Post – 2020-02-15

पाँच

मार्क्स को, सोते-जागते, उठते बैठते, बात-बेबात दुहराते रहने की आदत सबसे अधिक मोहन कुमारमंगलम और उनकी बहन पार्वती कृष्णन में थी। वे राजनीतिक परिवार के थे। उनके पिता भारत के पहले मंत्रिमंडल में मंत्री रह चुके थे। उनकी स्कूली पढ़ाई और आगे की शिक्षा विदेश में हुई थी। वे नफीस अंग्रेजी बोलते, पर पोशाक एकदम सादी। मोहन एटन और कैंब्रिज की पैदावार जरूर थे, पर सर्वहारा की सेवा के लिए सारी नफासत को झाड़-पोंछ कर अलग फेंक दिया था। उन दिनों सर्वहारा एक जादुई शब्द था और मेरे कच्चे मन को इसकी आवाज सुनने में बहुत सुहावनी लगती।1]]

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बहुतेक तेज-तर्रार, नौजवान ताकतवर परिवारों से आते थे, क्योंकि अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए विदेश वे ही भेज सकते थे। उनका बोल्शेवीकरण इंग्लैंड में होता, क्योंकि दूसरे विश्वयुद्ध और फासिज्म का सीधा परिणाम होने के कारण, यह बहुत जोर पर था। वे स्वदेश लौटते तो मार्क्सवादी जोश से भरे हुए. अपने अतीत को नकारते हुए। और इधर उनका स्वागत करने को तैयार मिलते स्कूलमास्टरी अनुराग से भरे, पी.सी.जोशी, जो उन दिनों पार्टी के महासचिव हुआ करते थे।[[2]]

सोते,जागते, सपना देखते, मेरा अपना दिमाग उस गहरे खड्ड के कगार को लेकर फटता रहता, जिस तक देश को जिन्ना ने पहुँचा दिया था।

जब मोहन, जो पक्के और समर्पित कम्युनिस्ट थे और इसके बाद भी दिन-रात आत्मनिर्णय के बचाव में तच्छेदार दलीलों की लड़ियाँ पेश करते रहते, तो जी में आता, जो भी हाथ में आ जाए, उनके और उन जैसों के मुँह पर यह समझाने के लिए दे मारूँ कि आत्मनिर्णय का आधार मजहब नहीं हो सकता; कि मजहब और संस्कृति, समानार्थी नहीं हैं।[3]

दूसरों की तो बात ही छोड़ दें पर, मोहन जिसके बारे में मुझे उन दिनों लगता कि वह मार्क्स के समस्त बुनियीदी लेखन को, घोंट कर पी गए थे, वह जिन्ना का समर्थन कैसे कर सकते थे और उनकी बौद्धिक तकरारों के लिए दलीलें जुटा और पेश कैसे कर सकते थे, जिसकी उन्हें उस समय सख्त जरूरत हुआ करती थी।

नेहरू हमारी पीढ़ी के प्रतीकपुरुष हुआ करते थे – पाश्चात्य शिक्षा-प्राप्त, भारत है क्या बला, इसके बारे में अबोध, और उनके लिए प्रगति का केवल एक ही अर्थ था – पश्चिम ने औद्योगीकरण की दिशा में अपने तूफानी वेग से बढ़ते हुए जो कुछ हासिल किया था, उसे एक झटके में हासिल कर लेना।[5]

दरवाजा धड़ाम से खुलता है, या टूट कर गिरता है, इसका पता नहीं चल पाता। गिरा तो है, मैंने देखा भी है, उसके नीचे दब गया था, परंतु कहीं कोई दर्द नहीं होता और गौर से देखता हूं तो आसपास कोई चीज, टूटी-बिखरी भी नहीं दिखाई देती।

“आप की गुफ्तगू में दखल देना चाहता हूँ।” उसके प्रवेश का तरीका ही नहीं, बोलने और अकड़ कर खड़ा होने का तरीका भी उजड्डपन से भरा लगता था। मैंने नाराजगी प्रकट की, “ भले आदमी, किसी के सपने की प्राइवेसी का तो ख्याल रखा होता? आने से पहले अनुमति तो ली होती!”

