इतिहास के खुले खेत में साँड़ (3)
परिचय (2)
मिल के व्यक्तित्व का दूसरा पक्ष यह है कि वह डूगल्ड स्टीवर्ट के शिष्य थे। स्टीवर्ट के बारे में हम जानते हैं कि वह असाधारण प्रतिभा के विद्वान थे। एक शिक्षक के रूप में उनकी ख्याति ऐसी कि अनेक देशों के छात्र उनके आकर्षण से ग्लासगो विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए आया करते थे। वह दार्शनिक थे, इसके बावजूद वह इतनी बेतुकी बात सोच सके कि संस्कृत भाषा का निर्माण भारत के धूर्त ब्राह्मणों ने, ग्रीक की नकल कर के, किया था। हैरानी इस बात पर होती है कि वह मानते हैं कि इसमें लंबा समय नहीं लगा होगा, यह एक झटके में किया जा सकता था।
हम देख आए हैं कि ठीक उसी स्वर में मिल भी पंचत्रंत जैसी कहानियों की रचना के आधार पर ब्राह्मणों को परले सिरे का धूर्त सिद्ध करने लगते हैं । अपने समय की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभा के दावेदार इन विद्वानों की यह व्याकुलता, जिसमें वे सभी मर्यादाएँ लाँघ जाते हैं, यहां तक कि अपनी विश्वसनीयता भी दांव पर लगा देते हैं, किस बात का प्रमाण है?
यह बेचैनी इन दो व्यक्तियों की नहीं हो सकती, यह उस ग्लानि और अपमान बोध का परिणाम है जो पूरे यूरोप में या कहें पूरे ईसाई जगत में हिंदुत्व, और इसके मानवीय मूल्यों-मानोंं के समक्ष अंतर्ध्वस्त हो रही थी। पुरातात्विक और अभिलेखीय प्रमाणों के तब तक सुलभ न होने के बाद भी, उसकी उन्नत भाषा के अकाट्य प्रमाणों से कल्पनीय सभ्यता के सामने सुदूर अतीत में अपनी सर्वमुखी हीनता को सहन करना भारी पड़ रहा था। कारण भाषा के अतिरिक्त देव शास्त्र, ज्ञान- विज्ञान दर्शन सभी मामलों में ग्रीक सभ्यता भी, जिस पर उन्हें गर्व था, भारत की ऋणी सिद्ध हो रही थी और यह गोरी चमड़ी के लोगों के उस अहंकार को, एक आघात में चूर चूर कर रही थी, जिसमें निगर या काला अपमान सूचक पद था। यह उसी की छटपटाहट थी।
यदि दूसरे सभी मामलों में पिछड़े सिद्ध होने के बाद भी मजहब के मामले में ईसाइयत को प्रथम दृष्टि में हिंदुत्व से उत्कृष्ट सिद्ध किया जा सकता तो संभव है यह अपमान बोध इतना असह्य न प्रतीत होता। धर्म की श्रेष्ठता के लिए उन्होंने एक पर एक जाने कितने धर्मयुद्ध ठाने थे और अन्तिम के अलावा जो विजय गाथों की पहल से मिली जो रक्त से एशियाई थे, लगातार हार का मुँह देखना पड़ा था। इसका दंश पूरे यूरोप में व्याप्त था। पर इस बार बिना किसी बलप्रयोग के, हिंदुत्व की मात्र उपस्थिति ही उसे ध्वस्त कर रही थी।
यह अकारण नहीं था कि वे अपनी झुंझलाहट में दूसरे सभी बयानों को खारिज करते हुए केवल मिशनरियों की भारत संबंधी रपटों के आधार पर अपना मंतव्य प्रकट कर रहे थे। मिशनरियों की परेशानी यह थी कि उनके धर्म प्रचार के मार्ग में, उनकी समझ से, ब्राह्मण सबसे अधिक बाधक थे। यही कारण है की सामान्य बोध से परे जाकर, दार्शनिक कहे जाने इन दोनों लोगों ने, और विशेषकर डूगल्ड स्टीवर्ट ने, जो सामान्यबोध के दर्शन (आत्मवादियों और बुद्धिवादियों के विरोध में उत्पन्न कामनसेंस फिलॉसॉफी के प्रख्यात दार्शनिकों में थे) ठीक उस मौके पर मोटी समझ से काम न लिया, जब इसकी सबसे अधिक जरूरत थी।
मिल को क्षमा किया जा सकता है क्योंकि वह उपयोगितावादी दर्शन के प्रवर्तकों में से एक थे और दर्शन के मामले में अपने गुरु के आलोचक भी थे। संभवत यही कारण होगा कि, यद्यपि संस्कृत भाषा से उत्पन्न समस्या पर उन्होंने अपने अंतिम दिनों में अपने विचार प्रकट किए थे, जबकि इसे 1820 में पक्षाघात से उबरने के बाद, लगभग अपने अंतिम समय में लिखा था, जो उनकी ग्रंथ माला के अंतिम खंड में संग्रहीत है। उससे पहले मिल का इतिहास प्रकाशित हो चुका था पर उन्होंने मिल का एक बार भी हवाला नहीं दिया है जबकि दूसरों के विचारों पर अपनी टिप्पणियाँ दी हैं, और अपनी पुस्तक में विभिन्न प्रसंगों में, मिल ने उनको तीन बार याद किया है।
