तीन
यातना और चेतना दोनों का एक दूसरे का पर्याय हो जाना। ज्ञान के दृष्टि में बदलने की प्रक्रिया क्या इतनी आत्ममुग्ध दाहकता से भरी है? बुद्ध ने कहा था इसके बाद भी जो कोई भी दुख को उसी गहराई से भोगेगा वह बुद्ध बन सकता है।
नहीं, बुद्ध बनने की कोशिश नहीं कर रहा। बुद्ध, भगवान, ओशो, जैसे ताबीज भीतर से खोखले लोगों की जरूरत हैं। यदि वे सचमुच कुछ होते तो अपने से अलग भागने की इच्छा तक पैदा न होती। मैं केवल यातना और चेतना की उस सांद्रता और प्रखरता की बात कर रहा हूँ जो जीवन में अर्जित ज्ञान को घोल कर दृष्टि में बदल देती है। इससे गुजरे बिना बुद्ध भी नहीं कह सकते थे “मेरा कोई गुरु नहीं, मैं आत्मदीप हो कर विचरता हूँ।”
भीतर कुछ टूट रहा है – सूचना और ज्ञान की पहले की बुनावटें शिथिल हो रही है। लगता है जैसे अपने ही भीतर एक सुरंग तैयार हो रही हो, जो सुरंग भी नहीं है जैसे स्वप्नतन्द्रा की हर चीज जो होती है, वह हो कर भी, वही नहीं हुआ करती। कोई रहस्य है जिससे उन निचली परतों तक आलोक फैलता जा रहा है और नीचे और नीचे उतरने और अपने को नए सिरे से पहचानने की चुनौती पैदा हो रही है।
जल्लाद हाजिर! “रिसर्च पूरा हुआ?”
वह उत्तर की प्रतीक्षा नहीं करता। उसके हाथों में कुछ है। उसे, वह दोनों हाथों से आसमान की ओर तानता है और वज्रप्रहार करता सा मुझ पर फेंकता है। मजे की बात, फेंकने के क्रम में पत्थर किताब में बदल जाता है। किताब अपने को फटने- बिखरने से बचाने के लिए नीचे गिरती नहीं है, हवा में टँगी रहती है। “मै इसे पढ़ चुका हूं, पन्ने पन्ने पर क्या लिखा है, यह दिमाग में वैसे ही दर्ज है, जैसे किताब में छपा है।“
वह हँसता नहीं है। हँसी उस किताब से फूट रही है, हवा से पलटते पन्नों की सरसराहट की तरह, और फिर पन्नों के भीतर से निकली उदासी ने पूरे माहौल की उजास को निर्वात की तरह सोख लिया है और उसी के भीतर से फूटती है एक धिक्कार, जिसकी कड़क को मैं पहचानता हूँ, “मूर्ख तूने इसे पढ़ा नहीं था। नोट बनाया था। इधर उधर लहराता हुआ पाठकों पर असर जमाता फिरा था। इसे पढ़ने का नैतिक मनोबल तक तुममें न था।
यातना की लंबी प्रक्रिया से गुजरने के बाद बुद्ध कैसे पैदा होता है, यह तक तेरी समझ में नहीं आया। इसे पढ़ने के बाद व्यक्ति स्वतंत्र हो जाता है। लोग यह पूछने से भी डरते हैं, कि तेरा गुरु कौन है। तू किस मार्ग का पथिक है। यही, और एक मात्र यही, इस बात का प्रमाण है कि तुमने इसे पढ़ा है या नहीं ।
इस पुस्तक के प्रकाशित होने के साथ भारत से कम्युनिस्ट पार्टी का अन्त हो जाना चाहिए था। यदि नहीं हुआ, तो उन गलतियों का सदा के लिए अंत हो जाना चाहिए था, जिन के नमूने इस किताब में भरे पड़े हैं। और कुछ नहीं तो कम्युनिस्ट पार्टी का नाम गजवा-ए-हिंद हो जाना चाहिए था। कुछ भी नहीं हुआ।
दगाबाज चेहरे लगातार अपने दोस्तों की गर्दन की माप लेते रहे। यह था इस इस दंपति का आत्मदीप बनकर उसी दिशा में आगे बढ़ जाना, जिसमें बढ़ने के तू सपने देखता है, पर साहस नहीं जुटा पाता। भारत के ज्ञात इतिहास में इतने महान वैचारिक क्रान्तिकारी न पैदा हुए, न होते दिखाई देते हैं।
यह था कम्युनिस्ट पार्टी से राज थापर और रोमेश का मोहभंग । जिन दिनों क्रांति का डंका बजाने वाले आपातकाल की जन्मदात्री के लहँगे के घेरे में क्रांति की जमीन तलाश करने में जुटे थे, रोमेश थापर और राजथापर राज घराने में पुश्तैनी गहरी पैठ को ठोकर मार कर धन, सम्मान और प्राण सभी का संकट मोल लेकर, सेमिनार निकालते रहे।
अकेले एक दंपति ने आपातकाल के लौह-पंजे को मरोड़ कर रख दिया। तुम इसे आज भी समझने के योग्य हुए हो या नहीं, इसका पता कल चलेगा।”
थप्प! अभी तक जो किताब हवा में टँगी थी ठीक मेरी आँखों के आगे आ गिरी।