फिर वही रोना अँधेरे में गुम चिरागों का
वही कालिख का है दावा कि रोशनाई है ।।
(लिखते लिखते थक गया, आप पढ़ कर बेहोश होने से बचें)
यह जो पूरे देश में मुस्लिम बहुल इलाकों में और संस्थाओं में आंदोलन चल रहा है वह पार्टीशन के पहले के उपद्रवों से अधिक व्यापक है। मैंने उसे भी देखा था, इसे भी देख रहा हूँ। पहले मुसलमानों की अतिभावुकता के कारण देश बँटा था। अब उसी के कारण दिल और दिमाग बँटने जा रहा है। पहले से किसी का लाभ नहीं हुआ समस्याएं अधिक बढ़ीं, दूसरे से वे महामारी का रूप ले जा रही हैं
बँटवारा जल्दबाजी में, बिना अग्रिम तैयारी के, इतने दबाव में किया गया था, कि किसी विफलता के लिए किसी किसी त्रासदी के लिए किसी को दोष नहीं दिया जा सकता। ऐसी स्थितियों में भाग्य को दोष देने की इस देश में लंबी परंपरा है। उसे ही दोष देना होगा। भाग्य से ऐसा वाइसराय मिला जिसने फौजी होने के कारण फौजी ढंग से, आनन-फानन में फैसले लिए। भाग्य की बात है, उसी अवसर पर उसने अपनी इज्जत परोसते हुए किसी को विधुरता की पीड़ा से बचा लिया और भारत की स्वाधीनता के लिए 15 अगस्त की वही तिथि तय की जिस दिन उसने जापानियों पर विजय प्राप्त की थी, पहली अंग्रेजों से लड़ने वालों पर विजय। दूसरी ब्रिटिश राज्य से द्रोह करके स्वतंत्र होने वालों को टुकडे टुकड़े करने की विजय। भाग्य में यह भी बदा था कि स्वाधीन पहले पाकिस्तान हुआ था, भारत को प्रतीकात्मक रूप से ही सही, उसके बाद स्वाधीनता मिली थी साथ ही भारत को स्वाधीनता कुछ शर्तों के साथ मिली थी जिन को मानने से पाकिस्तान जिन्ना ने इन्कार कर दिया था जिनमें से एक महारानी की अधीनता अर्थात् कॉमनवेल्थ का हिस्सा बनना और अंतिम वायसराय को प्रथम गवर्नर जनरल बनाकर समय भारत को कुछ और बर्बाद करने के लिए रखना था। 1 दिन पहले पाकिस्तान पूरा स्वाधीन हुआ था, भारत में अधूरा सत्ता परिवर्तन हुआ था। चर्चिल ने कहा था माउंटबेटन वह कुशल कूटविद है जो शिकार पर चोंच मारने वाले बाज को भी पीछे हटा सकता है असंभव को संभव बनाने की योग्यता वाले माउंटबेटन ने भारत का गवर्नर जनरल रहते हुए यथाशक्ति पाकिस्तान के हितों की रक्षा की और भारतीय समस्याओं के हल में रुकावट डालता रहा। भाग्य मे बदा था तो किया क्या जा सकता।
बदा जो भी रहो हो, समुचित प्रबंध किए बिना, जो कुछ हुआ था वह मैदानी युद्धों से अधिक भयानक, अधिक बीभत्स, अधिक हाहाकारी, अधिक संहारकारी था।
हिंदुओं ने इसकी मांग नहीं की थी। नहीं कहा था कि मुसलमानों के साथ शांति से नहीं रहा जा सकता। एक हिंदू संगठन ने आसन्न बँटवारे को देख कर पृथकतावादी घोषणाएँ की थीं। परंतु उस समय उसकी औकात क्या थी। पटेल ने इसी संदर्भ में कहा था, किसके लिए, याद नहीं, कि गाड़ी के नीचे चलने वाला कुत्ता समझता है सारा बोझ वही ढो रहा है। टिप्पणी कम्युनिस्ट पार्टी के विषय में रही हो या संघ के विषय में, यह उनकी औकात सिद्ध करता है इसलिए जिस कथन को बार-बार उद्धृत किया जाता है, वह आर्तनाद से अधिक कुछ नहीं था। जो लोग अपनी जिम्मेदारी से भागने के लिए सारा इल्जाम उस वाक्य पर थोपना चाहते हैं, वे अनर्थ को घटित होने की जिम्मेदारी से नहीं बच सकते, न ही संघ या उससे समर्थित दल यह दावा कर सकते हैं, कि उनका संगठन जिस के आदर्शों पर चला था, उसके दुष्कृत्यों के सामने आने के बाद उसने अपना चरित्र बदल लिया।
