दस
लफ्फाजों को बोलना कब आएगा?
क्या आप अपने को जानते हैं? सवाल पुराना है; एक बार किसी अन्य प्रसंग में मैं पहले भी उठा चुका हूँ। इसके कई पहलू हैं और किसी न किसी कोण से सभी सभ्यताओं में किसी न किसी संवेदनशील मेधा द्वारा उठाए जाते रहे है। इतना महान लेखक, जिसने अकेले दम पर युगधारा को बदल दिया, व्यर्थता बोध का शिकार: “न कियो ही कछू, करिबो न कछू, कहिबो न कछू, मरिबो ही रह्यो है।”
मीर की एक पंक्ति जिसने पढ़ी है, उसे वह भूल नहीं सकती, “यही जाना कि कुछ न जाना हाय, सो भी इक उम्र में हुआ मालूम।”
इन पंक्तियों के लेखक ने भी किसी के प्रभाव नहीं, गहन व्यर्थता बोध के किसी क्षण में लिखा था, “न कुछ किया, न करेंगे आगे, उठ के चल देंगे बिन बताए हुए।”
परन्तु आज एकाएक जिस परदे के खिसकते ही अपना नया साक्षात्कार हुआ, उस पर तो विस्मित हूँ।
अपनी सफाई दे कर कुतूहल को कम करने की जगह आप से पूछता हूँ, “आप लोकतंत्रवादी हैं, या भद्रतंत्रवादी? संविधान को मानते हैं, या संविधान की कसौटी अपने आचार को बनाना चाहते हैं?” प्रश्न इतने मार्मिक हैं कि आप इनका उत्तर देने की जगह, प्रश्न करने वाले की हँसी उड़ा कर, विषय को ही बदलना चाहेंगे।”
कई बार सवालों के उत्तर इतने दूर, इतने अधभूले प्रसंगों में छिपे होते हैं कि हम उन्हें पहचानते हैं तो डरते हैं और पहचानने से कतराते हैं तो उनके हाथों मारे जाते हैं।
क्या आप बता सकते हैं कि 2014 में अभी मतदान की तिथि भी घोषित न हुई थी, तभी से, हर कदम पर यह जानते हुए कि नमो की विजय को रोका नहीं जा सकता, अपनी निजी वाक्-शक्ति और अभिशापों की जादुई शक्ति पर भरोसा करने वाले और अपने को सर्वाधिक आधुनिक मानते हुए, नमो को पुरातनपंथिता का मूर्त रूप मानने वाले कौन थे? ये स्याही की गंध फीकी पड़ने से पहले नई से नई किताब को जल्द से जल्द पढ़ने के दावे के बल पर अपने को सर्वाधिक प्रबुद्ध मानने वाले जादू टोने की शक्ति में विश्वास करने वाले युगों पुरानी मानसिकता से ग्रस्त लोग थे जो यह तक नहीं मानने को तैयार थे कि उनका पाला सर्वाधिक आधुनिक चेतना, प्रखर दृष्टि और युगानुकूल नई कार्ययोजना से संपन्न व्यक्ति से पड़ा है।
बिना पर्याप्त कारण के किसी बहाने लामबंद होकर जनता द्वारा अप्रत्याशित बहुमत से जीतने वाले को प्रेस और प्रचार-माध्यमों के खुले समर्थन से तख्तापलट का स्वप्न देखने वाले अपने यथार्थ से कटे हुए और विश्वबोध से शून्य कितने दयनीय शेखचिल्ली थे और फिर भी अपने साहित्य लेखन और मूल्यांकन में अपने को यथार्थवादी और प्रगतिशील बताया करते थे। कहें, इन्हें अपनी भाषा के उन शब्दों का अर्थ तक पता नहीं था। हौरानी है, जिन बुद्धिजीवियों को भाषा का ज्ञान तक नहीं, पर गुमान यह कि पूरे देश को उनके बताए रास्ते पर चलना चाहिए।
उस समय तक यह शब्द चलन में न आया था, पर 2019 के बाद एकाएक छलांग मार कर सुर्खियों में आ गया । यह है लोकतंत्र को ठोकर मार कर अपनी मनमानी को लादने का प्रयत्न करने वाला दुश्नाम – मेजारिटिज्म – जो लोकतंत्र के जन्म के समय से ही उछाला जाता रहा है : जमहूरियत वह तर्जे हुकूमत है कि जिसमें बंदों को गिना करते हैं तोला नहीं करते, या डेमोक्रैसी इज द गवर्नमेंट ऑफ फूल्स, और इसकी आड़ में तानाशाही, अमलाशाही और स्वेच्छाचारी शासन की हिमायत की जाती रही, जिसके परिणाम स्वरूप पाकिस्तान में बार बार फौजी-तानाशाही सर उठाती रही है।
मेजारिटिज्म का प्रयोग करने वाले जब साथ ही यह भी कहते हैं कि मोदी से लोकतंत्र को खतरा है, सांवैधानिक प्रक्रिया का उल्लंघन करने वाले या उनके साथ खड़े होने वाले जब संविधान का धैर्य की परीक्षा लेने वाली हद तक निर्वाह करने वाले को संविधान के लिए खतरा बताते हैं तो सोचता हूँ इतने सारे पोथे लिखने और पीठ पर लाद कर इतराते हुए चलने वाले बोलना कब सीख पाएँगे।
खैर, आज मैं आपको सिर्फ यह बताना चाहता था कि ऐसे ही लोगों ने इस देश में कम्युनिस्ट पार्टी की नींव रखी और लगातार उसका संचालन करते रहे।