मिल उपयोगितावादी दर्शन के दो प्रणेताओं में से एक हैं, दूसरे चिंतक थे जर्मी बेंथम जो कुछ दिनों तक उनके साथ भी रहे थे और उसी बीच उन्होंने इस दर्शन का प्रतिपादन किया था।[1] इस दर्शन को अपनी पूर्णता में उनके पुत्र ने पहुंचाया और जिसके नाम की समानता के कारण कई बार पुत्र का श्रेय पिता को भी मिल जाता है, परंतु उनके समय में दर्शन का रूप यह था कि ‘मनुष्य दुख से बचना चाहता है और सुख पाना चाहता है, अपनी सभी क्रियाओं – सोचने, बोलने, काम करने और अभियान करने- में इसका निर्वाह करता है, इसलिए यही आदर्श जीवन-दर्शन होना चाहिए। आचार दर्शन, मॉरल फिलासफी के प्रोफेसर को यदि यह मौज-मस्तीवाद (हेडोनिज्म) अरुचिकर लगा हो तो यह गलत न होगा। इस दर्शन में अधिकतम लोगों के अधिकतम सुख की आड़ तो ली गई थी, परंतु जहाँ अपने आनंद और दूसरे के आनंद में टकराव हो जाए, वहाँ पराए सुख और सम्मान के लिए इस दर्शन में कोई स्थान नहीं था, और निर्णय के क्षणों में अपने और पराए सुख के बीच चुनाव अपने सुख के पक्ष में ही जा सकता था।
कहते हैं मार्क्स स्टूअर्ट मिल के प्रभाव में इस सीमा तक थे कि इंग्लैंड प्रवास के दिनों में उनकी अनेक डायरियों में से एक डायरी मिल के उद्धरणों से भरी हुई थीं।[2]
विचित्र विडंबना है, मार्क्स ने मिल को आत्मवादियों और सामान्य बुद्धि वादियों के खिलाफ पाकर, अपने लिए, अनुकरणीय पाया, क्योंकि भारत के विषय में उनकी जानकारी गौण साक्ष्यों के आधार पर ही हो सकती थी और उसमें वह उन्हें विश्वसनीय लगे। दोनों ने एक ही जुमले में प्राचीन भारत की विशेषताओं को रेखांकित किया था – प्राच्य स्वेच्छाचारिता और आधुनिक हिंदू मार्क्सवादियो ने उसी मिल को अपना आदर्श बना कर प्राचीन भारत का इतिहास लिखा और आज तक, यह सिद्ध हो जाने के बाद भी, कि जेम्स मिल कंपनी के हितों के लिए गोरी जाति की प्रतिष्ठा के लिए, और अपने को दूसरों से अलग दिखाने के लिए, किसी सीमा तक आगे बढ़ सकता था और उसकी इसी निष्ठा के कारण, उसे कंपनी में भारतीय मामलों के सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था, उसी का अनुसरण करते रहे।
इतिहास का वर्तमान से गहरा रिश्ता है। वर्तमान के अनुभवों से हम इतिहास को समझते हैं और इतिहास के विश्लेषण से वर्तमान को समझते हैं।
ऐसी स्थिति में. हिंदू और हिंदुत्व के प्रति मार्क्सवादी परहेज और सोनिया संचालित कांग्रेस के हिंदुत्व विरोध को समझना जरूरी हो जाता है। क्या इसका कारण यह नहीं है कि हिंदू संगठन वनांचलों से लेकर पिछड़े वर्ग तक ईसाइयत के प्रचार और धर्मांतरण अभियान में बाधक बन रहे हैं? आशंका मेरी है। उत्तर आप को तलाशना है। मुझे पता चले तो कायल होने पर मैं अपने विचारों में परिवर्तन करूंगा।
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[1] The Classical Utilitarians, Jeremy Bentham and John Stuart Mill, identified the good with pleasure, so, like Epicurus, were hedonists about value. They also held that we ought to maximize the good, that is, bring about ‘the greatest amount of good for the greatest number’.
[2] मुझे यह समझने में कठिनाई होती रही है कि यह जेम्स स्टुअर्ट मिल है या उनके पुत्र जान स्टुअर्ट मिल, परंतु मिल के ओरिएंटल डेसपोटिज्म ( प्राच्य प्राधिकारवाद) की अवधारणा जेम्स स्टुअर्ट मिल की थी और इसे भारतीय इतिहास की मिल की समझ और इस मुहावरे के साथ मार्क्स ने अपना लिया था. इसलिए मानना होगा कि जेम्स मिल ही थे।