वह हंसने लगा, “सपने किसी के हों, वे निजी नहीं होते। केवल सपनों में बाहर और भीतर के सारे प्रतिबंध टूट जाते हैं। सपना किसी की नीद में उतरे, वह सार्वजनिक हुआ करता है।”

मुझे उससे इतने सधे-सुलझे जवाब की उम्मीद न थी। बचाव का और कोई उपाय न सूझा. तो सवाल कर बैठा, “आप ने अपनी नींद को तोड़ कर इतनी दूरी तय करके मेरे सपने में दखल कैसे किया?”

“मैं नेहरू जी की आलोचना सहन नहीं कर सकता।”

“जो कुछ इस भद्र महिला ने कहा, उसमें कहीं कुछ गलत या अशोभन था?”

“यह देश नेहरू का था, वह इसे जो कुछ बनाना चाहते थे, बना सकते थे। वह राजनीति की गंदगी से ऊपर थे। कवि थे। कवि के लिए कुछ भी असंभव नहीं। दुनिया जानती है वह आसमान के तारे जमीन पर बैठे ही तोड़ कर ला सकता है। लाता इसलिए नहीं है कि खेती की जगह कम पड़ जाएगी।”

बात उसकी पते की थी, किस पते की, यह तय करना जरूरी न था? पर उतने पते की भी नहीं, क्योंकि इसी समय मेरे मन में संदेह पैदा हो गया, “नेहरू को याद तो उन्हीं कामों के लिए किया जाएगा, जो उन्होंने किया, या करना चाहिए था पर कर न पाए। तुम इसे आलोचना मानते हो, जो तुम्हें सहन नहीं। उनके विषय में चुप रहा जाए तो इतिहास से नेहरू गायब हो जाएँगे। यही, चाहते हो? “

नेहरू को गद्य में याद ही नहीं किया जा सकता। केवल कविता, केवल सरगम। कीर्तिगान की हमारी लंबी परंपरा रही है। उसका ध्यान रखा करो। उसने अपना बायाँ पाँव इस तेवर से उठाया कि मैं सपने में भी कई करवट पीछे लुढ़क गया, पर पाँव उसने मोड़े और चलता बना- लेफ्ट-राइट-लेफ्ट, लेफ्ट इज राइट. राइट इज लेफ्ट। देर तक यही सुनाई देता रहा।

[[1]] This was particularly so with Mohankumar Manglam and his sister Parvati Krishnan…They came from a political family, the father was later to become minister in the first Indian cabinet. They had both been to school and university abroad, spoke impeccable English, dressed in the simplest of clothes… In Mohan’s case it had been Eton and Cambridge, and he had then chucked it all to serve the proletariat. The proletariat a magic word then and it sounded very impressive to my inexperience mind. 6- 7
[[2]] Many of the bright boys of the Communist Party of India (CPI) came from powerful families, for only they could think of sending their children abroad for education; they were bolshevised in England because that was the reigning intellectual trend, a direct result of fascism and the second world war. They returned home fired with marxism, rejected their past and waiting to welcome them with open arms and a large measure of schoolmaterish affection was P.C.Joshi, then General Secretary of the Communist Party of India. 7
[[3]] Sleeping, walking, dreaming, I was tormented by the precipitous edge that Jinnah had brought to the country to. And when Mohan, communist and dedicated, produced a string of defences for the term, day in and day out, I found myself wanting to throw things at him and everyone else for not being able to see that self determination could not be based on religion; culture and religion were not synonymous terms….
[[4]]… And of all people, Mohan, who then I though had devoured all the basic writings of Marxism, how could he hold, support and supply Jinnah with intellectual arguments he so urgently needed?
[[5]] Nehru was the symbol of our generation, western educated, innocent of what India was all about, to whom progress meant all that the West had acquired in its frenetic movement towards industrialization.