मरने के बाद नर्क और स्वर्ग की कल्पना की गई है, जीते जी सभी सुविधाओं के बीच यंत्रणालोक में पहुंच जाने की व्यग्रता को क्या आ जाए? यहीं कुछ है जो मुझे अपनी आँच में सेंक कर दूसरों से बहुत अलग टेढ़ा टबरा पर अधिक ठोस बनाता है।
उसके बाद जिन्होंने आजादी की मांग की उनको खा जाएगा, और वह यह नहीं चाहता है हम तुमसे क्नु को क्नो gnos nose knowse knasa उसका प्रयोग क्रिया के रूप में हुआ जिसका भाव यही पर अनुवाद संभव नहीं। इस प्रयोग में परिचय न दूँ, तो आपका ध्यान शायद ही उस गंभीर समस्या की ओर जाए।
गार्गी के सभी प्रश्नों का उत्तर देने के बाद जब याज्ञवल्क्य ने, अंततः कहा, ‘सब कुछ ब्रह्मलोक में समाहित है’, तो भी गार्गी संतुष्ट न हुई। उसने फिर पूछ दिया, ‘ब्रह्मलोक किस में समाहित है?’ उत्तर में याज्ञवल्क्य चिढ़ गए, सोचा होगा, सब कुछ को समाहित करने वाले से परे क्या बचता है जिसे बताया जाए ? यह तो फालतू सवाल है, जिसका कोई अंत ही नहीं।
मैं अपनी बात ठीक से कह नहीं पाता, इसका एक कारण यह है कि मुझे यह भ्रम बना रहता है, कि मैं जिन से बात कर रहा हूं, उनको किसी चीज का पता ही नहीं। यदि हर बात को मैं स्वयं न समझाऊं तो उनके पल्ले या तो कुछ पड़ेगा नहीं, या कुछ का कुछ समझ बैठेंगे।
अब इसी अतिप्रश्न को लीजिए। आपने पढ़ भी लिया। मैंने बता दिया की इसका प्रयोग पहली बार याज्ञवल्क्य ने किया था, फिर मेरी समझ में आता है, आप याज्ञवल्क्य को भी कहां जानते हैं, यह तो सिर्फ नाम हुआ, जानना तो हुआ ही नहीं। मन में लोभ पैदा होता है, इसे भी बताता चलूँ।
यह समस्या इतिहास में दो ही लोगों के सामने आई, पहली बार महर्षि पतंजलि के सामने, और दूसरी बात, आप देख ही रहे हैं, बताऊँ न बताऊँ के चक्कर से इस फिक्र में पड़ गया कि इसका कोई अंत भी तो नहीं है।
पतंजलि ने कहा, एक शब्द को भी जानने चलें, तो इतना फैलता जाएगा कि सब कुछ उसी से जुड़ जाएँ, लोक परलोक की सारी कामनाएँ पूरी हो जाएँ- एकः शब्दः सम्यक् ज्ञातः साधु प्रयुक्तः स्वर्गे च लोके च कामधुक् भवति।
उन्हें लोग महर्षि इसलिए कहते हैं कि वह संक्षेप में, इसका हवाला दे कर आगे बढ़ गए। उन्हें यह शऊर था अपनी बात पूरी करनी हो, तो इसकी चिंता न करें कि पूरी बात समझा कर ही दम लेंगे। सभी अच्छा वक्ता इस नियम को जानते हैं, कि कहना क्या है इसकी जानकारी से अधिक जरूरी यह जानना है कि क्या नहीं कहना है। बस यही छोटी सी शर्त मुझे नहीं मंजूर, इसलिए सब कुछ कहने की कोशिश में जो कहना जरूरी था वही छूट जाता है।
मैं सोचता हूं, मैंने जो कहा, वह सुनने वाले की समझ में पूरी तरह आई ही नहीं, तो आगे कैसे बढ़ा जा सकता है। दूसरों को पूरी तरह समझाने के चक्कर में मैं कोई बात पूरी कर ही नहीं पाता, और एक बार जिस बात को कह चुका हूं, बार-बार उसी पर लौटता हूं। मेरे से कुछ भी पता ही नहीं, क्योंकि कहने के बाद भी अधूरा रह जाता है।
मैं बात याज्ञवल्क्य की कह रहा था, आप जानते यह हैं, कि वह वेदांत आंदोलन के अग्रदूत थे। वेद आरण्यक उपनिषद में उनका उल्लेख है, शतपथ ब्राह्मण की रचना भी उन्होंने ही की थी, वह चाहते थे कि आज के बाद कोई भी व्यक्ति 20 का सेवन न करें, ईमानदार इतनी थे, कि किसी नाभिक मौके पर, यह स्वीकार किए बिना नहीं रहते थे कि मैं अपने को इससे रोक नहीं पाता। उन्होंने जो कसम दी थी, उसे सोच कर आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे, खैर, कसम भी नहीं दी थी, उन्होंने इतनी जोरदार शब्दों में यह समझाया था यह जो गोरू-बैल हैं, एक एक हो जाए हुए आहार से सब का पेट भरता है, इसलिए जो इनका भक्षण करता है वह उतना ही गलत काम करता है जैसे कोई अपनी मां के गर्भ में पड़ी अपनी संतान की ही हत्या कर दे, (ते देवा अब्रुवन् बत् धेनु अनुडहौ वा इदं सर्वं बिभृतः …यो धेनु अनुडहयोः अशनीयात् अन्तगतिः इव तं अद्भुतं अभिजनितोः जायायैः गर्भं निरवधीत इति। )
इतनी तमाचामार शैली में दूसरों को झिड़क दिया, तो फिर वही अतिप्रश्न वह स्वयं क्यों खाते थे ? और खाते भी थे तो ठीक इस नाजुक मौके पर सबके सामने, बिना किसी दबाव और उकसावे के यह कबूल करने की जरूरत क्या थी कि वह स्वयं अपने को रोक नहीं पाते थे (तत् उह उवाच याज्ञवल्क्यः अश्नामि एव अहं, अंसलं च इत् भवति। शतपथ ब्रा. 3.1.2.21)।
इस अति प्रश्न उत्तर पाने के लिए मेरे बाबा की सहायता लेनी होगी।