी चिंता सर सैयद अहमद के कांग्रेस विरोध में पैदा हुई थी। इनके भीतर ठीक वही डर था, जिसे सर सैयद अहमद ने अपने लखनऊ और मेरठ के भाषणो में व्यक्त किया था, जो लोकतंत्र विरोधी मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट पार्टी दोनों के भीतर काम करती गई और इस रिश्ते से दोनों को एक दूसरे के इतने करीब बनाए रही।
“I ask you — Would our aristocracy like that a man of low caste or insignificant origin, though he be a B.A. or M.A., and have the requisite ability, should be in a position of authority above them and have power in making laws that affect their lives and property?” “Never! Nobody would like it.” (Cheers.) लखनऊ, 1887
Men of good family would never like to trust their lives and property to people of low rank with whose humble origin they are well acquainted. (Cheers.) लखनऊ, 1887
We are those who ruled India for six or seven hundred years. (Cheers.)… Is Government so foolish as to suppose that in seventy years we have forgotten all our grandeur and our empire? लखनऊ, 1887
Men of good family would never like to trust their lives and property to people of low rank with whose humble origin they are well acquainted. मेरठ, 1888.
दूसरे शब्दों में कहें तो, यहां पहुंचकर निजी स्वार्थ की साझेदारी धर्म की दीवारों पर भारी पड़ती थी, मोहम्मद अली जिन्ना मोहन कुमारमंगलम की अपनी नजर में गांधी से अधिक करीब दिखाई देते थे। उनके साथ जुड़ना, उनकी इरादों को पूरा करने में मददगार होना, उनके अधूरे काम को पूरा करना नहीं था, स्वयं अपने भविष्य की ओर कदम बढ़ाने का एक प्रयास था। सर्वहारा के निकट दिखने के लिए भाषा और वेशभूषा की सादगी का प्रयत्न नाटकीय पाखंड से भरा हुआ था। निजी जीवन शैली में, अभिजात्य का निर्वाह सभी करते थे, और कुछ ने तो उतना भी प्रयास नहीं किया था, जितना मोहन कुमारमंगलम ने। उदाहरण के लिए :
Banne Bhai as he was affectionately called, belonged to a well-known landed family of Lucknow with one other brother in the civil service and the other in the upper rung of the congress party. He didn’t show any sign of struggle against his feudal upbringing…88
भारतीय समाज की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के विषय में इनकी जानकारी कम थी, यह हैरानी की बात नहीं है, हैरानी की बात यह है कि इस कमी को दूर करने का कभी गंभीर प्रयत्न आज तक नहीं किया गया। खयालों को सचाई पर लादकर यथार्थ के नाम पर स्वार्थ साधना की जाती रही:
It was failure all down the line, failure of assessment to such an extent that one should have wondered whether he or the communists had any idea of who and what the people of this country were, what they thought, what motivated them. The party had amply demonstrated that it operated in the realm of fantasy alone. 71
भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन पाखंड बनकर आया और पाखंड बनकर आज तक अपना अस्तित्व किसी न किसी रूप में कायम रखने में समर्थ रहा यह हमारी सामाजिक अधोगति का सबसे बड़ा प्रमाण है, जिसे उसने अपनी ओर से भी बढ़ाने का प्रयत्न किया।
(जारी)