Post – 2020-02-23

ग्यारह

सत्य एक है, विद्वान लोग उसका वर्णन अलग अलग रूपों में करते हैं – एकः सद् विप्रा बहुधा वदन्ति, अर्थात् विद्वान लोग भी सत्य के किसी एक ही पक्ष को देख पाते हैं, और उस पक्ष को समग्र का ज्ञान मान लेने के कारण उनका वर्णन परस्पर अनमेल और विरोधी ही नहीं होता, सत्य के साक्षात्कार में बाधक भी होता है। उनके अहंकार के कारण सत्य का साक्षात्कार संभव ही नहीं हो पाता। यह बात केवल ईश्वर या परम सत्ता के विषय में ही सच नहीं है, वस्तु और वास्तविकता की समझ के विषय में भी सच है।

मैं, अपने विषय में कई बार, कई प्रसंगों में, यह बता आया हूं कि प्रतिभा और मेधा के मामले में मैं मझोले दर्जे का आता हूं, परंतु अपने विशेष जीवन अनुभव और उससे उत्पन्न जिज्ञासा तथा श्रम और धैर्य पूर्वक काम करते रहने की आदत के कारण, अपने निष्कर्षों में दुनिया के दूसरे किसी विद्वान से अधिक ठोस जमीन पर पाता हूं। यह मेरी आत्म छवि है, जिसके विषय में किसी बाह्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं, और दूसरा कोई मेरी इस छवि को सही माने यह जरूरी नहीं। आत्मछवि के मामले में सभी अतिरंजना से काम लेते हैं; इसका अपवाद मैं भी नहीं हो सकता।

इसलिए यह भी याद दिलाता रहता हूँ कि मैं अपनी स्थापनाओं में जितना दो निर्द्वन्द्व लगता हूं, अंतिम कसौटी पर जरूरी नहीं कि वे लचर, अथवा गलत न सिद्ध की जा सकें। यह दुहराने की जरूरत नहीं कि आपसी संवाद, हमारी वैचारिक सीमाओं को कम करते हुए सही निष्कर्ष के अधिक निकट पहुँचने की अनिवार्य शर्त है, जो मार्क्सवादी नव-ब्राह्मणवाद के चलते लंबे समय से अवरुद्ध है।

वैचारिक शुद्धता का दावा विचारों के अभाव में ही संभव है, और अपने विचारों को विचारणीय तक न मानते हुए खारिज कर देने की प्रवृत्ति, अंतिम सत्य का एकमात्र अधिकारी होने का विश्वास सामाजिक कूप-मंडूकता की ओर ले जाता है। मार्क्सवादी एकदिशता, और हिंदी भाषी क्षेत्र में इसका अधिक दबाव होने के कारण यहां का बौद्धिक ह्रास भारत के अन्य क्षेत्रों की तुलना में इतना उग्र रहा है कि इसे सही ढंग से उनके द्वारा भी रेखांकित नहीं किया जा सका जो इसे ले कर अपने को चिंतित दिखाते रहे हैं। पूरे देश के बौद्धिक पर्यावरण को भी प्रभावित करने में अन्य किसी विचारधारा की तुलना में, मार्क्सवादी भावधारा की भूमिका अधिक प्रबल रही है, इसलिए स्वतंत्र भारत के बौद्धिक विकास को भी उसने कम कुंठित नहीं किया है, परंतु इस पर कभी विचार नहीं किया गया।

सच कहें तो इस देश में दो क्षेत्र विचारातीत रहे हैं, एक इस्लाम और दूसरा मार्क्सवाद। दोनों में कुछ मामलों में गहरी समानताएँ भी हैं। दोनों का देश नहीं होता, पूरी दुनिया होती है। दोनों इंसानियत की रक्षा की तुलना में रक्तपात में अधिक निष्ठा रखते हैं। दोनों प्राचीन भारतीय संस्कृति को पिछड़ेपन का मूर्त रूप मानते रहे हैं, और इसका सबसे आसान इलाज उसे मिटा देना मानते रहे हैं। मिटाने के लिए, जिसे मिटाना है उसे समझना जरूरी नहीं, इससे उत्साह में कमी आ जाती है – मूर्ति भंजक मूर्तिकार नहीं होता, उसके हथियार अलग होते हैं। एक छेनी चलाता है दूसरा हथौड़ा। इसके प्रमाण उन्होंने बार बार दिए हैं । इसकी पराकाष्ठा यह रही है कि दोनों भाषा को ही सांप्रदायिक सोच का कारण मान बैठते हैं, और इस बुनियादी सच तक से अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं कि भाषा आधार और अधिरचना तथा उद्विकास की अवस्थाओं, सभी की सीमाओं से ऊपर होती है, और इसलिए इसे किसी भी सीमा में रखकर समझा ही नहीं जा सकता।

परंतु विभिन्न कुटिलताओं का युद्ध क्षेत्र बन जाने के कारण हिंदी को हिंदुत्व और हिंदुत्व को सांप्रदायिकता के निकृष्टतम रूप के रूप में प्रस्तुत करते हुए, हिंदी भाषी क्षेत्र के लिए, हिंदी बेल्ट, कॉउ बेल्ट, और आह्लाद के निजी दायरों में गोबर पट्टी रूप में प्रस्तुत करने का शौक तथाकथित बुद्धिजीवियों के बीच लोकप्रिय होता जा रहा है, और बार-बार की आवृत्ति के बाद हो सकता है अपना दंश त्याग कर यह भी एक कलात्मक प्रयोग की तरह लोकप्रिय हो जाए।

सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह बोध है कि भारतीय मार्क्सवाद की विविध अभिव्यक्तियाँ उपनिवेशवाद, उसकी भाषा, उसकी मूर्खतापूर्ण मानी जा चुकी स्थापनाओं तक के पुनरुद्धार और समर्थन के लिए जितना तत्पर दिखाई देता है, उतना ख़याली रूप में भी भारतीय जन मन के आक्रोश और असंतोष और उनके निराकरण के उपायों के प्रति संवेदनशील दिखाई नहीं देता। इसे समझने के लिए हमें दोबारा अपना भविष्य उज्जवल बनाने के लिए इंग्लैंड जाने वाले अमीर घरानों के नौनिहालों की सीमाओं को समझना होगा जो प्रायः प्राचीन समय के उपनयन संस्कार की उम्र में ही ऐसे परिवेश में डाल दिए जाते थे जिसे कुछ सावधानी के साथ, ईसाई परिवेश कहा जा सकता है।

अपनी भाषा, सभ्यता और संस्कृति के विषय में या तो वे पूरी तरह अनभिज्ञ रहते थे अथवा ईसाई प्रचारकों के माध्यम से प्राचीन भारत के विषय में और हिंदू समाज के विषय में प्राप्त जो जानकारियाँ उनके मनस्वी गुरुओं के पास पहुंची होती थीं, उन्हें ही भारत विषयक समग्र ज्ञान मान बैठते थे। यह काम आज संभव नहीं लगता इसलिए इस पर हम कल विचार करेंगे।