बात अपनी भी कहो, अहले वतन चाहते हैं
कल अपनी पोस्ट पूरी न कर सका। जो लिखा वह जिस व्यग्रता और भरे कंठ और भरी आँखों से था उसकी शब्दसंख्या जाँचने के लिए हाइलाइट किया था और खाने की घंटी बजी तो उठ कर जल दिया। ळौट कर देखा वह गायब। जल्दी में कट भी गया और सेव भी हो गया। सुबस उसका कश्चात्ताप तुकबंदी में फूटा। शीर्षक रख दिया परिचय। मित्रों ने औरशोध करने वालों ने कई बार दबाव बनाया कि अपना परिचय लिखूँ, लिखना भी चाहा, पर कैसे लिखा जाता है, या कैसे लिखना चाहिए सूझा ही नहीं। आच शार्षक सूझ गया तो सोचा इसके पहले आत्म लगाने कर देखते हैं:
मुझे कोई खेल नहीं आता। यहाँ तक कि ढेला तक निशाने पर नहीं मार सकता। परंतु मुझे खेल देखना बहुत पसंद है। तन्मयता से देखता हूँ, जैसे मैं देख नहीं रहा हूँ, खेलने वाले की जगह खुद ही खेल रहा हूँ। क्रिकेट मुझे सबसे अधिक पसंद है, क्योंकि सौ तक की गिनती उल्टी-सीधी दोनों गिन लेता हूं। चौके, छक्के में, फर्क कर लेता हूं, एक दिन ऐसा भी आएगा गूगली, यॉर्कर, बाउंसर का फर्क भी समझ कर रहूँगा। इस खेल पर इतना अधिकार कर चुका हूं कि जब किसी अच्छी गेंद पर किसी को आउट होते देखता हूं तो मेरे मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ता है, अरे, इसे तो मैं भी नहीं खेल सकता था।
अपनी अयोग्यताओं के लिए अपनी विमाता (माई) को दोष देता हूँ, और योग्यताओं के लिए, यदि वे तलाशने पर मिल सकें तो, उन परिस्थितियों को जिनमें मैंने अपनी वेदना के माध्यम से दूसरों की वेदना तक पहुंचने का प्रयास किया।
5 साल की उम्र से मुझे घरेलू काम करने पड़ते थे। शिकायत नहीं कर पाता था। भैया और दीदी, विद्रोही थे। वे मां को कितना प्यार करते थे यह कभी न जान पाया, परंतु माई को कितनी घृणा करते थे, इसे मां के प्रति उनके प्रेम का पैमाना मान सकता था। दोनो कोई भी ऐसा कोई काम करने को तैयार रहते, जिससे उसे पीड़ा हो। उनको दोष नहीं देता। इसके बाद भी पिता जी या बाबा जो उन्हें प्यार करते और मेरी उपेक्षा, उनको भी दोष नहीं दे पाता।
जिस मां के लिए सबसे अधिक मैं तड़पता रहा, उसके विषय में भी किसी ने बताया, वह भी मुझे नहीं प्यार करती थी, दीदी और भैया भी करती थी। और कुछ समय के लिए, मैंने, इसे सच मान भी लिया। मां के लिए इस आपराधिक सूचना के बाद भी, तड़प कभी कम न हुई। सूचना के साथ ‘आपराधिक’ विशेषण को सूचना देने वाले की परिस्थिति में प्रक्षेपित करके, हटा अवश्य लिया। पर सोचिए, क्या कोई मां अपनी गोद के, 3 साल के बच्चे को कितना प्यार करती है या करती थी, इसका भी पैमाना हो सकता है ?
