बात अपनी भी कहो, अहले वतन चाहते हैं (2)
मुझे बोलना भी नहीं आता। इसमें तो किसी का दोष नहीं, माई की भी नहीं। गो जब वह कान उमेठती तो इस चेतावनी के साथ कि रोया तो फिर मारूँगी। वह यह धमकी न देती तो भी मैं रोता नहीं। किसी के सामने रोना, मुझे अपना अपमान लगता था। मैं दुर्दिन में भी किसी के सामने राेया नहीं। झुक कर किसी चीज की याचना न की, झुक कर कुछ भी ग्रहण न किया । मैं एकान्त में, सबकी नजरें बचा कर रोता था और उसी बीच यदि पुकार हो गई ताे झटपट आँसू पोंछ कर, जैसे पानी से नहीं, आँसुओं से मुँह धोया हो, प्रफुल्लित, हुक्म बजाने के लिए हाजिर हो जाता था। हो सकता है जीवन में जिस ऋजु दृढ़ता को अपना स्वभाव बनाए रहा, वह मेरे उसी प्रतिरोध की देन हो, पर तो भी उसकी जननी तो माई ही हुई।
पर यहाँ मनोभावों की अभिव्यक्ति की अश्रुधारा पर नहीं, वाचिक अभिव्यक्ति की बात कर रहा हूँ।
कुछ दोष मेरे संस्कारों का हो सकता है, जिसके कारण मैं अपना सुख-दुख किसी से बाँट न पाता था, और कुछ मेरे अहंकार का, कुछ संयोग का, परन्तु इसमें जो अंतिम तत्व सबसे बाद में जुड़ा, वह यह, कि केवल हिंदी जगत का नहीं, पूरे जगत का ज्ञान, कुछ क्षेत्रों में इस तरह नष्ट किया गया है कि अचलज्ञान संपदा के अधिकारियों के समक्ष, उनके ही ज्ञात सत्य की आलोचना किए बिना, अपनी बात करें तो वे अपनी ज्ञान सीमा में आपको मूर्ख मानकर, आपकी बात को समझने से इनकार कर देंगे।
यह स्वयं, उनके ज्ञात और मान्य विचार को पेश करके, उसका खंडन करने के बाद, अपनी बात समझाते हुए, आगे बढ़ने की ऐसी बाधा दौड़ थी कि खेल के मामले में जो देखते ही समझ में आ जाती है, वह वाचिक अभिव्यक्ति के मामले में उल्टी समझी जा सकती है। आप सही नहीं, एक गलत मानसिकता से ग्रस्त सिद्ध किए जा सकते हैं। एक गलत मान्यता की गाँठें लेखन में खोलते हुए आगे बढ़ना उतना कठिन काम नहीं है, जहाँ सब कुछ आपके नियंत्रण में होता है और पाठक सामने नही, केवल कल्पना में होता है, पर मंच से, या अन्यथा भी, बोलते हुए, समय से ले कर श्रेता तक के धैर्य की सीमा होती है।
बात-चीत तक में कई बार दूसरे व्यक्ति को अल्पज्ञता की झेंप से बचाने के लिए, विशेषतः यदि वह समादृत हो, उसके मंतव्य को जानने के बाद, मुस्कुरा कर बात खत्म कर देनी होती है।
यह रही उस पहले वाक्य की भूमिका जिसमें मैने कहा था कि मैं बोलना तक नहीं जानता। कुछ तो मैं खराब बोलता हूं, और कुछ मेरे आदर्श ऐसे हैं जिनके समकक्ष बन पाने की क्षमता के अभाव के बोध से कविता छोड़ दी और मंच से बोलने के प्रति उदासीन होता गया। कविता में यह नाम केदारनाथ सिंह का है, और बोलने में नामवर जी, जो इतनी स्पष्टता, इतने तारतम्य से, किसी विषय पर इतने अधिकार से बोलते कि श्रोता सम्मोहन की अवस्था में आ जाए।
यह जानने में समय लगा कि प्रभावशाली प्रस्तुति एक कला है, जिससे प्रतीति होती है, कलात्मक सम्मोहन पैदा होता है, वस्तुबोध नहीं। यह खतरनाक भी हैं।
जो सही तरीके से बोलना तक नहीं जानते उनका शिरोमणि मैं नहीं हूं। नागार्जुन हैं। न सिलसिले से बोल पाते थे, न कविता पढ़ पाते थे। श्रोता मुग्ध हो उससे पहले, अपनी ही रचना पर ताली बजाते हुए, लगभग नाचने लगते थे। उनसे भी आगे शमशेर, बात करो तो दिल में घर कर जाएं, मंच से बोलें तो कोई प्रभाव न पड़ें और फिर भी लगे कि कुछ तो था जो लड़खड़ाते हुए शब्दों के भीतर से चमक रहा था। और सबके उस्ताद, त्रिलोचन शास्त्री। बोलते कहीं थे, और बोलते कहीं का थे। और फिर भी जिन्होंने उन से अंतरंग बात की है, उनकी बहकी बहकी बातों के बीच से एक आतंककारी आवेश उन पर ताउम्र छाया रहा था।
खराब बोलने वालों के दो सिरों पर रामविलास शर्मा और अज्ञेय। और खराब कविता पढ़ने वालों के दो सिरों पर एक ओर अज्ञेय आते थे, दूसरी ओर उर्दू में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, और हिंदी में त्रिलोचन शास्त्री। अज्ञेय संचार के दूसरे अंतरंग स्तरों पर उतार कर कविता के मर्म को संचारित करना चाहते थे। वह पूरी आत्मीयता के साथ धीमी आवाज में बोलते थे कि आप की गरज हो तो ध्यान और प्रयत्न से सुनें। परंतु अहमद फ़ैज़ और त्रिलोचन शास्त्री पढ़ते तो उसी इरादे से थे, पर अपनी कविता इस तरह पढ़ते थे जैसे किसी दुश्मन की कविता पढ़ और उससे दुश्मनी निकाल रहे हों।
परंतु यह न समझें कि मैं अपनी कमजोरी छिपाने के लिए बड़े बड़ों का नाम ले रहा हूं, और ताना भी न दें कि मुझे अपनी विफलता पर शर्म आनी चाहिए। सच्चाई यह है कि इन उदाहरणों के बाद भी मुझे शर्म तो आती है। हां अपने बारे में मेरी राय इतनी खराब नहीं है, जितनी मेरी इस कमजोरी को जानने के बाद, आप बनाना चाहेंगे।
मैं जिस वजह से कह रहा हूं कि मुझे बात करनी नहीं आती वह यह कि यदि आती होती तो जिन मुद्दों का, शुरू में, सूत्र रूप में, संकेत दिया था उन्हीं पर तरतीब से और कुछ विस्तार से बात करता। हुआ यह कि लड़खड़ाते हुए, धीरे-धीरे आगे बढ़ते जहां पहुंचे, वहीं तंबू गाड़ दिया, पीछे का पूरा इलाका साफ। अपनी बात सिलसिलेवार तो कहता। अब यह कोशिश कल।