परंतु सत्ता में पहुँचने वालों ने कभी नैतिकता का निर्वाह नहीं किया है। इसलिए आप उसे कोस सकते हैं, परंतु जो रूपक पटेल ने खड़ा करते हुए किसी को गाड़ी के नीचे चलने वाला कुत्ता कहा था, उसके विषय में आज सोचने का दिन आ गया है कि की गाड़ी कौन खींच रहा है और गाड़ी के नीचे कितने कुत्ते चल रहे हैं और दावा करते हैं कि गाड़ी चला रहे हैं। इस परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कौन है।
प्राचीन भारत का वह कलुषित इतिहास, वह वंशाधिकार जिसके विरुद्ध, सुगबुगाहट आरंभ हुई थी, उसके लिए जिम्मेदार कौन है, जिसने महाज्वाला का रूप ले कर उन्हें राख कर दिया। समय होश में आने का है, होश खोने का नहीं, इसलिए मैं यह भी याद नहीं दिलाऊंगा किआजादी मिलने के बाद देश को बांटने वाले देश के भीतर ही क्यों रह गए, क्यों जिस तरह राष्ट्रवादी हिंदुओं ने संकीर्णता वादी राजनीति करने वाले हिंदुओं को लगातार अलग-अलग मौकों पर याद दिला कर नंगा करने का लगातार प्रयत्न किया वैसे ही उंगली पर गिने जाने वाले राष्ट्रवादी मुसलमानों ने उनके ऊपर उँगली कभी भी क्यों नहीं उठाई जिन्होंने देश को बांटा भी था और यही रह गए और रातों-रात लिबास बदल दिया कुर्बानी देने वालों से अधिक ऊंची आवाज में इस बात का डंका पीटते रहे कि बलिदान उन्होने दिया है और साथ ही परदे के पीछे से ही लड़के लिया है पाकिस्तान हँस कर लेंगे हिंदुस्तान, उसी नेहरू के शासनकाल में नारे भी लगवाते रहे, भारत और पाकिस्तान के क्रिकेट मैचों में पाकिस्तान की जीत पर जलसे मनाते रहे और नेहरू को यह पता चला भी हो कि उन पर छींटाकशी की जा रही है, तो भी उन्हें इस कड़वे घूँट पीते हुए भी उन सभी के प्रवेश से फुल कर अंतर व्याधि से ग्रस्त कांग्रेस का हिस्सा बनाना ही था।
आदर्शों की दुनिया में आदर्शों का मोल होता है। ऐसी दुनिया आपके ख्यालों में और किताबों में होती है जमीन पर नहीं। यथार्थ की दुनिया में उसके नियमों के अनुसार चला जाता है खयालों के अनुसार यथार्थ को ढालने का प्रयत्न अवश्य किया जाता है, पर ख्वाब से नहीं, यथार्थ के नियम से।
पहले जो कुछ मुसलमानों की असहिष्णुता और कम्युनिस्टों के अदूरदर्शी सहयोग से हुआ था, इस बार भी दोनों के सहयोग से हो रहा है, जिसमें अंगरेजों की भूमिका में ईसायत-नियंत्रित कोंग्रेस है। जै इस नंगी सच्चाई को नहीं जानता या जानते हुए नहीं मानना चाहता उससे मेरी कोई बहस नहीं।
