Post – 2020-01-31

लिखना नहीं आता है तो लिखता है भला क्यों.
चुप रहने से परहेज, जियादा नहीं अच्छा।।

अर्थात् समीक्षा भारतीय मुसलमान’ की

समीक्षक निर्डरानन्द

इस समय मेरे सामने समीक्षा के लिए दो पुस्तकें हैं। समीक्षा मैं करता नहीं, पर किताब चुनौती दे कि ‘आ बैल मुझे मार’ तो मैं बैल की तरह नहीं, साँड़ की तरह सींग ताने, नथुने फनकारते, आँखें मिचमिचाते, झाग गिराते, अगला एक पाँव रौंदने को उठाए, मैं पड़ता हूँ।

हंसी इसलिए आ रही है, दावत दे बैल को दी गई और आप उसने ऐसा बंद करें शिकार को आंखें बंद करके देखते हैं, जब होश हवास में रहते ही नहीं है तो उसका मूल्यांकन कैसे करेंगे? आंखें आधी मींच कर देखेंगे तो दिखाई क्या पड़ेगा, लक्ष्य दिखाई नहीं दे रहा है तो निशाना कैसे लगेगा? और जो आप चुनौती देने की बात कर रहे हैं वह तो इस लेखक के स्वभाव में ही नहीं है। अपनी कमियां खुद बताता चलता है।

यहीं आप धोखा खा जाते हैं। लेखक मानता है कि भारत की किसी परिघटना समझने के लिए भारतीय संस्कृति को समझिए, तब इसकी भाषा समझ में आएगी, उसके बाद मुहावरे समझ में आएँगे, इरादे समझ में आएंगे और तब आपको पता चलेगा जो कहा जाता है उसका कोई मतलब नहीं होता, जो करना होता है उसे कहा नहीं जाता। यह लेखक उसी संस्कृति पक्षधर है। पक्का घाघ है। घाघ का मतलब मत पूछिएगा, मैं खुद ही बता देता हूँ, इसका अर्थ है गूढ़ ज्ञानी। इसका प्रयोग, घुन्ना, मतलब तो यहां भी ‘गहन-ज्ञान-वाला’ है, परंतु दोनों शब्दों का मतलब अपने मन का भाव दूसरों से छिपा कर रखने वाला है। बात साफ है, जिसके मन का भेद नहीं जान सकते उसकी बात पर विश्वास नहीं कर सकते। इसके कहे पर मत जाइए, इरादे भाँपिए।

इसने 3 हफ्ते पहले कहा था, कहा था, ‘किताब पढ़ने में मजा आ रहा है।’ क्या कोई शरीफ आदमी अपनी ही किताब की अपने ही मुंह से तारीफ करता है। और मौका देखिए। पुस्तक मेला लगा था, यह आदमी अपने लेखन को पसंद करने वाले लोगों को अपनी किताब खरीदने के लिए बहका रहा था। इसी बहकावे मैं आकर मैंने भी ₹300 प्रकाश की झोली में डाल दिए, बताया, लेखक की तारीफ पढ़ कर आया हूं, कमीशन अधिक दीजिएगा, जवाब मिला, साहब कमीशन तो बुक फेयर के रेट पर भी नहीं दे सकते, जैसे जब आप डॉक्टर के सलाह पर टेस्ट कराने जाते हैं. तो लैब आपसे जो फीस वसूल करता है, उसमें डॉक्टर का कमीशन भी जुड़ा रहता है, उसी तरह यदि आप लेखक के कहने पर आए हैं कमीशन लेखक के खाते में जुड़ गया। मेरे गुस्से के लिए यह क्या छोटी चुनौती थी।

आइए असली मुहावरे पर। मुहावरा ‘आ बैल मुझे मार’ इसलिए बना है लंगोटा लहराते हुए पहलवान ने अखाड़े का चक्कर लगाते चुनौतीयह सोच कर दे दी, कि उसे पता है बैल की हिम्मत नहीं जो सामने आ जाए। बैल सींग चलाना कभी का भूल चुका है, पिटने की आदत कब से उसे पसंद आ रही है, दिमाग से काम लेना पसंद ही नहीं करता, नहीं तो जुआठ से बाहर आने के बाद कभी भागने का तो प्रयास करता।

