Post – 2020-02-21

नव

हमारे सामने, जोशी जी के साथ हुए व्यवहार को देखते हुए, कुछ सवाल अधिक पेचीदा बन कर उभरते हैं। जिन संस्कृति-कर्मियों को उनके निष्कासन से झटका लगा उनमें से नगण्य अपवादों को छोड़ कर जो, सी.आई.ए. के प्रभाव में चले गए, शेष संगठनों से दूर तो रहे, परन्तु उनकी वामपंथी निष्ठा उसके बाद भी कायम कैसे रही?

जोशी जी स्वयं 1970 के आसपास जब जे.एन.यू. में आए और इससे पहले कुछ समय तक वीतराग भाव से ‘न्यू एज’ का संपादन सँभाले रहे; जे.एन.यू. में भी वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विश्वसनीय इतिहास लिखने की तैयारी में लगे रहे। वह इतिहास तो वह अपने जीवनकाल में न लिख सके, अपने पीछे प्रामाणिक इतिहास-लेखन के लिए अनिवार्य विश्वसनीय और ठोस तथ्य संकलन की परंपरा अवश्य छोड गए, परन्तु मेरी नजर में सबसे गए-बीते भारतीय कम्युनिज्म में भी ऐसा क्या था कि अपमान और ग्लानि से भीतर से खाली हो जाने के बाद भी इससे पूरी तरह संबंध न तोड़ सके?

जोशी जी को निष्कासित करने वाले रणदिवे को भी अपनी अक्षम्य गलतियों के कारण निष्कासित होना पड़ा। वह एक कोने में पुरावस्तु की तरह पड़े रहते। उनके जिस अविस्मरणीय भाषण का जिक्र मैं कर आया हूँ वह भी इसी दौर का है। यदाकदा कुछ लोग उनसे मिलने आते, विचार-विमर्श करते, चले जाते। इस उपेक्षा के बाद भी पार्टी से उन्होंने संबंध नहीं तोड़ा।

राहुल जी को पार्टी से उनकी एक टिप्पणी के कारण निकाल दिया गया कि दूसरे सभी देशों के नागरिक अपने भिन्न धार्मिक विश्वासों के होते हुए भी वेशभूषा में एक जैसे होते हैं, केवल भारत में वेशभूषा में भी अलग पहचान को सचेत रूप में कायम क्यों रखा जाता है। निष्कासन के अपमान के बाद भी उनकी लालसा पार्टी के कार्डधारक सदस्य के रूप में मरने की थी।

इनका पार्टी से जुड़े रहना पार्टी के सही होने का प्रमाण नहीं है। मेरी दृष्टि में प्रमाण-पुरुष कोई होता ही नहीं, न अपने को किसी अन्य के लिए, वह जितना भी अगण्य क्यों न हो, प्रमाण मानता हूँ। ये सभी तथ्य हैं जिनमें से किसी की उपेक्षा करके किसी सही निर्णय पर नहीं पहुँचा जा सकता।

मुझे विचार और अभिव्यक्ति पर किसी तरह का अंकुश सहन नहीं। यह मेरी चरित्रगत दृढ़ता के कारण नहीं, शैशव और बचपन के अनुभवों का परिणाम है; अपनों के बीच निपट अकेला अनुभव करने और कुचले और मिटाए जाने से अपने को बचाए रखने के संकल्प से जुड़ी समस्या है। मैं जो मार्क्स और एंगेल्स की मार्क्सवाद की समझ में खोट निकालते समय न झिझक अनुभव करता हूँ, न दर्प, अपने मित्रों की प्रकट गलतियों को सुधारने की इच्छा तक नहीं करता क्योंकि (1) मेधावी व्यक्ति किसी दूसरे के सुझाव से अपने को नहीं बदलता; (2) सुझाव देने पर वह अपमानित अनुभव कर सकता है और यदि पता चल भी जाय कि उससे गल्ती हो रही है, तो भी जिद ठान कर उसे दुहराता रह सकता है, अर्थात् बाहरी हस्तक्षेप के अभाव में अपनी गलतियों से जितने समय में वह सीख कर अपना तरीका बदल सकता था, उससे भी अधिक लंबा समय लगा सकता है; (3) हो सकता है जो कुछ हमें गलत लग रहा हो, वह भिन्न होते हुए भी, अधिक सही हो।

मैं केवल एक बात की आकांक्षा करता हूँ कि आप जिसे भी सही मानते हों, उसे कामचलाऊ ढंग से न करें, अपनी पूरी शक्ति उसमें लगा दें और यह भी किसी दर्शन से निकाला सूत्र वाक्य नहीं है, मेरे बचपन के यातना प्रतीत होने वाले काम को आदत में बदल कर आसान बना लेने का परिणाम है। लोग काम से थक जाते हैं, मैं बीमार भी रहूँ तो भी, काम न हो तो बेचैन हो जाता हूँ। मनोरंजन का मेरे लिए अर्थ है, काम की प्रकृति में परिवर्तन।