आज जब सत्ता और विपक्ष एक दूसरे को देश को बाँटने वाला बता रहे हैं, दोनों में कौन सही है कौन गलत इसके निर्णय की योग्यता मेरे पास नहीं है। एक आशंका अवश्य है कि एक बार यह वादा करने के बाद कि राष्ट्रीय नागरिकता सूची अभी नहीं लाई जाएगी, और संसद से पास नागरिकता संशोधन कानून नागरिकता देने के लिए है, किसी की नागरिकता लेने के लिए नहीं , यह यदि चालाकी से भी कहा जा रहा हो तो भी यह राजनीति करने वालों के लिए नई बात नहीं है। न तो चालाकी से पहले कोई न बाज आया है न आएगा न किसी को रामनामी देकर राजनीति करने का उपदेश दिया जा सकता है, इसलिए ध्यान इस पर दिया जाना चाहिए कि समाज में इसका संदेश क्या जा रहा है। और उसका फायदा किसको मिलने जा रहा है, विरोध जरूरी है तो भी संवैधानिक तरीके उपलब्ध होते हुए रास्तारोकू आंदोलन का रूप देने से लाभ किसे हो रहा है? जिसके विरुद्ध आंदोलन किया जा रहा है इसका पता जरूर होना चाहिए।
बयान कोई कुछ भी दे, आंदोलन में भाग मुख्यत: मुस्लिम महिलाओं को इस योजना के तहत खड़ा किया गया है कि उनके सामने पुलिस को पसीने आ जाएँगे। अर्थात् यह इंजीनियर्ड आन्दोलन है जिसमें सबको अपना डायलाग ही याद नहीं है, सभी अपना चेहरा दिखाने के लिए बेताब भी हैं। याद किसी को सिर्फ यह नहीं है कि इसके परिणाम क्या होने वाले और समाज में किन प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने वाले हैं।
पढ़े लिखे लोग जितने अधिक प्रचंड ज्ञानी होते हैं उतनी ही प्रचंड मूर्खताएँ करते हैं और इसका दुहरा नुकसान होता है क्योंकि कम पढ़े लिखे लोग गलत को गलत मानने में बहुत लंबा समय लगा देते हैं, वे सोच ही नहीं पाते कि इतना बढ़ा विद्वान भी गलती कर सकता है जबकि वह विद्वान आदमी सामान्य व्यवहार के मामले में अनपढ़ व्यक्ति की अपेक्षा कम समझदार होता है।. उसे किताबी जुमलों, किसी अन्य देश-काल में एक भिन्न समाज द्वारा आजमाए गए तरीकों का पता होता है और उन्हें वह अपनी वर्तमान समस्या पर लागू करके सुलझाने का प्रयत्न करता है। इतिहास लौटता नहीं है, प्रत्येक देश और काल की परिस्थितियां अलग होती हैं, एक के औजार दूसरे के काम नहीं आते। विद्वान को अपने विषय की बातों के अलावा दूसरी चीजों का – यहां तक कि जिस चावल दाल सब्जी को रोज खाता है उसके भाव तक का तब तक पता नहीं होता जब तक वह छप न जाए। वह अपनी रोटी तक नहीं सेंक सकता, अपने विषय को छोड़कर लगातार गफलत में रहता है. और इसी मामले में जीवन व्यवहार की समस्याओं के समाधान में प्रतिभा में समान पर कम पढ़े लिखे लोग उससे अधिक सही और दूरदर्शी निर्णय कर लिया करते हैं। इस दुर्भाग्य को समझना चाहिए। मीडिया के व्यावसायिक हितों और सदिच्छा के बीच के संतुलन – असंतुलन पर भी, विद्वानों की हितबद्धद्ता और विवेक, राजनीतिज्ञों के सिद्धान्त और सत्तालोभ और बुद्धिजीवियों के व्यावहारिक ज्ञान और दंभ के भीतरी तारों की बनावट को भी समझा जाना चाहिए। भरोसा इनमें से किसी पर नहीं किया जा सकता पर सारा खेल राजनीतिक दलों की घबराहट और इनकी सहभागिता से चल रहा है।
अपने को ज्ञानी समझने वालों और किताबों की सड़ी जानकारी पर भारोसा करने वालों के कारण बार-बार धोखा खाने के बाद भी उनके अड़िलपन का दुष्परिणाम पूरे देश को भोगना पड़ा है। इसके बाद भी उनकी महानता के गीत गाते हुए गलतियों को सुधारने का प्रयत्न नहीं किया गया है। उनसे छोटी हैसियत के लोग उनकी गलतियों को दुरुस्त कैसे कर सकते हैं, उसके लिए उससे भी बड़े विद्वान, अधिक अव्यावहारिक व्यक्ति की तलाश करनी होगी जो उन गलतियों को दूना कर सके, परंतु किसी एक का भी समाधान न कर सके। ऐसे लोगों के दुर्भाग्य से लोगों को विश्वास है कि कई गलतियों का इलाज हुआ है।
