Post – 2020-02-18

सात

जो गलत है वह कई बार एक बड़े फलक पर इतना सही सिद्ध होता है कि उसे हटा दें तो अपने को सही मानने वाले दूसरे विचार, संगठन और योजनाएँ भाप की तरह उड़ जाएँ, जैसे प्रदीप का वह गाना, दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल’ जिसका हम मजाक उड़ा चुके हैं। परन्तु क्या सचमुच उसके पास आजादी थी, और उसने हमें दे दी? दे दी तो किसके पास पहुँची, और वे कौन हैं जो आजादी! आजादी! का राग अलापते रहते हैं? क्या वे जो यह राग अलापते हैं, नहीं जानते कि आजादी कोई किसी को दे नही दे सकता, इसे लड़कर हासिल करना होता है, इसका मूल्य चुकाना होता है। हमने इसका मूल्य नहीं चुकाया, यह जानते तक नहीं थे कि यह मूल्य चुकाया कैसे जाता है। जानता केवल एक व्यक्ति था, उसकी हत्या हो चुकी थी।

मोल चुकाने के कई तरीके होते हैं और जिसका इतिहास सबसे लंबा रहा है वह है खूँरेजी। क्या आप दिल्ली का इतिहास जानते है? नहीं, जानते, ऐसा मुझे अंदेशा है, क्योंकि दिल्ली का इतिहास इंद्रप्रस्थ से नही, उस छोटे से गाँव से शुरू होता है जिसका नाम लेने से लोगों की जबान काँप जाती है और मुँह से खुरेजी ही निकल पाता है, पर दूसरे से तो इतना घबरा जाता है कि इसे खूँरेजी खास की जगह खजूरी खास कहते आ रहे हैं। राय पिथौरा के अंत के साथ दिल्ली और भारतीय इतिहास का वह मध्यकाल आरंभ होता है, जिसके इतिहास का सच यह है कि लोगों को स्थानों का नाम भूल जाता है। परंतु आप इसे सच न मान लीजिएगा। जाँचने परखने पर हो सकता है यह सच भी साबित हो सकता है।

दिल्ली की याद इसलिए आ गई कि लगा भारत को आजादी क्रांति से ही मिल सकती थी जिसके लिए पहले धार्मिक आत्मनिर्णय के लिए दलीलें तैयार करके जिन्ना के दम-खम को बनाए रखा गया और फिर उन नरसंहारों से भावी क्रान्ति का मनोबल तैयार किया जाने लगा। यह काम कौन कर सकता था, यह बताना जरूरी नहीं है? यह जानना जरूरी हो सकता है, कि ऊँचे दिमाग के कुछ लोगों को मालूम था कि कोई चीज बिना उसका मोल चुकाए नहीं मिल सकती।

“दंगों की खबरें छन-छन कर बाहर आने लगीं। उन्हीं दिनों एस. ए. डांगे से हुई एक मुलाकात की याद है। वह मुंबई के मजदूर वर्ग के लीजेंड्री नेता थे, कद में कुछ झँस, करामाती व्यक्तित्व, परन्तु मराठी काँइयापन से भरे हुए। … खैर, वह आए तो मैंने हजारों मील की दूरी पर मेरे अपने घर में जो पाकिस्तान बनने वाला था, हो रहे नरसंहार और आगजनी को जिसकी नृशंसता को प्रतिहिंसा और धर्म की आड़ में बर्बर तोड़ मरोड़ से इसकी भयावहता को कम करने का प्रयास किया जा रहा था, अपने भीतर उफन रही कई जन्मों की क्रुद्ध हताशा को उड़ेल दिया ।
“डांगे ने भावशून्य चेहरे से मुझे देखा जिसके भीतर एक दबा हुआ उल्लास जैसा कुछ था, “परेशान मत होओ राज, हमारे लोगों को खून का स्वाद चख लेने दो, उन्हें सीखने दो कि खून बहाया कैसे जाता है। इससे क्रान्ति का रास्ता आसान हो जाएगा।” गरज कि दंगे, कुछ लोगों के लिए दंगे न थे, प्रशिक्षण कार्यक्रम का हिस्सा थे।
[[1]] News of the riots began to filter through. I remember meeting S.A.Dange around then. He was the legendary leader of the Bombay working class, slight in frame, charismatic, but permeated with Maharastrian cynicism….He was then in the throes of a grand romance with a Czech girl and there was much gossip flying around about the two. Anyway he came, and I poured out my anguish at being thousands miles away from home when home, which was to be Pakistan, was burning away with the angry frustrations of many life times finding fulfillment in brutal distortions, using revenge and religion to wash down the horrors.
Dange looked at me impassively, with almost a gleam of secret delight. ‘Don’t worry, Raj,’ he said. ‘Let our people taste blood, let them learn how to draw it. It will make the coming revolution easier.’ 43
आप गौर करे तो पाएँगे इसमें श्रीपाद अमृत डांगे को नाहक बदनाम कर दिया गया, क्योंकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आज तक लगातार यही करती आई है। जिन्हें अपमानित और उन्हीं की मानी हुई चूक के आधार पर रास्ते से हटाने की ठान ली जाती, उनको आत्मालोचन के लिए बाध्य किया जाता रहा, परन्तु पार्टी से भयंकर गलतियाँ हो रही हैं, इस पर न कभी किसी नेता के जीवन/ प्रभाव काल में विचार किया गया, न अपने तरीके और सोच में बदलाव, न पुरानी गलतियों से अधिक समय तक दूरी बना कर रखी गई, इसलिए यदि आजादी! आजादी, का शोर थमने के फौरन से पेश्तर कोई कामरेड किसी मंच पर हाजिर हो जाता है तो यह भी उसी कटु सचाई का कंटीनुएशन है, जिसमें आजादी को आजादी न मानने वालों में कम्युनिस्ट सबसे आगे थे।

