चार
यह मेरा अपमान है कि कोई उम्मीद करे कि मैं किसी चीज को पढ़ूँ और वह मेरी समझ में भी आ जाय। अभी मैं पूरा सोच भी नहीं पाता हूँ कि किताब मेरे सामने से गायब!
“एक किताब पढ़ने के लिए कितना समय चाहिए?”
कोई पूछ नहीं रहा, मेरी बेचैनी है जिसने इबारत का रूप ले लिया है; हमेशा ऐसा नहीं हो पाता; अक्सर ऐसा भी होता है कि सही इबारत की तलाश में प्रेत-छाया की तरह देर तक मँडराती रहती है। मेरे पढ़ने की रफ्तार बहुत कम है। पूरे संकल्प से मन की एकाग्रता को बनाए रखने की कोशिश करते हुए पढ़ना आरंभ करता हूँ, और फिर किसी शब्द या प्रयोग या विचार के सम्मोहन में पड़ कर अपने कल्पनालोक में पहुँचा कि वापसी का रास्ता ही भूल जाता हूँ। अंत में झटके के साथ किताब की याद आती है तो सिर पीट लेता हूँ। किताब बंद। कल फिर वहीं से आरंभ करना होगा।
1984, पहली बार जब सामने पड़ी थी, उल्टी थी, पल्टी नहीं थी। पिछले एक हफ्ते से पढ़ रहा हूँ, 17वें पन्ने तक पहुँचा हूँ। आज कल तो हाल यह कि बोलता हूँ तो खाँसी का दौरा पड़ता है और सोचता हूँ तो दहशत पैदा होती है। करवट बदलने में भी श्रम लगता है और वह भी इतना कि डायपर लगाने के साथ ही इसकी उपयोगिता का विज्ञापन आरंभ हो जाए, पहले इसे कोई कहता तो भी विश्वास न होता। इसमें पढ़ना क्या; लिखना क्या?
इस बीमारी के लिए अकेले मैं जिम्मेदार हूँ। कोसंबी की सलाह पर मान लूँ कि बीमार पड़ना पाप है, तो जन्म से लेकर अंतिम घड़ी तक पाप से मुक्त ही न हो पाऊँगा। गीता में स्त्रियों, वैश्यों और शूद्रों को – अर्थात् उत्पादन और श्रम करने वालों को पापयोनि कहा गया है। मैं भी इस पापयोनि मेंं हूँ और गर्व करने के लिए मेरे पास और कुछ है, ही नहीं। परंतु कोसंबी के बताए पाप में लिप्त नहीं रहना चाहता। खैर, जिस माहौल में सोचने से डर लगता है, उसका न मेरी आज की बीमारी से संबंध है, न वह पहले थी। उसे किसने पैदा किया?
भक्! सामने यह चमकीली धुंध का पर्दा कहाँ से फैल गया? सुगबुगाहट का भ्रम होता है। कुछ होने वाला है, शायद। और लो हाथ में पर्चा लिए खड़ी है, “कटीले तारों के उस जाल से बाहर निकल आई है एक युवती जिसे वह पहले क्रांति की झूलाघर कहती थी। मैं इतने लंबे समय बाद, क्षत-विक्षत, पागलों की तरह अपना ही सिर नोचती, घबराकर बाहर निकली हूँ। सिर्फ इस इरादे से कि दुनिया जान सके कि यह है उस झूलाघर की सच्चाई।”
सचाई क्या अंग्रेजी का विज्ञापन होता है? वही तो है उसके हाथ में – विज्ञापन का पर्चा , जिसे सच्चाई के नाम पर लहरा रही है, परंतु लहराने का तरीका ऐसा कि हर बार वे ही शब्द कभी आग बन जाते हैं, अभी प्रकाश और कभी अपनी आंच से जलकर राख में बदल जाते हैं:
Marxism was constantly quoted, how accurately, I couldn’t tell then, (लगातार मार्क्सवाद के हवाले दिए जाते, मुझे यह भी पता नहीं चल पाता कि वे सटीक भी हैं या नहीं।)
and what never seemed to occur in the midst of frenzied arguments, was the oblivious incongruity of holding a juicy job in a foreign firm on the one hand and entertaining ideas of communism on the other. (और उत्तेजना में विक्षिप्त करने वाली उन दलीलों के बीच-बीच में जो बात दबी रहती, जिसका इस उत्तेजना से कोई मेल नहीं बैठता था, एक ओर किसी विदेशी फर्म में मजेदार नौकरी पाने की लालसा और दूसरी ओर साम्यवाद के खाबो-खयाल पालते रहना, जिनका आपस में कोई मेल ही न था।)
Accusations of being a Menshevic or a Bolshevik, of being reactionary or a progressive, could be hurled from a ‘boxwallah’ to an independent like Romesh without a shadow of guilt or absurdity. (डिब्बावाले से लेकर रोमेश जैसे खुली सोच तक के किसी भी व्यक्ति मेनशेविक या बोलशेविक होने के, प्रतिक्रियावादी या प्रगतिशील होने के ठप्पे आत्मग्लानि या वाहियातपन की फिक्र किए बिना लगाए जा सकते थे।)
I understood little of it myself moving naturally and effortlessly, almost sleepwalking, towards the communists, who were as much part of the social elite of Bombay at the time as anyone else. ( मैं तब इन बातों को खुद भी समझ नहीं पाती थी और निद्राचारी की तरह बिल्कुल स्वाभाविक रूप में आयासहीन ढंग से कम्युनिस्टों की ओर बढ़ती चली जा रही थी जौ उस समय की मुंबई के सामाजिक अभिजातवर्ग का हिस्सा थे जैसे कोई और।