इसीलिए मैं ज्ञानियों से डरता हूं। संदर्भ और सूचनाओं को आधार पर अधिक करीने से रखे गए विचारों पर भरोसा नहीं कर पाता। सूचना-समृद्ध ज्ञान भय पैदा करता है। सूचना वेदना की आंच में पक कर ही ज्ञान बनती है। विचार परीक्षा से गुजर कर ही वैज्ञानिक सत्य बन पाता है, ये मेरी परिभाषाएं हैं। परीक्षित सिद्धांत और सूचना विज्ञान है, यह बाद में पढ़ा। जिसे पढ़कर बहुत बाद में जाना, उसे अपने जीवन अनुभवों से मैंने इतनी कम उम्र में जान लिया था, कि कई बार, आईने के सामने खड़ा होकर, अपने को नमस्कार करने का मन हो उठता है। अभी तक किया नहीं, दुर्बलता के किसी क्षण करूंगा भी नहीं. इसका विश्वास नहीं। परंतु कोई विचार, कोई सिद्धांत मुझे इतना आतंकित नहीं कर सकता कि मुझे झुका सके। मेरे विचार अनुभव-संवेद्य, या परानुभूति-तप्त होते हैं। उस उम्र से ही जब इन भारी-भरकम शब्दों काे नहीं जानता था, और यह जानता था, कि दूसरे मुझे तुच्छ समझते हैं, मैं उन्हें कभी मड़ा न मान पाटा पर तुच्छ नहीं समझता था।
वे जो कुछ अपने को मानते हैं, उसे मैं भी मान लेता हूं। हो सकता है, वे वैसे ही हों। पर उनके द्वारा अपने को अगण्य समझे जाने उनकी अज्ञता मान लेता हूँ। बस। वे जितना जानते हैं वह इस स्तर का नहीं है कि मझे समझ सकें। उनसे मिलते हुए मैं अपने को भी उनकी नजर से देखने का प्रयत्न करता हूं, और उनसे अलग हो जाने के बाद मैं उनको तीसरी नजर से देखता हूं। यह नजर भी उसी यातना की उपज है, जिसमें तिलमिलाते हुए,मैंने भोगा था। यह निरी वेदना नहीं थी, संचार की भाषा थी। पता नहीं क्यों दूसरे मामलों में काफी समझदार हो जाने के बाद, भी इस विश्वास को पाले रहा कि मेरी तड़प, माँ वह जहाँ भी हो, देख रही है और मुझ तक पहुुँच न पाने के कारणवह विगलित हो रही। मेरे अपने दुख पर उसके विगलित होने का विश्वास ऐसे आनंद का रूप ले लेता, जिसके लिए, आज तक, किसी भाषा में, कोई सटीक शब्द नहीं गढ़ा गया है।
दीदी और भैया की शिकायतें सुन कर बाबा बौखला उठते। कमर सीधी करते हुए, लाठी के सहारे ठेंगते उठते,घर के भीतर जाते, फटकार लगाते। उनका आधा गुस्सा शिकायतों पर रहता रहा होगा और आधा सौतेली माता उनके व्यवहार की कहानियों और सुनी सुनाई बातों पर। फटकार की इबारतें आज तक कानों में गूँजती हैं। दूसरे के बच्चे हैं, सता रही हो, अपनी होगी तू बंदरिया की तरह चिपकाए रहोगी।
गलत कुछ नहीं था। मां के जिस व्यवहार की बाबा याद दिलाया करते थे, वह तो होना ही था। वह नौबत आई तो मेरी दूसरी यातनाओं में एक नई यातना जुड़ गई। वह जितने समय तक उसे बंदरिया की तरह सीने से चिपकाए रखती, उससे अधिक समय जो यातना के कारण काल का अनंत विस्तार लगता था, मेरी गोद में, मेरी बगल में, मेरे कंधे पर, सवार रहती। 5 साल का बच्चा एक बच्चे को बगल में दबाए हुए, लगातार इधर उधर चल रहा है। खड़ा हो जाए तो भी रोने लगती। बैठाएँ या , सुला दें,तो रोना शुरू। चेतावनी यह कि यह कि बच्ची रोई तो तुझे जहर देकर मार दूंगी।
आप जानते हैं इसका मतलब क्या होता है? नहीं। मुझे यह भ्रम है इस दुनिया की कुछ बातें हैं जिन्हें मेरे सिवा कोई नहीं जानता और जब तक मैं न बताऊं तब तक दूसरा कोई समझ नहीं सकता। इसे अंग्रेजी में डॉमेस्टिकेशन कहते हैं। पोसे जाने वाले जानवरों (pet animals) और पाले और ढाले जाने वाले जानवरों (domesticated animals) के बीच फर्क होता है। पहला अपने स्वभाव को बनाए रखते हुए हमारे ऊपर अपनी निर्भरता के कारण हमारी इच्छा के अनुरूप हमारी रक्लिाया मनोरंजन करता है । इसमें मनोवैज्ञानिक परिवर्तन होता है, आकारगत या कायिक परिवर्तन मामूली होता है, बंधन में रखने के तरीकों के कारण।
