इतिहासदर्शन की समस्या
इतिहास दर्शन (फिलॉसॉफी ऑफ हिस्ट्री) पद का प्रयोग सबसे पहले वॉल्तेयर ने किया था, इतिहास तलाशने वाले इसकी खोज में हरिदत्त (Herodotus) तक पहुँच जाते है, परंतु यह सोचने की जरूरत नहीं समझते कि उनका इतिहास किसका अगला चरण है। क्या गाथा, पुराण और नाराशंसी का इतिहास से कोई संबंध है जिसका उल्लेख ऋग्वेद में आया है।[1]
आरंभ परिपक्वता से नहीं होता , होता किसी बीज या शुक्राणु, परागरेणु से ही है। फूल आकाश से नहीं टपकता है, फल स्वयं फलीभूत नहीं होता है, आदमी जवान पैदा नहीं होता है, सभ्यताएं लगभग परिपक्व पैदा नहीं होती हैं।
पाश्चात्य अहंकार का एक रूप यह भी है अपनी परिपक्व अवस्था में भी आज तक किसी ने यह सोचने की कोशिश नहीं की कि बनी बनाई ग्रीक सभ्यता कहां से टपक गई? उसका कोई, पूर्वरूप, कोइ इतिहास तो होना चाहिए।
इतिहास को किस डर से तलाशने की कोशिश नहीं की गई? नहीं यह भी अधूरा सच है, पूरा सच यह है कि, डरते कांँते हुए ही सही, विलियम जोंस ने, ग्रीक सभ्यता की पूर्वपीठिका के रूप में हिन्दू (भारतीय) चिंतन और ब्राह्मणों (भारतीय संस्कृत भाषाभाषियों) को तलाश तो किया था, फिर ज्ञान के आवेश में,अहंकारवश, उसे मिटाने की लगातार कोशिशें क्यों की जाती रहीं। भाषाविज्ञान को नई तरकीबों से विश्वसनीय बनाने की कोशिश में, वाहियात बनाने का काम उन्होंने किया जो समझते हैं कि ज्ञान विज्ञान की दृष्टि से वे आज शिखर पर पहुंचे हुए हैं।
नहीं, शिखर पर नहीं अपने संसाधनों के बल पर अनेक तकरीरों, तस्वीरों की बाढ़ में असहमति की आवाज को दबाने की तरकीबों, तकरीरों, लेखों, पुस्तकों संचार माध्यमों पर प्रत्यक्ष और परोक्ष नियंत्रण से (क्या कोई बता सकता है कि हमारे संचार माध्यमों में से किनको कहाँ कहाँ से कितना पैसा किन किन तरीकों से ऐंकर से ले कर चैनल तक कैसे पहुँचता है) दबंगई के शिकार हुए हैं और कई तरह की मूर्खता बहुत आसानी से उनके चिंतन में आ सकती हैं और रेखाकित की जा सकती हैं।
पश्चिम हमसे बहुत आगे बढ़ा हुआ है यह सच है; पश्चिम से बच कर नहीं, शिष्यभाव से उससे सीखकर और आत्मसात् करके, जिसके लिए मुक्तिबोध ने आभ्यन्तरीकरण, अर्थात् अपने बौद्धिक उपापचयतंत्र से अनुकूलित करके ही अपने लिए उपयोगी बनाने की बात की थी और इसी तरह कुछ दृष्टियों से उनसे आगे बढ़ते हुए, अपनी नई सैद्धान्तिकी विकसित करते हुए उनकी समकक्षता में आया और आगे बढ़ा जा सकता है, न कि नकल करके, जिसको अंग्रेजी पत्रकारिता ने बढ़ावा ही नहीं दिया है. अपितु यह प्रचारित किया है कि इसके अतिरिक्त कोई रास्ता ही नहीं है।
इतिहास-दर्शन की जरूरत सूचना के विभिन्न स्रोतों के माध्यम से उस विकास रेखा को समझने के लिए इसलिए पड़ती है कि हम जाने हुए को अधिक बारीकी से जान सकें और जो कुछ मानते रहे हैं उसके बंधनों से यथासंभव बाहर आ सकें।
यह समस्या पहली बार सबसे बड़ी चुनौती के रूप में उस समय उभरी थी, जब, सर विलियम जोंस ने, अपने अनुमान के आधार पर एक स्थापना दे दी थी और स्थापना के समर्थन में अपने ऊहापोह में ऐसे स्रोतों से उन कालों के यथार्थ को जानने की कोशिश कर रहे थे, जिनमें से किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता था, और फिर भी उन्हीं के माध्यम से उनके यथार्थ की, यथासंभव, सही तस्वीर उकेरने की जरूरत थी। उपलब्ध सामग्री से उस सत्य तक पहुंचना, और इस तरह पहुँचना कि सुनने वालों या पढ़ने वालों को यह विश्वास हो सके कि सच्चाई यही है, संभव हो सके । नाम जिसने भी दिया हो, संदिग्ध सामग्री के अनर्गल के परिष्कार से सचाई तक पहुंचने की चुनौती इससे पहले नहीं आई थी।
[इस चुनौती को और भी चुनौती पूर्ण जेम्स मिल के इतिहास में बना दिया। जहां विलियम जोंस का प्रयत्न पाश्चात्य वर्चस्व को बनाए रखते हुए, एक भिन्न मूल्य व्यवस्था में अतीत के अनुभवों को अपने विशेष ढंग से सुरक्षित करने की युक्तियों के माध्यम से सत्य तक पहुंचने का था, वहां वर्चस्व की व्याधि से पीड़ित जेम्स मिल की झक उस अपमान का बदला लेने और उन सभी मामलों में जोंस को गलत और भारतीय सभ्यता को गर्हित सिद्ध करने के इरादे से ही भारत का इतिहास लिखने को कटिबद्ध हो गए थे।