प्रसंग कुछ दुखद तो है पर इतना दुखद भी नहीं कि इसे लंबे समय तक याद रखा जाए। रोमेश और राज विदेश से लौटे तो पार्टी की सदस्यता का फार्म भरने का समय हो गया था।
“हम ने उन्हें (रणदिवे को) समझाया हम पार्टी मेंबरशिप फार्म भरने आए हैं. उन्होंने झल्लाहट और खोखली हँसी के साथ कहा, ‘नहीं, नहीं, अभी नहीं।’ उनकी प्रतिक्रिया से चकरा कर हमने विरोध जताया। जब हम अपनी पर अड़े रहे तो और कोई चारा न रह जाने पर उन्होंने खुलासा किया और बताने लगे कि कैसे पी.सी. जोशी का दिमाग गड़बड़ा गया है, उनके दिमाग में अजीबो-गरीब खयाल आने लगे हैं, अपने को अपने कमरे में बंद कर लिया है और किसी से भी मिलने को राजी ही नहीं।’

हमें बाद में पता चला कि उन्हें जबरदस्ती एक कमरे में बंद कर दिया गया है और अपने गुमराह करने वाले राजनीतिक आकलनों को स्वीकार करते हुए ‘आत्मालोचना’ लिखने को बाध्य किया जा रहा है।
“रणदिवे को आपत्ति इस बात पर थी कि जोशी यह कैसे सोच सकते थे कि भारत स्वतंत्र हो गया । ऐसी बेतुकी बात तो कोई ऐसा ही व्यक्ति मान सकता है जिसका दिमाग फिर गया हो। रणदिवे ने पोलित-ब्यूरो के अधिकांश सदस्यों को अपनी बात का कायल कर लिया था और वे सभी अपने पुराने नेता पर इल्जाम लगा रहे थे और उन पर अपनी यह गलती स्वीकार करने का दबाव बना रहे थे कि भारत को स्वतंत्रता नहीं मिली है।
“हम आज भी साम्राज्यवादियों के दुमछल्ले बने हुए हैं, और भारत की स्वतंत्रता की चर्चा हमारे अपने बोर्जुआवर्ग की उड़ाई हुई बात है जिसकी खूद अंग्रेजों और अमरीकियों से सांठगांठ है। नेहरू अमेरिकी साम्राज्यवाद का हुक्मबरदार कुत्ता है, और पार्टी को राष्ट्रीय पूंजीवाद को पीछे भागने की जरूरत नहीं।”
[[2]] We explained to him (Ranadive) that .we had come to fill our party membership forms. ‘No, no’ not now’, he said, with an embarrassed, forced laugh. We protested, baffled by his reaction. When we persisted, he unwound and proceeded to describe how P.C. Joshi had lost control over his mind, was thinking unthinkable thoughts and had confined himself to his room, refusing to see anyone
We were to learn later that he had been forcibly locked in and asked to pen a ‘self-criticism’, that communist confession castigating himself for his misleading political assessment. Randive had questioned how Joshi could have imagined that India had gained independence, that only someone who had lost his mind could believe that, and with this Randive had convinced the majority in the politburo and they had all turned on the former leader accusingly, pressuring him to confess that he had been wrong and that India was not independent at all. 51
We were tied to the imperialists as ever before, and this talk of free India was a curtain pulled by our very own bourgeoisie which was in league with the British and the Americans. Nehru was the ‘running dog’ of American Imperialism and the party had no business ‘tailing’ the ‘national bourgeoisie’. 54

यदि आप को लगे कि मैं इनमें से किसी बात से असहमत हूँ तो यह भ्रम है। मैं कम्युनिस्ट पार्टी को गलत नहीं मानता। वह हमेशा सही होती है, गलत होता है तो हमारा दिमाग।