मैं संक्षेप में आपको यह बता दूं संक्षेप में बात करना मुझे इसलिए पसंद है कि मनुष्य का समय मूल्यवान होता है। सो साँड़ की समझ में क्या आता है, क्या नहीं, वह क्या देखता है या नहीं, वह होश हवास में रहता है या नहीं, इसके पीछे जीवविज्ञान और पशु-मनोवित्ज्ञा दोनों का एक साथ झमेला खड़ा होता है। इसलिए फिर संक्षेप में यह बताना पड़ रहा है सभी ऋषि, ऋषभ, वृषभ, गर्ग (साँड़) इसलिए माने जाते रहे हैं उनके विचार, आचार, व्यवहार, यहां तक कि कदाचार दूसरों के नियंत्रण से परे रहें। उन्हें क्या दिखाई देता रहा है यह तो हम नहीं जानते परंतु इस लेखक को क्या दिखाई देता है क्या नहीं दिखाई देता, इसका सामना इस किताब को पढ़ते हुए मुझे इतनी बार हुआ कि जी में आया लेखक सामने पड़ जाए तो उसकी छुट्टी, प्रकाशक सामने पड़ जाए तो उसकी छुट्टी, और आज की एक बात बता दूँ कि मेरे सामने इस किताब की तारीफ करने वाला कोई मिल गया तो उसकी भी छुट्टी और में जैसे निंदा कर रहा हूं, या करने की तैयारी कर चुका हूं वैसा करने का साहस किसी दूसरे ने किया तो उसका कीमा बना कर उसी को परोस दूँ।

गलती तो एक ही दिखाई दी लेकिन इतनी बार कि सोचा किताब लेकर जाऊं और लेखक या प्रकाशक में जो भी सामने पड़ जाए उसके मुंह पर मार दूँ। ये प्रूफ की गलतियां हैं, लेखक पहले से इसके लिए बदनाम है, कोई पोस्ट नहीं जिसमें वह ढेर सारी गलतियां न करता हो और उसे सही सही पढ़ने का बोझ पाठकों पर डालकर “संपादन कल करेंगे’ लिखकर पोस्ट न कर देता हो। अरे भाई संपादित रूप कल ही आना था तो संपादन करने के बाद पोस्ट करते। संपादन के बाद पढ़िए उसने क्या किया, उसमें भी गलतियाँ। गलतियां करने का आदी यह लेखक, दूसरों की गलतियां सुधारने की जिद क्यों पाल लेता है?

इसकी कमियों पर बात करूंगा, जो लेखक को दिखाई नहीं दी थीं, प्रकाशक ने इसलिए छोड़ दी थीं कि इससे नेगेटिव प्रोपेगेंडा होगा और किताब भी खूब बिकेगी। प्रकाशक इसके लिए किसी हद तक जा सकता है। लगभग समान विषय पर लिखी अभय कुमार दुबे की पुस्तक में और कोई चारा न दिखाई दिया तो, प्रकाशक ने लेखक का परिचय को इस तरह बिगाड़ दिया है मानो उसकी हस्ती मिटा देना चाहता हो। जितना उल्टा-पल्टा पुस्तक वह भी बहुत अच्छी लगी और सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रकाशित भी। यह अभय कुमार दुबे के अब तक की विचाररेखा में आया एक परिवर्तन भी है जिससे उनसे आगे भी अधिक ऊंचाई पर पहुंचने की उम्मीद पैदा होती है।

इस पुस्तक की मात्र एक ही गलती पर ध्यान दीजिए, ,पृष्ठ 294, 285, 296, 297, 299, 302, 309, 311, 314, 318, 319, 327, 328, 355 356 367 369 380 382 388 389 410 और 414 पर बार-बार इलहाम को इस्लाम मुद्रित किया गया है।

