Post – 2020-02-17

छह

आँखों में भारीपन है, फिर भी मैं आज सोऊँगा नहीं। मैं इन सपनों की भीतरी बुनावट को समझना चाहता हूँ, जिससे डर भी लगता है और जिंदगी को अर्थ भी मिलता है। अलग अलग हो हुए भी, इनके तार आपस में ऐसे जुड़ जाते हैं जैसे इन सभी के पीछे किसी दूसरे का हाथ और दिमाग काम कर रहा हो और इस चालाकी से काम कर रहा हो कि देखने वालों को लग रहा हो जिसे वह फेंक कर हल्का होना चाहता हो उसे बचाने की जी-तोड़ कोशिश कर रहा हो, उससे जो कुछ माँगा जा रहा हो उसे ही उससे छीना भी जा रहा हो। छीनने वालों की संख्या उसकी रोकटोक के बाद भी बढ़ती जा रही हो, इससे वह परेशान हो। इस छीन झपट में उसे समझ में न आ रहा हो कि इतनी कीमती चीज को वह किस तरह सौंपे कि वह टूटने न पाए और टूटने से रोका न जा सके तो भी चूर-चूर होने से तो बचाया ही जा सके। इन सभी संभावनाओं का एक साथ लगभग-सच-लगभग-गलत और बिल्कुल सच-बिल्कुल, बिल्कुल गलत लगना यथार्थ में नहीं, स्वप्न-योजना में ही संभव है। इतिहास की सबसे जटिल स्वप्न-योजना में हममें से उनको जिन्हें जल्द-से-जल्द कुछ पाने की बेताबी थी, लगा था, हम आजाद हुए हैं। सच कहें तो मिला तो सबको कुछ न कुछ था ही।
यह आज भी एक उलझा हुआ सवाल है कि आजादी मिली या सत्ता का अदल-बदल (transfer of power) हुआ, या त्याग हुआ ? परित्यक्त सत्ता किनके किनके पास किस किस रूप में पहुँची, और उन्होंने इसे किन-किन रूपों मे ढाला? क्या इन सभी को किसी एक नाम से – जैसे आजादी – पुकारा जा सकता है? यदि मेरे पास इसका सही उत्तर हो, तो भी, मैं दूँगा नहीं। कारण सवाल किसी उत्तर के सही होने का नहीं है, किसी को भी सभी के द्वारा सही माना जाने का है, जो न तब संभव था, न आज संभव है। जहाँ तक मेरा अपना सवाल है, सोलह साल के देहाती किशोर ने विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊँचा रहे हमारा गाते हुए अपने गाँव में फेरी भी लगाई थी, लड्डू भी खाए थे और झंडा-गान गाते हुए, इस उमंग से भी भरा रहा था कि आज, हम चाहें तो, दुनिया को जीत सकते हैं। आजादी का मेरे लिए अर्थ था, सब कुछ मुफ्त। यह मिली हुई आजादी अगले ही दिन छिन गई थी, जब पता चला कि बस हो या रेल, कुछ भी मुफ्त नहीं, किराया देना ही पड़ेगा। आप को आश्चर्य होगा यह सोच कर कि सोलह साल की उम्र तक मेरा बौद्धिक विकास इतना दबा हुआ था कि मैं आजादी का मतलब मैं मुफ्तखोरी समझता था! आश्चर्य मुझे भी होता रहा है, कई बार, शर्म भी आती थी, पर अब नहीं आती। आजादी की लड़ाई के समय जो समझ सार्वजनिक थी, वह थी, अंग्रेजों का सत्ता छोड़कर चला जाना और उस पर हमारा कब्जा हो जाना। जो धन विदेश चला जाता था, उसका देश में रह जाना। उसका क्या करना है, इसका निर्णय हमारे द्वारा किया जाना। इसी की ग्रामीण समझ मेरे भीतर थी। परंतु आज सात दशक के बाद मुखर राजनीतिकों और राजनीतिक भविष्य के लिए अतिमुखर नौजवानों को आजादी की उसी समझ के आस-पास देखने पर, आश्चर्य इस बात पर होता है, इस मामूली नासमझी के कारण मैं अपने भीतर शर्मिंदा क्यों हो रहा करता था।
जो भी हो, दो चीजों के विषय में किसी को संदेह नहीं था। पहला, अंग्रेजों का भारत छोड़ कर जाना और दूसरा, नेहरू द्वारा नियति का सामना। नेहरू ने कहा था, “आज रात बारह बजे, जब सारी दुनिया सो रही होगी, भारत जीवन और स्वतंत्रता की नई और उजली चमकती सुबह के साथ उठेगा।” शायराना मिजाज, किताबी दिमाग वाले प्रगल्भ वक्ता चौंकाने वाली बातें तो करते हैं, सही बात नहीं रख पाते। नेहरू जिसे दुनिया मानते थे वह भारत से दूर पश्चिमी जगत हुआ करता था। बहुतों के लिए आज भी वही है, इसलिए जब दुनिया में नाम कमाने का दौरा पड़ता है, तो वे एशिया को छोड़कर पश्चिम की ओर दौड़ पड़ते हैं। हम जिस चक्कर में इसका जिक्र कर बैठे, वह यह कि जिस समय वह बोल रहे थे, दुनिया जाग रही थी; भारत सो रहा था। नरसंहारों, वर्णनातीत अमानवीय और कल्पनातीत कुकृत्यों, विश्वासघातों, उपद्रवों, के क्रूरतम यथार्थ से निढाल, हारा-थका सो रहा था। यदि समय ही चुनना था तो भारतीय समय चुना होता जो सूर्योदय के साथ आरंभ होता है, न कि उनका जिनके पैदा किए अँधेरे से उबरने के लिए आजादी की जरूरत थी। ऐसा न हो सका इसलिए उन्हें कहना था और न कहने पर भी वही होना था, और यह था क्रूर यथार्थ से एक नए रंगीन सपने में खो जाना। स्वतंत्र मान लिए गए भारत का अबतक का इतिहास एक लंबे, अटूट सपने का इतिहास रहा है और अपनी शिक्षा की अग्रता के अनुरूप ‘प्रबुद्ध’ व्यक्ति स्वप्नचारी (स्लीप-वाकर) की तरह आचरण करता रहा है। उसके लिए कोई भी चीज जरूरत के अनुसार कुछ भी हो सकती है या जरूरत न होने पर हो कर भी अदृश्य की जा सकती है।