दुनिया के योग्यतम शासक जमीनी यथार्थ से परिचित होने के कारण अपेक्षाकृत कम शिक्षित होने पर भी अधिक सफल शासक सिद्ध हुए हैं। नामावली आप तैयार कर सकते हैं। मध्यकाल में मोहम्मद बिन तुगलक [1] दाराशुकोह और बहादुरशाह जफर सबसे अधिक विद्वान थे, अपने आदर्शों के कारण सत्ता के मामले में सबसे असफल। अलाउद्दीन, शेरशाह, अकबर, गुरिल्ला युद्ध के जनक राणाप्रता, शिवाजी और हैदर अली के बारे में कुछ नहीं कहना। औरंगजेब भी खासा पढ़ा लिखा था, लिखा था। उसने सत्ता सँभालने पर उस्ताद का वजीफा कम कर दिया। उस्ताद को लगा कहीं चूक हुुई हुई है, तलब तो अब दूनी होनी चाहिए। मिलने पहुंचे तो लंबी इंतजार के बाद बड़ी मुश्किल से मुलाकात के बाद औरंगजेब की फटकार कि तुमने हमारा जीवन खराब कर दिया, बेकार की चीजे सिखाने पर समय बर्बाद कर दिया, जिनका एक बादशाह के लिए कोई उपयोग नहीं। एक बादशाह को देश दुनिया की जो चीज है जाननी चाहिए उसका कुछ जानने नहीं दिया। रहा सहा वजीफा भी बन्द।
दो बातें और । औरंगजेब को सिपहसालार बना कर युद्ध पर भेजते हुए शाहजहां ने उसके दो बेटों को बंधक बनाकर रखा कि वह किसी तरह की शरारत न करने पाए। औरंगजेब ने अपने विद्रोही बेटे को लम्बी तलाश के बाद मरवा दिया । नेहरू की जगह दूसरा कोई नेता होता तो अपनी और अपने निर्णयों के शिकार लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सही तरीका अपनाता। दोनों देशों में या कहें तीनों देशों में किसी को कोई नुकसान नहीं होता। सभी आराम से रहते। कोई समस्या नहीं खड़ी होती। लड़ाई झगड़े नहीं होते। लगातार तनाव और युद्ध की तैयारी पर आज खर्च ्की जाने वाली दौलत शिक्षा और आर्थिक विकास पर खर्च होती। प्रतिस्पर्धा युद्ध की नहीं आर्थिक दृष्टि से एक दूसरे से आगे बढ़ने की होती। पूरा भारत बँटने के बाद भी आज की अपेक्षा बहुत तेजी से विकसित हो रहा होता और दूसरे देशों का नेतृत्व करता, जिनमें इस्लामी देश ही नहीं, दक्षिण पूर्वी एशिया के भी देश आते हैं। एक नया जागरण देश से परे पूरे क्षेत्र का होता जहां भारतीय संस्कृति का कभी प्रवेश था पूरी तरह सुरक्षित रहते, हवाई आदर्श से समाधान तलाशने के कारण नेहरू ने, अधिक गलतियां की, गलत परंपराएँ डालीं । लाल बहादुर शास्त्री के दौर का ढाई साल के भीतर लोग नेहरू को भूल गए।
तुलनात्मक रूप में देखें तो नेहरू के समय में देश पीएल480 का जानवरों के चारे जैसा गेहूँ खाता रहा, और अमेरिका की इस सलाह को सत्य मानता रहा कि उसकी सहायता के बिना भारत भूखों मर जाएगा। ढाई साल में देश खाद्य के मामले मे आत्मनिर्भर हो गया, सीमाएं सुरक्षित हो गई। जीत दर्ज की गई और इसके बदले में जहर देकर उनकी हत्या कर दी गई। उनके नीले चेहरे को मैंने देखा था और आशंकित हुआ था।