इसका मतलब क्या होता है, मतलब यह होता है कि न तो उसे इल्हाम का पता है, न इस्लाम का, और नहीं कुरान का। “इलहाम खुदाई आदेश है। उसकी अवज्ञा नहीं की जा सकती। मनुष्य अपने दिमाग से यह तय नहीं कर सकता कि अल्लाह की निगाह में क्या सही है, क्या गलत। इंसान कितना भी बुद्धिमान हो उसका दिमाग उस ऊंचाई पर नहीं पहुंच सकता जिस पर अल्लाह का दिमाग है। इंसान गलतियां करता है अल्लाह कोई गलती नहीं करता। कुरान उन इलहामो (खुदाई आदेशों) का संग्रह है, इसलिए इलहाम गलत नहीं हो सकता, इल्हाम पहली बार इब्राहिम को हुए और अन्तिम बार मुहम्मद को, उसके बाद किसी दूसरे को न हुआ न हो सकता है। इसलिए मुहम्मद को हुए इल्हाम के आप्त प्रमाण वह स्वयं थे। उन्हें मिला इल्हाम गलत हो ही नहीं सकता जब कि इंसान गलतियां करने के लिए पैदा हुआ है और गलतियों से ही पैदा हुआ है। कुरान शरीफ में लिखी कोई इबारत गलत हो ही नहीं सकती।“ जो बात संक्षेप में इन कुछ वाक्यों में अधिक स्पष्टता से कही जा सकती थी, उसके लिए लेखक ने 431 पन्ने बर्वाद कर दिए। हँसिए, आप इशारा कर रहे हैं कि जब इतनी ही बात करनी थी तो मैंने इतनी लंबी भुमिका क्यों बाँधी और आप का इतना बहुमूल्य समय नष्ट क्यों किया?

मैं आपको लेखक की शैली से भी परिचित कराना चाहता था, वह इधर उधर की बातें करता हुआ आपको पहले बोर कर देता है और फिर जब आप थक जाते हैं तो जो भी उल्टा सीधा आपके दिमाग में घुसाना होता है घुसा देता है और आप उसे सही मान लेते हैं मैं उसी की शैली में उसका जवाब दे रहा था। बोलिए मैंने उसकी छुट्टी कर दी या नहीं।

और जब उसे चें बुलवा दिया तो आपको यह बताना भी अपना कर्तव्य समझता हूं इस पुस्तक में उसने किसी झोल झमेले से काम नहीं लिय़ा है और कोई भी कथन बिना निर्णायक साक्ष्य के नहीं है। इस्लाम और मुस्लिम समाज और भारतीय मुस्लिम राजनीति के विषय में इतने तटस्थ भाव से लिखी गई अभी तक ऐसी कोई पुस्तक नहीं थी जिसे आप संदर्भ पुस्तक के रूप में प्रयोग में ला सकें इसलिए ही यह एक मात्र त्रुटि इतनी असह्य लगती है और एसलिए इसके साथ एक शुद्धपत्र लगाए बिना पुस्तक की विक्री बंद कर देनी चाहिए और जो पुस्तकें बिक चुकी है उनमें पाठकों को ऊपर के पन् में सुधार कर लेना चाहिए।

लेखक ने लिखा है ‘मैं इस्लाम का अधिकारी विद्वान नहीं हूं, जानकारी परिश्रम करके कम समय में जुटाई जा सकती है परंतु अधिकार लंबे समय तक किसी समस्या से अंतर्विरोध उसे जूझते हुए किसी समाधान पर पहुंचने के बाद ही प्राप्त होता है अपनी जानकारी के लिए मैंने जिन स्रोतों पर निर्भर किया है, वे लगभग सभी इंटरनेट के माध्यम से ही सुलभ हो सके।

मोहम्मद साहब के लिए लेखक ने विशेषणहीन नाम का ही प्रयोग किया है, जबकि मुसलमानों में विशेषण की एक लंबी श्रृंखला के बाद ही मोहम्मद का नाम लेने की परंपरा है जिससे अलग जाना मुस्लिम पाठकों को नागवार लग सकता है, लेखक ने स्पष्टीकरण देते हुए लिखा है ‘अपने पहले आलेख में मैंने मोहम्मद के साथ सर्वत्र साहब लगाया था। विशेषण छोटे आदमी को बड़ा और बड़े आदमी को छोटा बनाते हैं। राम श्रीराम या रामजी से बड़े हैं गांधी, महात्मा गांधी और गांधी जी से बड़े भी हैं, विशेषण हट जाने के बाद हमारी आत्मा के अधिक निकट भी, अधिक व्यापक भी। यह सोचकर साहब विशेषण हटा दिया।