आठ
पीसी जोशी के साथ जो व्यवहार कम्युनिस्ट पार्टी ने किया, वह बुद्धिजीवियों के साथ कम्युनिस्ट पार्टी में कैसा व्यवहार किया जाता है, इसकी एक बानगी मात्र है। इस समय तक एनिमल फार्म लिखा जा चुका था और भारतीय कम्युनिस्टों में संभव है किसी को उसका नाम सुनने को भी मिला हो, परंतु पढ़ा किसी ने न होगा। कम्युनिस्ट पढ़ते कम हैं, बोलते अधिक हैं और इतने आत्मविश्वास के साथ बोलते हैं जैसा किसी अनपढ़ से ही संभव है। विवशता ठहरी – खून बहाने वाले सोचते नहीं हैं, सोचने वाले खून नहीं बहाते, वे ऐसी संभावनाओं को टालते और जनसमर्थन को कारगर हथियार के रूप में काम में लाते हैं।
कम्युनिस्ट पार्टी के पूरे इतिहास में पूर्ण चंद जोशी एकमात्र बुद्धिजीवी थे, और मुंबई के इप्टा का अपने सांस्कृतिक मंच के रूप में इस्तेमाल करने में जिस व्यक्ति की अग्रणी भूमिका थी, वह पीसी जोशी ही थे। मृदुभाषी, शिष्ट, संवेदनशील, नई प्रतिभाओं को पहचानने, आकर्षित करने, संगठन या कम्युनिस्ट पार्टी से जोड़ने की उनकी क्षमता का कोई दूसरा व्यक्ति भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियों के इतिहास में देखने को नहीं मिलता। इसका साहित्यिक मोर्चा उन दिनों सज्जाद जहीर ने संभाल रखा था। इप्टा का इतिहास, इसकी गतिविधियों का क्षेत्र इतना व्यापक, बहुरूपी, और बहु-आयामी रहा है, कि उसका परिचय देना मेरे जैसे, सीमित ज्ञान वाले व्यक्ति के लिए खतरे से खाली नहीं हो सकता, परंतु मुंबई की इप्टा के स्वर्णिम दिन वे ही थे जब पी.सी. जोशी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव हुआ करते थे।
उनको बाध्य किया गया कि वह, आत्मालोचन करें, अर्थात् उन पर जो अभियोग लगाए जा रहे थे, उन्हें अपनी लिखत में अपने हस्ताक्षर सहित पेश करें ताकि उसे आधार बना कर वे दंड उन्हें दिए जा सकें और यह सिद्ध किया जा सके कि उनके साथ जो कुछ किया गया, वह, उनके सुधार के लिए जरूरी था। यदि उसी के आधार पर उनका सफाया किया जाए तो यह सिद्ध किया जा सके कि उनका सफाया कम्युनिस्ट पार्टी और मानवतावाद की रक्षा के लिए अनिवार्य था। जोशी जी में एक अन्य विशेषता यह थी कि वह इतिहास की खोज को केवल पार्टी के हित के लिए ही नहीं, स्वयं अपने आत्मबोध के लिए आवश्यक मानते थे, जब कि दूसरे कम्युनिस्टों का खयाल इससे ठीक उलट था (He (P.C.Joshi) had yet another quality rare in communists – he saw the need to discover our past, and our present for that matter, not only to serve party needs but for itself. 17)।
आत्मालोचन में जोशी जी से अन्य बातों के साथ, यह भी स्वीकार करा लिया गया कि उनमें शिष्टता, संवेदनशीलता आदि के दुर्गुण इसलिए बचे रह गए थे कि वह अपने को संभ्रांत वर्गीय पूर्वाग्रहों से मुक्त करके डिक्लास नहीं कर पाए थे। उनका सर्वहाराकरण अधूरा रह गया था। मेरी यह जानकारी मेरे निजी अध्ययन पर आधारित नहीं है। मेरे एक मित्र, बलदेव शर्मा के लंबे अनुसंधान का परिणाम है जिनसे मेरा परिचय उनके जीवन के अंतिम वर्षों में हुआ था, जब जिज्ञासा की व्याधि ने उन्हें ज्ञान का कंकाल बना कर रख दिया था और फिर वहाँ पहुँचा दिया था, जहाँ कंकाल को भी भस्म होना पड़ता है। मेरी जानकारी में नहीं है कि अपने इस शोध का कोई लिखित नोट छोड़ गए या नहीं। यदि इस विवरण को कोई फर्जी सिद्ध करना चाहे तो मैं प्रतिवाद न करूँगा। केवल इसके अधिक सही विवरण की प्रतीक्षा करूँगा।
जो कुछ हमारी जानकारी में आ पाया, जोशी जी को कलकत्ता के मछुआ बाजार के पेशे से कुँजड़े एक पार्टी कामरेड के हवाले कर दिया गया, जो उनको आए दिन माँ-बहन की गालियाँ दे कर उनके आभिजात्य का कलेवर उतारता हुआ उनका सर्हाराकरण करता रहा। लंबे समय तक निपट गुमनामी की जिंदगी बिताने के बाद जाने किसकी दया से उन्हें जे.एन.यू. में प्रो. के पद पर नियुक्ति मिल गई थी।
एक बार मैंने इस करुण कथा का जिक्र नामवर जी से किया तो उन्होंने खेद जताते हुए स्वीकार किया कि उनसे कोई मिलने- जुलने भी नहीं जाता था। कभी-कभार वह जाते, परन्तु किसी विषय पर चर्चा न हो पाती। वह बीड़ी सुलगा लेते, किसी विषय पर बात नहीं करते। वह अपना जीवन संस्मरण ही लिख कर भावी पीढ़ियों के लिए छोड़ गए होते तो कम्युनिस्ट संगठनों में कलाकारों, साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों के स्थान, विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर, जिसके दौरे सबसे अधिक उन्हें ही पड़ते रहते हैं, कुछ शिक्षाप्रद रोशनी तो पड़ती।
जो भी हो, जोशी जी के साथ हुए व्यवहार ने कम्यून का हिस्सा बनने मुंबई पहुँचे साहित्यकारों के मन को इतना आहत किया कि वे “वाम! वाम! वाम दिशा का सारा उत्साह खोकर संगठनों से सदा के लिए अलग हो गए। जाहिर है शमशेर भी इन्हीं में से एक थे जिनकी अपने आंतरिक विषाद को मैं उनकी प्रसिद्ध रुबाई में अंकित पाता हूँ:
हम अपने खयाल को सनम समझे थे।
अपने को खयाल से भी कम समझे थे।
होना ही था, समझना था कहाँ शमशेर
होना भी वह कहाँ था जो हम समझे थे।।
एक अरसे के लिए प्रगतिशील लेखक संघ जिसका अंग्रेजी में अलग और उर्दू में अलग नाम हुआ करता है, साहित्यकारों के लिए अर्धविस्मृत सा बना रहा।
कई बार जब अयाचित सदाशयता में किसी मित्र को इस बात पर खिन्नता प्रकट करते पाता हूँ कि हिन्दी में मेरे शोधकार्यों को उचित सम्मान न मिला तो अनीश्वरवादी होते हुए भी ईश्वर को धन्यवाद देने का मन होता है कि सरकारी चाकरी की शर्तों के कारण किसी कम्युनिस्ट संगठन से निकटता से जुड़ने से बचा रह गया और मिटना जिस भी सीमा तक संभव हुआ, मिटे वे जिन्हें संस्थानों पर कब्जा करके शोधकर्मियों को इशारे पर हाँकने और असहमत होने पर मिटाने की लत सी पड़ गई थी।