दूसरे कुछ ऐसे होते हैं जिनसे हम श्रम या भारवहन का काम लेते हैं इसके कारण इनकी शरीर रचना, व्यवहार और स्वभाव सभी में परिवर्तन होता है। तोते की शरीर रचना में कोई परिवर्तन नहीं होता, उड़ने की छूट न होने के कारण उसकी उड़ान की क्षमता का ह्रास हो जाता है, स्वभाव बदल जाता है, वह अपनी बोली भूल कर चारा परोसने वाले की बोली बोली बोलने की आदत डाल लेता है, परन्तु काम के लिए पालतू बनाए जाने वाले जानवर के मनोविज्ञान में उतना परिवर्तन नहीं होता जितना कायिक रचना में होता है। उसे अपने कार्य के अनुरूप अपनी काया में परिवर्तन करना होता है जिसके प्रति वह सचेत नहीं होता।
लंबे समय तक एक के बाद एक 3 बच्चों को बगल में लादकर चलते हुए मुझे जिस समायोजन की जरूरत पड़ी, उसका ही असर था मेरी चाल बदल गई। मैं झूम कर चलता था, बिना भार के भी अदृश्य भार की चेतना के साथ समायोजन करते हुए हाथों को सामान्य से अधिक हिलाते हुए चलने की आदत हो गई । इसी को ध्यान में रखते हुए मैंने कहा मुझे चलना तक नहीं आता।
दूसरे बच्चे खेलते रहते, मैं एक बच्चे या बच्ची को काँख में संभाले किनारे खड़ा उन्हें खेलते देखता रहता। जो सही चाल से चल न सके, जिसके पाँव ही सीधे न पडें, जिसका दाहिना हाथ घेरा बनाकर कमर पर रखे हुए बोझ को संभाले, लगातार मुड़ा रहता हो, और वायाँ इसे ताकत देने के लिए इससे जुडा रहता हो वह क्या उसी तरह गतिशील रह सकता था जैसे खुले हुए हाथ। खेलना तो हाथ और पांव की की सक्रियता पर निर्भर करता है।
मेरी तकलीफ यह है जब मैं अपने बारे में, अपनी सीमाओं के बारे में, इतने विस्तार में गए बिना कुछ कहूँ तो लोगों को विश्वास नहीं होता। सोचते हैं नम्रता बस अपनी सीमा बता रहे हैं।
और जब उन्हीं अनुभवों आवेदनों से गुजरने के बाद जो आलोक और आत्मविश्वास पैदा हुआ, उसे बयान करूं, तो लगता है, अहंकारवश डींग हाँक रहा हूँ। दोनों स्थितियों में मैं सिर्फ सच बोलता हूं।
अन्य अयोग्यताओं में अगली अयोग्यता यह कि मैं झूठ नहीं बोल पाता। इसलिए कि इससे आदमी दूसरों की नहीं, खुद अपनी नजर में गिर जाता है। एक आध बार इसका कमाल दिखाया है। अत्यंत विषम परिस्थितियों में जिसमें इज्जत भी जा सकती थी और चाकरी भी। जांच हो रही है, जांच अधिकारी सवाल कर रहा है। मैं उसे बता रहा हूं, इस बात की जांच इस तरीके से की जा सकती है, उसे चेक करें। वह बताता है चेक कर लिया।क्या पता चला ? कुछ नहीं। दूसरे सवाल का इस तरह पता लगाओ। सचाई तक कैसे पहुंचा जा सकता है, इसके सारे तरीके बताते हुए जब वह मान गया कि इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है, तो मैंने कहा मैं भी झूठ बोल रहा था। आप लिख कर पूछें तो मैं वह जवाब दूंगा, जो आपको दे रहा था। परंतु संकट में भी झूठ नहीं बोल सकता, इसलिए एक पत्र की मदद करने के लिए मैंने कहा तो था परंतु किसी लाभ के लिए नहीं, गत्रिका का नाम यह है, यहाँ से निकलती है। इसका परिणाम, वह जांच अधिकारी, आगे से मेरा मुरीद हो गया। खतरनाक स्थितियों में भी, सच से बड़ा कोई हथियार नहीं होता, परंतु अक्सर लोग सच को सच नहीं मान पाते। अपनी ओर से उसका अनुपात बदल कर समझते हैं।