विश्वास नहीं होता? मुझे भी सोचने और देखने के बाद भी विश्वास नहीं होता, उल्टे अपने होने पर संदेह होने लगता है। हमने देखा, अंग्रेजों ने न किसी को कुछ दिया था, न किसी ने कुछ छीना था, वे इंडिया छोड़ कर भागे थे, पर इस अदा और अदावत भरे अपनेपन के दिखावे के साथ कि एक साथ वे सभी बातें संभव और असंभव लगें। इसलिए जब, जो कुछ कहा जाए सही जैसा लगता है और गलत सिद्ध हो कर आँखों से तब तक के लिए ओझल रहता है जब तक उसे सही सिद्ध करने वाला दुबारा मंच पर नहीं आ जाता। थोड़ी देर के लिए मान लें, आजादी मिली, पर किसके प्रयत्न से:
दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल। परंतु साबरमती के संत उस चर्चा से ही बाहर कर दिया गया था जिसने देश के भाग्य का निर्णय होना था। क्या इसलिए
कि उसने 8 अगस्त 1942 को करो या मरो के संकल्प के साथ, अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया था। और उसका परिणाम उन्हीं दिनों सामने आ गया था जब पूरे आंदोलन को कुचल दिया गया था। इसे सच नहीं मानता गलत भी नहीं ठहरा पाता, क्योंकि जैसे कुचल दिया जाए वह समाप्त हो जाए यह जरूरी नहीं।
लेकिन बचे हुए भारत की सत्ता तो नेहरू को सौंपी गई थी, आजादी भी उनकी, बचा हुआ देश भी उनका। इतनी मेहनत से कमाई दौलत को उनके खानदान से छीनने का प्रयत्न करने वाले अपना इतिहास तो देखते कि उस समय वे क्या कर रहे थे।
लेकिन असलियत यह है कि सुभाष की आजाद हिंद फौज की याद आने पर वे थर्रा गए थे। भागना तो उन्हे था ही। हो सकता है, सपने में जो गलत है उसे भी गलत नहीं कहा जा सकता। जापान घुटने पर आ गया था, सुभाष अपने को बचाने के चक्कर में मारे जा चुके थे, या मरने से बच गए थे, क्योंकि वह मरने के लिए बने ही न थे।
चन्द्र सिंह गढ़वाली को क्यों भूल जाते हैं लोग? बात पुरानी सही, पर मंगल पांडे से अधिक दृढ़ता से उनका हठ-इन्कार-से सिर तान खड़े इस योद्धा की याद, खास करके 1946 के नौसैनिक विद्रोह के बाद, अंग्रेजों के सपनों को रौंदने के लिए काफी था।
हँसी आती है अपनी नादानी पर। सारी दुनिया जानती है, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटेन की आर्थिक रीढ़ कमजोर हो गई थी। वह अपने उपनिवेशों को सँभाल ही नहीं सकता था।
ये सभी बातें सही हैं, सभी गलत। ऐसी ही कुछ और बातें हैं, पर जो असल बात है उसे तो आज कहा ही नहीं जा सकता।
ही नहीं जा सकता।