इससे जानने और जाने हुए को नकारने के बीच एक ऐसा द्वन्द पैदा हुआ जिससे यह चुनौती अधिक उग्र हो गई के इतिहासकार के अनुग्रह, आग्रह, दुराग्रह, परिग्रह और निषेध के कारण आधार सामग्री वही होते हुए भी, उनके द्वारा लिए गए निष्कर्षों के कारण, उस पर उससे अधिक संदेह पैदा होता है, जितना अविश्वसनीय स्रोत के कारण। ऐसे में इतिहास दर्शन की परिधि में सूचना के स्रोत ही नहीं, इतिहास के अपने नियम और विधान ही नहीं, इतिहासकार की नीयत और विचार दृष्टि को भी परखना इतिहास दर्शन की परिधि में आता है। इसी तरह विविध सीमाओं और चुनौतियों के क्रम में इतिहास पर विचार करने की इतनी विविध दृष्टियाँ हो गई कि उनका नाम गिनाने चलें तो, न तो नामों की संख्या पूरी होगी, न ही आप के पल्ले कुछ पड़ेगा। सत्य से भटक कर हम सत्य की परिभाषा में उलझ जाएंगे। इतिहासदर्शन की व्याख्या करना हमारा प्रयोजन ही नहीं है ना हम अपने को इतिहास दार्शनिक मानने का भ्रम पाल सकते हैं।
फिर भी इतिहास पर कलम चलाने वाले को यह तो सोचना ही पड़ता है इतिहास से उसका मतलब क्या है। जिस तरह अपनी याददाश्त खो चुका व्यक्ति अपने को सँभाल नहीं सकता, व्यग्र रहता है, उसी तरह अपने इतिहास को भूलने वाला समाज भी व्यग्र और और विभ्रमित रहता है।
जिन समाजों ने किसी भी चरण पर महान उपलब्धियाँ की हों, महान सभ्यताओं को जन्म दिया हो, उसके पास इतिहास तो अवश्य था, भले उसकी इतिहास की समझ ठीक वही न हो जो किसी दूसरे समाज की हो या किसी दूसरे चरण पर हो। आपकी काल की अवधारणा और उसकी काल की अवधारणा में अंतर हो।
प्राचीन काल की किसी भी सभ्यता में उस तरह का इतिहास नहीं था जिसे आज हम इतिहास कहते हैं। सफल समाज अपने सभी मूल्यों को आदर्श मान बैठता है और इन्हीं कारणों से पिछड़ गए समाजों को उन मानकों के अभाव का परिणाम मान लेता है। यह आत्मरति का एक रूप है।
अपने से भिन्न मूल्य व्यवस्था, जलवायु, रूचि, परिवेश, भाषा, संस्कृति और जीवनशैली को समझने की योग्यता एक परिपक्व समाज की पहचान है और इसका अभाव उसकी अपरिपक्वता को दर्शाता है, भले ही वह कितना भी आगे क्यों न बढ़ा हो। सईद ने अपने लेखन में इसी कारण प्राच्यवाद को चुनौती दी थी।[2]
जहां विलियम जोंस अपनी सीमा में अन्य समाजों की विशिष्टताओं को समझने का प्रयत्न करते हैं वहां मिल इसे असह्य पाते हैं। वह शुरू ही इस बात से करते हैं कि असभ्य समाजों में हर चीज को बढ़ा चढ़ाकर कर बयान किया जाता है, और यह प्रवृत्ति सभी सभ्यताओं पाई जाती है, इसलिए वे सभ्यताएं नहीं हैं, असभ्यताएँ हैं।
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[1] सना पुराणं अध्येमि आरात् महः पितुः जनितुः जामि तत् नः, 3.54.9
अयं पन्था अनुवित्तः पुराणो यतो देवा उदजायन्त विश्वे ।
अतश्चिदा जनिषीष्ट प्रवृद्धो मा मातरम् अमुया पत्तवे कः ।। 4.18.1
चाक्लिप्रे तेन ऋषयो मनुष्या यज्ञे जाते पितरो नो पुराणे ।
पश्यन् मन्ये मनसा चक्षसा तान् य इमं यज्ञमयजन्त पूर्वे ।। 10.130.6
तं गाथया पुराण्या पुनानमभ्यनूषत् ।
उतो कृपन्त धीतयो देवानां नाम बिभ्रतीः ।। 9.99.4
रैभ्यासीदनुदेयी नाराशंसी नि ओचनी ।
सूर्याया भद्रमिद्वासो गाथया एति परिष्कृतम् ।। 10.85.6
[2] The ideas of Oriental despotism, Asian overpopulation, and Chinese stagnation have encouraged a cartoonish replacement of the intricate and diverse processes of development of different parts of Asia by a single-dimensional and reductive set of simplifying frameworks of thought. This is one of the points of Edward Said’s critique of orientalism (Said 1978). So doing “global” history means paying rigorous attention to the specificities of social, political, and cultural arrangements in other parts of the world besides Europe.
So a historiography that takes global diversity seriously should be expected to be more agnostic about patterns of development, and more open to discovery of surprising patterns, twists, and variations in the experiences of India, China, Indochina, the Arab world, the Ottoman Empire, and Sub-Saharan Africa. Variation and complexity are what we should expect, not stereotyped simplicity. (Stanford Encyclopedia of historiography)