यहां में किसी की बड़ाई नहीं कर रहा हूं । किताबी आदमी और व्यावहारिक आदमी के अंतर की बात कर रहा हूं। उस जमाने से कुछ लेना-देना नहीं। उसके अनुभव से आज की परिस्थितियों में निर्णय लेने की शक्ति जिनके पास है उनके इरादे जानने की योग्यता नहीं,. पर दक्षता में उन्होंने अधिक परिपक्वता दिखाई है। वे सारे आप्शन खत्म करते हुए लोगों को इस बात के लिए बेसब्र कर देते हैं कि अब तो कोई कठोर कदम उठाना ही चाहिए।
आज दावा किया जा रहा है समाज को संप्रदायिक आधार पर बांटा जा रहा है। इनके शासन में क्या अब तक भारत के नागरिक किसी भी हिंदू या मुसलमान या ईसाई के प्रति भेदभाव से व्यवहार किया गया है? 2014 से पहले भारत की परिसंपत्तियों पर अल्पसंख्यकों का अधिकार था। वह अधिकार अवश्य समाप्त हुआ है। केवल मुसलमान गरीबों को 5 या 15 लाख तक का ऋण मिल सकता था, अब जो भी मिलना है सबको मिलेगा। कर्ज का एकाधिकार अवश्य कम हो गया। बहुसंख्यक (हिंदू) और अल्पसंखयक (मुसलमान और ईसाई) के बीच में यदि किसी तरह का फसाद हुआ हिंदू को अपराधी मानकर उसके विरुद्ध कार्यवाही की जाएगी, यह कानून आते आते रह गया। ये अन्याय तो हुए जिससे दोनों असुरक्षित अनुभव करने लगे, और इस नए कानून से अल्पसंख्यकों को कोई नुकसान नहीं, पर मुस्लिम देशों से प्रताड़ित या भयभीत हो कर आए और नरक की जिंदगी जीने वाले हिंदुओं को राहत मिल सकती है, इससे आतंकित हो कर इतने बड़े पैमाने पर यातायात को अवरुद्ध करके आम हिंदुओं के भीतर आतंक और उपद्रव से सरकार बदलने का प्रयत्न कर रहे हैं तो समाज को यदि वे बाँटना चाहते हैं तो उन्हें आप जैसे सहायकों की जरूरत है जो जनता के धैर्य को चुका कर उसके मन में यह विश्वास पक्का कर दें कि दूसरे सभी दल उपद्रवियों के साथ हैं, हमारी रक्षा केवल भाजपा ही कर सकती है। उसका संभावित नारा अबकी बार 400 पार।
मैंने कहा था परिभाषाएं सही कर देने से ही बहुत सी समस्याओं का जवाब तैयार हो जाता है। मैंने एक तुकबंदी जड़ी, कहा आप को इस देश ने जो दिया है वह कोई मुस्लिम देश भी अपने नागरिकों को नहीं दे सकता। ऊपर की फेपरिश्त के अलावा वोट के लिए मुल्ला बनने वाले और निहत्थों पर गोली चलाने वाले समाजवादी, गाडृी के आगे चटाई बिछाकर नमाज पूरी होने से पहले गाड़ी सहित इंतजार करने वाले यात्री और ड्राइवर, रस्सी से घेर कर नमाज के लिए सुरक्षित प्लेटफार्म, सड़क रोक कर नमाज अदायगी की जगह, अब लोगों गुजरने का अधिकार छीन कर अनन्त काल तक चलने वाला प्रदर्शन, तुमने समस्याये दी हैं, समाधान नहीं। पहला मौका है अनाथ की जिन्दगी वर्षों से जी रहे लोगों को नागरिक बन कर जीने के अधिकार में तो बाधक न बनो तो इसका इशारा तक लोगों की समझ में नहीं आया। कहने लगे अभी तो कुछ दिया नहीं, अभी बहुत कुछ देना होगा।
देश को बाँटने वाले यदि वे हैं जो इतना सहते हैं जो कोई मुस्लिम देश नहीं झेल सकता और जोड़ने वाले आप हैं तो बाँटने वालों के सबसे बड़े मददगार कौन हैं? और जिस फासिज्म का खतरा बता कर कल तक लोगों को डराने का प्रयत्न किया जा रहा था उसका रास्ता कौन तैयार कर रहा है, हिंदुत्व को अजेय कौन बना रहा है ,इसका निर्णय मैं नहीं करना चाहता। अगले चुनाव तक पता नहीं क्या क्या देखना बदा है।