वे कौन लोग थे जिन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन की दिशा और कार्यनीति निर्धारित की जिसमें कोई काम सही हुआ ही नहीं? किसी मनोविक्षिप्त को पार्टी के संचालन का काम सौंप दिया जाता तो उसके निर्देशन में भी उतनी गलतियाँ न होतीं जितनी हुईं और उनकी परिणति देख कर भी, यह बोध तक पैदा नहीं होता कि सही कदम न भी उठाएँ, पर उठाने से पहले सोचने-विचारने का प्रयत्न तो करें, पुश-बटन-रिऐक्शन का उदाहरण तो पेश न करें जिससे स्वतः प्रमाणित हो कि इसे सक्रिय करने वाली शक्ति इसके निजी तंत्र से बाहर है।

जवाब इसका भी तलाशना है कि वे लोग जिनके कारनामों से इतना अनिष्ट हुआ, व्यक्ति के रूप में हमसे गिरे हुए लोग थे और किसी गर्हित इरादे से कम्युनिज्म की ओर बढ़े थे या अपनी समझ से महान न भी सही, असाधारण त्याग और बलिदान करते हुए अपने देश और समाज का हित करना चाहते थे। यह दूसरी बात है कि जिसे उन्होंने हित के नाम पर किया उससे अहित अधिक हुआ और अपने के मार्क्सवादी मानते हुए भी वे अपने जीवन और व्यवहार में नितांत भाववादी बने रहे और अपनी उदग्र प्रतिभा और विदग्धता के होते हुए भी, या इसके कारण ही वे इस वहम के शिकार रहे।

असलियत तक पहुँचने के लिए इस पहलू पर भी विचार करना होगा कि वे जिसे अपना निर्णय समझते थे वह स्वयं इतर परिघटनाओं की उपज थे जिनकी पृष्ठभूमि में घुसे तो बाहर निकलने के रास्ते बंद हो जाएँगे। फिर भी लाख सवालों में केवल दो सवाल। पहला उस आर्काइव का जिसमें सही जानकारी के अधिकतम उपायों को काम में लाया गया, फिर भी इस अग्रणी विश्वविद्यालय से उनके आधार पर कोई इतिहास क्यों न लिखा गया?
इतना ही नहीं, पचास के दशक के समाजवादी और साम्यवादी प्रगतिशीलता के खिंचाव के बाद भी, नई प्रतिभाएँ स्वप्नचारी की सी गति से कम्युनिस्ट दलों के साहित्यिक सांस्कृतिक मंचों से लगाव, प्रतिबद्धता के नाम पर, अपनी विचार और अभिव्यक्ति के अंकुश सहर्ष स्वीकार करते हुए, इससे क्यों जुड़ती रहीं?

हमने अपने विवेचन को अधिक संवेद्य बनाने के लिए राज थापर के संस्मरणों का सहारा लिया है, इसलिए पहली नजर में इतने रोबीले दिखाई देने वाले इन मुखौटों की असलियत के इस पक्ष पर नजर अवश्य डाल लें कि भारतीयों के साथ झक और बदसलूकी में अंग्रेजों की नकल करने वालों का भीतरी आयतन कैसा था, “इस बात को समझने में मुझे सालों का समय लगा कि बात-बात पर आग उगलते रहने वाले क्रान्तिकारी भी किसी गोरे का सामना होने पर, या बड़े अफसर से पाला पड़ने पर एकाएक बौने हो जाते थे” (It was to take me many years to discover that even the fire-blowing revolutionary was suddenly stunted when confronted with the white man or with authority in general.9)

इसे आप नेहरू जी के अपने व्यवहार की मीमांसा करके समझ सकते हैं।
“पार्टी के सदस्यों में, पार्टी के प्रति समर्पण-भाव बहुत उग्र था, और उतना ही उग्र था उनका अहंकार,जो उस दिनों मुझे भी सही लगता था।” (The dedication of the party members was fierce, and so was their arrogance, which then seemed to me the only correct attitude. They had the answers and they had the will. 14).

अन्य बातों के अलावा मार्क्सवाद के जिस चुंबकीय आकर्षण ने सर्व-सुविधा-संपन्न परिवारों के इन नौजवानों को आकर्षित किया था, वह थी, इसकी आधुनिकता। कल्पना करें मध्यकालीन सामंती व्यवस्था का मर्दन करते हुए औद्योगिक पूँजीवाद का जन्म हुआ था, उसके आन्तरिक संकट से मार्क्सवादी दर्शन और साम्यवाद का जन्म हुआ था, सो इससे अधिक आधुनिक तो और कुछ हो ही नहीं सकता था। इसलिए राज जो स्वयं लाहौर के एक सुशिक्षित संपन्न खत्री परिवार में पैदा हुई थीं, जब अपने विषय में कहती हैं, …my interest in Marxism meant being modern. (24) तो केवल अपने विषय में नहीं, रोमेश जिनसे उनका दांपत्य जुड़ा उनके विषय में भी कहती हैं और हिंदी से निकट संबंध के कारण हम जिन नामों से अधिक परिचित हैं, उन बलराज साहनी और भीष्म साहनी के विषय में भी कुछ कहती हैं और इसी की हड़बड़ समझ से जो नासमझी पैदा हुई जिसने पार्टी के सारे कारनामे को इरादे से उलट कर रख दिया, उसके विषय में भी मूल्यवान सूचनाएँ प्रदान करती है।